राजपूत राज्यों का प्रशासन प्राचीन क्षत्रियों की राज्य व्यवस्था के आधार पर स्थपित किया गया था जिसमें धर्म एवं नैतिकता को प्रमुखता दी गई थी किंतु मध्यकालीन भारत में राजपूतों ने मुगलों के अनुकरण पर राजपूत राज्यों का प्रशासन स्थिर किया जिसमें प्रजा के हितों को बहुत कम संरक्षण दिया गया था।
राजपूत शासकों ने दिल्ली के सुल्तानों से अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने हेतु अनवरत संघर्ष किया। इस संघर्ष में बार-बार पराजित होने पर भी वे अपने राज्यों को किसी तरह बनाये रखने में सफल हो गये। तुर्क सुल्तानों की प्रशासनिक व्यवस्था का राजपूत राज्यों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
अकबर के समय में राजपूत राज्य अर्धस्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित हुए। मुगलों के साथ सम्पर्क स्थापित हो जाने पर राजपूत शासकों पर मुगल शासन पद्धति का गहरा प्रभाव पड़ा। 17वीं शताब्दी के अन्त तक राजस्थान के समस्त राज्यों में मुगल शासन प्रणाली का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होने लगा। यद्यपि राजपूत शासकों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी तथापि वे अपने राज्यों में स्वायत्तशासी थे।
राजपूत राज्यों का प्रशासन तंत्र
राजपूत राज्यों की प्रशासनिक संरचना परम्परागत क्षत्रिय शासकों के राज्यों की प्रणाली पर आधारित थी जिसमें पूर्ण विकसित शासक वर्ग मौजूद था। शासन के विभिन्न अंग थे जिनकी अलग-अलग भूमिकाएँ थीं। चूंकि शासन का आधार सैनिक शक्ति था, इसलिये क्राक्तिशाली व्यक्ति, दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों का अतिक्रमण करने में संकोच नहीं करते थे।
राजा
सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक रूप से राज्य की समस्त शक्तियाँ राजा में निहित थीं। वह समस्त राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक एवं सैनिक शक्तियों का केन्द्र बिन्दु था। वह अपने मन्त्रियों, राजदूतों और अन्य उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता था और उनकी सहायता से राज्य का शासन संचालित करता था।
जघन्य अपराधों के लिए दण्ड व्यवस्था करने तथा उल्लेखनीय राजकीय सेवाओं और बलिदान के लिए जागीरें देने अथवा पदोन्नति करने के समस्त अधिकार राजा में निहित थे। युद्ध के समय सेना का संचालन करना वह अपना महत्त्वपूर्ण व गौरवशाली कर्त्तव्य समझता था। राजा, राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था।
दीवानी और फौजदारी के समस्त मामलों में अन्तिम निर्णय उसी का होता था। जनता अपने राजा का सम्मान करती थी और उसे धर्मावतार, श्रीजी, माई-बाप, अन्नदाता आदि सम्मान-सूचक शब्दों से सम्बोधित करती थी। वह उसे ईश्वर की प्रतिनिधि तथा अंश मानती थी।
राज्य का सर्वेसर्वा होते हुए भी राजा पूर्ण रूप से स्वच्छंद अथवा निरंकुश नहीं होता था। उसके अधिकारों को नियंत्रित रखने के लिए अनेक प्रतिबंध थे। उसकी शक्तियों पर परम्परागत नियमों एवं धर्मशास्त्रों का प्रभाव रहता था जिससे उसकी स्वेच्छाचारिता सीमित रहती थी।
यदि राजा अत्याचारी हो जाता तो शासन के विभिन्न तत्त्व उसकी सत्ता को चुनौती देते थे। मन्त्रियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे राजा को प्रचलित नियमों एवं परम्पराओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करें। राजा सामान्यतः जनमत का ध्यान रखता था।
राजपूत राजा अपने धर्म में आस्था रखते हुए अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु बने रहते थे। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने जोधपुर की हवाला बहियों तथा जयपुर के स्याह हजूर के आधार पर लिखा है कि राजस्थान के शासक जिस प्रकार हिन्दू धर्मावलम्बी साधु-सन्तों का आदर करते थे, उसी प्रकार काजियों, मौलवियों, दादू पंथियों, खाखियों, नानक पन्थियों आदि के प्रति उदार थे।
रानी
एक राजा की कई रानियां होती थीं। सबसे पहले ब्याही गई रानी प्रमुख रानी जो कि प्रायः सबसे पहले ब्याही गई रानी होती थी, पट्टरानी अथवा महारानी कहलाती थी। मुगलों के प्रभाव से राजा के रनिवास में रानियों के अतिरिक्त उप-पत्नियां भी होती थीं जिन्हें खवास, पड़दायत तथा पासवान आदि श्रेणियों में विभक्त किया जाता था।
राजा द्वारा सम्मानित रानियों एवं पासवानों का शासन पर बड़ा प्रभाव रहता था। उनके प्रभाव के कारण उत्तराधिकार की परम्परा को भंग कर दिया जाता था। सैनिक संकट के समय रानियाँ अपूर्व साहस का परिचय देती थीं। राजा के अल्पवयस्क होने पर राजमाता राज-प्रतिनिधि के रूप में शासन संचालित करती थी।
जनहित के कार्यों में भी रानियों का बड़ा योगदान रहता था। रानियों के अलावा युवराज व अन्य राजकुमारों का भी राज्य की राजनीति में सक्रिय योगदान रहता था। राजा स्वयं अपने उत्तराधिकारी को शासन का प्रशिक्षण देता था ताकि समय आने पर वह शासन संचालन का उत्तदायित्व संभाल सके।
युवराज
प्रायः राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता था किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण यह परम्परा भंग होने लगी थी एवं राजा अपनी प्रीतपात्री रानी के पुत्र को भी युवराज अथवा राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने लगा था। राजा के जीवनकाल में ही युवराज को वैधानिक अधिकार दे दिये जाते थे।
सामन्त वर्ग
राज्य प्रशासन में राजा तथा राज परिवार के बाद सामन्तों की महत्ता थी। सामन्त प्रायः राजा के कुटुम्ब अथवा कुल के सदस्य अथवा वैवाहिक सम्बन्धी होते थे। सामन्तों के सहयोग के बिना राजा प्रशासन का कार्य नहीं कर सकता था। राज्य की सुरक्षा का दायित्व सामन्तों पर रहता था।
सामंतों को राजा की ओर से जागीरें दी जाती थीं तथा बदले में वे राजा को भू-राजस्व चुकाने के साथ-साथ समय-समय पर वे राज्य की सैनिक सेवा के लिए उपस्थित होते थे। राजधानी से लेकर दुर्ग तथा सीमाओं की देखभाल और सुरक्षा का भार सामन्तों पर रहता था। प्रशासनिक कार्यों के लिये राज्य के उच्च पदों पर भी सामन्तों की नियुक्ति की जाती थी।
सेनाध्यक्ष के पद पर भी सामान्यतः किसी प्रभावशाली सामन्त को नियुक्त किया जाता था। राज्य के थानों और प्रमुख दुर्गों पर थानेदार और किलेदार के रूप में भी सामन्तों की नियुक्ति की जाती थी।
सामन्त अपनी जागीर में अर्द्ध-स्वतन्त्र शासक की भाँति कार्य करता था। जागीर क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था, राज्य प्रशासनिक व्यवस्था का लघु प्रतिरूप था। सामन्तों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने क्षेत्रों में शान्ति एवं कानून व्यवस्था बनाये रखें और अपनी प्रजा को सुखी और समृद्ध बनायें। सामन्त अपने क्षेत्र में कर वसूली का कार्य भी करते थे।
जागीर के कर्मचारी
जागीर के प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए जागीरदार द्वारा कामदार, फौजदार, प्रधान, मुसाहिब, वकील, साणी, दरोगा, कोठारी, तहसीलदार आदि कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती थी। बड़ी जागीरों में प्रधान या मुसाहिब का पद होता था।
कामदार का पद लगभग समस्त जागीरों में होता था। कामदार जागीर के स्तर पर उन समस्त कार्यों को करता था जो राज्य स्तर पर दीवान द्वारा किये जाते थे। दरोगा, खजान्ची (पोतेदार) व तहसीलदार उसके सहयोगी होते थे। गाँव का चौधरी व पटवारी स्थानीय अधिकारी होते थे, जो कामदार को मालगुजारी वसूल करने में सहयोग देते थे और गाँव को व्यवस्थित रखते थे।
जागीर में फौजदार का काम जागीर की सुरक्षा तथा स्थानीय सेना पर नियंत्रण रखना होता था। जागीरों के वकील राजधानी में रहते थे। वे शासक एवं सामन्त के मध्य योजक कड़ी का काम करते थे।
हलका, तहसील एवं गांव
बड़ी जागीरें विभिन्न हलकों एवं तहसीलों में विभक्त रहती थीं। तहसील का अधिकारी तहसीलदार होता था। तहसीलदार के अधीन तफेदार व तोलावटी नामक अधिकारी होते थे। प्रत्येक हलके के प्रशासन के लिए एक प्रधान नियुक्त होता था। इन सब पर एक मुख्य (पाट) प्रधान होता था। जिसका कार्यालय जागीर के मुख्य गाँव में होता था।
जागीर की सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई गाँव होती थी। गाँव में एक पटेल या चौधरी होता था। चौधरी के अतिरिक्त कणवारिया और भांभी भी होते थे। कणवारिया गाँव की फसल पर देखरेख रखता था। भांभी या ढेढ़-थोरी आदि गाँव के चाकर होते थे जो जागीरदार के लिए सन्देशवाहक का कार्य करते थे और गाँव की सफाई आदि रखने का दायित्व भी निभाते थे।
मुत्सद्दी वर्ग
मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बाद राजपूताने के शासकों ने अपने राज्यों में केन्द्रीय सत्ता को सुदृढ़ करने के प्रयास किये। मुगल शासन पद्धति का अनुकरण करते हुए उन्होंने केन्द्र और परगनों में अनेक नये पदाधिकारियों की नियुक्ति की।
केन्द्रीय व स्थानीय स्तर पर नये-नये विभाग व कारखाने खोले गये और अधिकारी पदों के दायित्व का विभाजन कर नई नियुक्तियाँ की गईं। फलस्वरूप राज्यों में प्रशासन का सुचारू रूप से संचालन करने हेतु एक नवीन प्रभावशाली अधिकारी तन्त्र अस्तित्व में आया जो मुत्सद्दी वर्ग के नाम से विख्यात हुआ।
मुत्सद्दी वर्ग के सदस्यों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई। उनमें वर्ग एकता भी दृढ़ होने लगी। शासकों ने इस वर्ग को सशक्त होने दिया, क्योंकि वे स्वकुलीय आधार पर प्रशासन के विच्छिन्न होने से, असन्तुष्ट सामन्त वर्ग को नियंत्रित करने के लिए इस वर्ग की उपयोगिता को समझ गये थे। फलतः राजपूत राज्यों में अब राजा और सामन्तों के अतिरिक्त एक तीसरी शक्ति के रूप में मुत्सद्दी वर्ग का विकास हुआ।
समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण भी मुत्सद्दी वर्ग शक्ति सम्पन्न होता गया। समस्त राजपूत शासक (मेवाड़ को छोड़कर) मुगल मनसबदार के रूप में अपने राज्य से बहुत दूर बादशाह की चाकरी में रहते थे। उसकी अनुपस्थिति में राज्य प्रशासन को चलाने का दायित्व मुत्सद्दियों पर ही रहता था।
इन मुत्सद्दियों को अनेक बार सैनिक दायित्व भी निभाना पड़ता था। इन सब कारणों से मुत्सद्दी वर्ग की शक्ति बढ़ती गई। परन्तु मुत्सद्दी वर्ग राज्य के लिए स्थायी खतरे का कारण नहीं बन सका, क्योंकि इनकी नियुक्तियाँ, पदोन्नतियाँ और सेवा-मुक्ति शासक की इच्छा पर निर्भर थी।
मुत्सद्दी केवल शासक के प्रति उत्तरदायी थे। उनका जनसाधारण में कोई आधार नहीं था। उनके पास कोई निजी सेना नहीं होती थी। उनकी सेवा के बदले जो जागीरें दी जाती थीं, वे सामान्यतः उनके सेवाकाल तक ही सीमित रहती थीं। इसलिए जागीर क्षेत्र में वे अपना स्थायी आधार नहीं बना सकते थे। मुत्सद्दियों की आपसी फूट के कारण भी वे केन्द्रीय शक्ति का विरोध करने की स्थिति में नहीं आ सकते थे।
इस प्रकार राजपूताने में मध्ययुगीन निरंकुश राजतंत्र में अधिकारी तंत्र का उदय हुआ। शासक इसी मुत्सद्दी वर्ग से मन्त्री एवं अन्य पदाधिकारी नियुक्त करता था। राजकीय उच्च पदों पर नियुक्ति करते समय व्यक्ति की योग्यता, अनुभव और निष्ठा को ध्यान में रखा जाता था। प्रधान के पद के अतिरिक्त अन्य पदों पर सामान्यतः गैर-राजपूत जातियों, विशेषकर वैश्य, ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोगों को नियुक्त किया जाता था।
मन्त्रिमण्डल
राज्य के समस्त महत्वपूर्ण कार्यों एवं नीति सम्बन्धी विषयांे पर राजा, राज्य के विभिन्न अधिकारियों से परामर्श करता था। इन पदाधिकारियों से ही मन्त्रिमण्डल का गठन होता था। कहीं-कहीं इन मन्त्रियों का पद वंशानुगत भी हो गया था। इन मन्त्रियों के वेतन व कार्यकाल सम्बन्धी कोई निश्चित नियम नहीं थे।
विभिन्न राज्यों में मन्त्रियों की संख्या भी एक जैसी नहीं थी। उनकी नियुक्ति के तरीके में भी भिन्नता थी। उन दिनों सतत युद्ध की स्थिति बनी रहती थी, इसलिए सैनिक और शासन कार्य का कोई विभाजन नहीं था। मन्त्री, युद्ध काल में सेना का संचालन करते थे।
प्रधान
केन्द्र में राजा के बाद सर्वोच्च अधिकारी प्रधान होता था। वह राजा का मुख्य सलाहकार होता था। वह सैनिक, असैनिक तथा न्यायिक कार्यों में राजा की सहायता करता था। राजा की अनुपस्थिति में राज्य में प्रशासन चलाने का दायित्व उसी का होता था।
मेवाड़ में सलूम्बर के रावत को प्रधान का पद वंशानुगत प्राप्त था जिसे भांजगढ़ कहते थे। मराठों के उपद्रव काल में जब वह महाराणा की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगा तब उसे वंशानुगत प्रधानगी के पद से वंचित कर दिया गया। भूमि के अनुदान पत्रों पर प्रधान के हस्ताक्षर आवश्यक थे।
प्रधान किसी भी जागीरदार को जागीर देने अथवा जब्त करने के लिए राजा से अनुशंसा करता था। युद्ध के समय वह सामन्तों की सेना को जुटाने तथा उसका नेतृत्व करने का दायित्व निभाता था। प्रधान को जयपुर राज्य में मुसाहिब तथा कोटा में फौजदार या दीवान कहते थे। बीकानेर और बून्दी में भी उसे दीवान कहते थे।
कहीं-कहीं प्रधान और दीवान अलग-अलग व्यक्ति होते थे, लेकिन अधिकांश राज्यों में दोनों पदों पर एक ही व्यक्ति नियुक्त होता था। वह राज्य की समस्त प्रशासनिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था और उनके बारे में राजा को सूचना देता रहता था।
दीवान
राजस्थान के राजपूत राज्यों में प्रशासनिक तंत्र का प्रमुख दीवान होता था जो मुख्य रूप से वित्त एवं राजस्व सम्बन्धी मामलों पर नियंत्रण रखता था। वह राज्य की आय में वृद्धि करके विभिन्न खर्चों की पूर्ति करता था। जहाँ प्रधान के पद का प्रावधान नहीं था, वहाँ दीवान ही प्रधान का कार्य करता था। वह राज्य के शासन सम्बन्धी समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी था।
समस्त महत्वपूर्ण राजकीय दस्तावेजों पर दीवान की मुहर लगाई जाती थी। दीवान के पद पर सामान्यतः गैर-राजपूत जाति के व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाता था। राज्य के समस्त पदाधिकारी दीवान के नियंत्रण में कार्य करते थे।
दीवान को आमिल, कोतवाल, अमीन, दरोगा, मुशरिफ, वाकयानवीस, फौजदार आदि को नियुक्त करने का अधिकार था। मारवाड़ में परगनों के हाकिम की नियुक्ति महाराजा द्वारा की जाती थी परन्तु इन नियुक्तियों में दीवान की अनुशंसा रहती थी। राज्य के जमा-खर्च का समस्त कार्य उसके अधीन था। वार्षिक कर, नजराना आदि का विवरण उसके पास रहता था।
राज्य में भूमिकर, चुंगीकर, राहदारी, पेशकश, दण्ड-शुल्क व अन्य आय से सम्बन्धित समस्त कागजात दीवान के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किये जाते थे। बाजार में वस्तुओं के भाव व कीमतों की जानकारी प्रतिदिन दीवान को दी जाती थी। समस्त राजकीय कोठारों, भण्डारों एवं कारखानों पर उसका नियंत्रण रहता था। दीवान उपर्युक्त समस्त जानकारी राजा को देता था।
राजपूत राज्यों में दीवान मुगल शासन प्रणाली के दीवान की भाँति केवल राजस्व विभाग का पदाधिकारी नहीं था अपितु वह न्यायिक, वित्तीय, सैनिक, नागरिक प्रशासन से सम्बन्धित समस्त अधिकारों का उपभोग करता था। राजा की अनुपस्थिति में शासन की बागडोर दीवान के हाथ में रहती थी।
ऐसे समय में दीवान देश-दीवान कहलाता था। उसका कार्यक्षेत्र विस्तृत होने के कारण किसी-किसी राज्य में दो सहयोगी दीवानों की नियुक्ति की जाती थी। उन दोनों में से एक प्रशासन की देखभाल करता था और दूसरा राजस्व सम्बन्धी कार्य करता था। दीवान राजा के अधीन होता था तथा राजा की इच्छाओं की पूर्ति करना उसका मुख्य कर्त्तव्य था।
मुसाहिब
कुछ राज्यों में मुसाहिब का पद अत्यंत महत्वपूर्ण पद होता था। बीकानेर राज्य में इस पद के लिए मुख्त्यार शब्द का प्रयोग होता था। इस पद के साथ सम्मान अधिक और उत्तरदायित्व कम था। इस पद पर नियुक्त व्यक्ति महाराजा का विश्वसनीय सलाहकार होता था। कई बार यह पद मान एवं मर्यादा की दृष्टि से दीवान के पद से भी ऊँचा आँका गया है।
शक्तिशाली दीवान के समय इस पद पर किसी की भी नियुक्ति नहीं की जाती थी। मुसाहिब के कर्त्तव्य के सम्बन्ध में कहीं विस्तृत विवरण नहीं मिलता। मुसाहिब शासक को सलाह देने का काम करता था। बीकानेर राज्य में मुसाहिब सैनिक विभाग का संचालन करता था दयालदास की ख्यात से ज्ञात होता है कि महाराजा स्वरूपसिंह के काल में मुसाहिब सेना का प्रधान सेनापति था।
बख्शी
दीवान के बाद दूसरा प्रमुख अधिकारी बख्शी था। वह मुख्यतः सेना विभाग का अध्यक्ष होता था। वह सेना की रसद व्यवस्था, अनुशासन, सैनिकों का प्रशिक्षण, युद्ध में घायल सैनिकों का उपचार व पशुओं के उपचार एवं उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करता था। वह सेना को वेतन देता था। सैनिकों की नियुक्ति, पद-वृद्धि और पदावनति का विवरण भी रखता था।
राज्य के दुर्गों में किलेदारों और नगर के दरवाजों पर तैनात सिपाहियों के वेतन का प्रबन्ध करना तथा उनकी नियुक्ति करने का कार्य भी बख्शी का होता था। गुप्तचरों का संगठन भी इसी के द्वारा किया जाता था। मुगलकालीन राजपूत राज्यों में कहीं-कहीं तनबख्शी और देश-बख्शी के दो पृथक् पद होते थे।
बख्शी का निकट सहायक नायब बक्शी भी होता था। खबरनवीस, किलेदार, मुशरिफ, हवलदार, दरोगा तोपखाना आदि उसके अधीन होते थे। जोधपुर राज्य में इसे फौज बख्शी भी कहते थे। बख्शी के पद पर सामान्यतः गैर-राजपूत नियुक्ति होते थे।
शिकदार
मुगल शासन प्रणाली के अनुरूप कुछ राजपूत राज्यों में शिकदार पद का सृजन हुआ परन्तु इन राज्यों का शिकदार मुगलों के शिकदार से कुछ भिन्न था। वह एक परगने का मुख्याधिकारी न होकर, नगर कोतवाल के समकक्ष था। तनबख्शी से पूर्व सैन्य विभाग का संचालन शिकदार ही करता था।
मुसाहिब के न होने पर पट्टायतों से सम्बन्धित समस्त कार्य इस पदाधिकारी द्वारा ही सम्पन्न किये जाते थे। जोधपुर राज्य में शिकदार एक प्रकार से नगर कोतवाल था। नगर प्रशासन का समस्त कार्य उसी के सुपुर्द था। मेवाड़ राज्य में शिकदार का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। वहाँ नगर प्रशासन का अधिकारी कोतवाल होता था।
खानसामां
खानसामां का पद दीवान के अधीन था परन्तु इसका राज-परिवार से सीधा सम्बन्ध होने के कारण खानसामां का राज्य में बहुत महत्व था। वह निर्माण, वस्तुओं के क्रय, राजकीय विभागों के सामान की खरीद और संग्रह से सम्बन्धित कार्य करता था।
राजदरबार तथा राजमहल से सम्बन्धी समस्त व्यक्तियों व कार्यों से उसका सम्पर्क रहता था। इस पद पर नियुक्त अधिकारी बहुत ही ईमानदार और राजा का विश्वासनीय व्यक्ति होता था। उसका समस्त राजकीय कारखानों से सीधा सम्बन्ध होता था। उदयपुर राज्य में प्राचीन परम्परा के अनुसार इस पद का नाम पाकाध्यक्ष था। वह राजरसोडे़ का मुख्य अधिकारी था।
वकील
पड़ौसी राज्यों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध बनाये रखने के लिए वकील की नियुक्ति की जाती थी। मुगलकाल में वह शाही दरबार में राजा के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त रहता था और अपने शासक को मुगल दरबार की गतिविधियों से निरन्तर अवगत कराता रहता था। वह अपने राजा के हितों का ध्यान रखता था।
मीर मुंशी
राज्य में कूटनितिक पत्र-व्यवहार की देखरेख के लिए मीरमुंशी का एक अलग विभाग होता था। इस पदाधिकारी की सहायता के लिए एक दरोगा दफ्तरी होता था। आगे चलकर मारवाड़ में मीर मुंशी केवल फारसी में पत्र-व्यवहार करने लगा और वकील पड़ौसी राज्यों में महाराजा का प्रतिनिधित्व करने लगा था।
खजान्ची
खजान्ची खजाने में जमा एवं खर्च की राशि का विवरण रखते थे। मेवाड़ में इस अधिकारी को कोषपति कहते थे। उसके लिए मितव्ययी होना आवश्यक था ताकि वह खजाने की रकम में वृद्धि करता रहे। ईमानदार और विवेकशील होना खजान्ची के प्रमुख गुण माने जाते थे।
अन्य अधिकारी
राज्य में किले का रक्षक या अधिकारी किलेदार कहलाता था। वह किले की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता था। किलेदार अपने पास पर्याप्त सैनिक रखता था। राजा का अत्यन्त विश्सनीय व्यक्ति ही इस पद पर नियुक्त होता था। राज्य का एक अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी ड्योढ़ीदार होता था। महल की सुरक्षा, देखरेख व निरीक्षण का दायित्व उसी पर निर्भर था।
वह राजा से मिलने के लिये आने वाले व्यक्तियों पर दृष्टि रखता था तथा उन्हें राजा से मिलाने की व्यवस्था करता था। राज्य में धार्मिक कार्यों व उत्सवों, त्यौहारों व पर्वों को सम्पन्न करवाने के लिए पुरोहित होता था। पुरोहितों को पड़ौसी राज्यों में संदेश भेजने के लिए भी नियुक्त किया जाता था। पुरोहित का बड़ा सम्मान होता था।
शासक उन्हें कर-मुक्त भूमि व गाँव जागीर में देते थे। धर्म-सम्बन्धी कार्यों में पुरोहित के अतिरिक्त राजव्यास और बारहठ का भी बड़ा महत्व था। राजपूत राज्यों में धर्म व दान सम्बन्धी कार्यों के लिए पृथक् विभाग होता था जिसे धर्मार्थ विभाग (देवस्थान धर्मपुरा) या महकमा पुण्यार्थ कहते थे।
इस विभाग का कार्य मन्दिरों, गरीबों, अनाथों, विधवाओं आदि को राजकीय अनुदान देना था। उदयपुर राज्य में इस विभाग के अध्यक्ष को दानाध्यक्ष, कोटा राज्य में हाकिम पुण्य और जयपुर राज्य में हाकिम खैरात कहते थे।
उपरोक्त अधिकारियों के अतिरिक्त राज्य में छोटे-बड़े कई अधिकारी होते थे। उदाहरणार्थ- दरोगा-ए-डाकचौकी, दरोगा-ए-सायर, दरोगा-ए-फरासखाना, दरोगा-ए- जवाहरखाना, दरोगा-ए-आवदार (खाने-पीने का अधिकारी), दरोगा-ए-शिकारखाना आदि अधिकारी अपने-अपने विभागों का कार्य करते थे। कहीं-कहीं इन्हें हवलदार कहा जाता था। स्थानीय परिस्थितियों एवं विभिन्नताओं के कारण इन पदाधिकारीयों के पदनामों में अन्तर होता था।
राजपूत राज्यों में स्थानीय प्रशासन
राजपूत राज्य परगनों में विभाजित थे। जयपुर में महाराजा मानसिंह के काल में राज्य को परगनों में विभाजित किया गया था। मेवाड़ में 1621 ई. महाराणा कर्णसिंह के काल में परगनों का होना प्रमाणित होता है। क्षेत्रीय प्रशासन व राजस्व वसूली की दृष्टि से किन्हीं-किन्हीं में चीरा व्यवस्था का गठन किया गया था।
दो सौ गाँवों को मिलाकर एक चीरा बनाया गया था। परगनों की इकाईयाँ मुख्यतः वे क्षेत्र थे, जो बीकानेर शासन को मुगल बादशाह की ओर से तनख्वाह जागीर के रूप में प्राप्त हुए थे और बाद में बीकानेर राज्य में मिला लिए गये थे।
विभिन्न परगनों का आकार व विस्तार एक जैसा नहीं था। मारवाड़, मेवाड़ और बीकानेर राज्यों में परगने का मुख्य अधिकारी हाकिम कहलाता था। जयपुर और कोटा राज्यों में उसे क्रमशः फौजदार एवं हवलगिर कहते थे। परगनों के हाकिमों की नियुक्ति सामान्यतः दीवान की सलाह से स्वयं राजा के द्वारा की जाती थी।
हाकिम को विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक, सैनिक, न्यायिक और राजस्व सम्बन्धी कार्य करने पड़ते थे। परगने की सुरक्षा का पूर्ण दायित्व उसी का होता था। वह परगने के सरदारों से सम्बन्ध बनाये रखता था। वह परगने में सामन्तों से राजकीय चाकरी हेतु सवार प्राप्त करने, उनसे वार्षिक कर की रकम वसूलने तथा जनता से नियमित कर वसूली का कार्य करता था।
परगने के मुख्यालय पर हाकिम का कार्यालय होता था, जिसे हाकिम की कचहरी कहा जाता था। हाकिम वहाँ बैठकर फौजदारी और दीवानी कार्य करता था। परगने में चुंगीकर की वसूली के लिए केन्द्र की ओर से सायर दरोगा की नियुक्ति की जाती थी। दरोगा की सहायता के लिए हाकिम, अमीन की नियुक्ति करता था।
भूमिकर वसूली के लिए परगने में कानूनगों नामक कर्मचारी होता था जिसका मुख्य कार्य भूमि-कर की वसूली करना, परगने के कृषिगत उपज का लेखा-जोखा रखना और भूमि सम्बन्धी दस्तावेजों को सुरक्षित रखना था। इन पदाधिकारियों के अतिरिक्त परगने में कारकून, वाकयानवीस, चौकीनवीस, पोतदार आदि कर्मचारी भी हाकिम के अधीन कार्यरत रहते थे। कहीं-कहीं परगने में सैनिक व पुलिस सम्बन्धी कार्य करने के लिए फौजदार नामक अधिकारी होता था।
वह परगने में सुरक्षा सम्बन्धी कार्यों के लिए उत्तरदायी था तथा मालगुजारी की वसूली में अमीन, मालगुजार तथा आमिल को सहयोग देता था। मेवाड़ और आमेर राज्यों में फौजदार का पद अलग होता था। कोटा में हवलगिर, परगने के हाकिम की भाँति कार्य करता था। परगने में चोरों और डाकुओं पर नियंत्रण रखने के लिए थाने होते थे, जहाँ थानेदार अपने निश्चित सिपाहियों के साथ तैनात रहता था। बीकानेर के चीरे और परगनों में चिरायता या हाकिम प्रधान अधिकारी होता था तथा राजस्व वसूली का कार्य आमिल के स्थान पर हवलदार करता था।
राजपूत राज्यों में नगर प्रशासन
कोतवाल: नगर का मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था। राज्यों की राजधानियों के अतिरिक्त परगनों के बड़े-बड़े कस्बों में कोतवाल नियुक्त किये जाते थे। कोतवाल के प्रमुख दायित्व इस प्रकार से होते थे-
(1.) नगर में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना।
(2.) नगर के प्रवेश एवं निकासी द्वारों पर पुलिस सन्नद्ध करना।
(3.) रात्रि गश्त लगाने की व्यवस्था करना।
(4.) पुलिस कार्य के साथ-साथ नगरपालिका प्रशासन का दायित्व संभालना।
(5.) नगर की सफाई और स्वास्थ्य का ध्यान रखना।
(6.) बाजार में मूल्यों, बाटों व माप का निरीक्षण करना।
(7.) लावारिस सम्पत्ति की व्यवस्था करना।
(8.) नगरवासियों व व्यापारियों पर लगे करों की वसूली करना।
(9.) धार्मिक व सार्वजनिक स्थानों का प्रबन्ध करना।
नगर सेठ
राजपूताने के कई राज्यों में नगर सेठ नियुक्त किये जाते थे। नगर सेठ व्यापारिक संस्थानों के संचालन के साथ-साथ राजकीय ट्रेजरी के रूप में भी काम करते थे। एक नगर में एक ही नगर सेठ हो सकता था। यह पद प्रायः वंशानुगत चलता था। मेवाड़ राज्य के प्रत्येक बड़े नगर में नगर सेठ को राजा के द्वारा न्यायाधीश मनोनीत किया जाता था। राज्य में तथा नगर में नगर सेठ का बड़ा सम्मान होता था।
राजपूत राज्यों में ग्राम प्रशासन
राजस्व वसूली की सुविधा के लिए राज्य को परगनों में विभक्त किया जाता था। प्रत्येक परगना तपों (गाँवों का समूह) में विभाजित किया जाता था। प्रशासन की लघुत्तम इकाई मौजा (गाँव) होती थी। पूर्व मध्यकालीन युग में गाँव या गाँवों के समूह पर ग्रामिक होता था जो गांवों की व्यवस्था देखता था।
मुगलों का शासन होने पर ग्रामिक को पटवारी कहा जाने लगा। वह भूमि सम्बन्धी विभिन्न अभिलेख तैयार करता था जिनके आधार पर राजस्व का निर्धारण एवं वसूली होती थी। कनवारिया (खेत का रक्षक), तफेदार (उपज में राज्य के भाग का हिसाब रखने वाला), तोलावटी (उपज को तोलने वाला), साहणे (राज्य का भाग निश्चित करने वाला अधिकारी), चौकीदार (मीणा व बावरी) आदि कर्मचारी पटवारी के सहयोगी होते थे।
कहीं-कहीं हवालदार की नियुक्ति की जाती थी। वह गाँवों में जमाबन्दी के आधार पर करों तथा निश्चित भोग के हिस्से के अनुसार मालगुजारी वसूल करता था। गाँव में प्रशासनिक स्तर पर स्थायी रूप से चौधरी या पटेल होते थे, जिनका मुख्य काम गाँव में शान्ति बनाये रखना तथा कर वसूली में राजकीय अधिकारियों को सहयोग देना था।
इस सेवा के बदले उसे राज्य की ओर से कर-मुक्त भूमि प्राप्त होती थी। उसे लगान में से भी कुछ हिस्सा दिया जाता था। राजधानी तथा परगना आदि मुख्यालयों से आने वाले अधिकारियों एवं जागीरदारों के गांव में आने पर उनके ठहरने तथा भोजन आदि की व्यवस्था चौधरी के द्वारा की जाती थी।
ग्राम पंचायत
ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतें प्रशासनिक कार्य करती थीं। ग्रामीण दैनंदिनी में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। गाँव का मुखिया (चौधरी या पटेल) तथा गाँव के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति, जिनकी संख्या सामान्यतः पाँच होती थी, गाँव की पंचायत के सदस्य होते थे।
गाँव में शान्ति और सुरक्षा बनाये रखना और ग्राम प्रशासन में सहयोग देना पंचायतों के मुख्य कर्त्तव्य थे। पंचायत के समक्ष भूमि सम्बन्धी झगड़े, खेत व गाँव की सीमा के विवाद, चोरी, अपहरण, बलात्कार आदि वाद प्रस्तुत किये जाते थे। पंचायतों के निर्णयों के विरुद्ध परगना अधिकारी, दीवान व राजा के समक्ष अपील की जा सकती थी।
जाति पंचायत
मध्यकालीन राजपूताना राज्यों में जाति पंचायतों का अत्याधिक प्रभाव था। हर जाति की अपनी जाति पंचायत होती थी जिसमंे दूसरी जाति के लोग हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। एक गांव अथवा कुछ गांवों के लिये एक जाति पंचायत होती थी। जाति पंचायतों द्वारा सामाजिक एवं जाति सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया जाता था।
इनके द्वारा विवाह एवं परित्याग सम्बन्धी झगड़े, सामाजिक परम्पराओं की अवहलेना, व्यभिचार एवं कुटुम्बीय झगड़े निबटाये जाते थे। जाति पंचायतों द्वारा अपनाई गई दण्ड-व्यवस्था में प्रायश्चित, क्षमायाचना, अर्थ दण्ड, तीर्थयात्रा द्वारा शुद्धिकरण, न्याति भोज, ग्राम भोज, जाति बहिष्कार, ग्राम बहिष्कार, हुक्का-पानी बहिष्कार आदि दण्ड दिये जाते थे। जाति पंचायतों के निर्णय को राज्य द्वारा मान्यता होती थी। राज्य की ओर से भी जाति सम्बन्धी विवाद जाति पंचायतों को सौंपे जाते थे।
व्यावसायिक पंचायतें
नगरों एवं कस्बों में व्यवसायों से सम्बन्धित पंचायतें होती थीं। इनमें व्यापारियों के लेन-देन, लेखा-जोखा, साझेदारी तथा मुकाते आदि के विवाद निबटाये जाते थे।
पंचायत संस्थाओं का महत्व
पंचायत संस्थाएँ राज्य और प्रजा दोनों के लिए लाभप्रद थीं। इन पंचायतों के माध्यम से सामाजिक नियमों और परम्पराओं की पालना होती थी तथा समाज में अनुशासन बना रहता था। किसी भी जातीय अथवा व्यावसायिक पंचायत के लिए सरकारी मान्यता मिलना गौरव की बात होती थी।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मध्यकाल में राजपूत राज्यों की प्रशासन व्यवस्था प्राचीन क्षत्रिय राज्यों की शासन व्यवस्था पर आधारित थी किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण उसमें अनेक परिवर्तन आ गये थे। राजपूत राज्यों में एक विकसित शासन तंत्र था जो जागीरदारों एवं सामंती व्यवस्था पर आधारित था।
राजा की अपनी सेना न होकर सामंतों की सेना ही राज्य के लिये उपलब्ध होती थी। गाँव से लेकर बड़े नगरों एवं राजधानी में न्याय के लिये भी सुविकसित तंत्र था जो राजा एवं उसके सामंतों एवं मंत्रियों के अधीन काम करता था। शासक के अयोग्य और निर्बल होने पर शासन अव्यवस्थित होने लगता था।
राज्य में नौकरशाही के लिए कोई निश्चित सेवा नियम नहीं थे। राजस्व का अधिकांश भाग राजा और राजपरिवार पर खर्च होता था। सामन्तों का जीवन विलासी था जिससे किसानों एवं विभिन्न कामों में लगे लोगों का शोषण होता था। अधिकांश राजपूत शासक धर्मपरायण थे। गाँवों का शासन स्व-संचालित था तथा ग्राम शासन में सामान्यतः शासक हस्तक्षेप नहीं करता था।
मुख्य आलेख – राजपूत राज्यों का प्रशासन, समाज एवं अर्थव्यवस्था
राजपूत राज्यों का प्रशासन



