Sunday, August 24, 2025
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संगम साहित्य

संगम साहित्य से तात्पर्य पांड्य-शासकों द्वारा संरक्षित विद्वत्-परिषद् के साहित्यकारों द्वारा तीन अलग-अलग सम्मेलनों में तमिल भाषा में रचे गए साहित्य से है। इतिहासविद् संगम साहित्य की तुलना ग्रीस और रोम के गौरव-ग्रंथों तथा यूरोपीय पुनर्जागरण काल के साहित्य से करते हैं।

कुछ विद्वान संगम युग को तमिलों का स्वर्ण-युग मानते हैं। निश्चय ही तमिलों के इतिहास में संगम युग अनूठा है। दक्षिण भारत के अनेक स्थलों से प्राप्त पुरातात्त्विक स्रोत संगम युग के लोगों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों पर प्रकाश डालते हैं किंतु इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी उस युग के बहुमूल्य संगम-साहित्य से प्राप्त होती है।

संगम साहित्य का रचनाकाल

संगम साहित्य के रचना-काल के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार संगम साहित्य ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य तक लिखा गया। एम. अरोकिया स्वामी के अनुसार संगम साहित्य में सम्मिलित ग्रंथ ‘तोलक्कापियम’ के लेखक ‘तोल्कापिप्यर’ ईसा पूर्व चौथी अथवा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में हुए। अतः संगम साहित्य की रचना इसी काल में आरम्भ हुई होगी।

संगम साहित्य की रचना के आधार पर के. ए. एन. शास्त्री संगम युग की अवधि ई.100 से ई.250 तक मानते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इस साहित्य का संकलन ई.300 से ई.600 के काल में हुआ किंतु यह निर्विवाद है कि इस साहित्य का अंतिम संकलन ई.600 अथवा उसके आसपास हुआ। इस साहित्य का सृजन एवं संग्रहण पांड्य शासकों द्वारा मदुरै में आयोजित तीन ‘सम्मेलनों’ के दौरान हुआ जिन्हें ‘संगम’ कहा जाता है।

संगम साहित्य की रचना

अलग-अलग पांड्य शासकों द्वारा अलग-अलग काल में बुलाए गए तीन साहित्य-सम्मेलनों में भाग लेने के लिए दक्षिण भारत के अनेक ख्यातिनाम लेखक, कवि एवं चारण दूर-दूर से मदुरै आए। इन सम्मेलनों को ‘संगम’ और इन सम्मेलनों में रचित साहित्य को ‘संगम साहित्य’ कहा गया। संगम साहित्य अनेक वीरों और वीरांगनाओं की प्रशंसा में रचित उच्चकोटि की अनेक छोटी-बड़ी कविताओं का संग्रह है। ये कविताएँ धर्मसम्बन्धी नहीं हैं।

साहित्य का विशाल भण्डार

संगम साहित्य अपने मूल रूप में साहित्य का विशाल भण्डार रहा होगा। जो संगम-साहित्य आज उपलब्ध है वह उसका एक हिस्सा भर ही है। संगम साहित्य निम्नलिखित संकलनों में उपलब्ध है- नरिनई, कुरुन्दोहई, ऐन्गुरुनुरु, पत्तुप्पत्त, पदिटुप्पतु, परिपाड़ल, कलित्तोहई, अहनानुरु और पुरनानुरू। संपूर्ण संगम साहित्य में 473 कवियों की 2,289 रचनाएं हैं। इन कवियों में से 102 अनाम कवि हैं तथा शेष तमिल के विख्यात साहित्यकार हैं।

संगम साहित्य में 30,000 पंक्तियों की कविताएं हैं। इन्हें आठ संग्रहों में संकलित किया गया, जिन्हें ‘एट्टूतोकोई’ कहा गया। इनके दो मुख्य समूह हैं- पाटिनेनकिल कनाकू (18 निचले संग्रह) और पत्त ूपत्तू (10 गीत)। पहले समूह को दूसरे से अधिक पुराना और अधिक ऐतिहासिक माना जाता है। संगम साहित्य का सबसे प्राचीनतम ग्रंथ ‘तोलक्कापियम’ है। यह तमिल-व्याकरण और काव्य का ग्रंथ है।

तीन संगमों की परंपरा

पांड्य शासकों द्वारा कुल तीन संगम आयोजित किए गए थे किंतु पहले दो संगमों के बारे में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है और उनमें जिस साहित्य का सृजन हुआ उसका भी कुछ पता नहीं। तीसरे संगम के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है। यह संगम पांड्यों की राजधानी मदुरा में हुआ। इस सम्मलेन में तमिल कवियों ने पर्याप्त संख्या में हिस्सा लिया होगा।

इरैयानार अहप्पोरुल के अनुसार ये संगम 9,990 वर्ष तक चलते रहे तथा इनमें 8,598 विद्वान सम्मिलित थे। अधिकांश विद्वान् संगमों की इस अवधि को सही नहीं मानते। उनके विचारानुसार इतनी लम्बी अवधि संभवतः संगम साहित्य को प्राचीनता की गरिमा और महत्ता प्रदान करने के लिए ही बताई गई होगी।

संत अगस्व्यार संगम परम्परा के प्रवर्तक थे। अहप्पोरुल की टीका से तीनों संगमों की अनुक्रमिक व्यवस्था और उनके अंतरालों के बीच के जल-प्लावनों की भी जानकारी मिलती है। ये संगम अथवा विद्वत्परिषदें 197 पांडय राजाओं द्वारा संरक्षित थीं। परंपरागत मतानुसार तीन अनुक्रमिक संगमों में प्रथम दो प्रागैतिहासिक काल के हैं। सभी तीनों संगम पांडयों की राजधानी में आयोजित किए गए।

चूंकि राजधानी समय-समय पर बदलती रहती थी अतः प्रथम संगम का मुख्यालय पुराना मदुरै था और दूसरा संगम कपाटपुरम् में आयोजित किया गया। अनुक्रमिक जल-प्लावनों में ये दोनों केन्द्र समुद्र द्वारा नष्ट कर दिए गए। तीसरा संगम आधुनिक मदुरै में आयोजित हुआ था। तृतीय संगम की तिथि अन्य संगमों की तिथियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक प्रतीत होती है। यह तिथि ईसा की प्रथम दो शताब्दी और संभवतः ईस्वी सन् के प्रारंभ के तत्काल पूर्व की सदी मानी जाती है।

तोल्कापिप्यर का काल द्वितीय संगम युग में माना जाता है। तीसरा संगम युग भारत-रोम के तत्कालीन शाही रोम के साथ व्यापार के काल से मेल खाता है। यह काल-निधार्रण उस समय के ग्रीक लेखकों के विवरण में उपलब्ध साक्ष्यों पर आधारित है। भूमध्य सागरीय प्रदेशों और तमिल क्षेत्र के बीच समुद्रपारीय व्यापारिक गतिविधियों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। यह संगम साहित्य से भी प्रमाणित होता है।

संगमों की तुलना आधुनिक युग के यूरोप में फ्रेंच अकादमी से की जा सकती है जिसका लक्ष्य भाषा की शुद्धता और साहित्यिक स्तर को बनाए रखना था। आरंभ में संगम में नामांकन सहयोजन से होता था, किंतु आगे चलकर यह भगवान शिव, जो इस महान संस्था के स्थायी अध्यक्ष थे, की चमत्कारी युक्ति से होने लगा।

संगम साहित्य की भाषा

दक्षिण भारत की सर्वाधिक प्राचीन भाषा संभवतः तमिल थी। बाद में स्थानीय बोलियों के मिश्रण से तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ भाषाएँ भी अस्तित्व में आईं। वैदिक संस्कृति से सम्पर्क के बाद दक्षिण की भाषाओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्द अपनाए गए और ई.पू. तीसरी शताब्दी में 44 वर्णों पर आधारित एक लिपि का विकास किया गया।

संगम साहित्य इसी लिपि में लिखा गया। पुरातत्वविदों को 75 से भी अधिक ब्राह्मी लिपि (जो बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है) में लिखे अभिलेख मदुरा और उसके आस-पास की गुफाओं में प्राप्त हुए हैं। इनमें तमिल के साथ-साथ प्राकृत भाषा के भी कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है। सुदूर दक्षिण के जन जीवन पर पहले-पहल संगम साहित्य से ही स्पष्ट प्रकाश पड़ता है।

संगम साहित्य के प्रमुख महाकाव्य

संगम साहित्य में तिरूवल्लूवर जैसे तमिल संतों की कृति ‘कुराल’ उल्लेखनीय है जिसका बाद में अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। ‘कुराल’ को तीन भागों में बांटा गया है। पहला भाग महाकाव्य, दूसरा भाग राजनीति और शासन तथा तीसरा भाग प्रेम विषयक है। ‘शिलाप्पदीकारम’ तथा ‘मणिमेकलई’ नामक दो महाकाव्य भी हैं। जिनकी रचना लगभग छठी शताब्दी ईस्वी में की गई। पहला महाकाव्य तमिल साहित्य का सर्वाेत्तम रत्न माना जाता है। यह एक प्रेमगाथा पर आधारित है।

दूसरा महाकाव्य मदुरै के अनाज व्यापारी ने लिखा। दोनों महाकाव्यों में दूसरी से छठी शताबदी ईस्वी तक के तमिल समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक वर्णन हुआ है। ईसा की प्रारंभिक सदियों में तमिलनाडु के लोगो के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य ही एकमात्र प्रमुख स्रोत है। इस साहित्य में व्यापार और वाणिज्य के बारे में प्राप्त तथ्यों की पुष्टि उसकी विदेशी विवरणों तथा पुरातात्विक प्रमाणों से भी होती है।

संगम साहित्य-निकाय

आधुनिक विद्वान ‘संगम साहित्य पद का प्रयोग केवल उन्हीं रचनाओं के लिए करते हैं जो छंदबद्ध हैं, गद्य का जन्म बहुत बाद में हुआ। ‘एत्तुतोगाई’ (अष्टसंग्रह), ‘पत्तुपात्रु’ (दस गीत) और ‘पतिने किल्कनक्कु’ (अष्टादश लघु कृतियाँ), आदि काव्य इसी क्रम में ई.150-250 की अवधि में रचे गए हैं। पंचमहाकाव्य- जीवकचिंतामणि, सिलप्पादिकरम, मनिमे कलाई, वलयपाथी और कुंडल केशी बहुत बाद में रचे गए।

इनमें से अंतिम दो महाकाव्य अब उपलब्ध नहीं हैं। शेष तीन महाकाव्यों में सिलप्पादि करम तथा मनिमे कलाई जुड़वाँ महाकाव्य कहे जाते हैं, क्योंकि वे एकल परिवार- कोवलान (पुहार का धनी सौदागर), कन्नगी (कोवलान की साध्वी पत्नी), माधवी (नर्तकी) जिसके साथ कोवलान विवाहित बनकर रहता था, और इस विवाह से उत्पन्न संतान, मनिमेकलाई की कहानी को ही आगे बढ़ाते हैं।

सिलप्पदिकरम का लेखक ईलांगो आदिगल था जिसे महाकाव्य में तत्कालीन चेर राजा सेंगुत्तुवन का भाई कहा गया है। मनिमेकलाई की रचना सथनार ने मुख्य रूप से तमिलों के बीच बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए की थी। ये काव्य-रचनाएँ तमिलों की सामाजिक, आर्थिक और आर्थिक परिस्थितियों का वर्णन करती हैं और इनके प्रतिपाद्य विषय के केंद्र मदुरै, पुहार (पूंपुहारकावेरी), पटिटनम, वंजि (करुर) और कांची आदि नगर हैं।

उपर्युक्त तीन समूहों के काव्य ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों के भीतर लिखे माने जा सकते हैं किन्तु वर्तमान समय में वे जिस क्रम में संगृहीत और व्यवस्थित हैं वह बहुत बाद का प्रतीत होता है। काव्य की लंबाई उसे बड़े वर्गों में विभाजित करने का मुख्य आधार थी। ‘अष्टसंग्रह’ की कविताएँ तीन से तैंतीस पंक्तियों की हैं, जबकि ‘दशगीत’ की सबसे छोटी कविता 103 पंक्तियों तथा सबसे लंबी कविता 782 पंक्तियों की है। अधिकांश कविताओं के अंत में टिप्पणी भी दी गई है जिनमें कवियों के नाम और उस कविता-रचना की परिस्थितियों का भी उल्लेख है।

‘अष्टादश लघुकृतियों’ में नैतिक और उपदेशात्मक साहित्य है। संगम साहित्य के उपदेशात्मक साहित्य में विश्व-प्रसिद्ध ‘तिरुक्कुरल’ का छंदबद्ध साहित्य भी सम्मिलित है जिसके प्रत्येक छंद में दो से तीन पंक्तियाँ हैं।

वर्तमान में संगम साहित्य में 3 पंक्तियों से लेकर 800 पंक्तियों तक की विभिन्न लंबाई वाले काव्य हैं। इनमें से कुछ रचनाएँ एक ही कवि की मानी गई हैं, जबकि नालादियार जैसी कुछ अन्य रचनाएँ अनेक कवियों द्वारा लिखित मानी जाती हैं। वर्तमान में उपलब्ध संगम काव्य 30,000 से अधिक पंक्तियों में है। ये कुल 473 कवियों द्वारा लिखी गई हैं जिनमें लगभग 50 महिला कवि भी हैं। 102 कविताएँ अज्ञात कवियों की हैं।

इन रचनाओं से प्रकट होता है कि उस समय की संस्कृति बहुत उन्नत थी तथा संगम युग आते-आते तमिल भाषा अत्यंत प्रौढ़ हो चुकी थी। संगम साहित्य की भाषा अवश्य ही अत्यंत प्राचीन है किंतु आधुनिक तमिल भाषियों को उसे समझने में अधिक कठिनाई नहीं होती। विद्वानों ने संगम काव्य को विषय-वस्तु के आधार पर अनेक श्रेणियों में बांटा है किंतु आकार के आधार पर उन्हें दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है- (1.) लघु संबोध-गीति और (2.) लंबी कविताएँ।

इतिहासकारों के लिए छोटी कविताएँ, लंबे गीतिकाव्य से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

संबोध-गीति वचनिकाओं में संगृहीत हैं। ये वचनिकाएँ हैं- अहनानुरु, पुरानानुरु, कुरुंतोगाई, नार्रिनाई, कालितोगाई, परिपादाल, ऐंगुरुनुरु और पतिरुर्पत्तु। इनका संकलन ‘एत्तुतोगाई’ कहलाता है। दस लंबे गीति-काव्य अथवा विवरणात्मक काव्य, जिसे ‘पत्तु पत्तु’ कहते हैं, नौवां समूह माना जाता है। इस संकलन में निम्नलिखित काव्य शामिल हैं-

रुमुरुगारुर्प्पादाई, सिरुपानारुर्प्पादाई, पोरुनारुर्पादाई, पेरुंबनारुर्पादाई, नेदुनालवादाई, कुरिंजिप्पात्रु, मदुराईक्कांजी, पत्तिनाप्पालाई, मुमुल्लाइप्पत्तु और मलाईपादुकादम। इनमें तिरुमुरुगारुर्पादाई भगवान मुरुगन पर भक्ति-काव्य है। सिरु पनारुर्प्पादाई नलिलयाक्कोडन की उदार प्रकृति का वर्णन करता है जिसने चोल राज्य के एक हिस्से पर शासन किया। पेरुं बाना रुज्पदाई तोंदा ईमान इलांतिरैयान और उसकी राजधानी कांचीपुरम का वर्णन करता है।

पोरुनारुर्प्पादाई और पत्तिनाप्पालाई महान चोल राजा कारिकाल का स्तुतिगान करता है। नेदुनालवादाई और मदुराई कांजी के महान पांड्य राजा लालैया लांग नत्रु नेडुन जेलियान का वर्णन करता है। कुरिजिप्पत्रु पहाड़ी और पर्वतीय जीवन का चित्रण करता है, और मलाई पादुकादम नायक नान्नान के साथ-साथ युद्ध में राजा की विजय का उत्सव मनाने और सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए गीत-संगीत की रचना करता है। ये सारी कृतियाँ संगम युग में कवियों की महत्ता को भी दर्शाती हैं।

संगम साहित्य का महत्त्व

संगम साहित्य प्राचीन तमिल समाज की सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक जानकारियों के लिए अत्यंत उपयोगी है। संगम साहित्य ने अपनी पश्चवर्ती साहित्यिक परम्पराओं को अत्यंत प्रभावित किया। दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास के लेखन के लिये संगम साहित्य की उपयोगिता अंदिग्ध है। इस साहित्य में उस समय के चोल, चेर और पाण्ड्य नामक तीन राजवंशों का उल्लेख हुआ है।

संगम साहित्य ही एकमात्र ऐसा साहित्यिक स्रोत है जो सुदूर दक्षिण के जनजीवन पर सर्वप्रथम विस्तृत और स्पष्ट प्रकाश डालता है। संगम साहित्य से दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास की तिथियां नहीं मिलतीं किंतु संगम साहित्य वहाँ के सामजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करता है। इसी साहित्य से पता चलता है कि दक्षिण के तीन प्रमुख राज्य- पांड्य, चोल और चेर परस्पर संघर्षरत रहे। संगम साहित्य से दक्षिण और उत्तर भारत की संस्कृतियों के सफल समन्वय का स्पष्ट चित्र प्राप्त होता है।

यह साहित्य बताता है कि दक्षिण के तीनों राज्यों ने प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उठाते हुए किस प्रकार विदेशी व्यापार का प्रसार किया। उनके व्यापारिक सम्बन्ध कैसे थे, इस बारे में भी हमें यथेष्ट जानकारी देता है। संगम कविताएँ तमिल भाषा की पहली सशक्त रचनाएँ मानी जाती हैं। इन कविताओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों के तमिल भाषा में आत्मसात करने के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।

यह साहित्य इस बात का ज्वलंत प्रमाण देता है कि दक्षिण की द्रविड़ और उत्तर की आर्य संस्कृति ने परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान किया और देश की एक समन्वित संस्कृति प्रदान की जिसे सामान्यतः हिन्दू संस्कृति भी कहा जाता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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