Sunday, August 17, 2025
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अर्थ – पुरुषार्थ-चतुष्टय (2)

अर्थ रूपी पुरुषार्थ का आशय धन-सम्पत्ति एवं समृद्धि अर्जित करने से है। इसे दूसरा पुरुषार्थ माना गया है। धन के बिना समाज, परिवार एवं व्यक्ति का कार्य नहीं चल सकता किंतु धन में लालसा नहीं रखने को उच्च आदर्श माना जाता था। इस प्रकार भारतीय संस्कृति अर्थार्जन एवं निस्पृह जीवन के बीच संतुलन स्थापित करती है।

ऋग्वैदिक आर्य धन-सम्पत्ति, गौ-अश्व आदि की वृद्धि के लिए देवताओं से प्रार्थना करते थे। अतः अर्थ का अभिप्राय अत्यन्त विस्तृत है। यजुर्वेद की एक ऋचा के अनुसार ‘अर्थ समस्त लोक-व्यवहारों का मूल है।’ इसके बिना मनुष्य के लौकिक एवं पारलौकिक दायित्व सम्पादित नहीं हो सकते। वैदिक ऋचाओं में भी धन की कामना की गई है। शास्त्रों में धन का उपार्जन धर्मानुकूल कार्यों से करने का निर्देश दिया गया है। परिवार के भरण-पोषण तथा उसे समृद्ध एवं उन्नतिशील बनाने में अर्थ रूपी पुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

कौटिल्य ने अपने ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में मानव जीवन में अर्थ की महत्ता को सर्वोपरि मान्यता देते हुए लिखा है कि धर्म और काम दोनों अर्थमूलक ही होते हैं। अर्थात् इन दोनों का अस्तित्त्व अर्थ पर ही निर्भर है। लोक निर्वाह भी अर्थ के माध्यम से हो सकता है। जब ऋषि याज्ञवल्क्य राजा जनक के यहाँ पहुँचे तब जनक ने उनसे पूछा- ‘आपको धन और पशु चाहिए या शास्त्रार्थ और विजय?’

ऋषि याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि दोनों चाहिए। निश्चय ही याज्ञवल्क्य की दृष्टि में धन का भी महत्त्व था। कौटिल्य के अनुसार ‘काम से धर्म और धर्म से अर्थ श्रेष्ठ समझना चाहिए।’ यद्यपि मनुष्य जीवन में अर्थ की प्रधानता अपरिहार्य है किन्तु पुरुषार्थ में स्वीकृत ‘अर्थ’ का आशय धर्मपूर्वक अर्जित अर्थ से है।

महाभारत में कहा गया है कि अर्थ उच्चतम धर्म है। प्रत्येक वस्तु उस पर निर्भर करती है। धन-सम्पन्न लोग सुख से रह सकते हैं। किसी व्यक्ति के धन का क्षय करके उसके त्रिवर्ग (धर्म, काम और मोक्ष) को प्रभावित किया जा सकता है। धन को काम और धर्म का आधार माना गया है। इसी से स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता है। धर्म-स्थापन के लिए धन अनिवार्य है क्योंकि इसी से धार्मिक कृत्य सम्पन्न किए जा सकते हैं।

जो व्यक्ति धन से क्षीण है, वह धर्म से भी क्षीण है, क्योंकि धार्मिक कार्यों में धन की आवश्यकता होती है। धन-विहीन व्यक्ति ग्रीष्म की सूखी सरिता के समान कहा गया है। बृहस्पति-सूत्र में कहा गया है कि धन-सम्पन्न व्यक्ति के पास मित्र, धर्म, विद्या, गुण आदि सब-कुछ होता है जबकि धनहीन व्यक्ति मृतक अथवा चाण्डाल के समान होता है। इस प्रकार अर्थ ही जगत् का मूल है।

अनेक शास्त्रकारों ने धन को जीवन का प्रधान साधन माना है तथा किसी भी स्थिति में धन का जीवन से अलगाव स्वीकार नहीं किया है। धनी व्यक्ति अच्छे कुल और उच्च स्थिति का माना जाता है। वह पण्डित, वेदज्ञ (वेदों का ज्ञाता), वक्ता, गुणज्ञ एवं दर्शनीय माना जाता है। इस प्रकार धन में समस्त गुण समाहित हो जाते है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने मनुष्य को धर्मानुकल समस्त सुखों का उपभोग करने के लिए निर्दिष्ट किया है।

धर्मशास्त्रों में अर्थ-शक्ति की निन्दा भी की गई है। मनु ने लिखा है- ‘जो व्यक्ति अर्थ और काम के प्रति अनासक्त है, उसी के लिए धर्म का विधान है।’ जब धनोपार्जन के साधन दूषित हो जाते हैं, जब अर्थ प्राप्ति के लिए हिंसा का आश्रय लेना पड़ता है, प्राणियों को पीड़ित किया जाता है, दूसरे व्यक्तियों के स्वत्व का अपहरण किया जाता है और शोषण-पद्धति द्वारा अर्थ-संचय की पाप-युक्त प्रवृत्ति उग्र रूप धारण कर लेती है, ऐसा ‘धन’ गर्हित, त्याज्य और अवांछनीय है। पाप से कमाए गए धन के कारण व्यक्ति मदान्ध एवं हिंसक हो जाते हैं। वेदों में ऐसे लोगों को ‘असुर’ कहा गया है। वेदों के अनुसार धर्मानुसार धन अर्जनीय है।

धन के विविध रूप हैं। मुद्रा, स्वर्ण, अन्न, फल, फूल, मेवा, रत्न, हीरा, माण्क्यि, गाय, घोड़ा, हाथी आदि भी धन ही हैं। बुद्धि, विवेक एवं ज्ञान भी धन हैं। वेदों ने ‘पार्थिव-धन’ एवं ‘दैवीय-धन’ की चर्चा की है। अनेक लोग बाह्य धन की अपेक्षा आन्तरिक धन की अधिक चिन्ता करते हैं परन्तु आन्तरिक धन भी बाह्य धन की उपेक्षा नहीं करता, उसे वह अपना सहायक समझता है। इस प्रकार अर्थ मनुष्य जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है और इसीलिए वह पुरुषार्थ की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

यह भी देखें

पुरुषार्थ-चतुष्टय की अवधारणा

धर्म – पुरुषार्थ-चतुष्टय (1)

अर्थ – पुरुषार्थ-चतुष्टय (2)

काम – पुरुषार्थ-चतुष्टय (3)

मोक्ष – पुरुषार्थ-चतुष्टय (4)

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