Tuesday, July 1, 2025
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पोप का प्राकट्य एवं उसका शक्ति विस्तार (18)

रोम का सेंट पीटर्स लातीनी चर्च आगे चलकर कैथोलिक चर्च के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस चर्च का बिशप लातीनी सम्प्रदाय का प्रमुख माना गया। बाद में बिशप रोम का पोप कहलाने लगा। पोप का अर्थ पापा अर्थात् पिता से था। इस प्रकार रोम में पोप का प्राकट्य हुआ।

ईसाई धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय

ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में ईसा मसीह के विभिन्न शिष्यों द्वारा फैलाए गए ईसाइयत के विचारों के कारण ईसाई धर्म में विभिन्न सम्प्रदाय विकसित हो गए जो आगे चलकर ईसाई धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी बन गए। इन सम्प्रदायों में परस्पर खूनी संघर्ष होते थे। रोम में ईसाई धर्म का लातीनी सम्प्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ। लातीनी सम्प्रदाय के कुछ लोग ईसा मसीह, विभिन्न ईसाई संतों और ईसा की माता मैरी की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करते थे जबकि इसी सम्प्रदाय के कुछ अन्य सदस्य, मूर्ति-पूजा का विरोध करते थे।

रोम के बिशप के प्रभाव में वृद्धि

जब सम्राट कॉन्स्टेन्टीन रोम छोड़कर कुस्तुन्तुनिया चला गया तब रोम के लोगों पर पीटर्स चर्च के बिशप का प्रभाव बढ़ने लगा। जब कॉन्स्टेन्टीन ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तथा ईसाई धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया तब रोम के राजाओं को अनिवार्य रूप से बिशप का सहयोग करना होता था और उसका आदेश स्वीकार करना होता था।

कैथोलिक चर्च एवं ऑर्थोडॉक्स चर्च

कुछ समय बाद रोम तथा कुस्तुन्तुनिया के लातीनी सम्प्रदाय के अनुयाइयों में मूर्ति-पूजा को लेकर परस्पर विरोध इतना बढ़ गया कि अंततः लातीनी सम्प्रदाय के दो टुकड़े हो गए। इस विभाजन के बाद रोम के ईसाई स्वयं को पूर्ववत् लातीनी सम्प्रदाय अथवा कैथोलिक सम्प्रदाय कहते रहे जबकि कुस्तुंतुनिया के ईसाई स्वयं को यूनानी सम्प्रदाय बताने लगे।

रोम के लोगों ने कुस्तुंतुनिया के चर्च को ‘ऑर्थोडॉक्स चर्च’ कहना आरम्भ कर दिया क्योंकि कुस्तुंतुनिया का चर्च, रोम के बिशप द्वारा की जा रही धार्मिक व्याख्याओं को स्वीकार करने को तैयार नहीं था तथा ईसाई धर्म के प्राचीन सिद्धांतों में किसी भी तरह के परिवर्तन को अनुचित मानता था।

रोम में पोप का प्राकट्य

रोम का सेंट पीटर्स लातीनी चर्च आगे चलकर ‘कैथोलिक चर्च’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो अपेक्षाकृत खुले विचारों का स्वामी था। इस चर्च का बिशप, लातीनी सम्प्रदाय का प्रमुख माना गया। बाद में यही बिशप रोम का पोप कहलाने लगा। पोप के नेतृत्व में लातीनी चर्च का प्रभाव उत्तरी और पश्चिमी यूरोप में फैला। पोप का अर्थ ‘पापा’ अर्थात् पिता से था। वह जिन धार्मिक दायित्वों का निर्वहन करता था, उन्हें ‘पापेसी’ कहा जाता था।

धीरे-धीरे पोप का प्रभाव रोमन साम्राज्य में इतना बढ़ गया कि यदि कोई व्यक्ति पोप के आदेश की पालना नहीं करता था अथवा उसके द्वारा की गई धार्मिक व्यख्याओं से हटकर कुछ कहने का प्रयास करता था तो पोप उस व्यक्ति को ईसाई संघ से बाहर का रास्ता दिखा देता था।

चाहे वह व्यक्ति कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो अथवा किसी राज्य का राजा ही क्यों न हो! ऐसे राजा को धर्म में पुनः प्रवेश करने के लिए भारी प्रायश्चित करना होता था तथा पोप को भारी धन देना पड़ता था। कुछ समय बाद पोप स्वयं को इतना शक्तिशाली समझने लगा कि अवसर मिलने पर कुस्तुंतुनिया के सम्राट को भी चुनौती देने लगा।

कुस्तुंतुनिया में पात्रिआर्क का प्राकट्य

संभवतः कुस्तुंतुनिया के सम्राटों के बढ़ावा देने से ही रोमन कैथोलिक चर्च के मुकाबले में कुस्तुंतुनिया के चर्च का प्राकट्य हुआ ताकि रोम के पोप के प्रभाव को कम किया जा सक। इसे यूनानी सम्प्रदाय भी कहा जाता था जिसका प्रमुख केन्द्र कुस्तुन्तुनिया में रहा। यह चर्च पूर्वी यूरोप के देशों में फैल गया। ऑर्थोडॉक्स चर्च का बिशप अथवा पूर्वी ईसाइयों का धर्म-अध्यक्ष पात्रिआर्क कहलाने लगा। पात्रिआर्क के रहते रोम का पोप, कुस्तुंतुनिया के सम्राट के विरुद्ध कोई धार्मिक कार्यवाही नहीं कर सकता था, न उसे धर्म से बाहर का रास्ता दिखाकर सम्राट के पद से हटाने का साहस कर सकता था।

एनक्वीजिशन

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चूंकि ईसाई धर्म का उदय ईसा मसीह की मृत्यु के बाद हुआ तथा उनके शिष्यों को भी बहुत दिनों तक शासन की दृष्टि से छिपकर रहना पड़ा, इसलिए ईसाई धर्म के आरम्भ में इसके निश्चित दार्शनिक विचारों, सिद्धांतों, नियमों एवं परम्पराओं का निर्माण नहीं किया जा सका। जैसे-जैसे इस धर्म के अनुयाइयों की संख्या बढ़ी, वैसे-वैसे उनमें वैचारिक एवं सैद्धांतिक मतभेद उत्पन्न होने लगे। रोमन कैथोलिक चर्च ने यह घोषणा की कि ईसाई धर्म के तात्विक विवेचन एवं व्याख्याओं का अधिकार केवल पोप के पास है। यदि पोप से हटकर कोई व्यक्ति ईसाई धर्म की दार्शनिक व्याख्याएं प्रस्तुत करता है, तो वह मान्य नहीं होंगी। ऐसा करने के पीछे मुख्य धारणा यह थी कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो ईसाई धर्म में तरह-तरह के विचार पनप जाएंगे जो धर्म के मूल स्वरूप को धूमिल कर देंगे। धर्म के पवित्र स्वरूप को बचाए रखने के लिए एक कानूनी संस्था का निर्माण किया गया जिसे ‘एनक्वीजिशन’ कहा गया। यह एक तरह का धार्मिक न्यायालय था। इसका कार्य धार्मिक अविश्वास को रोकना तथा धर्म के सम्बन्ध में मनमाने विचार फैलाने वालों को दण्ड देना था। पहले यह संस्था फ्रांस में स्थापित हुई और उसके बाद इटली, स्पेन पुर्तगाल जर्मनी इत्यादि में फैल गई।

जब कुछ लोग अपनी मर्जी के मुताबिक धार्मिक एवं दार्शनिक व्यखयाएं करने एवं अपने स्वतंत्र विचार प्रकट करने से बाज नहीं आए तो ‘एनक्वीजिशन’  नामक संस्था के विधानों में कठोरता आती चली गई।

धीरे-धीरे यह संस्था इतनी कठोर हो गई कि किंचित्-मात्र और महत्त्वहीन स्वतंत्र विचारों के लिए भी यह संस्था लोगों को जीवित ही जला देती थी। इस न्यायालय ने सैंकड़ों स्त्रियों को चुड़ैल घोषित करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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