पिछली कड़ियों में हमने ईक्ष्वाकु वंश के जिन राजाओं की कथा कही है, वे सत्युग के राजा थे। राजा धुंधुमार के बाद सत्युग में ईक्ष्वाकु वंश के सात राजा और भी हुए किंतु उनके काल की बड़ी घटनाएं पौराणिक साहित्य में प्राप्त नहीं होती हैं। युवनाश्व (द्वितीय) को सत्युग का अंतिम ईक्ष्वाकु वंशीय राजा कहा जाता है।
यद्यपि विभिन्न पुराणों में ईक्ष्वाकुओं की वंशावलियां अलग-अलग दी गई हैं तथापि हम युवनाश्व को ही सत्युग का अंतिम ईक्ष्वाकुवंशीय राजा मान रहे हैं क्योंकि यह माना जाता है कि युवनाश्व का पुत्र मांधाता त्रेतायुग का पहला ईक्ष्वाकुवंशीय राजा था।
सत्युग को कृत युग भी कहा जाता है तथा कहा जाता है कि गणितीय गणना के अनुसार कृतयुग के बाद द्वापर को, द्वापर के बाद त्रेता को और त्रेता के बाद कलियुग को आना चाहिए था किंतु कृतयुग के समाप्त होते ही द्वापर के स्थान पर त्रेता आ गया।
पुराणों में वर्णित कथाओं में त्रेता से पहले द्वापर के आगमन का कारण यह बताया जाता है कि सतयुग में धर्म रूपी वृषभ चारों पैरों पर मजबूती से खड़ा रहता है जबकि त्रेतायुग में केवल तीन पैरों पर और द्वापर में दो पैरों पर खड़ा रहता है।
कलियुग में धर्म रूपी बैल का एक ही पैर शेष रह जाने के कारण वह चलने में असमर्थ हो जाता है अर्थात् इस युग में धर्म महत्वहीन हो जाता है। इस मान्यता के अनुसार एक महायुग में क्रमशः सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग आते हैं।
चूंकि त्रेता में धर्म रूपी वृषभ चार पैरों के स्थान पर तीन पैरों पर चलता है इसलिए वह लंगड़ाते हुए चलता है।
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पुराणों के अनुसार जब तक ब्रह्माजी का दिन रहता है, तब तक पृथ्वी पर सृष्टि रहती है और जब ब्रह्माजी की रात होती है तब महाप्रलय हो जाती है। ब्रह्माजी के इस दिन को 1000 महायुगों में बांटा गया है तथा प्रत्येक महायुग को चार युगों में बांटा गया है जिन्हें सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग कहा जाता है।
त्रेता युग मानव सृष्टि का द्वितीय युग है। इस युग में भगवान श्री हरि विष्णु के पाँचवे अवतार अर्थात् वामन, छठे अवतार अर्थात् परशुराम और सातवें अवतार अर्थात् श्री राम प्रकट हुए थे। यह काल इक्ष्वाकु वंशी राजा मांधाता के जन्म से आरम्भ होता है तथा इक्ष्वाकु वंशी राजा श्रीरामचंद्र की लौकिक लीलाओं के समापन के साथ पूर्ण होता है।
विभिन्न पुराणों के अनुसार सतयुग 17 लाख 28 हजार सौर वर्ष का होता है। त्रेता 12 लाख 96 हजार सौर वर्ष का होता है, द्वापर 8 लाख 64 हजार सौर वर्ष का होता है। अंतिम युग अर्थात् कलियुग 4 लाख 32 हजार सौर वर्ष का होता है।
जब द्वापर युग में गंधमादन पर्वत पर महाबली भीमसेन हनुमानजी से मिले तो हनुमानजी ने भीमसेन को बताया कि सबसे पहले सतयुग आया, उस युग में मनुष्य के मन में जो भी कामना आती थी वह पूर्ण हो जाती थी, इसलिए उसे क्रेता युग और सतयुग कहते थे। इसमें धर्म की कभी हानि नहीं होती थी। उसके बाद त्रेता युग आया। इस युग में लोग कर्म करके कर्मफल प्राप्त करते थे। फिर द्वापर युग आया जिसमें लोग सत्य एवं धर्म से दूर हो गए और अधर्म का बोलबाला हो गया। इसके समाप्त होने पर कलियुग आएगा जिसमें चारों और अधर्म का साम्राज्य दिखाई देगा और मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलेगा।
पुराणों में मान्याता है कि सतयुग के नायक महाराज मनु हैं। त्रेता के नायक श्री रामचंद्र हैं। द्वापर के नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। कलियुग में भी भगवान विष्णु का एक अवतार होगा, वही इस युग के नायक होंगे।
पुराणों में मान्यता है कि सतयुग में मनुष्य की लम्बाई 32 फुट और आयु 1 लाख वर्ष हुआ करती थी। इस युग का सबसे बड़ा तीर्थ पुष्कर है। जबकि इस युग में भगवान श्री हरि के अवतार मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह और नृसिंह हैं। इस युग में पाप शून्य प्रतिशत और पुण्य 100 प्रतिशत फलीभूत होता है। इस युग में मुद्रा रत्न की होती थी और पात्र स्वर्ण के होते थे। त्रेतायुग में मनुष्य की आयु 10 हजार वर्ष और लंबाई 21 फुट थी। इस युग का तीर्थ नैमिषारण्य और अवतार वामन, परशुराम और श्रीरामचंद्र हैं। इस युग में पापकर्म 25 प्रतिशत थे और पुण्य कर्म 75 प्रतिशत थे। इस युग में मुद्रा स्वर्ण की होती थी तथा पात्र चांदी के होते थे।
द्वापर में मनुष्य की आयु 1 हजार वर्ष और लंबाई 11 फुट बताई गई है। इस युग का तीर्थ कुरुक्षेत्र और अवतार भगवान श्रीकृष्ण हैं। इस युग में पाप कर्म और पुण्य कर्म बराबर-बराबर थे। इस युग की मुद्रा चांदी की होती थी और पात्र ताम्र के होते थे।
कलियुग में मनुष्य की आयु 100 वर्ष और लंबाई 5 फुट पांच इंच बताई गई है। इसका तीर्थ गंगाजी हैं। इसके अवतार बुद्ध एवं कल्कि हैं। इस युग में पाप कर्म 75 प्रतिशत और पुण्य कर्म 25 प्रतिशत होते हैं। इस युग की मुद्रा लोहे की और पात्र मिट्टी के हैं।
पुराणों की मान्यता है कि एक एक युग में एक एक वर्ण का शासन होता है। सतयुग में ब्राह्मणों अर्थात् ऋषि-मुनियों का शासन था। उस समय जप, तप, पूजा-पाठ और वैदिक नियमों का पालन किया जाताथा। त्रेता में क्षत्रिय वंश का शासन हुआ। इस युग में धरती पर युद्धों की भरमार थी। द्वापर में वैश्यों की अधिकता हुई। इस युग में व्यापार एवं वाणिज्य ने खूब वृद्धि की।
कलियुग को शूद्रों का अर्थात् नौकरी करने वालों का युग कहा गया है। कलियुग का वर्णन इन शब्दों में किया जाता है-
दस हजार बीते बरस, कलि में तजि हरि देहि।
तासु अर्द्ध सुर नदी जल, ग्रामदेव अधि तेहि।
अर्थात्- जब कलियुग के दस हजार वर्ष शेष रह जाएंगे तब भगवान विष्णु पृथ्वी छोड़ देंगे। जब पांच हजार वर्ष शेष रह जाएंगे तब गंगाजी का जल पृथ्वी को छोड़ देगा और जब ढाई हजार वर्ष शेष रहेंगे तब ग्राम देवता गांवों को त्याग देंगे।
पुराणों के अनुसार कलियुग में अधर्म इतना बढ़ जाएगा कि चारों ओर पाप और अत्याचार होते हुए दिखाई देंगे। पृथ्वी पर सूर्य की गर्मी बढ़ जाएगी। धरती के समस्त जल स्रोत सूख जाएंगे। शास्त्रों के अनुसार चारों युगों का क्रम अनवरत चलता है और कलियुग के बाद प्रलय होता है। भगवान शिव प्रलय के देवता माने गए हैं और उन्हीं के द्वारा सृष्टि का प्रलय किया जाता है। पूरी सृष्टि का नाश होने के बाद पुनः सृष्टि रची जाती है।