हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त होने के बाद महाराणा प्रता ने मुगल सेना की दुर्दशा की तथा उसे पहाड़ियों में कैद कर लिया। महाराणा प्रताप के भय से मुगल सेना अरावली के पहाड़ों में चूहों की तरह फंस गई।
जब महाराणा प्रताप रक्ततलाई से हल्दीघाटी होता हुआ पहाड़ों में चला गया और झाला बीदा का बलिदान हो गया तो थोड़ी ही देर बाद युद्ध भी समाप्त हो गया।
मानसिंह कच्छवाहा के आदमियों को उसी समय ज्ञात हो गया होगा कि महाराणा युद्धक्षेत्र से निकल गया है तथा मरने वाला महाराणा प्रतापसिंह नहीं, अपितु उसका सेनापति झाला बीदा अथवा झाला मानसिंह है।
मुल्ला अल्बदायूनीं ने स्पष्ट लिखा है कि हमारी सेना प्रताप के पीछे नहीं जा सकी क्योंकि उसे भय था कि प्रताप पहाड़ियों के पीछे घात लगाये खड़ा होगा। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि मुगल सेना बहुत देर तक महाराणा के भय से रक्ततलाई में खड़ी महाराणा के पुनः आक्रमण की प्रतीक्षा करती रही होगी तथा बाद में अपने शिविर में चली गई होगी।
विभिन्न ख्यातों से पता चलता है कि हल्दीघाटी से निकलकर महाराणा प्रताप, उनवास के रास्ते से कालोड़ा गांव गया जहाँ एक मशहूर वैद्य रहता था। राणा ने उससे अपने घावों का उपचार कराया। कालोड़ा लोसिंग से हल्दीघाटी के मार्ग में पड़ता है। मेवाड़ में एक उक्ति प्रचलित है-
घाव सिराया राणा रा, कालोड़ा में जाय।
महाराणा जानता था कि इस समय गोगूंदा जाना खतरे से खाली नहीं है क्योंकि मानसिंह निश्चित रूप से गोगूंदा पर आक्रमण करेगा। अतः वह हल्दीघाटी के निकट के ही पहाड़ी दर्रों में रुका रहा ताकि अपने घायल सैनिकों को युद्ध के मैदान से निकालकर कोल्यारी गांव में उनका उपचार करवा सके।
कविराज श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि जब मुगल सेना अपने शिविर में चली गई तब महाराणा ने अपने घायलों को युद्ध के मैदान से निकाला और कोल्यारी गांव में ले जाकर उनका इलाज करवाया। फिर अपने राजपूतों एवं भीलों की सहायता से उसने समस्त पहाड़ी नाके और रास्ते रोक लिये। महाराणा की योजना मुगलों की सेना को अरावली की पहाड़ियों में ही नष्ट कर देने की थी।
उधर कुंअर मानसिंह कच्छवाहा अपनी सेनाओं के साथ उस रात बनास नदी के तट पर खमणोर के निकट बने अपने शिविर में ही रुका तथा अगले दिन गोगूंदा चला गया।
अल्बदायूंनी ने लिखा है कि दूसरे दिन हमारी सेना ने वहाँ से चलकर रणखेत को इस अभिप्राय से देखा कि हर एक ने कैसा काम किया था। फिर दर्रे (घाटी) से हम गोगूंदा पहुँचे, जहाँ राणा के महलों के कुछ रक्षक तथा मंदिरवाले जिन सबकी संख्या 20 थी, हिन्दुओं की पुरानी रीति के अनुसार अपनी प्रतिष्ठा के निमित्त अपने-अपने स्थानों से निकल आये और सब के सब लड़कर मारे गये।
मुल्ला लिखता है कि मुगल अमीरों को यह भय था कि कहीं रात के समय राणा उन पर टूट न पड़े। इसलिये उन्होंने सब मोहल्लों में आड़ खड़ी करा दी और गांव के चारों तरफ खाई खुदवा कर इतनी ऊँची दीवार बनवा दी कि कोई घुड़सवार उसको फांद न सके। तत्पश्चात् वे निश्चिंत हुए। फिर वे मरे हुए सैनिकों और घोड़ों की सूची बादशाह के पास भेजने के लिये तैयार करने लगे, जिस पर सैय्यद अहमद खाँ बारहा ने कहा- ऐसे फेहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व आदमी मारा नहीं गया। इस समय तो खाने के सामान का बंदोबस्त करना चाहिये।
लड़ाई के दूसरे ही दिन मुगल सेना के पास खाने-पीने का सामान कुछ भी न था और पीछे भी उसी कारण शाही सेना की दुर्दशा होती रही, जिसका वर्णन फारसी तवारीखों में मिलता है, परन्तु उनमें यह कहीं लिखा नहीं मिलता है कि 5,000 सवारों की सेना के साथ एक दिन तक का भी खाने का सामान क्यों न रहा!
इसका कारण यही हो सकता है कि लड़ाई के पहले ही दिन महाराणा के सैनिकों ने शत्रुसैन्य का खाने-पीने का सामान लूट लिया हो और बाहर से आपूर्ति आने का मार्ग रोक लिया हो।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि इस पहाड़ी इलाके में न तो अधिक अन्न पैदा होता है और न बनजारे आते हैं, हमारी सेना भूखों मर रही है। इस पर मुगल सैनिक खाने के सामान के प्रबंध का विचार करने लगे।
मुगल सेना की दुर्दशा न हो इस भय से वे एक अमीर की अध्यक्षता में सैनिकों को इस अभिप्राय से समय-समय पर गांव से बाहर भेजने लगे ताकि वे बाहर जाकर अन्न ले आवें और पहाड़ियों में जहाँ कहीं लोग एकत्र पाये जायें उनको कैद कर लें, क्योंकि हर एक को जानवरों के मांस और आम के फलों पर जो वहाँ बहुतायत से थे, निर्वाह करना पड़ता था।
मुगल सेना की दुर्दशा यहीं नहीं रुकी। साधारण सिपाहियों को रोटी न मिलने के कारण इन्हीं आम के फलों पर निर्वाह करना पड़ता था जिससे उनमें से अधिकांश बीमार पड़ गये। जब तेज गर्मी पड़ती है तो आम खाने से प्रायः पेटदर्द एवं पेचिश जैसी बीमारियां हो जाया करती हैं।
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी के इस वर्णन से स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप के भय से अकबर की सेना चूहों की तरह अरावली की पहाड़ियों में फंस गई। वह न तो अपने स्थान से आगे-बढ़कर अपने खाने पीने का सामान ला पा रही थी और न अरावली से निकलकर वापस अजमेर जा पा रही थी।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि जब शहंशाह अकबर को हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हो जाने की सूचना मिली तो उसने तुरंत ही महमूद खाँ को गोगूंदा जाने की आज्ञा दी।
महमूद खाँ ने रणखेत की स्थिति को देखा और वहाँ से लौटकर हर एक आदमी ने लड़ाई में कैसा काम दिया, इस विषय में जो कुछ उसके सुनने में आया, वह बादशाह से निवेदन किया। उसने मुगल सेना की दुर्दशा की पूरी बात बादशाह से छिपा ली।
महमूद खाँ ने का विवरण सुनकर बादशाह सामान्य रूप से तो प्रसन्न हुआ परन्तु राणा का पीछा न कर उसको जिन्दा रहने दिया, इस पर वह बहुत क्रुद्ध हुआ।
मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि अमीरों ने विजय के लिखित वृत्तांत के साथ रामप्रसाद हाथी को, जो लूट में हाथ लगा था और जिसको बादशाह ने कई बार राणा से मांगा था, परंतु दुर्भाग्यवश वह नटता ही रहा, बादशाह के पास भेजना चाहा।
आसफ खाँ ने उक्त हाथी के साथ मुझे (मुल्ला बदायूंनी को) भेजने की सलाह दी क्योंकि मैं ही इस काम के लिये योग्य था और धार्मिक भावों को पूरा करने के लिये ही लड़ाई में भेजा गया था।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि जब आसफ खाँ ने मानसिंह से कहा कि अलबदायूंनी को युद्ध के समाचारों के साथ बादशाह के पास भेजा जा रहा है तो मानसिंह ने हँसी के साथ कहा कि अभी तो अल्बदायूंनी को बहुत काम करना बाकी है। उसको तो हर एक लड़ाई में आगे रहकर लड़ना चाहिये।
इस पर मैंने अर्थात् अल्बदायूंनी ने जवाब दिया कि मेरा मुरशिदी का काम तो यहीं समाप्त हो चुका, अब मुझे बादशाह की सेवा में रहकर वहाँ काम देना चाहिये। इस पर मानसिंह खुश हुआ और हँसा।
फिर 300 सवारों को मेरे साथ देकर राणा के रामप्रसाद नामक हाथी के साथ मुझे वहाँ से रवाना किया। मानसिंह भिन्न-भिन्न स्थानों पर थाने नियत करता हुआ गोगूंदा से 20 कोस मोही गांव तक शिकार खेलता हुआ मेरे साथ रहा। वहाँ से एक सिफारिशी पत्र देकर उसने मुझे सीख दी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!