पिछली कथा में हम अर्जुन के स्वर्ग में पहुंचने तथा देवताओं से शस्त्र-विद्याएं सीखने के साथ-साथ चित्रसेन गंधर्व से नृत्य एवं गायन विद्या सीखने की चर्चा की थी। इसी बीच एक दिन देवराज इन्द्र ने अर्जुन को स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी की ओर देखते हुए देखा।
इस पर देवराज ने चित्रसेन को आदेश दिया कि वह उर्वशी को अर्जुन की सेवा में भेजे किंतु जब उर्वशी अर्जुन के समक्ष उपस्थित हुई तो अर्जुन ने कहा- ‘देवि! आप गुरुपत्पनी के समान हैं। देवसभा में मैंने आपको निर्मिमेष नेत्रों से अवश्य देखा था किंतु मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं था। आप ही पुरुवंश की आनंदमयी माता हैं। यह सोचकर मैं आपको आनंदित होकर देख रहा था। मरे सम्बन्ध में आपको ऐसी कोई बात नहीं सोचनी चाहिए। आप मेरे पूर्वजों की माता हैं। महाराज पुरुरवा के साथ आप पत्नी रूप में रही हैं।’
यह सुनकर उर्वशी ने कहा- ‘ हे वीर! हम अप्सराओं का किसी के साथ विवाह नहीं होता। हम स्वतंत्र हैं, इसलिए मुझे गुरुपद पर बैठाना उचित नहीं है। आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए तथा मुझ कामपीड़िता पर प्रसन्न होइए।’
अर्जुन ने पुनः कहा- ‘मैं सत्य कह रहा हूँ। जिस प्रकार कुंती, माद्री एवं शची मेरी माताएं हैं, उसी प्रकार आप भी मेरी माता हैं।
पूरे आलेख के लिए देखें, यह वी-ब्लाॅग-
अर्जुन की बात सुनकर उर्वशी क्रोध से कांपने लगी तथा उसने भौंहें टेढ़ी करके अर्जुन को श्राप दिया- ‘अर्जुन! मैं तुम्हारे पिता इन्द्र की आज्ञा से कामातुर होकर तुम्हारे पास आई हूँ। फिर भी तुम मेरी इच्छा पूर्ण नहीं कर रहे हो। इसलिए जाओ, तुम्हें स्त्रियों के बीच नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम सम्मान-रहित होकर नपुंसक के नाम से प्रसिद्ध होओगे।’ इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।
उर्वशी के चले जाने के बाद अर्जुन गंधर्व चित्रसेन के पास गया और उसे सारी घटना कह सुनाई। चित्रसेन ने यह बात इन्द्र से कही। इन्द्र ने अर्जुन को बुलाया तथा प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘पुत्र! तुमने काम को भी अपने वश में कर लिया है। उर्वशी ने तुम्हें जो श्राप दिया है, वह तुम्हारे बहुत काम आएगा। जिस समय तुम तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास में रहोगे, तब तक एक वर्ष तक नपुंसक रूप में रहकर श्राप भोगोगे।’
इन्द्र की बात सुनकर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुआ और वह पूर्ण मनोयोग के साथ गंधर्व चित्रसेन से गायन एवं नृत्यविद्या सीखने लगा। एक दिन महर्षि लोमश देवराज के दर्शनों के लिए देवलोक में आए। उस समय इन्द्र अपनी सभा में विराजमान था। जब लोमश ऋषि ने देवसभा में प्रवेश किया तो वे यह देखकर आश्चर्य-चकित हो गए कि कुंती-पुत्र अर्जुन देवराज इन्द्र के साथ उनके ही सिंहासन पर बैठा हुआ है।
लोमश ऋषि ने मन ही मन विचार किया कि अर्जुन को यह आसन कैसे मिल गया! इसने कौनसा ऐसा पुण्य कर्म किया है, किन देशों को जीता है जिससे इसे सर्वदेववन्दित इन्द्रासन मिल गया है। देवराज इन्द्र ने लोमश के मन की बात जान ली।
इन्द्र ने कहा- ‘ब्रह्मर्षे! आपके मन में जो विचार उत्पन्न हुआ है, उसका उत्तर मैं आपको देता हूँ। यह अर्जुन केवल मनुष्य नहीं है। यह मनुष्यरूप धारी देवता है। मनुष्यों में इसका अवतार हुआ है। यह सनातन ऋषि नर है। इसने इस समय पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया है। महर्षि नर और नारायण कार्यवश पवित्र पृथ्वी पर श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। इस समय निवात कवच नामक दैत्य मदोन्मत्त होकर देवताओं का अनिष्ट कर रहे हैं। वे वरदान पाकर अपने आपे को भूल गए हैं। इसमें संदेह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने जैसे कालिन्दी के कालिय ह्रद से सर्पों का उच्छेदन किया था, वैसे ही वे दृष्टिमात्र से निवातकवच दैत्यों को अनुचरों सहित नष्ट कर सकते हैं परन्तु इस कार्य के लिए भगवान् श्रीकृष्ण से कुछ कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वे महान् तेजपुंज हैं। उनका क्रोध जाग गया तो समस्त संसार ही जलकर भस्म हो सकता है। इसलिए यह कार्य अर्जुन को करना है। अर्जुन निवात कवचों का नाश करने के लिए उनके लोक में जाएंगे। ब्रह्मर्षे! आप पृथ्वी पर जाकर काम्यक वन में रहने वाले दृढ़प्रतिज्ञ धर्मात्मा युधिष्ठिर से मिलिए और कहिए कि वे अर्जुन की चिंता न करें, अर्जुन बिल्कुल ठीक है। उन्हें यह भी कहिएगा कि अर्जुन ने समस्त अस्त्र विद्याएं सीख ली हैं तथा वे दिव्य गायन, वादन एवं नृत्यविद्या में भी प्रवीण हो गए हैं। आप अपने भाइयों के साथ निश्चिंत होकर तीर्थ सेवन कीजिए। इससे आपके सारे पाप-ताप नष्ट हो जाएंगे तथा आप पवित्र होकर राज्य भोगेंगे। हे ब्रह्मर्षे! आप बड़े सामर्थ्यवान् हैं, इसलिए आप पृथ्वी पर विचरण करते समय पाण्डवों का ध्यान रखिएगा।’ देवराज इन्द्र की बात सुनकर महर्षि लोमष पाण्डवों से मिलने के लिए काम्यक वन चले गए।
जिन दिनों अर्जुन स्वर्ग में निवास कर रहा था, उन्हीं दिनों महर्षि वेदव्यास का हस्तिनापुर जाना हुआ। उन्हें अपनी दिव्यदृष्टि से अर्जुन द्वारा देवताओं से दिव्यास्त्र प्राप्त करने की बात पता चल गई। महर्षि वेदव्यास ने राजा धृतराष्ट्र को अर्जुन की उपलब्धियों के बारे में बताया। यह समाचार सुनकर राजा धृतराष्ट्र अपने दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन के लिए चिंतित हुआ।
जब इन्द्र को स्वर्ग में रहते हुए पांच वर्ष का समय बीत गया तब, इन्द्र ने अर्जुन को पुनः अपने भाइयों के पास लौट जाने की अनुमति दे दी। इस पर इन्द्र का सारथि मातलि अर्जुन को गंधमादन पर्वत पर छोड़ गया। उन दिनों अर्जुन के समस्त भाई महारानी द्रौपदी सहित गंधमादन पर्वत पर निवास करते हुए अर्जुन के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब अर्जुन ने देवराज इन्द्र के रथ से उतरकर महाराज युधिष्ठिर के चरण स्पर्श किए तो पाण्डवों एवं महारानी द्रौपदी की प्रसन्नता का पार नहीं रहा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता