भक्त रैदास का जन्म काशी के एक चमार परिवार में हुआ। वे रामानन्द के बारह प्रमुख शिष्यों में से थे। वे विवाहित थे तथा जूते बनाकर अपनी जीविका चलाते थे।
भक्त रैदास तीर्थयात्रा, जाति-भेद, उपवास आदि के विरोधी थे। हिन्दू तथा मुसलमानों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानते थे। वे निर्गुण भक्ति में विश्वास रखते थे। रैदास की रचनाओं में ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना स्पष्ट झलकती है।
वैष्णव संतों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला श्री हरि चरणों का अनन्य आश्रय ही भक्त रैदास की साधना का प्राण है। उनके प्रभाव के कारण निम्न जातियों के लोगों में भगवद्-भक्ति में आस्था उत्पन्न हुई। रैदास के शिष्यों ने रैदासी सम्प्रदाय प्रारम्भ किया। लोक मान्यता है कि मीरा बाई उन्हें अपना गुरु मानती थी।
भक्त रैदास की भक्ति भावना व्यापक और गहरी है जो उनके पदों, भजनों और साहित्य से प्रकट होती है। रैदास की भक्ति भावना ईश्वर के प्रति प्रेम, सेवा, समर्पण और ईश्वर में अटूट विश्वास से ओतप्रोत है। उनके लिखे भजन जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय हैं।
भक्त रैदास की भक्ति भावना का मूल तत्व ईश्वर-प्रेम है। अर्थात् वे वैष्णव संतों की प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं। उनकी भक्ति भावना पर समाधि और अद्वैत की मिली-जुली छाया है। उन्होंने सम्पूर्णता की अनुभूति को ध्यान में रखा और एकाग्रता और समाधि की अवस्था में जीवन को आनंदित किया। भक्त रैदास की भक्ति भावना में द्वैत और अद्वैत का सम्मिश्रण है जिसमें ईश्वर दीपक के समान है तो भक्त बाती के समान है। अर्थात् जिस प्रकार बाती दीपक के बिना अपूर्ण है, उसी प्रकार भक्त अपने अराध्य के बिना अपूर्ण है।
मुख्य अध्याय – भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन
भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत
भक्त रैदास



