Saturday, December 7, 2024
spot_img

अध्याय – 29 – आर्यों की आश्रम-व्यवस्था (स)

गृहस्थ आश्रम

गृहस्थ आश्रम मनुष्य जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण था। कुछ धर्मशास्त्रकारों ने इस आश्रम का महत्त्व प्रतिपादित करने के लिए आश्रमों के वर्णन में सर्वप्रथम गृहस्थ आश्रम की चर्चा की है। मनु के अनुसार- ‘जिस प्रकार समस्त नदी-नाले सागर में समाहित हो जाते हैं, उसी प्रकार समस्त आश्रम गृहस्थ आश्रम में समाहित हो जाते हैं।’

इस आश्रम का आरम्भ विवाह संस्कार के साथ होता था। पिता या कुटुम्ब के अन्य आदरणीय सदस्य योग्य कन्या का चयन करते थे एवं स्नातक होकर लौटे ब्रह्मचारी पुत्र से उसका विवाह सम्पादित करवाते थे। विवाह संस्कार का सम्पादन किसी योग्य पुरोहित द्वारा वैदिक विधि-विधान के साथ एवं वैदिक ऋचाओं के उच्चारण के साथ समारोह पूर्वक सम्पन्न करवाता था। इसके पश्चात् नवविवाहित दम्पत्ति धर्मानुसार गृहस्थ धर्म का पालन करते थे।

व्यास स्मृति में कहा गया है- ‘गृहस्थ धर्म का अनुसरण करने वाले को अपने घर में ही कुरूक्षेत्र, नैमिषारण्य, हरिद्वार और केदार आदि तीर्थों की प्राप्ति हो जाती है, जिनसे गृहस्थों के समस्त पाप धुल जाते हैं।’ महाभारत में गृहस्थ आश्रम की गरिमायुक्त प्रतिष्ठा की गई है तथा उसे अन्य समस्त आश्रमों से उत्कृष्ट माना गया है।

असमय ही गृहस्थी का त्याग कर सन्यासी बनने वालों की निन्दा की गई है। गृहस्थ आश्रम में ही देवताओं, पितरों और अतिथियों के लिए आयोजन होते हैं तथा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) की प्राप्ति होती है।

गृहस्थ आश्रम के स्वधर्म अथवा प्रधान कर्त्तव्य

गृहस्थ आश्रम में रहकर मनुष्य अपने व्यक्तिगत, सामाजिक धार्मिक, नैतिक, आर्थिक आदि विभिन्न प्रकार के कर्त्तव्यों का पालन करता था। सत्य, अहिंसा, दया, शम, दान आदि गृहस्थ के उत्तम कर्म थे। मनु के अनुसार वह दस धर्मों का सेवन करता था- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य और क्रोध-त्याग आदि।

महाभारत के अनुसार परायी स्त्री के साथ सम्पर्क न करना, अपनी पत्नी तथा घर की रक्षा करना, न दी गई वस्तु को न लेना, मधु का सेवन न करना तथा मांस नहीं खाना, ये पाँच प्रकार के कर्म गृहस्थ को सुख देने वाले थे।

इस आश्रम का पालन करने से मनुष्य धर्म अर्जित करता था, क्योंकि परलोक में सहायता के लिए माता, पिता, पुत्र, पत्नी और सम्बन्धी नहीं होते। वहाँ प्राणी अकेला ही अपने पाप-पुण्य का फल भोगता है। मनुष्य द्वारा अर्जित पाप एवं पुण्य ही उसके साथ परलोक में जाते हैं।

अतः परलोक को सुधारने के लिए धर्म का उत्तरोत्तर संचय करना चाहिए। इस कारण गृहस्थी के लिए ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को प्रधानता दी गई। उसे धर्म-साधक की भाँति आचरण करना आवश्यक था।

गृहस्थ को अपने परिवार के भरण-पोषण हेतु धर्म-सम्मत कार्यों से अर्थोपार्जन का निर्देश दिया गया है। दूसरे के अर्थ और सहयोग से अपनी गृहस्थी चलाना निन्दनीय था। गृहस्थ को यथाशक्ति दान देने एवं शेष धन से अपना जीवन चलाने का निर्देश दिया गया था। गृहस्थ हर समय अतिथि-सत्कार हेतु तत्पर रहता था। यदि कोई गृहस्थ किसी अतिथि को असन्तुष्ट या अप्रसन्न करता था तो गृहस्थ के समस्त पुण्य क्षीण हो जाते थे। केवल अपने लिए ही भोजन बनाना अनुचित माना जाता था।

अतिथि के लिए भोजन बनाकर उसे सन्तुष्ट करना गृहस्थ का परम कर्त्तव्य था। मनु के अनुसार जिस गृहस्थ के घर में सामर्थ्यानुसार आसन, भोजन, शैया, जल, फल-फूल से अतिथि की पूजा नहीं होती, वहाँ कोई अतिथि निवास न करे। मनु ने पाखण्डी, स्वार्थी, विरुद्धकर्मी, आदि अतिथियों की सेवा नहीं करने का भी निर्देश दिया है। कौटिल्य के अनुसार विधानानुसार विवाह करना, अपनी भार्या से ही सम्पर्क रखना, स्वधर्म के अनुरूप जीविका चलाना, देवताओं, पितरों और भृत्यों को सन्तुष्ट करने के उपरान्त भोजन ग्रहण करना प्रत्येक गृहस्थ का स्वधर्म था।

गृहस्थ के अपने पुत्र गुरुकुल में अध्ययन करने के लिए चले जाते थे किंतु जो ब्रह्मचारी गृहस्थ के घर भिक्षावृत्ति के लिए आते थे, उन्हें भिक्षा देना गृहस्थ के प्रधान कर्त्तव्यों में सम्मिलित था। अन्यथा गृहस्थ पाप का भागी होता था।

गृहस्थ द्वारा संस्कारों की सम्पन्नता

व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले समस्त संस्कार (उपनयन एवं समावर्तन को छोड़कर) गृहस्थ आश्रम में ही सम्पन्न किए जाते थे। संस्कारों के माध्यम से ही व्यक्ति के जीवन को शुद्ध एवं सुसंस्कृत बनाया जाता था जिससे वह नैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विकास करने में समर्थ होता था।

गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णछेदन, विवाह, अन्त्येष्टि आदि विभिन्न संस्कार गृहस्थ आश्रम के माध्यम से ही सम्पन्न किए जाते थे। अतः संस्कारों का गृहस्थ आश्रम से अटूट सम्बन्ध था।

गृहस्थ व्यक्ति को देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से उऋण होने के लिए समस्त संस्कारों एवं यज्ञों का आयोजन करना होता था। मनु के अनुसार इन ऋणों से उऋण हुए बिना ही सन्यासी बनने वाला व्यक्ति नर्क में जाता है। मनु ने लिखा है कि प्रत्येक द्विज विविधपूर्वक वेदों का अध्ययन कर, धर्मानुसार पुत्रों को उत्पन्न कर और शक्ति-अनुसार यज्ञों का अनुष्ठान कर मोक्ष (सन्यास) में मन लगाए।

महाभारत में भी कहा गया है कि विधिपूर्वक किए गए कर्मकाण्डों से पितृगण को, यज्ञ द्वारा देवताओं को और स्वाध्याय द्वारा ऋषियों को पूजित करे तदन्तर अन्य आश्रमों के माध्यम से सिद्धि को प्राप्त करे। इन ऋणों से मुक्ति के मूल में भाव यह था कि समाज से लाभ उठाने वाले व्यक्ति अपने देवों, पितरों, पूर्वजों, ऋषियों आदि के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।

मनुष्यों पर देवी-देवताओं की अनुकम्पा को देव ऋण माना गया है। वेदों का अध्ययन करके  देव ऋण से मुक्त हुआ जाता था। यज्ञों का अनुष्ठान करके ऋषि ऋण से मुक्त हुआ जाता था और पुत्रों का उत्पन्न करके उनका पालन-पोषण करना पितृ ऋण से मुक्ति का उपाय था।

गृहस्थ द्वारा पंचमहायज्ञ

प्रत्येक गृहस्थ के लिए विभिन्न प्रकार के यज्ञ करना अनिवार्य था। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से उऋण होने के लिए पाँच महायज्ञों का विधान किया गया था। मनुष्य द्वारा अग्नि जलाने, कूटने-पीसने, छीलने-काटने, कूप खोदने, हल चलाने आदि विविध कार्यों में जीव हिंसा होती है जिससे पाप लगता है। इन पापों के प्रायश्चित के लिए ‘ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और नृतज्ञ (अतिथि यज्ञ)’ नामक पंचमहायज्ञों का विधान किया गया।

इन पंचमहायज्ञों का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण और अनेक पुराणों में मिलता है। मनु ने पाँच पापों- ‘चुल्ली, पेषणी, उपस्कर, कण्डनी और जलकुम्भ’ से मुक्ति के लिए पांच यज्ञों का विधान किया है। मनु के अनुसार वेद का अध्ययन-अध्यापन करना ब्रह्मयज्ञ था, तर्पण करना पितृयज्ञ था, हवन करना देवयज्ञ था, बलिवैश्वदेव का आयेाजन भूतयज्ञ था एवं अतिथियों का भोजन-सत्कार करना नृयज्ञ था।

ब्रह्मयज्ञ: ब्रह्मयज्ञ द्वारा मनुष्य ऋषियों एवं आचार्यों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता था। गृहस्थ के लिए यह आवश्यक था कि वह वेदादि-शास्त्रों के अध्ययन में निरन्तर तत्पर रहे और स्वाध्याय से कभी प्रमाद न करे। इसी को ब्रह्मयज्ञ कहते थे। इसके दैनिक अनुष्ठान से गृहस्थ वेदादि-शास्त्रों को स्मरण रखता था।

पितृयज्ञ: पितृयज्ञ के अन्तर्गत मनुष्य पितरों अर्थात् पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता था। इसके लिए श्राद्ध का विधान किया गया था। श्राद्ध के अवसर पर पितरों के निमित्त पिण्डदान, तर्पण, बलिहरण, पितृश्राद्ध आदि का आयोजन किया जाता था। ये कर्म पुत्र द्वारा ही सम्पादित किए जाते थे। इसलिए ‘पितृश्राद्ध एवं पितृयज्ञ’ गृहस्थ आश्रम में ही किए जाने सम्भव थे।

देवयज्ञ: प्राचीन आर्य सूर्य, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी आदि प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानते थे। मनुष्य को इनसे भोजन, जल, आश्रय एवं हिरण्य आदि प्राप्त होते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इन देवताओं का ऋणी होता है। इस ऋण से उऋण होने के लिए देवयज्ञ का आयोजन किया जाता था। इस यज्ञ में देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती थी तथा उनके निमित्त बलि और अग्नि में आहुति देकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती थी।

निष्ठा-विधिपूर्वक अग्नि में छोड़ी हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती थी, सूर्य से वृष्टि, वृष्टि से अन्न और अन्न से प्रजा को प्राप्त होती थी। यह यज्ञ पत्नी के बिना सम्भव नहीं था, इसलिए विवाहित होकर गृहस्थ बनना आवश्यक था। यज्ञ में आहुति देते समय इन्द्र, अग्नि, प्रजापति, सोम, पृथ्वी आदि देवी-देवताओं के नाम के साथ ‘स्वाहा’ उच्चारित किया जाता था।

भूतयज्ञ: भूत के अंतर्गत ‘सृष्टि में स्थित समस्त प्राणी’ आते हैं। इसलिए ईश्वर को ‘भूत-नाथ’ तथा ‘भूत-भावन’ कहा जाता है। संसार के प्रत्येक प्राणी का इस सृष्टि को सुखमय बनाने में योगदान होता है। इसलिए मनुष्य पर उनका ऋण होता है। इस ऋण से उऋण होने के लिए ‘भूतयज्ञ’ का विधान किया गया तथा इसके माध्यम से समस्त प्राणियों के प्रति ‘बलि’ अर्पित करने की व्यवस्था की गई।

 विध्नकारी और अमंगलकारी प्रेतात्माओं की तुष्टि के लिए भी भूतयज्ञ किया जाता था। इसमें बलि अग्नि में न डालकर विभिन्न दिशाओं में रख दी जाती थी। घर में बने भोजन का एक अंश गाय, कुत्ता, कौआ आदि विभिन्न प्राणियों के लिए पृथक् रख दिया जाता था। उसके बाद ही गृहस्थ स्वयं भोजन करता था।

नृयज्ञ: नृयज्ञ को अतिथि यज्ञ भी कहते थे। अतिथि-सेवा प्रत्येक गृहस्थ का धर्म था। अतिथि चाहे किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो, उसे देवता के रूप में देखा जाता था। मान्यता थी कि अतिथि गृहस्थ का भोजन नहीं करता अपितु उसके पापों का भक्षण करता है। अतिथि चाहे प्रिय हो या अप्रिय, उसका सत्कार व्यक्ति को स्वर्ग पहुँचाने वाला होता था।

जो व्यक्ति अतिथि को एक रात अपने घर में ठहराता था, वह पृथ्वी के सुखों को प्राप्त कर लेता था, यदि दो रात ठहरता था तो अन्तरिक्ष लोकों की विजय प्राप्त करता था, यदि तीन रात ठहराता था तो वह स्वर्गीय लोकों को प्राप्त करता था और यदि चार रात ठहराता था तो असीम आनन्द को प्राप्त करता था। अगर अतिथि कई रात्रियों तक ठहरता था तो गृहस्थ विभिन्न प्रकार के समस्त सुखों को प्राप्त कर लेता था।

प्राचीन समय में सन्यासी या परिव्राजक किसी एक स्थान पर न रहकर सदा भ्रमण करते रहते थे। उनके पास अपनी कोई सम्पत्ति नहीं होती थी। उनका कार्य प्रजा को सन्मार्ग पर लाने हेतु धर्मोपदेश देना होता था। उनकी भौतिक आवश्यकताएँ नृयज्ञ के माध्यम से गृहस्थों द्वारा पूरी की जाती थीं। ऐसे सन्यासी जिस किसी भी गृहस्थ के घर आ जाएँ उनकी सेवा करना, आदरपूर्वक उन्हें घर पर ठहराना और उनके भोजन आदि की व्यवस्था करना गृहस्थ का कर्त्तव्य था।

इस प्रकार गृहस्थ व्यक्ति पंचयज्ञों के माध्यम से व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों को पूरा करता था।

गृहस्थों के विविध प्रकार

प्राचीन स्मृतियों में गृहस्थों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार गृहस्थों के चार वर्ग है-

(1.) कुसूल धान्यः जो गृहस्थ अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिए बारह दिन का भोजन संचित करके रखे।

(2.) कुम्भ धान्य: जो गृहस्थ अपने परिवार के लिए छः दिनों का भोजन संचित करके रखे।

(3.) त्र्यहिक : जो गृहस्थ केवल तीन दिन का भोजन अपने पास रखे।

(4.) अश्वस्तनिक: जिसके पास केवल आज के योग्य ही भोजन हो और जो कल का भोजन संचित करने का प्रयत्न न करे।

मनुस्मृति में भी इसी प्रकार से कुसूल धान्य, कुम्भ धान्य, अश्वस्तनिक और त्र्यहिक अथवा एकारिक गृहस्थों का उल्लेख किया गया है। नारद स्मृति के अनुसार गृहस्थ ब्राह्मण सद्य प्रक्षालिक (प्रतिदिन भोजनोपरान्त बर्तन साफ कर देने वाला) हो अथवा एक मास तक अन्न संचित करने वाला हो या छः मास अथवा एक वर्ष तक के लिए अन्न संचय करने वाला हो। महाभारत में भी चार प्रकार के गृहस्थ निर्दिष्ट किए गए हैं-

(1.) कुसूल धान्य: वे गृहस्थ जो षट् कर्म- यजन, याजन, पठन, पाठन, दान और प्रतिग्रह करते थे।

(2.) कुम्भ धान्य: वे गृहस्थ जो यज्ञ, अध्ययन और दान करते थे।

(3.) अश्वस्तन: वे गृहस्थ जो अत्यधिक अध्ययन और दान करते थे।

(4.) कपोतिमाश्रित: वे गृहस्थ जिनकी रुचि केवल स्वाध्याय में थी।

गृहस्थों के ये प्रकार सम्भवतः ब्राह्मण गृहस्थों के है, क्योंकि त्याग और अपरिग्रह का आदर्श ब्राह्मणों के लिए सर्वोपरि था। प्राचीन ऋषि एवं चिंतक मनुष्य में धन-संचय की प्रवृत्ति को अनुचित मानते थे। उनके अनुसार गृहस्थ द्वारा उत्पन्न भोजन सामग्री और अर्जित धन केवल अपने या अपने कुटुम्ब के लिए नहीं होकर सम्पूर्ण समाज के लिए थे।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत गृहस्थों के लिए स्वधर्म के रूप में जो कर्त्तव्य निर्धारित किए गए थे, वे केवल अपने कुटुम्ब के जीवन-निर्वह के दायित्व तक सीमित नहीं थे अपितु गृहस्थ पर अतिथियों, पितरों, देवताओं, पशु-पक्षी आदि समस्त प्राणियों, ब्राह्मणों, ऋषियों एवं सन्यासियों की उदर-पूर्ति का दायित्व डाला गया था।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source