महाबत खाँ का विद्रोह नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ के षड़यंत्रों एवं का परिणाम था। नूरजहाँ ने आसफ खाँ ने महाबत खाँ के लिए ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दीं जिनके कारण महाबत खाँ को बगावत करनी पड़ी।
खुर्रम के विद्रोह के समय खुर्रम का श्वसुर आसफ खाँ चुपचाप विद्रोह की गतिविधियों को देखता रहा। उसने इस विद्रोह में विशेष रुचि नहीं दिखाई ताकि उस पर किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सके परन्तु जब विद्रोह समाप्त हो गया तब आसफ खाँ, महाबत खाँ की जड़ खोदने में लग गया।
इस कार्य में आसफ खाँ को अपनी बहिन नूरजहाँ का भी सहयोग प्राप्त हो गया। नूरजहाँ अपने भाई आसफ खाँ का बड़ा विश्वास करती थी। वह उसकी कूटनीति को समझ नहीं सकी और सरलता से उसके जाल में फँस गई।
यद्यपि महाबत खाँ ने खुर्रम के विरोध का दमन कर साम्राज्य की बहुत बड़ी सेवा की थी परन्तु इस सेवा में ही उसके विनाश का बीजारोपण हो गया। इस समय उसके पास एक विशाल विजयी सेना थी। साम्राज्य में उसकी प्रतिष्ठा तथा उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया और शाहजादा परवेज के साथ उसका गठबंधन हो गया।
यह स्थिति साम्राज्य के लिए खतरे से खाली नहीं थी। किसी भी शक्तिशाली सेनापति का किसी शहजादे के साथ गठबंधन हो जाना भावी विद्रोह की संभावना प्रकट करता था। इस बात की सम्भावना थी कि आगे चलकर महाबतखाँ के उम्मीदवार परवेज, नूरजहाँ के उम्मीदवार शहरियार तथा आसफखाँ के उम्मीदवार खुर्रम के बीच शाही तख्त के लिये संघर्ष हो।
अतः नूरजहाँ तथा आसफखाँ दोनों ने परवेज को मार्ग से हटाने का निश्चय किया। इस कार्य में सफलता पाने के लिये परवेज को महाबतखाँ से अलग करना आवश्यक था। अब्दुर्रहीम खानखाना ने भी इस योजना में सहयोग देना आरम्भ किया।
1625 ई. में महाबत खाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया तथा उसे निर्देश दिये गये कि वह परवेज को गुजरात के गवर्नर खान-ए-जहाँ लोदी के संरक्षण में दे दे। यद्यपि बंगाल की अस्वास्थ्यकर जलवायु के कारण न तो महाबतखाँ बंगाल जाना चाहता था और न शाहजादा परवेज खान-ए-जहाँ लोदी के संरक्षण में जाना चाहता था परन्तु अन्त में दोनों ने शाही आज्ञा का पालन करने का निश्चय किया। इस प्रकार महाबतखाँ तथा परवेज को एक दूसरे से अलग कर दिया गया।
महाबत खाँ ने बादशाह से प्रार्थना की कि उसके पुत्र खानजाद खाँ को, जो काबुल में था, नायब बनाकर बंगाल भेज दिया जाये, बादशाह ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। बंगाल की गवर्नरी महाबतखाँ के हाथ में रही। खुर्रम के विद्रोह के समय महाबतखाँ को लूट का माल मिला था। उसका उसने अभी तक कोई हिसाब नहीं दिया था और न हाथी भेजे थे।
अतः आसफखाँ ने दीवाने-रियासत की हैसियत से महाबत खाँ से लूट के माल का हिसाब तथा युद्ध संचालन के लिये दिये गये धन का हिसाब मांगा और हाथी समर्पित करने के लिये कहा। इसी समय अब्दुर्रहीम खानखाना ने बादशाह से शिकायत की कि महाबतखाँ ने मेरे पुत्र तथा परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी है और मेरी सम्पत्ति छीन ली है।
यद्यपि नूरजहाँ कूटनीति में निपुण थी परन्तु वह अपने भाई आसफखाँ की कूटनीति को नहीं समझ सकी। उसने आसफ खाँ की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। आसफखाँ, महाबतखाँ के विरुद्ध बादशाह के कान भरता गया।
महाबत खाँ ने सारे हाथी लौटा दिये और बुरहानपुर से रणथम्भौर चला गया जो उसकी जागीर थी। अब उसे आदेश मिला कि वह दरबार में उपस्थित हो। महाबत खाँ दरबार में हाजिर होने के लिये पहुँचा तो बादशाह ने कहला भेजा कि जब तक वह दीवान को सारा हिसाब नहीं दे देगा तब तक बादशाह उससे नहीं मिलेगा।
महाबत खाँ को अपमानित करने के लिये उसके दामाद बर्खुरदार खाँ को पीटा गया और जेल में बंद कर दिया गया। जो सम्पत्ति महाबत खाँ ने बर्खुरदार को दहेज में दी थी वह भी छीन ली गई और उस पर आरोप लगाया गया कि यह विवाह बादशाह की स्वीकृति के बिना हुआ था। इसी समय यह भी खबर फैल गई कि आसफ खाँ, महाबत खाँ को कैद करने की योजना बना रहा है।
जिस समय महाबत खाँ, बादशाह के खेमे के पास पहुँचा उस समय बादशाह काबुल के लिये प्रस्थान कर रहा था। नूरजहाँ, आसफखाँ तथा अन्य लोग झेलम नदी के उस पार जा चुके थे परन्तु जहाँगीर अभी इस पार ही था। महाबतखाँ ने इस परिस्थिति से लाभ उठाया।
वह बादशाह के खेमे में घुस गया और उसके सामने गिरकर प्रार्थना की कि आसफखाँ उसे अपमानित कर रहा है, बादशाह महाबतखाँ की रक्षा करे। बादशाह को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि शाही कैम्प महाबतखाँ के आदमियों के हाथ में था। जब नूरजहाँ को इसकी सूचना मिली तो उसके क्रोध की सीमा न रही।
उसने फिर नदी को पार कर वापस लौटने का प्रयत्न किया परन्तु वह बादशाह को मुक्त नहीं करवा सकी। इस पर उसने स्वयं को भी महाबतखाँ को समर्पित कर दिया। आसफखाँ ने भागकर अटक के दुर्ग में शरण ली। महाबतखाँ ने अपने पुत्र विहरोज को अटक भेजकर आसफखाँ को भी हिरासत में ले लिया।
अब महाबत खाँ जहाँगीर, नूरजहाँ तथा अन्य लोगों के साथ काबुल की ओर बढ़ा। शाही कैम्प काबुल पहुँचा। यहाँ बादशाह को पूरी आजादी थी परन्तु नूरजहाँ इसे बड़ा अपमानजनक समझती थी कि बादशाह अपने एक मनसबदार की देख-रेख में रहे। धीरे-धीरे महाबत खाँ अलोकप्रिय होने लगा। नूरजहाँ ने इस स्थिति से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। वह लोगों को महाबत खाँ के खिलाफ भड़काने लगी।
इसी समय 1626 ई. में बादशाह को सूचना मिली कि खुर्रम ने दक्षिण से राजधानी के लिए प्रस्थान कर दिया है। इससे शाही कैम्प काबुल से हिन्दुस्तान की ओर चल पड़ा। मार्ग में शाही सैनिकों की संख्या बढ़ती गई और महाबतखाँ की स्थिति खराब होती गई। जब शाही खेमा रोहतास पहुँचा तो बादशाह ने महाबतखाँ को आदेश दिया कि वह आगे बढ़े, शाही खेमा पीछे आयेगा।
महाबत खाँ स्थिति को समझ गया। वह आगे बढ़ा और फिर रुका नहीं। वह मेवाड़ की पहाड़ियों की ओर चला गया और वहीं से खुर्रम के साथ वार्ता आरम्भ की। खुर्रम बहुत प्रसन्न हुआ और उसे सेना में लेने के लिए तैयार हो गया। यद्यपि नूरजहाँ, बादशाह तथा अपने भाई को महाबतखाँ के चंगुल से मुक्त कराने में सफल हो गई परन्तु उसने अपने लिए आपत्ति के बीज बो दिए।
जब खुर्रम गुजरात में था तब उसे सूचना मिली कि अत्यधिक मद्यपान के कारण परवेज की मृत्यु हो गई है। इस प्रकार खुर्रम के मार्ग से उसका एक और प्रतिद्वन्द्वी हट गया। महाबत खाँ, जो परवेज का समर्थक था, बादशाह का कोप भाजन बन चुका था। अतः महाबत खाँ से भी दरबार को कोई सहायता मिलने की संभावना नहीं थी। महाबत खाँ के खुर्रम की सेवा में आ जाने से खुर्रम का पक्ष बड़ा प्रबल हो गया। अब तख्त के लिए खुर्रम तथा शहरियार ही दावेदार रह गये।
मूल आलेख – नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर एवं नूरजहाँ
महाबत खाँ का विद्रोह