अकबर का सूरत अभियान उसके राजनीतिक जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इस अभियान के बाद लगभग सम्पूर्ण गुजरात मुगल सल्तनत के अधीन हो गया। इस अभियान में अकबर ने अपने विश्वस्त सेवक हम्जाबान की जीभ कटवा ली।
अकबर (AKBAR) ने ई.1572 में गुजरात के लिए अभियान किया। अब तक उसने अहमदाबाद (AHMEDABAD), साम्बे (SAMBE), खंभात (KHAMBHAT), चम्पानेर (CHAMPANER) तथा बड़ौदा (BARODA) आदि नगर, किले एवं बंदरगाह अपने अधीन कर लिये थे और इस समय वह बड़ौदा (BARODA) में डेरा डाले हुए था। जब इस इलाके पर पूरी तरह अधिकार कर लिया गया, तब वह बड़ौदा से सूरत (SURAT) के लिए चल दिया।
अकबर का सूरत अभियान
अबुल फजल (ABUL FAZAL) ने लिखा है कि 11 जनवरी 1573 को शंहशाह ने सूरत (SURAT) से एक कोस की दूरी पर अपना शिविर लगाया। शाही सेना को आया देखकर बागियों की सेना सूरत (SURAT) के किले में सिमट गई। अकबर की सेना ने अपने दूत सूरत (SURAT) के बागी किलेदार हम्जाबान (HAMZABAN) के पास भेजे तथा उससे कहा कि वह बगावत का मार्ग छोड़ दे और शहंशाह के समक्ष समर्पण कर दे।
हम्जाबान (HAMZABAN) ने शहंशाह के दूतों की बात मानने से मना कर दिया तथा शहंशाह की शान में गुस्ताखी करते हुए कुछ कठोर वचनों का प्रयोग किया। इस पर अकबर ने सूरत (SURAT) के किले पर गोलाबारी करने के आदेश दिए। इसके साथ ही अकबर का सूरत अभियान अपने असली रंग में आ गया। अबुल फजल ने लिखा है कि बादशाह का शिविर दुर्ग के इतने पास था कि दुर्ग से छोड़े गए तोपों के गोले और मनजानिक के गोले बादशाह के शिविर पर गिरा करते थे। अबुल फजल लिखता है कि अपने सेवकों के कहने पर बादशाह अपना शिविर छोड़कर पास के जंगल में चला गया किंतु यहाँ भी शिविर की सीमा में गोले एवं पत्थर गिरा करते थे। मुगल सेना भी दो महीने तक सूरत के किले पर गोलाबारी करती रही। मुल्ला बदायूंनी (BADAYUNI) ने लिखा है कि इस किले पर इतनी गोलाबारी की गई कि किले के भीतर से कोई सैनिक मुँह बाहर नहीं निकाल सकता था। जबकि अबुल फजल ने लिखा है कि कुछ लोग बार-बार किले से बाहर निकल कर अकबर के तोपमंचों पर आक्रमण करते थे। अबुल फजल ने लिखा है कि सैफ खाँ (SAIF KHAN) नामक एक मुगल अधिकारी बार-बार दुर्ग के गोलों की सीमा में जाकर लड़ाई करता था जिससे वह बुरी तरह से घायल हो गया।
इस पर किसी दूसरे मुगल अधिकारी ने सैफ खाँ से पूछा— “शहंशाह तुमसे प्रसन्न नहीं है फिर भी तुम बार-बार किले के निकट जाकर अपने प्राण संकट में क्यों डालते हो?”
सैफ खाँ ने उत्तर दिया— “सरनाल की लड़ाई के समय मैं मार्ग भटक कर जाने के कारण युद्ध में भाग नहीं ले सका था। इस कारण मुझे अपना जीवन भार स्वरूप दिखाई देता है। यही कारण है कि अब मैं बादशाह की सेवा करके उस बोझ से मुक्त होना चाहता हूँ।”
मिर्जाओं का विद्रोह और खानेआजम (AZIZ KOKA)
जब अकबर सूरत के घेरे में उलझा हुआ था, उस समय कुछ मिर्जाओं ने पाटन (PATAN, GUJARAT) में तथा कुछ मिर्जाओं ने कालपी (KALPI, UTTAR PRADESH) में उत्पात मचाना आरम्भ कर दिया। इसलिए बादशाह के लिए आवश्यक हो गया कि वह सूरत के घेरे के साथ-साथ, इधर-उधर उत्पात मचा रहे मिर्जाओं का भी दमन करे।
इसलिए बादशाह ने मालवा (MALWA) आदि क्षेत्रों से कुछ सेनाएं और बुलवा लीं तथा उन्हें खानेआजम (AZIZ KOKA) के नेतृत्व में बागी मिर्जाओं का दमन करने का काम सौंपा। खानेआजम अकबर का धाय भाई था। उसका असली नाम अजीज कोका था। अकबर ने उसे खानेआजम की उपाधि दी थी और कुछ समय पहले ही गुजरात का सूबेदार बनाया था।
हम्जाबान (HAMZABAN) का विश्वासघात
अबुल फजल (ABUL FAZAL) लिखता है कि जब अकबर (AKBAR) दो महीने की गोलाबारी के बाद भी सूरत के किले (Surat Fort) पर अधिकार नहीं कर सका तो अकबर ने किले के चारों ओर सुरंगें खुदवानी आरम्भ कीं तथा साबात बनवाना आरम्भ किया ताकि किले को बारूद से उड़ाया जा सके।
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी लिखता है कि शहंशाह ने किले में जाने वाली नहर पर बांध बनवाकर किले के भीतर जल-आपूर्ति बंद करवा दी। जब किले के लोग प्यास से मरने लगे तो किलेदार हम्जाबान (HAMZABAN) ने अपने ससुर मौलाना निजामुद्दीन (NIZAMUDDIN) को अकबर के पास यह संदेश देकर भेजा कि यदि किले के लोगों को क्षमादान दिया जाए तो वे किला शहंशाह को समर्पित करने को तैयार हैं।
अकबर ने मौलाना निजामुद्दीन को अभयदान दिया तथा उससे कहा कि हम्जाबान सहित किसी को तकलीफ नहीं दी जाएगी। इस पर किले के लोगों ने किले से बाहर आकर अकबर के समक्ष समर्पण कर दिया।
हम्जाबान भी अकबर (AKBAR) के समक्ष उपस्थित हुआ। अकबर ने बहुत से लोगों को रस्सियों से बंधवा दिया तथा हम्जाबान की जीभ कटवा दी। यह हम्जाबान के साथ विश्वासघात था क्योंकि अकबर ने उसे अभयदान देने के पश्चात् भी उसकी जीभ कटवाई थी।
निष्कर्ष
यह घटना अकबर के गुजरात अभियान और सूरत के किले (Surat Fort) की घेराबंदी का महत्वपूर्ण अध्याय है। इसमें अबुल फजल और बदायूंनी जैसे इतिहासकारों के विवरण से स्पष्ट होता है कि अकबर ने विद्रोहियों और बागी मिर्जाओं को दबाने के लिए कठोर सैन्य रणनीतियाँ अपनाईं।
✍️ – डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (Third Mughal Jalaluddin Muhammad Akbar) से।




