रुकुनुद्दीन फीरोजशाह की हत्या हो जाने के बाद रजिया अपने मरहूम बाप इल्तुतमिश की इच्छा के अनुसार सल्तनत के तख्त पर बैठी। भारतीय इतिहास में उसे रजिया सुल्तान तथा रजिया सुल्ताना कहा गया है।
रजिया सुल्तान के सिर पर छत्र ताना गया, चंवर ढुलाये गये और उसकी विरुदावली गाई जाने लगी। दिल्ली ने बहुत से राजे-महाराजे, चक्रवर्ती सम्राट और सुल्तान देखे थे किंतु उसकी याददाश्त में यह पहली महिला सुल्तान थी। दिल्ली ने रजिया को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
तुर्की अमीरों द्वारा रजिया को सुल्तान स्वीकार करने के कारण
जिन अमीरों ने आरम्भ में रजिया के उत्तराधिकार का विरोध किया था, उन्हीं अमीरों ने उसे अब सुल्तान स्वीकार कर लिया। ऐसा करने के कई कारण थे-
रुकुनुद्दीन की अयोग्यता
रुकुनुद्दीन फीरोजशाह अयोग्य सुल्तान था। वह शराब पीने के बाद या तो औरतों से घिरा हुआ रहता था या फिर हाथी पर चढ़कर दिल्ली की सड़कों पर सोने की अशर्फियां बांटता फिरता था। शासन के काम में रुचि नहीं लेने के कारण शासन व्यवस्था बिगड़ रही थी।
शाह तुर्कान का निम्न वंश में जन्म
सुल्तान रुकुनुद्दीन की अयोग्यता के कारण शासन का काम उसकी माता शाह तुर्कान के हाथों में था। तुर्कान निम्न समझे जाने वाले वंश में जन्मी थी जिसके अनुशासन में काम करना तुर्की अमीरों को सहन नहीं होता था।
बेगमों तथा अमीरों की हत्या
शाह तुर्कान ने हरम की कुछ बेगमों तथा सल्तनत के अमीरों की हत्या करवाकर चारों ओर असंतोष का वातावरण तैयार दिया था। उसने शहजादे कुतुबुद्दीन को भी आँखें फुड़वाकर उसे मरवा दिया।
रजिया की हत्या का प्रयास
शाह तुर्कान ने शहजादी रजिया की हत्या का प्रयत्न किया। रजिया, मरहूम सुल्तान इल्तुतमिश की प्रिय पुत्री थी। उसी को सुल्तान द्वारा अपना वारिस घोषित किया गया था। उसमें कई गुण थे जिनके कारण इल्तुतमिश के कुछ स्वामिभक्त अमीर रजिया को आदर की दृष्टि से देखते थे। शाह तुर्कान की निकृष्ट चेष्टा से कुछ अन्य अमीरों की सहानुभूति भी रजिया के साथ हो गई।
विकल्प का अभाव
शाह तुर्कान को बन्दी बना लेने के उपरान्त अमीरों के पास इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा था कि वे रुकुनुद्दीन को तख्त से उतारकर रजिया को तख्त पर बैठा दें। अन्यथा रुकुनुद्दीन उन्हें मरवा डालता।
इल्तुतमिश की इच्छा-पूर्ति
शहजादी रजिया को तख्त पर बैठाकर तुर्की अमीर, मुसलमान रियाया के समक्ष यह प्रदर्शित करना चाहते थे कि ऐसा करके मरहूम सुल्तान इल्तुतमिश की इच्छा पूरी की जा रही है। क्योंकि सुल्तान इल्तुतमिश ने रजिया को ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
कमालुद्दीन जुनैदी से अमीरों की ईर्ष्या
बहुत से तुर्की अमीर, वजीर कमालुद्दीन जुनैदी से ईर्ष्या करते थे जो स्वयं को सर्व-शक्ति-सम्पन्न बनाने का प्रयत्न कर रहा था। तुर्की अमीरों को भय था कि यदि रजिया को सुल्तान नहीं बनाया गया तो जुनैदी दिल्ली के तख्त पर अधिकार कर लेगा। अतः अमीरों ने जुनैदी से निबटने के लिये रजिया को दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया।
रजिया सुल्तान की कठिनाइयाँ
यहाँ तक तो सब ठीक रहा था किंतु रजिया के भाग्य की कठिनाइयां अभी समाप्त नहीं हुई थीं। तख्त पर बैठ जाने मात्र से ही कुछ होने-जाने वाला नहीं था। तख्त को बनाये रखना, उसे प्राप्त करने से भी अधिक कठिन था। रजिया का आगे का मार्ग अत्यन्त कठिन था। उसकी प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नलिखित थीं-
रजिया सुल्तान को आंशिक समर्थन
रजिया की पहली कठिनाई यह थी कि उसे केवल कुछ युवा तुर्कों और दिल्ली के सामान्य नागरिकों का सहयोग प्राप्त था। सल्तनत का प्रधान वजीर जुनैदी तथा वे तुर्क सरदार जो रुकुनुद्दीन फीरोजशाह को तख्त से हटा कर अपनी इच्छानुसार सुल्तान चुनना चाहते थे, रजिया का विरोध करने के लिए प्रयत्नशील हो गये। सल्तनत के प्रांतीय शासक भी इन विरोधी अमीरों का पक्ष लेकर नये सुल्तान से विद्रोह करने पर उतर आये।
प्रतिद्वन्द्विता की सम्भावना
इल्तुतमिश के कुछ पुत्र अभी जीवित थे जिनके अनेक समर्थक अमीर भी मौजूद थे। उनके द्वारा रजिया के विरुद्ध विद्रोह किये जाने की पूरी आशंका थी।
राजपूतों के विद्रोह की आशंका
दिल्ली के शासन में आंतरिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होते ही राजपूतों ने अपने खोये हुए राज्य फिर से प्राप्त करने के प्रयास आरम्भ कर दिये तथा रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया।
रजिया सुल्तान का स्त्री होना
तुर्की अमीर, कट्टर सुन्नी थे। उन्हें एक औरत के अधीन रहकर काम करना सहन नहीं था। इसलिये वे रजिया को राजपद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त समझते थे। इब्नबतूता, एसामी, फरिश्ता, निजामुद्दीन, बदायूनीं आदि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी रजिया के स्त्री होने के कारण उसके आचरण को निंदनीय ठहराया है।
इन कठिनाइयों का निस्तारण किये बिना रजिया दिल्ली पर शासन नहीं कर सकती थी। तेरहवीं सदी के तुर्की भारत में रजिया सुल्तान किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। उस युग में कोई स्त्री शायद ही सुल्तान होने जैसा दुस्साहस भरा जोखिम उठा सकती थी। वह युद्ध प्रिय थी तथा उसे शासन चलाने का अच्छा अनुभव था। सम्भवतः पिता की अंतिम इच्छा के कारण भी वह सुल्तान बनने की भावना से परिपूर्ण थी।
उसने अपने नाना तथा पिता के राजदरबार में उपस्थित रहने के दौरान यह अच्छी तरह समझ लिया था कि सुल्तान को किस तरह दिखना चाहिये, किस तरह उठना-बैठना और चलना चाहिये, तथा किस तरह अमीरों, वजीरों और आम रियाया से पेश आना चाहिये। वह राजत्व के इस सिद्धांत को भी समझती थी कि सुल्तान को धीर-गंभीर एवं आदेशात्मक जीवन शैली का निर्वहन करते हुए भी प्रसन्नचित्त, उदार तथा दयालु होना चाहिये। उसमें यह भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई थी कि हुक्म उदूली करने वालों से सख्ती से निबटना चाहिये। सुल्तान का ओहदा, सल्तनत के दूसरे अमीरों से कितना अधिक ऊपर और दिव्य है, इसमें भी वह भली-भांति समझती थी।
सुल्तान बनते ही रजिया ने पर्दे का परित्याग कर दिया। वह स्त्रियों के वस्त्र त्यागकर पुरुषों के सामन कुबा (कोट) और कुलाह (टोपी) धारण करके जनता के सामने आने लगी। इतना ही नहीं, वह पुरुष अमीरों की तरह षिकार खेलने भी जाती।
वह परिपक्व और प्रभावषाली सुल्तान की भांति राजसभा तथा सैनिक शिविर में जाकर राज्य के कार्यों को स्वयं देखने लगी। वह स्वयं सेना का संचालन करने लगी और युद्धों में भाग लेने लगी। उसने अपनी योग्यता तथा शासन क्षमता से समस्त अमीरों एवं जनता को प्रभावित किया।
वह योग्य तथा प्रतिभा-सम्पन्न सुल्तान थी। उसमें अपने विरोधियों का सामना करने तथा अपने साम्राज्य को सुदृढ़़ बनाने की इच्छाशक्ति भी थी। मिनाजुद्दीन सिराज ने रजिया के गुणों की भूरी-भूरी प्रशंसा की है। उसने लिखा है- ”वह महान षासिका, बुद्धिमान, ईमानदार, उदार, षिक्षा की पोषक, न्याय करने वाली, प्रजापालक तथा युद्धप्रिय थी….. उसमें वे सभी गुण थे जो एक राजा में होने चाहिये …… (किंतु स्त्री होने के कारण) ये सब गुण किस काम के थे?