राजपूत राज्यों में समाज भारत के अन्य क्षुत्रों की जनता की तुलना में अधिक परम्परावादी थी। सामाजिक परम्पराओं में परिवर्तन की गति बहुत धीमी थी। राजपूत राज्यों में समाज का शैक्षिक स्तर बहुत निम्न था और लोगों में राजा के विरुद्ध आवाज उठाने को विद्रोह एवं पाप माना जाता था।
राजपूत राज्यों में समाज
मध्यकालीन समाज
भारत का सामाजिक ढांचा परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित था। मध्यकालीन राजपूताने में यह व्यवस्था और अधिक दृढ़ हो गई थी। समाज में जातियों का महत्त्व उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों एवं व्यवसायों पर निर्भर करता था।
युद्ध, पूजा-पाठ एवं व्यापार आदि उच्च व्यवसायों को अपनाने वाली जातियों को सामाजिक संगठन में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। परिश्रम आधारित कार्यों में संलग्न जातियों को समाज में निम्न स्थान प्राप्त था। मृत पशुओं की खाल निकालने, मैला ढोने, जूते बनाने आदि हेय समझे जाने वाले कार्यों को करने वाले अछूत समझे जाते थे।
अछूत समझी जाने वाली जातियों को अपने जातीय कर्त्तव्यों का पालन करने अथवा बेगार के मामलों में छूट नहीं मिलती थी। जाति-व्यवस्था को दृढ़ बनाये रखने में सामंती व्यवस्था एवं जाति-पंचायतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। जाति पंचायतें जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिये खान-पान, शादी-विवाह तथा रीति-रिवाजों से सम्बन्धित नियम बनाती थी तथा उनकी पालना करवाती थीं।
जातीय नियमों को भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी। उच्च समझी जाने वाली जातियों अर्थात् ब्राह्मण, राजपूत तथा महाजनों को समाज में आदर के साथ-साथ राज्य द्वारा विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं।
राजपूत राज्यों में समाज – विविध जातियाँ और व्यवसाय
जातियों की विविधता और उनकी विभिन्नताओं के मामले में राजस्थान आज की तरह मध्यकाल में भी एक समृद्ध प्रदेश था। जातियों का निर्माण, उनकी सामाजिक प्रथायें तथा उनके आर्थिक क्रिया कलाप इतिहास में गहराई तक जड़ें जमाये हुए हैं। मध्यकालीन राजपूताने में जाति प्रथा का परम्परागत स्वरूप बना रहा किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण सामाजिक विन्यास में आर्थिक परिवर्तन आने लग गये थे। इस कारण लोगों को परम्परागत जातीय व्यवसायों के साथ-साथ विविध व्यवसाय अपनाने पर विवश होना पड़ा।
ब्राह्मण
परम्परागत सामाजिक ढांचे में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। ब्राह्मण जाति अनेक उप जातियों में विभाजित थी। समाज में नैतिक जीवन का आधार ब्राह्मण ही माना था। अध्ययन-अध्यापन, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पुरोहिताई आदि उनके परम्परागत जातीय पेशे थे। कुछ ब्राह्मण का व्यवसाय मन्दिरों में पूजा-पाठ करना था।
कुछ पढ़े-लिखे ब्राह्मणों ने अध्ययन-अध्यापन को अपना व्यवासय बनाये रखा। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से भूमि अनुदान में दी जाती थी। कई ब्राह्मणों ने कथा-वाचन, ज्योतिष तथा वैदिक अध्यापन को व्यवसाय बना लिया था। ब्राह्मणों के कुछ परिवार, राजकुलों तथा सामन्तों के पारिवारिक पुरोहित बने हुए थे। उन्हें राजगुरू तथा राजव्यास आदि उपाधियों से सम्मानित किया जाता था।
गाँवों में रहने वाले अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि कर्म को अपना लिया था। प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर स्थित नगरों तथा कस्बों के कुछ सम्पन्न ब्राह्मणों ने व्यापार-वाणिज्य तथा साहूकारी का व्यवसाय अपना लिया था। ब्राह्मणों को विभिन्न महत्वपूर्ण राजकीय सेवाओं में भी नियुक्त किया जाता था। उन्हें कूटनीतिक तथा प्रशासनिक दायित्व दिये जाते थे।
विभिन्न व्यवसायों को अपनाने के उपरांत भी ब्राह्मण अपनी पुरानी परम्पराओं को कायम बनाये रखने पर जोर देते थे। इसीलिए हिन्दू प्रजा उन्हें हिन्दू संस्कृति का संरक्षक समझती थी तथा उन्हें पर्याप्त सम्मान देती थी। कुछ ब्राह्मणों ने निर्धनता के कारण भोजन बनाने का कार्य करना आरम्भ कर दिया था। ऐसे ब्राह्मण समाज में कम आदर से देखे जाते थे। वे ब्राह्मण जो किसी के मरने पर भोजन, कपड़ा व दान स्वीकार करते थे, उनका भी ब्राह्मण समाज में नीचा स्थान माना जाता था।
राजपूत
परम्परागत भारतीय समाज में ब्राह्मणों के बाद क्षत्रियों का स्थान आता था। मध्यकालीन राजपूताना में प्राचीन क्षत्रियों का स्थान राजपूतों ने ले लिया। राजवंश से सम्बन्धित होने एवं शासक जाति के सदस्य होने के कारण राजपूतों को समाज में विशेष आदर प्राप्त था। उनके पास वंशानुगत रूप से छोटी-बड़ी जागीरें थीं।
इस काल के राजपूत अपनी मान-मर्यादा के प्रति अत्यधिक सजग थे। राजकीय सेवा, सैनिक सेवा अथवा सामान्तों की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना वे अपने कुल मर्यादा के प्रतिकूल समझते थे। नागरिक प्रशासन एवं सैनिक व्यवस्था में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता था।
पद्मनाभ कृत कान्हड़दे प्रबन्ध में राजपूत जाति के 36 कुलों का उल्लेख है। ये कुल अनेक उपकुलों व परिवारों में विभाजित हो गये थे। राजपूत कुल चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो गया अथवा कितनी ही पीढ़ियाँ बीत चुकी हों, समान गोत्र में विवाह नहीं हो सकता था। एक गोत्र, एक परिवार ही समझा जाता था।
राजपूतों की शादी में लड़की के पिता को टीके व दहेज के रूप में धन देना पड़ता था। इस कारण निर्धन राजपूतों में नवजात कन्या को मार देने की कुप्रथा प्रचलित हो गई।
वैश्य
वैश्यों को समाज में महाजन कहकर आदर दिया जाता था। वाणिज्य कर्म में संलग्न होने के कारण उन्हें बनिया भी कहा जाता था। ब्राह्मणों और राजपूतों की भाँति वैश्य भी अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभाजित थे। राजपूताने में मुख्यतः अग्रवाल, ओसवाल, माहेश्वरी, पोरवाल आदि वैश्य जातियाँ निवास करती थीं।
ये लोग व्यापार-वाणिज्य के साथ-साथ साहूकारी का काम अर्थात् सम्पत्ति गिरवी रखकर उसके बदले में नगद राशि ब्याज पर देते थे। इस कारण वैश्य समुदाय अत्यंत धन-सम्पन्न था। समाज में उसकी अत्यंत प्रतिष्ठा थी। समृद्ध वैश्य गांवों एवं नगरों में तालाब, कुएं, धर्मशाला, प्याऊ, पाठशाला एवं मंदिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार करवाते थे। बहुत से सेठ सदाव्रत एवं दानशाला चलाते थे।
ऐसे प्रतिभा सम्पन्न एवं धन सम्पन्न वैश्यों को प्रशासन में उच्च पद दिये जाते थे। राज्यों में हाकिम, दीवान, मुसाहिब, दरोगा, वकील आदि पदों पर अधिकांशतः वैश्य वर्ग के व्यक्ति ही नियुक्त किये जाते थे। प्रतिष्ठित वैश्य मंत्री युद्धक्षेत्र में सैन्य-संचालन का काम भी करते थे।
राज्य के बड़े-बड़े सामंत अपनी सेनाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में उपस्थित रहकर वैश्य मंत्री के निर्देशन में युद्ध लड़ते थे। वैश्य समुदाय का मुख्य व्यवसाय व्यापार-वाणिज्य तथा रुपयों का लेन-देन करना था। वे मुख्यतः थोक व्यापारी थे और सामान को एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में लाने-ले जाने और क्रय-विक्रय का काम करते थे।
कई वैश्य परिवार खालसा भूमि के राजस्व तथा सायर (चुंगी) की वसूली का इजारा (ठेका) लेते थे तथा साधारण किसान से लेकर शासकों तक को ब्याज पर कर्ज देते थे।
कायस्थ
कायस्थों का समाज में महत्वपूर्ण स्थान था। राजपूताने में भटनागर एवं माथुर कायस्था अधिक प्रभावशाली थे। मुगलों के आगमन के पश्चात् कायस्था कों राजस्व अभिलेख रखने, शासकीय अभिलेख तैयार करने एवं पत्राचार आदि करने के काम में विशेष प्रसिद्धि मिली। वे फारसी के जानकार एवं प्रशासनिक कार्य में दक्ष माने जाते थे।
शासन व्यवस्था पर उनका अच्छा प्रभाव होता था इसलिये उन्हें कई बार युद्धों का नेतृृृत्व करने का भी अवसर दिया जाता था। जोधपुर एवं जयपुर राज्य में भी कायस्थों को विशेष महत्व दिया जाता था। उन्हें राजपूत राज्यों की ओर से दूसरे राज्यों में वकील नियुक्त किया जाता था।
चारण
मध्यकालीन राजपूत शासित समाज में चारणों का भी प्रमुख स्थान था। वे भी काव्य रचना करने, राजा के संदेश वाहक का काम करने, तथा विभिन्न भूमिकाएं निभाने में सिद्धहस्त थे। चारणों को अवध्य माना जाता था। जो राजा चारण का अपमान करता था अथवा हत्या करता था, उसके शासन को पापयुक्त माना जाता था।
चारण का पेट भरना शासन का कर्त्तव्य माना जाता था। इसलिये उन्हें ब्राह्मणों की तरह दान दिया जाता था। चारणों को दान में दी गई जागीर राज्य द्वारा वापस नहीं ली जाती थी। चारणों की बारहठ, वीठू, आशिया, दधवाड़िया, खिड़िया, सिंढायच आदि शाखाएं बहुत प्रसिद्ध थीं।
चारण स्वामिभक्त जाति होती थी जो युद्ध क्षेत्र में राजा के साथ रहकर उसके मनोबल उन्नयन का कार्य करती थी। चारण जाति ने मध्यकाल में विपुल डिंगल साहित्य की रचना की।
भाट
मध्यकालीन समाज में राजपूताने में हर जाति का भाट होता था। वह परिवार की वंशावली लिखता था। विवाह आदि पर्वों पर भाट उस जाति एवं परिवार का विरुद बखानते थे जिसके बदले उन्हें पुरस्कार मिलता था। भाटों का मुख्य व्यवसाय मांग कर खाना होता था किंतु भाट केवल अपने जजमान के यहां से ही मांगकर खाता था।
कुछ भाट किसान हो गये थे तथा कुछ किसान छोटा-मोटा व्यवसाय भी करते थे। मारवाड़ राज्य में पचपद्रा से नमक ले जाने का काम करने वाले भाट व्यापारियों को बल्दिया कहते थे। जजमान इस बात का ध्यान रखता था कि भाट नाराज होकर सामाजिक रूप से अपने जजमान की बदनामी न कर दे।
राव
चारणों, भाटों की तराह राव जाति के लोग भी वंशावलियां लिखते थे। उन्होंने अपनी बहियों के माध्यम से प्रदेश के इतिहास और रीति रिवाजों को लेखनी बद्ध करके उसे सदियों तक जीवित रखा। रावों ने पिंगल भाषा में काव्य कृतियों एवं लोक गीतों की रचनाएं करके प्रदेश के शासक एवं जन सामान्य वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति की।
कृषक जातियाँ
मध्यकाल में राजपूताने की प्रमुख कृषक जाति जाट थी जो कृषि कर्म में अत्यंत निष्णात मानी जाती थी। जाटों से ही विश्नोई अलग हुए। विश्नोइयों का मुख्य कार्य कृषि कर्म ही था। कृषक वर्ग में कुनबी, कलबी, कीर, धाकड़, गूजर, माली, अहीर आदि जातियां भी थीं।
मुसलमानों के आने से पहले भारत की कृषि जातियों में सम्पन्नता थी। मुसलमानों के आक्रमण के बाद किसानों की हालत खराब होने लगी किंतु राजपूताने के कृषक 17वीं शताब्दी तक अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में बने रहे। अठारहवीं शताब्दी में मराठों की लूटमार आरम्भ होने के कारण राजपूताने की कृषि उजड़ने लगी तथा किसानों पर ऋण चढ़ने लगा। अब राजपूताने की कृषक जातियां भी दो आब की जातियों की तरह दुखी हो गईं।
हाथ से काम करने वाली जातियाँ
मध्यकाल में राजपूताने में सैंकड़ों ऐसी जातियां निवास करती थीं जो अपने अलग कार्य के लिये जानी जाती थीं। नाई बाल काटता था। लुहार लोहे के हथियार, उपकरण एवं अन्य सामग्री बनाता था। धुनिया कपास धुनता था। जुलाहा कपड़े बुनता था। छींपा अथवा रंगरेज कपड़े रंगता था।
दर्जी कपड़े सिलता था। खाती लकड़ी का काम करता था। धोबी कपड़े धोता था। कुम्हार मिट्टी के बर्तन, मटके, दिये आदि बनाता था। सुनार सोने-चांदी के आभूषण बनाता था। तेली बीजों से तेल निकालता था। लखारा, मणियार, भडभूंजा, कलाल, मोची, भांभी, मेघवाल, सरगरा आदि जातियां अपना-अपना निर्धारित करती थीं।
आभूषण बनाने वाली जातियाँ
मध्यकाल में लखारा, सुनार तथा मणिहार आदि जातियों ने आभूषणों के निर्माण एवं उनके व्यवसाय का विकास किया। राजस्थान में सोने का उत्पादन नहीं होता था, इसलिये सोना बाहर से मंगावाया जाता था। मेवाड़ की खानों से चांदी का उत्पादन होता था। इस कारण चांदी के आभूषण बहुतायत से बनते थे। आदिवासी लोग ताम्बे, सीप, रंगीन पत्थर एवं मिट्टी से बने मनकों के आभूषण भी पहनते थे।
गायक जातियाँ
राजस्थान में रहने वाली गायक जातियों में कलावंत, ढाढ़ी, मिरासी, ढोली, रावल, डोम, राणा, लंगा, भोपा, सांसी, कंजर, जोगी तथा भवई आदि प्रमुख थीं। कालबेलिया, कठपुतली नट, लखारा तथा भाट आदि जातियाँ भी गाकर एवं नाचकर अपना पेट भरती थीं।
घुमक्कड़ जातियाँ
मध्यकाल की प्रमुख घुमक्कड़ जातियों में बनजारे तथा गाड़िया लुहार थीं। बनजारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर सामान बेचते थे। गाड़िया लुहार जाति राजपूतों से निकली थी। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जब अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार किया तब जो राजपूत वीर युद्ध में काम नहीं आ सके उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया और प्रण किया कि जब तक चित्तौड़ पर पुनः हिंदुओं का अधिकार नहीं हो जाता तब तक चित्तौड़ की भूमि पर पैर नहीं रखेंगे।
अकबर से चित्तौड़ की पराजय का बदला लेंगे। बसे-बसाये घरों में नहीं रहेंगे। जब चित्तौड़ दुर्ग में हिंदुओं का दिया नहीं जलेगा तब तक रात में दिया नहीं जलायेंगे। कुंओं से पानी भरने के लिये रस्सी नहीं रखेंगे तथा पलंग पर नहीं सोयेंगे। जब तक जियेंगे हथियार बनायेंगे। उन्होंने चित्तौड़ की धरती को वचन दिया कि वे फिर आयेंगे।
यही क्षत्रिय गाड़िया लुहार कहलाने लगे। उनका परिवार बैल गाड़ियों पर रहता था तथा। ये लोग दूर-दूर तक घूमते रहते थे। चार सौ वर्ष बीत जाने पर भी गाड़िया लुहार पुनः चित्तौड़ नहीं लौट पाये। गाड़िया लुहार लोहे के छोटे-मोटे उपकरण, कृषि के औजार एवं घरेलू बर्तन बनाकर आजीविका कमाने लगे। आज भी वे यही कार्य कर रहे हैं।
चरवाहा जातियाँ
मध्यकाल में रेबारी, राजपूताने की प्रमुख चरवाहा जाति थी। ये लोग राजा एवं जमींदार के पशु चराया करते थे। कुछ रेबारियों के पास अपने पशु झुण्ड भी थे। भेड़ों एवं ऊँटों के टोले लेकर ये दूर-दूर तक के चारागाहों की यात्रा करते थे। अकाल पड़ने पर मारवाड़ एवं ढूंढाढ़ आदि प्रदेशों से मालवा की ओर चले जाते थे। ये लोग राजा के घोड़े चराने के काम पर भी रखे जाते थे। यह एक उच्च आर्य जाति थी तथा अपनी अलग संस्कृति का निर्वहन करती थी।
आदिवासी जातियाँ
मध्यकालीन राजपूताना में भील, मीणा, गरासिया, काथोड़िया, सहरिया तथा गमेती आदि आदिवासी जातियाँ निवास करती थीं। मेवाड़, आम्बेर, सिरोही, टोंक, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, कोटा, बूंदी तथा झालावाड़ आदि क्षेत्रों में आदिवासी काफी संख्या में निवास करते थे।
राजस्थान का दक्षिणी क्षेत्र विशेष रूप से कोटड़ा, झाड़ौल, सलूम्बर, सराड़ा, खेरवाड़ा तहसीलें और सम्पूर्ण डूंगरपुर राज्य आदिवासियों से भरे पड़े थे। आदिवासी लोग जंगलों और पहाड़ों में छितराये हुए मैदानों में खेती करते थे। कृषि वर्षा पर निर्भर थी। जंगलों से घास, चारा, लकड़ी, गोंद, कंदमूल, तेंदूपत्ते, जानवारों की खाल, आदि एकत्र कर उसे कस्बों और शहरों में लाकर बेचना इनका मुख्य व्यवसाय था।
भील जाति मेवाड़ में सैनिक जाति के रूप में भी प्रख्यात थी। मीणा जाति आम्बेर राज्य में जागीरदार एवं चौकीदार के रूप में विख्यात थी। जमींदार मीणा प्रायः खेती एवं पशुपालन करते थे। कुछ लोग लूट-पाट भी करते थे। बारां जिले के शाहबाद और किशनगंज आदि क्षेत्रों में सहरिया जनजाति परम्परागत रूप से निवास करती थी।
राजपूत राज्यों में समाज – दास वर्ग
प्राचीन आर्यों के समय से भारत में दास प्रथा प्रचलन में थी। मौर्य काल में दासों की स्थिति बहुत ही खराब थी। वे समाज में रहते हुुए भी अन्य नागरिकों की तरह जीवन यापन नहीं करते थे। उनका जीवन कष्टों और अभावों से भरा हुआ था। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणों के पश्चात् यह स्थिति और अधिक विकट हो गई।
मुसलमान आक्रांता किसी भी व्यक्ति, स्त्री अथवा बच्चे को पकड़कर ले जाते थे और मध्य एशियाई देशों में ले जाकर बेच देते थे। जब मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में अपनी राजसत्ता स्थापित की तो देश में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। राजपूताना भी इससे अछूता नहीं रहा।
राजपूताने के दास किसी जाति अथवा वर्ग से सम्बन्धित नहीं थे। न ही वे बाजारों में बेचे अथवा खरीदे गये थे। राजपूताने में दास प्रथा का जन्म शासक परिवारों की अवैध संतानों के रूप में हुआ। राजाओं एवं जमींदारों के महलों में काम करने वाली सेविकाएं इन संतानों की माता हुआ करती थीं।
ये संतानें बड़ी होकर महल में सेवा चाकरी करने लगती थीं जिन्हें दास माना जाता था। इन्हें अछूत नहीं माना जाता था। कुछ प्रतिभाशाली दासों की नियुक्ति किलेदारों एवं दरोगा आदि के पदों पर की जाती थी। दासियांे को डावड़ी कहा जाता था। सुंदर दासियां महलों में अच्छा-खासा प्रभाव रखती थीं।
राजपूत राज्यों में समाज – अछूत समझी जाने वाली जातियाँ
आर्यों ने श्रम आधारित जिस चार वर्णीय सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया था, उस व्यवस्था में मुसलमानों के प्रभाव से बहुत बड़ी विकृति उत्पन्न हुई। निम्न समझे जाने वाले कार्यों को करने वाली जातियां अछूत समझी जाने लगीं। इनमें मैला ढोने वाली, चमड़े का काम करने वाली तथा मृत पशुओं की खाल उतारने वाली जातियां सम्मिलित थीं। इस वर्ग में सम्मिलित जातियों में निरंतर विस्तार होता चला गया।
राजपूत राज्यों में समाज – मुसलमान
मध्यकाल में राजपूताने के विभिन्न राज्यों में मुसलमान भी निवास करने लगे थे। इनमें से कुछ मुसलमान शाही सैनिकों एवं अधिकारियों के रूप में राजपूताने के राज्यों एवं मुस्लिम शासित क्षेत्रों में रहते थे किंतु अधिकांश मुसलमान वे थे जो ना-ना कारणों से हिन्दू धर्म त्यागकर मुसलमान हो गये थे।
मुसलमानों की विभिन्न शाखाएं मध्यकाल में ही विकसित होने लगी थीं जिनमें कायमखानी, मेव, सैयद, पठान, काजी आदि सम्मिलित थे। इनमें भी जातियां बनने लगी थीं। छींपा जाति के मुसलमान भी राजपूताने में बड़ी संख्या में निवास करते थे। मुसलमानों के साथ ही कसाई भी बसने लगे थे।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मध्यकाल का समाज जटिल जातीय व्यवस्था में विभक्त था। हर जाति का अपना काम था। इस काम के आधार पर ही उन्हें समाज में अधिक या कम आदर प्राप्त होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।
हाथ से काम करने वाली जातियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। सतत युद्धों के उपरान्त भी राज्यों की अर्थव्यवस्था संतोषजनक थी किंतु मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद समाज की अर्थव्यवस्था में तेजी से परिवर्तन आया। इस कारण विभिन्न जातियों को अपने परम्परागत कार्यों के साथ-साथ विभिन्न कार्य अपनाने पड़ रहे थे। जाति व्यवस्था को बनाये रखने में सामंती व्यवस्था एवं जातीय पंचायतें प्रमुख भूमिका निभा रही थीं।
राजपूत राज्यों में समाज – सामाजिक जीवन
राजपूत राज्यों में प्राचीन आर्यों द्वारा विकसित पितृ-सत्तात्मक संरचना वाले संयुक्त परिवार निवास करते थे। परिवार का मुखिया अपनी तीन-चार और यहां तक कि पांच-पांच पीढ़ियों के साथ रहता था। भूमि का बंटावारा नहीं किया जाता था इसलिये सब भाई तथा उनकी संतानें मिलकर खेती, पशुपालन एवं विविध कार्य किया करते थे। इसके कारण कुटीर उद्योग एवं पारिवारिक व्यवसाय का प्रचलन था।
सोलह संस्कार
मनुष्य के जीवन के लिये सोलह संस्कार आवश्यक माने जाते थे। इनमें नामकरण, अन्न-प्राशन, चूड़ाकरण (झड़ूला), उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि आदि प्रमुख थे।
विवाह
समाज की संरचना बहुत सरल थी। कन्या का विवाह कम आयु में ही कर दिया जाता था। इसके पीछे धारणा यह थी कि कन्या को अपने पिता के घर में राजस्वला नहीं होना चाहिये। विवाह अपनी ही जाति में होता था किंतु एक ही रक्त वाले स्त्री-पुरुष परस्पर भाई-बहिन समझे जाते थे और उनका परस्पर विवाह नहीं होता था।
इसलिये गोत्र आधारित विवाह किये जाते थे। राजपूतों एवं वैश्यों में बहु-विवाह प्रचलित था। राजपूत एवं अन्य धनी लोग उपपत्नियां भी रखते थे जिन्हें उनकी हैसियत के अनुसार रखैल, पासवान, पडदायत अथवा खवास कहा जाता था। विवाह के अवसर पर कुनबे वालों को भोज दिया जाता था।
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलन में नहीं था। जाट, माली, गूजर, कुम्हार आदि श्रम आधारित जातियों में नाता प्रथा प्रचलित थी जिसमें विधवा स्त्री का विवाह उसके ससुराल पक्ष के अथवा किसी अन्य परिवार के पुरुष से कर दिया जाता था। जाति से बाहर विवाह करने वालों को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था।
मृतक संस्कार
मृतक संस्कार को आवश्यक धार्मिक कर्त्तव्य समझा जाता था। शव को अग्नि में जलाया जाता था। उसकी राख एवं हड्डियों को नदियों में प्रवाहित किया जाता था। मृत्यु भोज देना अनिवार्य था। मृतक की आत्मा की शांति के लिये ब्राह्मणों एवं भूखों को भोजन दिया जाता था। समय-समय पर श्राद्ध कर्म भी किया जाता था।
वस्त्राभूषण
मनोरंजन प्रिय संस्कृति होने के कारण राजपूताने में विविध प्रकार के चटख रंगों के वस्त्र पहने जाते थे। शासक एवं सामंत वर्ग के लोग बड़ी धोती, लम्बी अंगरखी तथा रंग-बिरंगी पगड़ियां पहनते थे। कपड़ों पर सोने-चांदी के तारों एवं कसीदे का काम किया जाता था। मध्यम वर्ग के लोग धोती, अंगरखी, दुपट्टा, साफा या पगड़ी पहनते थे।
निर्धन लोग कमर में ऊँची धोती तथा सिर पर पोतिया बांधते थे। औरतें घेरदार घाघरा, लम्बी आस्तीन वाली कुर्ती तथा ओढ़नी पहनती थीं। मुगलों के सम्पर्क के बाद बहुत से पुरुष जामा, कमरबंद और पाजामा पहनने लगे थे। स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे।
सम्पन्न लोग सोने के, मध्यम लोग चांदी के, निर्धन लोग ताम्बे एवं पीतल के आभूषण पहनते थे। स्त्रियां शुभ अवसरों पर हाथ-पैरों पर मेहंदी लगाती थीं। वे आंखों में काजल, माथे पर बिंदी तथा सिर में मांग लगाती थीं।
आमोद प्रमोद
मध्यकालीन राजपूताना में घरों के भीतर एवं चौराहों आदि पर सार्वजनिक रूप से चौपड़, शतरंज, गंजीफा, चर-भर, आदि खेल खेले जाते थे। कुश्ती, पट्टेबाजी, पतंगबाजी, कबूतरबाजी, मुर्गों की लड़ाई, तैराकी, हाथियों की लड़ाई, भैंसों की लड़ाई, आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
गायन, वादन एवं नृत्य के आयोजन पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर आयोजित किये जाते थे। राजपूत लोग शिकारों का आयेाजन करते थे। झूला झूलना, नाटक आयोजित करना, विभिन्न प्रतियोगिताओं तथा मेलों का आयोजन करना भी मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
खान-पान
समाज में शाकाहार एवं मांसाहार का प्रचलन था। वैश्य एवं ब्राह्मण शाकाहारी थे। अन्य जातियों में प्रायः मांसाहार होता था। दैनिक भोजन में गेहूँ, बाजरा, मक्का, चावल, जौ, चना आदि अनाजों एवं अनेक प्रकार की दालों एवं हरी सब्जियों का प्रयोग होता था। विवाह आदि अवसरों पर अफीम से मनुहार की जाती थी।
शराब का भी प्रचलन था। सात्विक प्रवृत्ति के लोग शराब नहीं पीते थे। भोजन के बाद एवं चौपालों पर हुक्के पीने का प्रचलन था। सामान्य दिनों में दाल-रोटी, सब्जी रायता आदि खाया जाता था। विवाह, त्यौहार एवं अतिथि आगमन पर खीर, पुए, लड्डू, गुलगुले आदि बनाये जाते थे। मुरब्बे, अचार, चटनी आदि भी प्रचलन में थे।
दूध, दही, घी, छाछ एवं मक्खन का प्रयोग आर्थिक स्थिति के अनुसार होता था। मांसाहारी लोग हिरण, बकरा, भेड़ एवं सूअर आदि पशुओं तथा मुर्गा एवं बत्तख आदि पक्षियों का मांस खाते थे। समस्त राजपूताना में हिन्दू राज्य होने गाय का मांस पूरी तरह निषिद्ध था।
धर्म
मध्यकालीन रापजूताने में वैदिक एवं पौराणिक धर्म का प्रचलन था। विष्णु, लक्ष्मी, शिव, सूर्य, दुर्गा, गणेश, हनुमान आदि देवी-देवताओं की पूजा होती थी। दान करना, यज्ञ करना, तीर्थ यात्राओं पर जाना, कीर्तन एवं रतजगा करना श्रेष्ण धार्मिक कर्त्तव्य माने जाते थे। मंदिर, प्याऊ एवं धर्मशाला बनाना, सदाव्रत बांटना, तालाब खुदवाना भी धार्मिक कर्म के रूप में प्रचलित थे।
अमावस्या एवं संक्रांति के अवसरों पर नदियों एवं तालाबों में स्नान करने का महत्व था। समाज में विभिन्न व्रत एवं उपवास भी प्रचलन में थे। वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव एवं शाक्त मत भी प्रचलन में थे। शाक्त लोग देवी को भैंसे एवं बकरे की बलि चढ़ाते थे। शैव धर्म की नाथ शाखा राजपूताने में विशेष रूप से सक्रिय थी।
राजपूताने के विभिन्न राज्यों में जैन धर्म का भी प्रभाव था। विभिन्न तीर्थंकरों के मंदिर बने हुए थे जिनमें पूजा होती थी। लोकदेवताओं की भी पूजा प्रचलन में थी। गोगा, पाबू, हड़बू, रामदेव, मल्लीनाथ, वीर तेजा, मांगलिया मेहा आदि लोक देवताओं की पूजा होती थी तथा उनके जन्मदिन एवं निर्वाण दिन पर मेले लगते थे।
संतों एवं गुरुओं को विशेष आदर दिया जाता था। समाज पर कबीर, दादू, रैदास, मीरां आदि संतों के भजनों का प्रभाव था। रामस्नेही सम्प्रदाय भी प्रसिद्ध हो गया था। मुस्लिम लोग इस्लाम को मानते थे। अजमेर एवं नागौर में सूफियों के बड़े केन्द्र स्थापित हो गये थे।
राजपूत राज्यों में समाज – सामाजिक एवं धार्मिक पर्व
मध्यकालीन राजपूताना में हिन्दुओं के समस्त छोटे-बड़े सामाजिक एवं धार्मिक पर्व मनाये जाते थे। होली, दीपावली, रक्षा बंधन, गणगौर, तीज, दशहरा, अक्षय तृतीया, नवरात्रि, प्रमुख त्यौहार थे। विभिनन त्यौहारों के अवसर पर मेलों का आयोजन किया जाता था। मुसलमानों में ईदुलफितर, ईदुलजुहा, बारा-बफात, मुहर्रम आदि मनाये जाते थे।
राजपूत राज्यों में समाज – सामाजिक बुराइयाँ
मध्यकालीन राजपूताने में सती प्रथा सबसे बड़ी सामाजिक बुराई थी। यह राजपूतों में अधिक प्रचलन में थीं। राजपूतों में पति के मरने पर उसकी पत्नियां प्रायः सती हो जाती थीं। कई बार अग्रवाल आदि वैश्य स्त्रियां भी सती होती थीं। किसी के मरने पर मृत्युभोज आयोजित किया जाता था। दहेज प्रथा किसी न किसी रूप में हर जाति एवं वर्ग में प्रचलित थी।
राजपूत परिवारों द्वारा अपनी पुत्रियों के विवाह के अवसर पर दास-दासी भी दहेज में दिये जाते थे। डाकन-प्रथा का बहुत ही बुरा प्रचलन था। किसी भी आयु की औरत को डाकन घोषित करके उसे जान से मार डाला जाता था। राजपूत जातियों में कन्या-वध का प्रचलन था।
राजपूत परिवारों में विवाह के अवसर पर चारणों, ढोलियों तथा भाटों को त्याग दिया जाता था। इस प्रथा को त्याग-प्रथा कहा जाता था। त्याग प्राप्त करने वाले, अपने जजमानों से झगड़ा करके अधिक से अधिक त्याग प्राप्त करने की चेष्टा करते थे। इस भय के कारण भी कन्या वध अधिक संख्या में होता था।
कुछ लोग लड़कियों से वेश्यावृत्ति करवाने, गृह दासी बनाने के लिये लड़कियों को खरीदते एवं बेचते थे। साधु लोग अपने चेले-चेली बनने के लिये भी लड़के-लड़कियां खरीदते थे। इसे चेला प्रथा कहते थे।



