नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर ने ईस्वी 1605 से 1627 तक शासन किया। वह अकबर के चार पुत्रों में सबसे बड़ा था। जिस समय अकबर की मृत्यु हुई, उस समय अकबर के पुत्रों में अकेला वही जीवित बचा था।
नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर का प्रारम्भिक जीवन
नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर का बचपन का नाम सलीम था। उसकी माता हीराकंवर आम्बेर के राजा भारमल (बिहारीमल) की कन्या थी। सलीम का जन्म बड़ी प्रार्थनाओं तथा तीर्थ-यात्रओं के उपरान्त शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से हुआ था। सलीम चिश्ती के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम रखा।
कुछ बड़े हो जाने पर सलीम की शिक्षा-दीक्षा का भार बैरमखाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना को सौंपा गया। खानखाना के संरक्षण में सलीम ने तुर्की, फारसी तथा हिन्दी का ज्ञान प्राप्त किया। सलीम को बौद्धिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावहारिक तथा शस्त्र संचालन की शिक्षा भी दी गई।
ससे वह युद्ध विद्या में भी निपुण हो गया। 1585 ई. में जब सलीम पन्द्रह साल का था तब उसका विवाह आम्बेर के राजा भगवानदास (भगवंतदास) की कन्या मानबाई के साथ हुआ जो शाह बेगम के नाम से प्रसिद्ध हुई।
तख्त की प्राप्ति
अकबर की मृत्यु के उपरान्त 25 अक्टूबर 1605 को सलीम आगरा में नूरूद्दीन मुहम्मद जहाँगीर के नाम से तख्त पर बैठा। नूरूद्दीन का अर्थ होता है- ‘धर्म का प्रकाश’ तथा जहाँगीर का अर्थ होता है- ‘संसार को पकड़ने वाला अर्थात् संसार का स्वामी। जहाँगीर का राजतिलक बड़ी धूम-धाम से हुआ। इस अवसर पर अनेक बंदियों को कारागार से मुक्त किया गया।
जिन लोगों ने जहाँगीर को बादशाह बनने में बाधा पहुँचाई थी, उन्हें भी क्षमा कर दिया गया। प्रजा पर बहुत से कर हटा दिया गया। अधिकांश अफसरों को उनके पदों पर बने रहने दिया गया। बादशाह के समर्थकों को उच्च पद दिये गये। राज्य से शराब के उत्पादन तथा विक्रय का निषेध कर दिया गया।
सड़कों के किनारे सराय बनवाने के आदेश दिये गये और नगरों में औषधालयों के निर्माण की आज्ञा दी गई। आगरा में राज-प्रासाद के समक्ष सोने की जंजीर से एक घंटी लटकाई गई जिसका नाम न्याय की घंटी रखा गया। कोई भी परिवादी इस जंजीर को खींचकर अपनी फरियाद बादशाह तक पहुँचा सकता था परन्तु सम्भवतः कभी किसी को यह जंजीर खींचने का दुस्साहस नहीं हुआ।
नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर की जहाँगीर की सामरिक सफलताएँ
खुसरो का विद्रोह
शहजादा खुसरो नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसकी माँ राजा मानसिंह की बहिन थी। खुसरो का विवाह अजीज कोका की कन्या से हुआ था। खुसरो प्रतिभावान, रूपवान् तथा लोकप्रिय युवक था। मधुर-भाषी तथा व्यवहार कुशल होने से उसके व्यक्तित्व में सहज स्वाभाविक आकर्षण था।
वह अपने पितामह अकबर का सबसे प्रिय शहजादा था। सलीम की विद्रोही प्रवृत्ति तथा विलासप्रियता के कारण अकबर खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। अकबर के बीमार पड़ने पर खुसरो के मामा राजा मानसिंह तथा दरबार के कुछ अमीरों ने खुसरो को अकबर का उत्तराधिकारी बनाने का प्रयास किया परन्तु ये लोग सफल नहीं रहे तथा सलीम को ही तख्त प्राप्त हो गया।
यद्यपि जहाँगीर तथा खुसरो में मेल हो गया परन्तु खुसरो में तख्त प्राप्त करने की लालसा बनी रही। जहाँगीर भी उसकी तरफ से निश्चिंत नहीं हो सका। इसलिये जहाँगीर ने उसे आगरा के दुर्ग में रखकर उस पर पहरा लगा दिया। खुसरो इस अपमान को सहन नहीं कर सका।
5 अप्रेल 1606 को वह 340 अश्वारोहियों के साथ दुर्ग से निकल भागा और मथुरा की ओर चला गया। मथुरा में हुसेन बेग बदख्शी 300 अश्वारोहियों के साथ उसकी सहायता करने के लिये उद्धत हो गया। अब खुसरो ने पंजाब के लिये प्रस्थान किया। जब खुसरो पंजाब पहुँचा तब दीवान अब्दुल रहीम भी उससे मिल गया।
तरन-तारन नामक स्थान पर सिक्ख गुरु अर्जुनदेव भी शहजादे से मिले और उसे धन तथा आशीर्वाद दिया। लाहौर पहुँचते-पहुँचते खुसरो के पास बारह हजार सैनिकों की सेना तैयार हो गई परन्तु लाहौर के हाकिम दिलावर खाँ ने नगर का द्वार बन्द कर लिया और खुसरो को घुसने नहीं दिया।
नौ दिन के भीतर जहाँगीर भी एक विशाल सेना तथा तोपखाने के साथ वहाँ आ पहुँचा। व्यास तथा सतलज नदियों के संगम के निकट भैरोवाल नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भीषण संग्राम हुआ। खुसरो की सेना परास्त हो गई और खुसरो जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।
जब वह एक नाव में बैठकर चिनाब नदी पार कर रहा था, तब उसकी नाव पानी में डूब गई और महाबतखाँ ने उसे कैद कर लिया। खुसरो को बड़ी-बड़ी जंजीरों में बाँधकर लाहौर लाया गया और जहाँगीर के सामने उपस्थित किया गया। उस समय शहजादे के नेत्रों से आँसू बह रहे थे।
खुसरो को कारागार में डाल दिया गया तथा उसके साथियों को निर्दयतापूर्ण यातनाएं दी गईं। गुरु अर्जुनदेव पर ढाई लाख रुपये का जुर्माना किया गया। जुर्माना न देने पर उनकी हत्या कर दी गई। इस कारण मुगल साम्राज्य तथा सिक्ख गुरुओं के बीच संघर्ष आरम्भ हुआ।
थोड़े दिनों बाद खुसरो पर जहाँगीर के प्राण लेने का षड्यन्त्र रचने का आरोप लगाया गया तथा उसे अंधा करने की सजा दी गई। महाबतखाँ ने अपने हाथ से खुसरो की आँखों में तार घुसेड़कर उसे अंधा किया। इसके बाद जहाँगीर ने हकीमों से उसका उपचार करवाया।
इससे खुसरो की एक आँख में पूरी और दूसरी में थोड़ी सी रोशनी आ गई। खुसरो कारागार में पड़ा रहा। 1622 ई. में शाहजादा खुर्रम के षड्यन्त्र से बुरहानुपर के दुर्ग में खुसरो की हत्या हुई। जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने शजहादे के शव को इलाहाबाद मँगवाकर दफनाया। यह स्थान खुसरोबाग कहलाने लगा।
मेवाड़ के विरुद्ध संघर्ष
मेवाड़ से मुगलों का संघर्ष बाबर के भारत में प्रवेश के समय से ही चला आ रहा था। अकबर ने महाराणा उदयसिंह से चित्तौड़ का दुर्ग छीन लिया था किंतु वह मेवाड़ राजवंश को अपने अधीन नहीं कर पाया था। जहाँगीर ने इस कार्य को पूरा करने का निश्चय किया। इन दिनों मेवाड़ में राणा प्रतापसिंह का पुत्र राणा अमरसिंह शासन कर रहा था।
1606 ई. में जहाँगीर ने शाहजादा परवेज की अध्यक्षता में एक विशाल सेना राणा अमरसिंह के विरुद्ध भेजी। देवेर नाम स्थान पर मुगल सेना का राजपूतों से भीषण किंतु अनिर्णित युद्ध हुआ। खुसरो के विद्रोह के कारण जहाँगीर ने परवेज को वापस बुला लिया और उसके स्थान पर महाबतखाँ को भेज दिया परन्तु उसे भी विशेष सफलता नहीं मिली।
इस कारण महाबतखाँ को वापस बुला लिया गया और 1609 ई. में ख्वाजा अब्दुल्लाखाँ को अमरसिंह के विरुद्ध भेजा गया। अब्दुल्ला ने बड़े वेग तथा भयंकरता के साथ हमला किया तथा अमरसिंह को पहाड़ियों में चले जाने के लिये विवश कर दिया। इस पर भी अब्दुल्ला आगे नहीं बढ़ सका। कुछ समय बाद उसे मेवाड़ से हटाकर दक्खिन भेज दिया गया।
इस बार शाहजादा खुर्रम तथा अजीज कोका को मेवाड़ पर आक्रमण करने भेजा गया। वे दोनों सहयोग के साथ काम नहीं कर सके। इस कारण अजीज कोका को वापस बुला लिया गया। शाहजादा खुर्रम ने अमरसिंह के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। खुर्रम ने मेवाड़ को उजाड़ना आरम्भ किया तथा अमरसिंह को चारों ओर से घेर लिया।
इसी समय मेवाड़ में अकाल तथा महामारी का प्रकोप हुआ। इस कारण अमरसिंह की सेना में रसद की कमी हो गई। अतः कुंअर कर्णसिंह तथा राजपूत सरदारों ने महाराणा अमरसिंह को सलाह दी कि वह मुगलों से सन्धि कर ले। अमरसिंह ने सरदारों की सलाह मानकर खुर्रम से संधि की बात चलाई।
वह स्वयं, शाहजादे खुर्रम के खेमे में गया। शाहजादे ने राणा का सम्मान किया और संधि का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस पर अमरसिंह ने कुंअर कर्णसिंह को खुर्रम के साथ जहाँगीर के पास भेज दिया।
जहाँगीर ने भी कर्णसिंह का बड़ा स्वागत किया और कुछ महीने बाद ही उसे पाँच हजार का मनसब दे दिया। जहाँगीर ने चित्तौड़ तथा मेवाड़ का वह सब भाग जो अकबर तथा जहाँगीर के समय में जीता गया था, राणा को लौटा दिया। उसने राणा अमरसिंह तथा कर्णसिंह की संगमरमर की मूर्तियाँ बनवाकर आगरा में रखवाईं। इस संधि के बाद राणा ने राज्य अपने पुत्र कर्णसिंह को सौप दिया और स्वयं एकान्तवास में रहने लगा।
अहमदनगर के विरुद्ध संघर्ष
इन दिनों दक्षिण की राजनीति का संचालन मलिक अम्बर कर रहा था। वह मूलतः अबीसीनिया का रहने वाला था। उसे कासिम ख्वाजा नामक एक व्यक्ति ने बगदाद के बाजार से गुलाम के रूप में खरीदा था। बगदाद से वह अहमदनगर लाया गया। वहाँ उसे मुर्तजा निजामशाह के मन्त्री ने खरीद लिया।
जब बरार तथा खानदेश मुगलों के अधिकार में चले गये तब मलिक अम्बर बीजापुर चला गया और वहाँ के शासक के यहाँ नौकरी करने लगा परन्तु थोड़े दिन बाद अम्बर फिर अहमदनगर लौट आया। इस बार उसे डेढ़-सौ से अधिक मनसब पर नियुक्त मिली। वह अपनी योग्यता तथा प्रतिभा के बल से उन्नति करने लगा।
मुर्तजा निजामशाह (द्वितीय) के शासन काल में राज्य की वास्तविक शक्ति मलिक अम्बर के हाथों में चली गई। मलिक अम्बर ने राजा टोडरमल के भूमि-सूधार के आधार पर दक्षिण में भूमि सुधार किया तथा भूमि की नाप करवा कर लगाना निश्चित कर दिया। सरकार उपज का एक-तिहाई भाग, लगान के रूप में लेती थी।
अहमदनगर राज्य में लगान अनाज के रूप में लिया जाता था किंतु मलिक अम्बर ने नकद रुपये में लगान लेना आरम्भ किया। लगान का प्रबंध प्रायः हिन्दू कर्मचारियों से करवाया जाता था परन्तु उनके कार्यों का निरीक्षण करने के लिए मुसलमान अफसर रखे गये थे।
अहमदनगर के शासन को व्यवस्थित करने के उपरान्त मलिक अम्बर ने मुगलों की ओर ध्यान दिया। वह मुगल साम्राज्य की प्रबल सैनिक शक्ति तथा उसके प्रचुर साधनों से परिचित था। इसलिये उसने मुगलों के विरुद्ध छापामार रणनीति का उपयोग किया।
1605 ई. में जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना की अध्यक्षता में एक विशाल सेना मलिक अम्बर पर आक्रमण करने भेजी। खानखाना ने जहाँगीर को वचन दिया कि वह दो वर्ष के भीतर मलिक अम्बर को पराजित कर देगा परन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली और विवश होकर मलिक अम्बर के साथ सन्धि करनी पड़ी।
खानखाना के विफल हो जाने पर जहाँगीर ने खान-ए-जहाँ लोदी को अम्बर के विरुद्ध भेजा। जहाँगीर ने अब्दुल्लाखाँ को भी मेवाड़ के मोर्चे से हटाकर गुजरात भेज दिया ताकि वह नासिक की ओर से मलिक अम्बर पर आक्रमण कर सके। खान-ए-जहाँ तथा अब्दुल्लाखाँ भी मलिक अम्बर से परास्त हो गये।
अब जहाँगीर ने एक बार फिर अब्दुर्रहीम खानखाना को मलिक अम्बर के विरुद्ध भेजा। इस बार खानखाना ने सैनिक बल के साथ कूटनीति से भी काम लिया। उसने मलिक अम्बर के कुछ अफसरों को अपनी ओर मिला लिया और फिर उस पर प्रहार करना आरम्भ किया परन्तु मलिक अम्बर का साहस भंग नहीं हुआ और वह निरन्तर मुगलों से युद्ध करता रहा। शाहजादा खुर्रम भी एक सेना के साथ खानखाना की सहायता करने के लिए दक्षिण भेजा गया। उसने बड़ी सावधानी तथा सतर्कता से युद्ध का संचालन किया। अंत में मुगल सेना ने अहमदनगर राज्य की राजधानी पर अधिकार कर लिया और दौलताबाद की ओर बढ़ी। अब मलिक अम्बर आतंकित हो गया। 1621 ई. में उसने मुगलों से सन्धि कर ली। उसने मुगलों से जो भू-भाग जीत लिया था, उसके साथ थोड़ा और भू-भाग भी मुगलों को दे दिया। मुगलों की सेनाएं अहमदनगर से पीछे हट गईं।
बिहार विद्रोह का दमन
शाहजादा खुसरो के असफल हो जाने के बाद भी बहुत से लोगों की उसके साथ सहानुभूति बनी रही। 1610 ई. में बिहार में कुतुबुद्दीन नामक एक व्यक्ति ने स्वयं को खुसरो घोषित करके पटना पर अधिकार कर लिया। उन दिनों बिहार का गर्वनर अफजलखाँ गोरखपुर में था। जब उसे विद्रोह की सूचना मिली तो वह पटना पहुँचकर कुतुबुद्दीन को परास्त किया तथा उसका और उसके साथियों का वध करवा दिया।
बंगाल विद्रोह का दमन
बंगाल में अफगान लोग, उस्मानखाँ की अध्यक्षता में उपद्रव मचा रहे थे और मुगलों को बंगाल से बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहे थे। 1608 ई. में जहाँगीर ने बिहार के गवर्नर इस्लामखाँ को बंगाल का गवर्नर बनाकर भेजा। इस्लामखाँ ने ढाका को आधार बनाकर अफगानों का दमन करना आरम्भ किया। उस्मानखाँ परास्त हो गया और युद्ध में मारा गया। इस प्रकार बंगाल में फिर से मुगल सत्ता स्थापित हो गई। इस्लामखाँ ने 1613 ई. में कामरूप को जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
काँगड़ा विजय
काँगड़ा का दुर्ग पंजाब में स्थित था और राजपूतों के अधिकार में था। यह पंजाब का सबसे सुदृढ़ दुर्ग था और अभेद्य समझा जाता था। जहाँगीर ने 1615 ई. में पंजाब के गवर्नर मुर्तजाखाँ को काँगड़ा पर आक्रमण करने भेजा परन्तु मुर्तजाखाँ दुर्ग को नहीं जीत सका और उसकी मृत्यु हो गई। इस पर जहाँगीर ने सुन्दरदास को भेजा जो राजा विक्रमादित्य बघेला के नाम से भी प्रसिद्ध है। उसने अक्टूबर 1620 में दुर्ग का घेरा डाला तथा दुर्ग की रसद आपूर्ति बंद कर दी। दुर्ग में अनाज का एक दाना भी नहीं रहा। इस पर दुर्ग के भीतर स्थित लोगों ने कई दिनों तक सूखी घास को उबाल कर खाया परन्तु रक्षा की कोई आशा नहीं देखकर अन्त में आत्म समर्पण कर दिया। इस प्रकार नवम्बर 1620 में काँगड़ा दुर्ग पर जहाँगीर का अधिकार हो गया।
कन्दहार का हाथ से निकलना
जहाँगीर के समय, फारस में शाह अब्बास शासन कर रहा था। उसकी दृष्टि बहुत दिनों से कन्दहार पर लगी हुई थी परन्तु तुर्की के विरुद्ध युद्ध में संलग्न होने से वह मुगलों के विरुद्ध मोर्चा नहीं खोलना चाहता था। इसलिये उसने कूटनीति से काम लेत हुए जहाँगीर के पास बड़ी मूल्यवान भेंटें भेजीं और अपनी सद्भावना प्रकट की।
इससे जहाँगीर ने कन्दहार की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। अवसर पाकर 1622 ई. में शाह अब्बास ने कन्दहार पर आक्रमण कर दिया। इन दिनों मुगल दरबार में बड़ा षड्यन्त्र तथा कुचक्र चल रहा था। इसलिये कन्दहार की सुरक्षा की नहीं की जा सकी तथा कन्दहार जहाँगीर के हाथ से निकल गया।
मूल आलेख – नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर एवं नूरजहाँ
नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर



