मनुष्य के जीवन का अन्तिम भाग, पचहत्तर वर्ष की आयु से सौ वर्ष अथवा इसके बाद तक संन्यास आश्रम के अन्तर्गत रखा गया था। वानप्रस्थ आश्रम के बाद सन्यास आश्रम प्रारम्भ होता था।
समस्त पुरुषार्थों के अन्तिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में यह अंतिम चरण था। विष्णु-पुराण में उसे ‘परिवाट्’ तथा धर्मसूत्रों में ‘परिव्राजक’ कहा गया है। वैदिक ग्रन्थों में उसके लिए ‘यति’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
सूत्रकाल में ‘सन्यास’ और ‘भिक्षु’ शब्द का प्रचलन होने लगा। सन्यासी का अर्थ पूर्ण त्याग है, भिक्षु का भिक्षुवृत्ति से और ‘यति’ का तपस्या से है। मनु के अनुसार अपनी वय के तीसरे भाग को वानप्रस्थ में बिताकर परिव्राजक बनना चाहिए। अनुत्तरदायी व्यक्ति अर्थात् गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्यों का पूर्णतः पालन न करने वाला व्यक्ति सन्यास आश्रम को अपनाने का अधिकारी नहीं था।
संन्यास आश्रम में संन्यासी का जीवन
संन्यास आश्रम का मूल उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति करना था जिसके लिए कठोर साधना और तपस्या की आवश्यकता थी। सन्यास आश्रम में व्यक्ति पूर्ण रूप से निर्लिप्त होकर होकर अपनी आत्मा को ब्रह्म की ओर लगाता था। संन्यासी का जीवन राग-द्वेष और मोह-माया से विलग एवं एकाकी था। वह भोजन, वस्त्र अथवा अन्य वस्तुओं का संग्रह नहीं करता था। वेदों के अध्ययन के अतिरिक्त वह अन्य कोई कार्य नहीं करता था।
विष्णु-पुराण में व्यवस्था की गई थी कि संन्यासी सम भाव रखे, जरायुज, अण्डज आदि किसी जीव से द्रोह न करे। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों को त्याग दे।
महाभारत के अनुसार संन्यासी अग्नि, धन, पत्नी और सन्तान के प्रति अनासक्त रहे। वस्त्र, आसन, शैया आदि सुख के साधनों का त्याग करे तथ एक स्थान पर न रहकर विचरण करता रहे। सन्यासी क्रोध-मोह का त्याग करके अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अशौच (पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्राणिधान आदि नियमों का पालन करे।
कौटिल्य के अनुसार संन्यासी को इन्द्रिय-निग्रह के साथ जितेन्द्रिय होना चाहिए। मत्स्य पुराण में लिखा है कि जितेन्द्रिय ही वास्तविक भिक्षु था।
मनु ने उसके लिए निरपेक्ष और एकाकी जीवन व्यतीत करने के लिए निर्देश दिया है। वह चलते समय इधर-उधर दृष्टि नहीं डालता था, अपनी दृष्टि को पैरों की ओर ही गड़ाकर चलता था। इसलिए उसे ‘कुक्कुटीपाद’ अथवा ‘कौक्कुटिक’ कहा जाता था। मनु ने वास्तविक सन्यासी उसे स्वीकार किया है जो लौकिक अग्नि से रहित, गृहहीन, शरीर के रोगग्रस्त होने पर भी अपनी चिकित्सा का प्रबन्ध न करने वाला, स्थिर बुद्धि, ब्रह्म का मनन करने वाला और मन में ब्रह्म का भाव रखने वाला हो।
इन्हीं गुणों से सम्पन्न संन्यासी गाँव में भिक्षा के लिए जा सकता था। मनु का कथन है किसंन्यासी के लिए इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक था। वह विषयों की ओर आकृष्ट होती हुई इन्द्रियों को अल्प भोजन और एकान्तवास से रोके।
इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकने से, राग और द्वेष के त्याग से तथा जीवों की अहिंसा से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता था। मनु ने उसे दिन में केवल एक बार भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश दिया है, क्योंकि भिक्षा में आसक्त रहने वाला व्यक्ति विषयों में भी आसक्त हो सकता था। ‘विचरण’ संन्यासी का प्रधान गुण था। वह गाँव में एक रात्रि और नगर मे पाँच रात्रि से अधिक निवास नहीं करता था।
मत्स्य पुराण में सन्यासी को उतना ही भोजन करने का निर्देश दिया गया है, जितने से उसकी प्राणशक्ति बनी रहने में समर्थ होती है।
उत्तर-वैदिक-काल में सन्यास आश्रम की परम्परा प्रायः ब्राह्मणों में ही विद्यमान थी। बौद्ध और जैन भिक्षु भी संन्यासी के रूप में विचरण करते थे। रामायण और महाभारत में क्षत्रिय और वैश्य संन्यासियों की कोई जानकारी नहीं मिलती। शूद्रों के लिए केवल गृहस्थ आश्रम निर्दिष्ट था। महाकाव्य काल के प्रायः समस्त संन्यासी ब्राह्मण थे।
महाभारत में ब्राह्मण और संन्यासी को पर्यायवाची अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है। पुराण-काल में ब्राह्मणेत्तर वर्ण के लोग भी संन्यासी ग्रहण करते थे किन्तु ऐसे उदाहरण बहुत ही कम मिलते है। पूर्व-मध्य-युग में भी संन्यास का प्रचलन था। भारत आए अरब यात्रियों ने संन्यासी-जीवन के बारे में विस्तार से लिखा है।
अरब यात्री सुलेमान ने लिखा है-
‘भारत में ऐसे लोग भी हैं जो सदा पहाड़ों और जंगलों में घूमा करते हैं और लोगों से बहुत कम मिलते-जुलते हैं। जब भूख लगती है तब वे लोग जंगल के फल या घास-पत्ते खा लेते हैं। उनमें से कुछ लोग पूर्णतः नग्न रहते हैं। चीते की खाल का एक टुकड़ा उन पर अवश्य पड़ा रहता है। मैने इसी प्रकार के एक मनुष्य को धूप में बैठे हुए देखा था। सोलह वर्ष बाद जब मैं फिर उस ओर से गुजरा तब भी मैंने उसको उसी प्रकार और उसी दशा मे देखा। मुझे आश्चर्य है, धूप की गर्मी से उसकी आँखें क्यों न बह गईं!’
ईरानी लेखक अलबरूनी ने लिखा है-
‘चौथा काल जीवन के अन्त तक चलता है। मनुष्य लाल वस्त्र और हाथ में एक दण्ड धारण करता है। सदैव ध्यानस्थ रहता है। वह अपने मस्तिष्क को शत्रुता और मित्रता से तथा काम, क्रोध और लालसा से रहित कर लेता है। वह किसी से एकदम संभाषण नहीं करता। किसी स्वर्गीय पुरुस्कार प्राप्ति के निमित्त जब वह विशेष गुण युक्त स्थानों का भ्रमण करता है तब वह मार्ग के गाँव में एक दिन से अधिक और नगर में पाँच दिन से अधिक नहीं ठहरता। अगर कोई उसे कुछ देता है तो वह दूसरे दिन के लिए उसमें से नहीं बचाता। मुक्तिमार्ग की चिन्ता करने और जहाँ से इस संसार में लौटना नहीं होता, उस मोक्ष तक पहुँचने के अतिरिक्त उसके पास दूसरा कोई कार्य नहीं था।’
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