Wednesday, May 15, 2024
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अध्याय – 27 (अ) : नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर (1605-1627 ई.)

प्रारम्भिक जीवन

जहाँगीर का बचपन का नाम सलीम था। उसकी माता हीराकंवर आम्बेर के राजा भारमल (बिहारीमल) की कन्या थी। सलीम का जन्म बड़ी प्रार्थनाओं तथा तीर्थ-यात्रओं के उपरान्त शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से हुआ था। सलीम चिश्ती के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम रखा। कुछ बड़े हो जाने पर सलीम की शिक्षा-दीक्षा का भार बैरमखाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना को सौंपा गया। खानखाना के संरक्षण में सलीम ने तुर्की, फारसी तथा हिन्दी का ज्ञान प्राप्त किया। सलीम को बौद्धिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावहारिक तथा शस्त्र संचालन की शिक्षा भी दी गई।

ससे वह युद्ध विद्या में भी निपुण हो गया। 1585 ई. में जब सलीम पन्द्रह साल का था तब उसका विवाह आम्बेर के राजा भगवानदास (भगवंतदास) की कन्या मानबाई के साथ हुआ जो शाह बेगम के नाम से प्रसिद्ध हुई। 

तख्त की प्राप्ति

अकबर की मृत्यु के उपरान्त 25 अक्टूबर 1605 को सलीम आगरा में नूरूद्दीन मुहम्मद जहाँगीर के नाम से तख्त पर बैठा। नूरूद्दीन का अर्थ होता है- ‘धर्म का प्रकाश’ तथा जहाँगीर का अर्थ होता है- ‘संसार को पकड़ने वाला अर्थात् संसार का स्वामी। जहाँगीर का राजतिलक बड़ी धूम-धाम से हुआ। इस अवसर पर अनेक बंदियों को कारागार से मुक्त किया गया। जिन लोगों ने जहाँगीर को बादशाह बनने में बाधा पहुँचाई थी, उन्हें भी क्षमा कर दिया गया। प्रजा पर बहुत से कर हटा दिया गया। अधिकांश अफसरों को उनके पदों पर बने रहने दिया गया। बादशाह के समर्थकों को उच्च पद दिये गये। राज्य से शराब के उत्पादन तथा विक्रय का निषेध कर दिया गया। सड़कों के किनारे सराय बनवाने के आदेश दिये गये और नगरों में औषधालयों के निर्माण की आज्ञा दी गई। आगरा में राज-प्रासाद के समक्ष सोने की जंजीर से एक घंटी लटकाई गई जिसका नाम न्याय की घंटी रखा गया। कोई भी परिवादी इस जंजीर को खींचकर अपनी फरियाद बादशाह तक पहुँचा सकता था परन्तु सम्भवतः कभी किसी को यह जंजीर खींचने का दुस्साहस नहीं हुआ।

जहाँगीर की सामरिक सफलताएँ

खुसरो का विद्रोह

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शहजादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसकी माँ राजा मानसिंह की बहिन थी। खुसरो का विवाह अजीज कोका की कन्या से हुआ था। खुसरो प्रतिभावान, रूपवान् तथा लोकप्रिय युवक था। मधुर-भाषी तथा व्यवहार कुशल होने से उसके व्यक्तित्व में सहज स्वाभाविक आकर्षण था। वह अपने पितामह अकबर का सबसे प्रिय शहजादा था। सलीम की विद्रोही प्रवृत्ति तथा विलासप्रियता के कारण अकबर खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। अकबर के बीमार पड़ने पर खुसरो के मामा राजा मानसिंह तथा दरबार के कुछ अमीरों ने खुसरो को अकबर का उत्तराधिकारी बनाने का प्रयास किया परन्तु ये लोग सफल नहीं रहे तथा सलीम को ही तख्त प्राप्त हो गया।

यद्यपि जहाँगीर तथा खुसरो में मेल हो गया परन्तु खुसरो में तख्त प्राप्त करने की लालसा बनी रही। जहाँगीर भी उसकी तरफ से निश्चिंत नहीं हो सका। इसलिये जहाँगीर ने उसे आगरा के दुर्ग में रखकर उस पर पहरा लगा दिया। खुसरो इस अपमान को सहन नहीं कर सका। 5 अप्रेल 1606 को वह 340 अश्वारोहियों के साथ दुर्ग से निकल भागा और मथुरा की ओर चला गया। मथुरा में हुसेन बेग बदख्शी 300 अश्वारोहियों के साथ उसकी सहायता करने के लिये उद्धत हो गया। अब खुसरो ने पंजाब के लिये प्रस्थान किया। जब खुसरो पंजाब पहुँचा तब दीवान अब्दुल रहीम भी उससे मिल गया। तरन-तारन नामक स्थान पर सिक्ख गुरु अर्जुनदेव भी शहजादे से मिले और उसे धन तथा आशीर्वाद दिया। लाहौर पहुँचते-पहुँचते खुसरो के पास बारह हजार सैनिकों की सेना तैयार हो गई परन्तु लाहौर के हाकिम दिलावर खाँ ने नगर का द्वार बन्द कर लिया और खुसरो को घुसने नहीं दिया। नौ दिन के भीतर जहाँगीर भी एक विशाल सेना तथा तोपखाने के साथ वहाँ आ पहुँचा। व्यास तथा सतलज नदियों के संगम के निकट भैरोवाल नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भीषण संग्राम हुआ। खुसरो की सेना परास्त हो गई और खुसरो जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।

जब वह एक नाव में बैठकर चिनाब नदी पार कर रहा था, तब उसकी नाव पानी में डूब गई और महाबतखाँ ने उसे कैद कर लिया। खुसरो को बड़ी-बड़ी जंजीरों में बाँधकर लाहौर लाया गया और जहाँगीर के सामने उपस्थित किया गया। उस समय शहजादे के नेत्रों से आँसू बह रहे थे। खुसरो को कारागार में डाल दिया गया तथा उसके साथियों को निर्दयतापूर्ण यातनाएं दी गईं। गुरु अर्जुनदेव पर ढाई लाख रुपये का जुर्माना किया गया। जुर्माना न देने पर उनकी हत्या कर दी गई। इस कारण मुगल साम्राज्य तथा सिक्ख गुरुओं के बीच संघर्ष आरम्भ हुआ।

थोड़े दिनों बाद खुसरो पर जहाँगीर के प्राण लेने का षड्यन्त्र रचने का आरोप लगाया गया तथा उसे अंधा करने की सजा दी गई। महाबतखाँ ने अपने हाथ से खुसरो की आँखों में तार घुसेड़कर उसे अंधा किया। इसके बाद जहाँगीर ने हकीमों से उसका उपचार करवाया। इससे खुसरो की एक आँख में पूरी और दूसरी में थोड़ी सी रोशनी आ गई। खुसरो कारागार में पड़ा रहा। 1622 ई. में शाहजादा खुर्रम के षड्यन्त्र से बुरहानुपर के दुर्ग में खुसरो की हत्या हुई। जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने शजहादे के शव को इलाहाबाद मँगवाकर दफनाया। यह स्थान खुसरोबाग कहलाने लगा।

मेवाड़ के विरुद्ध संघर्ष

मेवाड़ से मुगलों का संघर्ष बाबर के भारत में प्रवेश के समय से ही चला आ रहा था। अकबर ने महाराणा उदयसिंह से चित्तौड़ का दुर्ग छीन लिया था किंतु वह मेवाड़ राजवंश को अपने अधीन नहीं कर पाया था। जहाँगीर ने इस कार्य को पूरा करने का निश्चय किया। इन दिनों मेवाड़ में राणा प्रतापसिंह का पुत्र राणा अमरसिंह शासन कर रहा था। 1606 ई. में जहाँगीर ने शाहजादा परवेज की अध्यक्षता में एक विशाल सेना राणा अमरसिंह के विरुद्ध भेजी। देवेर नाम स्थान पर मुगल सेना का राजपूतों से भीषण किंतु अनिर्णित युद्ध हुआ। खुसरो के विद्रोह के कारण जहाँगीर ने परवेज को वापस बुला लिया और उसके स्थान पर महाबतखाँ को भेज दिया परन्तु उसे भी विशेष सफलता नहीं मिली। इस कारण महाबतखाँ को वापस बुला लिया गया और 1609 ई. में ख्वाजा अब्दुल्लाखाँ को अमरसिंह के विरुद्ध भेजा गया। अब्दुल्ला ने बड़े वेग तथा भयंकरता के साथ हमला किया तथा अमरसिंह को पहाड़ियों में चले जाने के लिये विवश कर दिया। इस पर भी अब्दुल्ला आगे नहीं बढ़ सका। कुछ समय बाद उसे मेवाड़ से हटाकर दक्खिन भेज दिया गया।

इस बार शाहजादा खुर्रम तथा अजीज कोका को मेवाड़ पर आक्रमण करने भेजा गया। वे दोनों सहयोग के साथ काम नहीं कर सके। इस कारण अजीज कोका को वापस बुला लिया गया। शाहजादा खुर्रम ने अमरसिंह के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। खुर्रम ने मेवाड़ को उजाड़ना आरम्भ किया तथा अमरसिंह को चारों ओर से घेर लिया। इसी समय मेवाड़ में अकाल तथा महामारी का प्रकोप हुआ। इस कारण अमरसिंह की  सेना में रसद की कमी हो गई। अतः कुंअर कर्णसिंह तथा राजपूत सरदारों ने महाराणा अमरसिंह को सलाह दी कि वह मुगलों से सन्धि कर ले। अमरसिंह ने सरदारों की सलाह मानकर खुर्रम से संधि की बात चलाई। वह स्वयं, शाहजादे खुर्रम के खेमे में गया। शाहजादे ने राणा का सम्मान किया और संधि का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस पर अमरसिंह ने कुंअर कर्णसिंह को खुर्रम के साथ जहाँगीर के पास भेज दिया।

जहाँगीर ने भी कर्णसिंह का बड़ा स्वागत किया और कुछ महीने बाद ही उसे पाँच हजार का मनसब दे दिया। जहाँगीर ने चित्तौड़ तथा मेवाड़ का वह सब भाग जो अकबर तथा जहाँगीर के समय में जीता गया था, राणा को लौटा दिया। उसने राणा अमरसिंह तथा कर्णसिंह की संगमरमर की मूर्तियाँ बनवाकर आगरा में रखवाईं। इस संधि के बाद राणा ने राज्य अपने पुत्र कर्णसिंह को सौप दिया और स्वयं एकान्तवास में रहने लगा।

अहमदनगर के विरुद्ध संघर्ष

इन दिनों दक्षिण की राजनीति का संचालन मलिक अम्बर कर रहा था। वह मूलतः अबीसीनिया का रहने वाला था। उसे कासिम ख्वाजा नामक एक व्यक्ति ने बगदाद के बाजार से गुलाम के रूप में खरीदा था। बगदाद से वह अहमदनगर लाया गया। वहाँ उसे मुर्तजा निजामशाह के मन्त्री ने खरीद लिया। जब बरार तथा खानदेश मुगलों के अधिकार में चले गये तब मलिक अम्बर बीजापुर चला गया और वहाँ के शासक के यहाँ नौकरी करने लगा परन्तु थोड़े दिन बाद अम्बर फिर अहमदनगर लौट आया। इस बार उसे डेढ़-सौ से अधिक मनसब पर नियुक्त मिली। वह अपनी योग्यता तथा प्रतिभा के बल से उन्नति करने लगा। मुर्तजा निजामशाह (द्वितीय) के शासन काल में राज्य की वास्तविक शक्ति मलिक अम्बर के हाथों में चली गई। मलिक अम्बर ने राजा टोडरमल के भूमि-सूधार के आधार पर दक्षिण में भूमि सुधार किया तथा भूमि की नाप करवा कर लगाना निश्चित कर दिया। सरकार उपज का एक-तिहाई भाग, लगान के रूप में लेती थी। अहमदनगर राज्य में लगान अनाज के रूप में लिया जाता था किंतु मलिक अम्बर ने नकद रुपये में लगान लेना आरम्भ किया। लगान का प्रबंध प्रायः हिन्दू कर्मचारियों से करवाया जाता था परन्तु उनके कार्यों का निरीक्षण करने के लिए मुसलमान अफसर रखे गये थे।

अहमदनगर के शासन को व्यवस्थित करने के उपरान्त मलिक अम्बर ने मुगलों की ओर ध्यान दिया। वह मुगल साम्राज्य की प्रबल सैनिक शक्ति तथा उसके प्रचुर साधनों से परिचित था। इसलिये उसने मुगलों के विरुद्ध छापामार रणनीति का उपयोग किया। 1605 ई. में जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना की अध्यक्षता में एक विशाल सेना मलिक अम्बर पर आक्रमण करने भेजी। खानखाना ने जहाँगीर को वचन दिया कि वह दो वर्ष के भीतर मलिक अम्बर को पराजित कर देगा परन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली और विवश होकर मलिक अम्बर के साथ सन्धि करनी पड़ी। खानखाना के विफल हो जाने पर जहाँगीर ने खान-ए-जहाँ लोदी को अम्बर के विरुद्ध भेजा। जहाँगीर ने अब्दुल्लाखाँ को भी मेवाड़ के मोर्चे से हटाकर गुजरात भेज दिया ताकि वह नासिक की ओर से मलिक अम्बर पर आक्रमण कर सके। खान-ए-जहाँ तथा अब्दुल्लाखाँ भी मलिक अम्बर से परास्त हो गये।

अब जहाँगीर ने एक बार फिर अब्दुर्रहीम खानखाना को मलिक अम्बर के विरुद्ध भेजा। इस बार खानखाना ने सैनिक बल के साथ कूटनीति से भी काम लिया। उसने मलिक अम्बर के कुछ अफसरों को अपनी ओर मिला लिया और फिर उस पर प्रहार करना आरम्भ किया परन्तु मलिक अम्बर का साहस भंग नहीं हुआ और वह निरन्तर मुगलों से युद्ध करता रहा। शाहजादा खुर्रम भी एक सेना के साथ खानखाना की सहायता करने के लिए दक्षिण भेजा गया। उसने बड़ी सावधानी तथा सतर्कता से युद्ध का संचालन किया। अंत में मुगल सेना ने अहमदनगर राज्य की राजधानी पर अधिकार कर लिया और दौलताबाद की ओर बढ़ी। अब मलिक अम्बर आतंकित हो गया। 1621 ई. में उसने मुगलों से सन्धि कर ली। उसने मुगलों से जो भू-भाग जीत लिया था, उसके साथ थोड़ा और भू-भाग भी मुगलों को दे दिया। मुगलों की सेनाएं अहमदनगर से पीछे हट गईं।

बिहार विद्रोह का दमन

शाहजादा खुसरो के असफल हो जाने के बाद भी बहुत से लोगों की उसके साथ सहानुभूति बनी रही। 1610 ई. में बिहार में कुतुबुद्दीन नामक एक व्यक्ति ने स्वयं को खुसरो घोषित करके पटना पर अधिकार कर लिया। उन दिनों बिहार का गर्वनर अफजलखाँ गोरखपुर में था। जब उसे विद्रोह की सूचना मिली तो वह पटना पहुँचकर कुतुबुद्दीन को परास्त किया तथा उसका और उसके साथियों का वध करवा दिया।

बंगाल विद्रोह का दमन

बंगाल में अफगान लोग, उस्मानखाँ की अध्यक्षता में उपद्रव मचा रहे थे और मुगलों को बंगाल से बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहे थे। 1608 ई. में जहाँगीर ने बिहार के गवर्नर इस्लामखाँ को बंगाल का गवर्नर बनाकर भेजा। इस्लामखाँ ने ढाका को आधार बनाकर अफगानों का दमन करना आरम्भ किया। उस्मानखाँ परास्त हो गया और युद्ध में मारा गया। इस प्रकार बंगाल में फिर से मुगल सत्ता स्थापित हो गई। इस्लामखाँ ने 1613 ई. में कामरूप को जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

काँगड़ा विजय

काँगड़ा का दुर्ग पंजाब में स्थित था और राजपूतों के अधिकार में था। यह पंजाब का सबसे सुदृढ़ दुर्ग था और अभेद्य समझा जाता था। जहाँगीर ने 1615 ई. में पंजाब के गवर्नर मुर्तजाखाँ को काँगड़ा पर आक्रमण करने भेजा परन्तु मुर्तजाखाँ दुर्ग को नहीं जीत सका और उसकी मृत्यु हो गई। इस पर जहाँगीर ने सुन्दरदास को भेजा जो राजा विक्रमादित्य बघेला के नाम से भी प्रसिद्ध है। उसने अक्टूबर 1620 में दुर्ग का घेरा डाला तथा दुर्ग की रसद आपूर्ति बंद कर दी। दुर्ग में अनाज का एक दाना भी नहीं रहा। इस पर दुर्ग के भीतर स्थित लोगों ने कई दिनों तक सूखी घास को उबाल कर खाया परन्तु रक्षा की कोई आशा नहीं देखकर अन्त में आत्म समर्पण कर दिया। इस प्रकार नवम्बर 1620 में काँगड़ा दुर्ग पर जहाँगीर का अधिकार हो गया।

कन्दहार का हाथ से निकलना

जहाँगीर के समय, फारस में शाह अब्बास शासन कर रहा था। उसकी दृष्टि बहुत दिनों से कन्दहार पर लगी हुई थी परन्तु तुर्की के विरुद्ध युद्ध में संलग्न होने से वह मुगलों के विरुद्ध मोर्चा नहीं खोलना चाहता था। इसलिये उसने कूटनीति से काम लेत हुए जहाँगीर के पास बड़ी मूल्यवान भेंटें भेजीं और अपनी सद्भावना प्रकट की। इससे जहाँगीर ने कन्दहार की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। अवसर पाकर 1622 ई. में शाह अब्बास ने कन्दहार पर आक्रमण कर दिया। इन दिनों मुगल दरबार में बड़ा षड्यन्त्र तथा कुचक्र चल रहा था। इसलिये कन्दहार की सुरक्षा की नहीं की जा सकी तथा कन्दहार जहाँगीर के हाथ से निकल गया।

नूरजहाँ का उत्थान

नूरजहाँ का बचपन का नाम मेहरुन्निसा था। फारसी में मेहर प्रेम को कहते हैं तथा अरबी में निसा स्त्री को कहते हैं। इस प्रकार मेहरुन्निसा का शाब्दिक अर्थ प्रेम करने योग्य स्त्री होता है। जब मेहरुन्निसा का विवाह जहाँगीर के साथ हुआ तब उसका नाम नूरमहल रखा गया जिसका अर्थ प्रकाश का भवन होता है। आगे चल कर जहाँगीर ने उसे नूरजहाँ की उपाधि से विभूषित किया जिसका अर्थ विश्व की ज्योति होता है। भारत के इतिहास में वह इसी नाम से प्रसिद्ध है।

मेहरुन्निसा की माता का नाम अस्मत बेगम और पिता का नाम मिर्जा गयासुद्दीन मुहम्मद या गयासबेग था जो तेहरान का रहने वाला था। गयासबेग के पिता का नाम मिर्जा मुहम्मद शरीफ या ख्वाजा शरीफ था जो खुरासान के शासक के यहाँ वजीर था। दुर्भाग्यवश ख्वाजा शरीफ के दुर्दिन आ गये और वह बहुत गरीब हो गया। 1576 ई. वह अपने परिवार को दुःख तथा दारिद्रय में छोड़कर असार संसार से चल बसा। अब परिवार के पालन-पोषण का भार गयासबेग पर आ पड़ा।

गयासबेग, तेहरान में अपनी स्थिति सुधरने की संभावना नहीं देखकर अपनी गर्भवती स्त्री तथा बच्चों को लेकर एक काफिले के साथ भारत के लिए चल पड़ा। मार्ग में इस काफिले को डाकुओं ने लूट लिया परन्तु गयासबेग काफिले के साथ आगे बढ़ता रहा। 1576 ई. में जब वह कन्दहार पहुँचा तब उसकी स्त्री ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम मेहरुन्निसा रखा गया। कन्या के जन्म से गयासबेग की मुसीबतें बढ़ गईं परन्तु काफिले के प्रधान मलिक मसऊद ने उसकी सहायता की। उसने उसे तथा उसके परिवार को फतेहपुर सीकरी तक सुरक्षित पहुँचा दिया और बाहशाह अकबर से उसका परिचय करा दिया। बादशाह गयासबेग की योग्यता से बहुत प्रभावित हुआ और उसे अपनी सेना में रख लिया। अपनी योग्यता, कार्य कुशलता तथा परिश्रम के बल पर गयासबेग उन्नति करने लगा। 1595 ई. में बादशाह ने उसे काबुल का वजीर बना दिया। जब जहाँगीर तख्त पर बैठा तब उसने अपने शासन के प्रथम वर्ष में ही गयासबेग को संयुक्त दीवान बना दिया और उसे ऐतिमादुद्दौला की उपाधि दी जिसका अर्थ होता है राज्य का विश्वासपात्र।

मेहरुन्निसा सुंदर लड़की थी। पिता गयासबेग ने उसकी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। अच्छी शिक्षा ने उसमें व्यवहार कुशलता तथा कई गुण उत्पन्न कर दिये जिनके कारण उसका स्वाभाविक सौन्दर्य कई गुना हो गया। इस कारण वह कुलीन तथा राजवंश की स्त्रियों की संगति के योग्य हो गई। जब मेहरुन्निसा की अवस्था केवल 16 वर्ष की थी तब उसका विवाह अली कुली नामक एक ईरानी नवयुवक के साथ हो गया जो अकबर की सेना में नौकर था। अली कुली वीर तथा साहसी व्यक्ति था। जिस समय शाहजादा सलीम मेवाड़ के विरुद्ध युद्ध करने जा रहा था, उस समय अकबर ने अली कुली को भी उसके साथ भेज दिया। सलीम ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे शेर अफगान की उपाधि दी। इस प्रकार वह शाहजादे का कृपापात्र बन गया। आगे चलकर जब सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तब अली कुली ने अकबर का साथ दिया। इससे सलीम उससे नाराज हो गया।

जब सलीम को तख्त प्राप्त हो गया तब उसने शेर अफगान को बर्दवान का हाकिम बना कर भेज दिया जो बंगाल के पूर्वी किनारे पर स्थित था। वहाँ का जलवायु अस्वास्थ्यकर था इस कारण वहाँ कोई भी जाना पसन्द नहीं करता था। शेर अफगन भी अपनी नियुक्त से प्रसन्न नहीं था परन्तु उसने बादशाह की आज्ञा का पालन किया और अपनी पत्नी के साथ बर्दवान चला गया परन्तु वहाँ उसने अफगानों के विद्रोहों के दबाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसलिये जहाँगीर ने शेर अफगन को वापस बुला लेना ही अधिक उचित समझा।

जहाँगीर ने कुतुबुद्दीनखाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया और उसे निर्देश दिये कि वह शेर अफगन को वापस भेज दे। कुतुबुद्दीन ने शेर अफगन को अपने निवास पर बुलवाया। शेर अफगन ने सूबेदार के निवास पर जाने से मना कर दिया। इस पर कुतुबुद्दीन ने स्वयं बर्दवान जाने और शेर अफगन को दण्डित करने का निश्चय किया। जब वह बर्दवान पहुँचा तब उसने शेर अफगन को बुलाया। शेर अफगन दो आदमियों को साथ लेकर कुतुबुद्दीन के पास गया जिससे उसकी स्वामि भक्ति पर संदेह न हो परन्तु इसका परिणाम उलटा हुआ। सूबेदार ने इसे सदाचार के विरुद्ध समझा और इसमें अपना अपमान समझा। इसलिये उसने अपने आदमियों से कहा कि वे उसे चारों ओर से घेर लें। शेर अफगन इस अपमान को सहन नहीं कर सका। उसने सूबेदार को खूब फटकारा और अपनी तलवार से प्रहार करके उसे बुरी तरह घायल कर दिया। सूबेदार के सेवकों ने शेर अफगन के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यह घटना 30 मार्च 1607 को घटी।

शेर अफगन की मृत्यु से मेहरुन्निसा के पिता तथा उसके भाई जो राज्य में उच्च पदों पर आसीन थे, बड़ी चिन्ता हुई। जहाँगीर ने बंगाल के अधिकारियों के पास आदेश भेजा कि शेर अफगन का परिवार तुरन्त सुरक्षित आगरा भेज दिया जाये। मेहरुन्निसा के शेर अफगान से एक कन्या उत्पन्न हुई थी जिसका नाम लाडली बेगम था। बादशाह की आज्ञा का तुरन्त पालन किया गया और मेहरुन्निसा अपनी लड़की के साथ आगरा लाई गई तथा राजमहल की सबसे वयोवृद्ध महिला सलीमा बेगम की सेवा में रख दी गई, जो हकीम मिर्जा की लड़की तथा अकबर की प्रथम पत्नी थी। सलीमा बेगम ने मेहरुन्निसा को बड़े स्नेह के साथ अपने पास रखा। इस प्रकार राजमाता की सेवा तथा सुरक्षा में मेहरुन्निसा के चार वर्ष व्यतीत हुए। अपने शासन के छठे वर्ष में नौरोज के उत्सव के अवसर पर मीना बाजार में जहाँगीर की दृष्टि मेहरुन्निसा पर पड़ी। यद्यपि उस समय मेहरुन्निसा की अवस्था चौंतीस वर्ष की हो चुकी थी परन्तु उसके रूप लावण्य में कोई कमी नहीं आई थी। उसके अनुपम सौन्दर्य को देखकर जहाँगीर उस पर आसक्त हो गया और मार्च 1611 ई. में उसने मेहरुन्निसा से विवाह कर लिया। उसके अलौकिक सौन्दर्य के कारण जहाँगीर ने उसे पहले नूरमहल और बाद में नूरजहाँ की उपाधि दी। नूरजहाँ सदैव जहाँगीर की प्रीतपात्री बनी रही। 1612 ई. में नूरजहाँ के भाई आसफखाँ की पुत्री अर्जुमन्द बानू बेगम का विवाह शाहजादा खुर्रम के साथ हो गया।

दरबार में गुटबन्दी

दरबारी राजनीति के चलते जहाँगीर के दरबार में नूरजहाँ के सम्बन्धियों का एक प्रबल गुट बन गया। इस गुट में नूरजहाँ, उसका पिता एतिमादुद्दौला, नूरजहाँ का भाई आसफखाँ और शहजादा खुर्रम सम्मिलित थे। नूरजहाँ ने खुर्रम का समर्थन करना आरम्भ किया और उसकी प्रतिष्ठा तथा प्रभाव को बढ़ाने में योग देना आरम्भ किया। यह गुट इतना प्रबल हो गया और राज्य में इसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि अन्य अमीर आशंकित हो उठे। इस कारण नूरजहाँ के गुट के विरोध में एक विरोधी दल खड़ा हो गया। विरोधी दल का नेता महावतखाँ था। महावतखाँ के गुट ने शाहजादा खुसरो का समर्थन करना आरम्भ किया।

नूरजहाँ का गुट भंग

नूरजहाँ का गुट अपने उद्देश्यों में अत्यधिक सफल रहा परन्तु धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदलने लगीं। जहाँगीर के पुत्रों में खुर्रम सर्वाधिक योग्य तथा महत्त्वाकांक्षी था। उसकी दृष्टि शाही तख्त पर लगी हुई थी जबकि जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र खुसरो अधिक लोकप्रिय था। इसलिये जहाँगीर के बाद उसी के बादशाह बनने की सर्वाधिक सम्भावना थी किंतु खुसरो ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा करके अपनी स्थिति खराब कर ली। इस प्रकार खुर्रम का मार्ग प्रशस्त हो गया और उसमें तख्त प्राप्त करने की कामना और अधिक प्रज्वलित हो उठी। इन दोनों शहजादों के समर्थन में दरबारी अमीर दो गुटों में विभक्त होने लगे। खुर्रम के पक्ष में नूरजहाँ तथा उसका पूरा परिवार था। खुर्रम का श्वसुर आसफखाँ खान-ए-सामान के पद पर था और आसफखाँ का पिता एतिमादुद्दौला प्रधानमन्त्री के पद पर था। नूरजहाँ का प्रभाव बादशाह पर दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा था। इस प्रकार खुर्रम का पलड़ा अधिक भारी पड़ने लगा। खुर्रम स्वयं भी अपनी योग्यता का पूरा परिचय दे रहा था।

1620 ई. में नूरजहाँ ने शेर अफगन से उत्पन्न हुई पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरियार के साथ कर दिया। यहीं से नूरजहाँ तथा शाहजहाँ के बीच खाई उत्पन्न हो गई। अब नूरजहाँ खुर्रम की बजाय शहरियार का प्रभाव बढ़ाने और उसे उसे तख्त पर बैठाने का प्रयत्न करने लगी। दूसरी तरफ आसफखाँ अपने दामाद खुर्रम का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास करने लगा। इस प्रकार नूरजहाँ, शाहजहाँ तथा आसफखाँ का एक गुट में रहना सम्भव नहीं रहा। 1620 ई. नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम और 1621 ई. नूरजहाँ के पिता एतिमादुद्दौला की मृत्यु हो गई। इस प्रकार नूरजहाँ का गुट समाप्त हो गया और नूरजहाँ तथा खुर्रम के बीच मनोमालिन्य तथा विरोध बढ़ने लगा।

उन्हीं दिनों खुर्रम को मेवाड़ तथा दक्षिण भारत के अभियानों में अच्छी सफलता मिली और सल्तनत में उसे अधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। इस सफलता के कारण खुर्रम उद्दण्ड हो गया। उधर एतिमादुद्दौला के मरने के बाद वकील का पद नूरजहाँ को प्राप्त हो गया जिससे उसके भी प्रभाव तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई। इस प्रकार नूरजहाँ तथा शाहजहाँ दोनों एक दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंद्वी हो गये।

खुर्रम को तख्त तक पहुँचने के लिये दो प्रमुख प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय प्राप्त करनी थी। पहला था खुसरो तथा दूसरा था शहरियार। खुर्रम ने पहले खुसरो को समाप्त करने का निश्चय किया। 1620 ई. में जब जहाँगीर ने खुर्रम को दक्षिण राज्यों के विरुद्ध युद्ध करने का लिये भेजना चाहा तब खुर्रम इस शर्त पर जाने के लिए तैयार हुआ कि खुसरो उसे सौंप दिया जाय। जहाँगीर ने इस माँग को स्वीकार कर लिया और अभागे शाहजादे को शाहजहाँ को सौंप दिया। इस प्रकार अपने एक प्रतिद्वन्द्वी को अपने अधिकार में करके खुर्रम ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना लिया। 22 फरवरी 1621 ई. को बुरहानपुर के दुर्ग में खुर्रम ने खुसरो की हत्या करवा दी।

शाहजहाँ का विद्रोह

जब जहाँगीर बीमार पड़ा तो खुर्रम में, तख्त प्राप्त करने की आतुरता बढ़ गई।  नूरजहाँ, शहरियार के पक्ष में अपने प्रभाव का प्रयोग कर रही थी। 1622 ई. में फारस के शाह ने कन्दहार पर अधिकार कर लिया। जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने खुर्रम को आज्ञा दी कि वह दक्षिण से सेनाओं के साथ कन्दहार के लिये प्रस्थान करे। चूँकि राजधानी में खुर्रम के शत्रु षड्यन्त्र रच रहे थे, इसलिये खुर्रम ने राजधानी से बहुत दूर जाना हितकर नहीं समझा। वह माण्डू चला आया और वहीं से बादशाह को, कन्दहार जाने के लिये अपनी शर्तें लिख भेजीं। शहजादे ने मांग की कि रणथम्भौर का दुर्ग उसे दे दिया जाय, जिसमें वह अपने परिवार को रख दे। पंजाब का प्रान्त उसे दे दिया जाय, जिसे वह अपना आधार बना ले और वर्षा ऋतु माण्डू में ही व्यतीत करने की अनुमति दी जाये। जहाँगीर को खुर्रम की तीनों शर्तें मान्य नहीं हुईं। इसलिये कन्दहार की सुरक्षा का काम शहरियार को सौंप दिया गया।

खुर्रम ने जहाँगीर से प्रार्थना की थी आगरा के निकट स्थित धौलपुर की जागीर उसे दे दी जाये परन्तु बादशाह ने यह जागीर पहले ही शहरियार को दे दी थी। शहरियार ने उस पर अपना अधिकार भी जमा लिया था। जब खुर्रम को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने आदमियों को धौलपुर भेजकर वहाँ से शहरियार के आदमियों को मार भगाया और बलपूर्वक धौलपुर तथा नूरजहाँ की जागीर के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने खुर्रम को दण्ड देने की धमकी दी और खुर्रम से दोआब तथा हिसार फिरोजा की जागीर छीनकर शहरियार को दे दी। इस प्रकार खुर्रम के प्रतिद्वन्द्वी शहरियार को प्रोत्साहन मिलने लगा। इससे खुर्रम का धैर्य भंग हो गया और उसने खुल्लमखुल्ला विरोध करने का निश्चय कर लिया।

उधर नूरजहाँ भी चुप नहीं बैठी थी। वह खुर्रम की गतिविधियों पर दृष्टि रख  रही थी। उसने महाबतखाँ को अपनी ओर मिला लिया और शाही सेना का संचालन उसी को सौंप दिया। महाबतखाँ नूरजहाँ का सबसे बड़ा आलोचक था किंतु वही अब उसका सबसे बड़ा समर्थक बन गया। महाबतखाँ का झुकाव शहजादे परवेज की ओर था। इसलिये महाबतखाँ तथा परवेज को खुर्रम का सामना करने का कार्य सौंपा गया।

इस पर खुर्रम विद्रोह पर उतर आया और वह आगरा लूटने के लिये माण्डू से चलकर फतेहपुर सीकरी पहुँच गया परन्तु एतबारखाँ ने खुर्रम की सेना को आगरा में नहीं घुसने दिया। खुर्रम ने निराश होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। महाबतखाँ भी लाहोर से दिल्ली की ओर चल पड़ा। बिलोचपुर नामक स्थान पर खुर्रम तथा महाबतखाँ की सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें खुर्रम परास्त होकर माण्डू भाग गया। महाबतखाँ ने उसका पीछा किया। शाहजादा परवेज भी उसके साथ था। एक सेना खुसरो के पुत्र दावरबख्श की अध्यक्षता में, जिसे बुलाकी भी कहते हैं, गुजरात की ओर भेजी गई। जहाँगीर स्वयं भी एक सेना के साथ अजमेर पहुंच गया। खुर्रम घबराकर माण्डू से भाग खड़ा हुआ। उसने नर्मदा नदी को पार कर लिया। खुर्रम ने मलिक अम्बर तथा बीजापुर के सुल्तान से सहायता मांगी परन्तु किसी ने उसे शरण नहीं दी। दक्षिण में अब्दुर्रहीम खानखाना की सहानुभूति खुर्रम के साथ थी, अतः उसी के माध्यम से खुर्रम ने जहाँगीर के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा परन्तु खानखाना शाहजादा परवेज से मिल गया जिससे सन्धि वार्ता समाप्त हो गई।

महाबतखाँ तथा परवेज बड़ी तेजी से खुर्रम का पीछा कर रहे थे। गुजरात पर शाही सेना का अधिकार हो गया। वहाँ का हाकिम अब्दुल्लाखाँ भी खुर्रम के साथ शरण खोज रहा था। अब खुर्रम ने गोलकुण्डा के सुल्तान के यहाँ शरण ली। वहाँ से खुर्रम ने उड़ीसा के मार्ग से बंगाल में प्रवेश किया। अब्दुल्लाखाँ ने बर्दवान जीत लिया परन्तु नूरजहाँ के भाई इब्राहीमखाँ ने, जो उन दिनों बंगाल का सूबेदार था, राजमहल के निकट खुर्रम की सेना का सामना किया। इब्राहीमखाँ युद्ध में परास्त हो गया और मारा गया। ढाका पर खुर्रम का अधिकार हो गया। मेवाड़ का राणा भीमसिंह खुर्रम की सहायता कर रहा था। उसने पटना पर अधिकार कर लिया। अब खुर्रम की सेना आगे बढ़ी और उसने रोहतास के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जौनपुर पर भी खुर्रम का अधिकार हो गया। यहाँ से एक सेना अब्दुल्ला खाँ की अध्यक्षता में इलाहाबाद के किले का घेरा डालने के लिये भेजी गई और दूसरी सेना खुर्रम के साथ बनारस होती हुई आगे बढ़ी।

इसी बीच महाबतखाँ तथा परवेज दक्षिण से आ पहुँचे। उन्होंने शाहजहाँ की प्रगति को रोक दिया। अब्दुल्ला इलाहाबाद के दुर्ग का घेरा उठा लेने के लिये विवश हो गया और राणा भीमसिंह जौनपुर के निकट मारा गया। खुर्रम की सेना भी इलाहाबाद जिले में दमदम नामक स्थान पर बुरी तरह परास्त हुई। अब खुर्रम का महाबतखाँ तथा परवेज के सामने ठहरना कठिन हो गया। फलतः वह पीछे हटने लगा और अपनी स्त्री तथा लड़कों को रोहतास दुर्ग में छोड़कर दक्षिण की ओर चला गया। दक्षिण में मलिक अम्बर, खुर्रम की सहायता करने के लिए उद्यत हो गया क्योंकि उन दिनों उसका मुगल सल्तनत से संघर्ष चल रहा था। खुर्रम ने बुरहानपुर का घेरा डाला परन्तु महाबतखाँ तथा परवेज अपनी सेनाओं के साथ पहुँच गये। खुर्रम को विवश होकर घेरा उठा लेना पड़ा। इस विपत्ति में अब्दुल्लाखाँ ने भी खुर्रम का साथ छोड़कर संन्यास ले लिया। अतः खुर्रम के पास जहाँगीर से क्षमा माँगने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचा। वह बादशाह को क्षमादान की अर्जी भेजकर बालाघाट चला गया।

जहाँगीर ने शहजादे की क्षमा याचना स्वीकार कर ली। नूरजहाँ ने भी क्षमादान में कोई बाधा उत्पन्न नहीं की, क्योंकि वह, महाबतखाँ तथा परवेज के बढ़ते हुए प्रभाव से आतंकित हो रही थी। जहाँगीर ने इस शर्त पर खुर्रम को क्षमा किया कि वह रोहतास तथा असीरगढ़ के दुर्ग समर्पित कर दे और अपने दो पुत्रों दारा तथा औरंगजेब को बन्धक स्वरूप में शाही दरबार में भेज दे। खुर्रम ने इन शर्तों को स्वीकार कर लिया। जहाँगीर ने खुर्रम को क्षमा करके उसे बालाघाट की जागीर दे दी।

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