भारत के विदेशी शासक यूनानी, शक, पह्लव के बारे में हमने पिछले अध्याय में विचार किया था। इस अध्याय में कुषाण वंश का इतिहास लिखा गया है।
कुषाण वंश का प्राचीन इतिहास चीनी ग्रंथों में मिलता है। ये लोग यू-ची अथवा यूह्ची जाति की एक शाखा से थे। यू-ची लोग प्रारम्भ में चीन के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश में कानसू नामक प्रान्त में निवास करते थे। लगभग 165 ई.पू. में हूँग-नू (हूण) नामक जाति ने उन्हें वहाँ से मार भगाया।
इससे यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में पश्चिम की ओर बढ़ते हुए सिरदरया के प्रदेश में जा पहुँचे। यहाँ पर उन दिनों शक निवास करते थे। इसलिये यूचियों की शकों से मुठभेड़ हुई जिसमें यू-ची विजयी रहे। शकों को विवश होकर वहाँ से भाग जाना पड़ा परन्तु यू-ची लोग इस नये प्रदेश में शान्ति से नहीं रह सके। उनके पुराने शत्रु वू-सुन ने हूँग-नू जाति की सहायता से लगभग 140 ई.पू. में यू-ची लोगों को वहाँ से मार भगाया।
यू-ची लोग फिर नये प्रदेश की खोज मे आगे बढ़े। उन्होंने आक्सस नदी को पार कर लिया और ताहिया प्रदेश में पहुंच गये। यहाँ के लोगों ने उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। यू-ची, ताहिया-विजय से ही संतुष्ट न हुए। उन्होंने बैक्ट्रिया तथा उनके पड़ौस के प्रदेशों पर भी अधिकार स्थापित कर लिया।
कुषाण वंश के शासक
कुजुल कदफिस
इस समय यू-ची, पाँच शाखाओं में विभक्त थे जिनके अलग-अलग नाम थे। इन्हीं में से एक का नाम कई-सांग अथवा कुषाण था। इसी से कुषाण वंश का आरम्भ होता है। इस शाखा का नेता कुजुल कदफिस बड़ा ही साहसी योद्धा था। उसने यूचियों की अन्य शाखाओं पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इस प्रकार वह यूचियों का एकछत्र सम्राट् बन गया। उसका वंश कुषाण वंश कहलाया।
बैक्ट्रिया तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त कुजुल ने अपनी विशाल सेना के साथ भारत की ओर प्रस्थान किया। उसने सबसे पहले काबुल-घाटी में प्रवेश किया और यूनानियों की रही-सही शक्ति को नष्ट कर उस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने पूर्वी गान्धार प्रदेश पर अधिकार किया। लगभग अस्सी वर्ष की अवस्था में कुजुल का निधन हुआ।
विम कदफिस
कुजुल कदफिस के बाद उसका पुत्र विम कदफिस उसके साम्राज्य का स्वामी बना। विम कदफिस भी अपने पिता की भाँति वीर तथा साहसी था। उसके शासन-काल में कुषाणों की सत्ता भारत में बड़ी तेजी से आगे बढ़ने लगी। उसने थोड़े ही दिनों में पंजाब, सिन्ध, काश्मीर तथा उत्तर प्रदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। कुषाण लोग अपनी भारतीय विजय के साथ-साथ यहाँ की सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होते जा रहे थे। कुजुल कदफिस बौद्ध-धर्म का और उसका पुत्र विम कदफिस जैन-धर्म अनुयायी था।
कनिष्क (प्रथम)
विम कदफिस के बाद कनिष्क (प्रथम), कुषाण वंश का शासक हुआ। वह इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था। कनिष्क कौन था? विम के साथ उसका क्या सम्बन्ध था। वह कब सिंहासन पर बैठा? ये प्रश्न अब तक विवादग्रस्त हैं परन्तु यह निश्चय है कि कनिष्क कुषाण वंश का ही शासक था और विम कदफिस के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। कनिष्क 78 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसका शासनकाल, विजय तथा शासन दोनों ही दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी उसका शासनकाल महत्त्वपूर्ण है। कनिष्क ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को इस सीमा तक स्वीकार किया कि उसे भारतीय शासक कहना अनुचित न होगा।
कनिष्क की दिग्विजय
काश्मीर विजय: कनिष्क ने सिंहासन पर बैठते ही साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने सबसे पहले काश्मीर पर विजय प्राप्त की और उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कश्मीरी लेखक कल्हण का कथन है कि कनिष्क ने काश्मीर में कई विहारों एवं नगरों का निर्माण करवाया।
साकेत तथा मगध विजय: चीनी तथा तिब्बती ग्रंथों से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने साकेत तथा मगध पर आक्रमण किया और उन पर विजय प्राप्त की।
बंगाल विजय: कनिष्क की मुद्राएँ बंगाल में भी प्राप्त हुई हैं। इससे इतिहासकारों का अनुमान है कि पूर्व दिशा में उसका साम्राज्य बंगाल तक फैला था।
सिंधु घाटी पर अधिकार: एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने सिन्धु नदी घाटी पर अधिकार स्थापित कर लिया था।
अफगानिस्तान पर विजय: जेंदा और तक्षशिला लेखों से ज्ञात होता है कि कनिष्क का अधिकार कम्बोज, गान्धार, काहिरा तथा काबुल पर था। कनिष्क का राज्य अफगानिस्तान की सीमा तक फैला था।
पार्थिया पर विजय : कनिष्क के पूर्वज कुजुल कदफिस ने पार्थयन राजा को पराजित किया था। उस पराज का बदला लेने के लिये पार्थिया के राजा ने कनिष्क पर आक्रमण किया। इस युद्ध में पार्थिया का राजा परास्त हुआ।
चीन पर विजय: कनिष्क ने चीन के राजा के साथ भी लोहा लिया। उन दिनों चीन में हो-ती नामक राजा शासन कर रहा था। कनिष्क ने अपने एक राजदूत के साथ हो-ती के पास यह प्रस्ताव भेजा कि वह अपनी कन्या का विवाह कनिष्क के साथ कर दे। हो-ती ने इस प्रस्ताव को अपमानजनक समझा और कनिष्क के राजदूत को बन्दी बना लिया।
इस पर कनिष्क ने चीन के राजा पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कनिष्क को सफलता नहीं मिली। और वह परास्त होकर वापस लौट आया। कुछ समय पश्चात् हो-ती के मर जाने पर कनिष्क ने दूसरी बार चीन पर आक्रमण किया। इस बार उसे सफलता प्राप्त हुई।
वह दो चीनी राजकुमारों को बन्दी बना कर अपनी राजधानी में ले आया और उनके रहने के लिए समुचित व्यवस्था की। चीनी साक्ष्यों से पता लगता है कि कनिष्क ने काशगर, खेतान तथा यारकन्द पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार कनिष्क का साम्राज्य न केवल भारत के वरन् दक्षिण-पश्चिमी एशिया के भी बहुत बड़े भाग में फैला था।
कनिष्क का शासन प्रबन्ध
कनिष्क के शासन प्रबन्ध के विषय में अधिक ज्ञात नही है परन्तु जो थोड़े-बहुत साक्ष्य प्राप्त होते हैं उनसे ज्ञात होता है कि उसने पुष्पपुर अथवा पेशावर को अपनी राजधानी बनाया, जो उसके साम्राज्य के केन्द्र में स्थित था। यहीं से वह अपने सम्पूर्ण साम्राज्य पर शासन करता था।
चूंकि कनिष्क का साम्राज्य अत्यन्त विशाल था और वह पूर्व तथा पश्चिम में दूर-दूर तक फैला था, इसलिये कनिष्क ने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त किया तथा उनमें प्रान्तपति नियुक्त किये जो छत्रप तथा महाक्षत्रप कहलाते थे। सारनाथ के अभिलेख से उसके क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों के नाम भी ज्ञात होते हैं। इसलिये यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उसने शकों की क्षत्रपीय शासन-व्यवस्था का अनुसारण किया।
कनिष्क का धर्म
कनिष्क के धार्मिक विश्वासों का ज्ञान उसकी मुद्राओं से होता है। उसकी प्रथम कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर यूनानी देवता, सूर्य, तथा चन्द्रमा के चित्र मिलते हैं। उसकी दूसरी कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर ईरानी देवता अग्नि के चित्र मिलते हैं तथा उसकी तीसरी कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर बुद्ध के चित्र मिलते हैं।
इससे अनुमान होता है कि कनिष्क आरम्भ में यूनानी धर्म को मानता था, उसके बाद उसने ईरानी धर्म स्वीकार किया और अन्त में वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी बन गया। उसकी मुद्राओं से ज्ञात होता है कि कनिष्क में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वह समस्त धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था।
इसी से उसने अपनी मुद्राओं में यूनानी, ईरानी तथा भारतीय तीनों देवताओं को स्थान देकर उन्हे सम्मानित किया। कुछ विद्वानों की यह भी धारणा है कनिष्क की मुद्राओं पर अंकित देवताओं से ज्ञात होता है कि उसके साम्राज्य में कौन-कौन से धर्म प्रचलित थे। ये मुद्राएं कनिष्क के व्यक्तिगत धर्म की द्योतक नहीं हैं।
कनिष्क और बौद्ध धर्म: कनिष्क प्रारम्भ में चाहे जिस धर्म को मानता रहा हो परन्तु वह मगध विजय के उपरान्त निश्चित रूप से बौद्ध हो गया था। पाटलिपुत्र में कनिष्क की भेंट बौद्ध-आचार्य अश्वघोष से हुई। वह अश्वघोष की विद्वता तथा व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपने साथ अपनी राजधानी पुष्पपुर अथवा पेशावर ले गया और उससे बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक की भाँति कनिष्क भी बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने से पूर्व, क्रूर तथा निर्दयी था परन्तु बौद्ध धर्म का आलिंगन कर लेने के उपरान्त वह भी अशोक की भांति उदार तथा दयालु हो गया था।
धार्मिक सहिष्णुता: अशोक की भांति कनिष्क में भी उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। इन दोनों सम्राटों ने बौद्ध धर्म को आश्रय दिया परन्तु अन्य धर्मों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। अन्य धर्मों को भी आदर की दृष्टि से देखा और उनकी सहायता की। कनिष्क की मुद्राओं में बुद्ध के साथ-साथ भगवान शिव की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। वह हवन भी किया करता था जिससे स्पष्ट है कि वह ब्राह्मण धर्म में भी विश्वास रखता था। अशोक की भाँति कनिष्क ने भी बौद्ध-धर्म को दूर-दूर प्रचारित किया।
अशोक तथा कनिष्क के धर्म में अंतर: अशोक तथा कनिष्क दोनों ही बौद्ध धर्म में विश्वास रखते थे किंतु उन दोनों के धार्मिक विश्वासों में बड़ा अन्तर था। अशोक ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लेने के उपरान्तयुद्ध करना बन्द कर दिया था परन्तु कनिष्क बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के बाद भी युद्ध करता रहा। अशोक हीनयान का अनुयायी था और कनिष्क महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था।
चतुर्थ बौद्ध संगीति: जिस प्रकार अशोक ने तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में बुलाई थी उसी प्रकार कनिष्क ने भी चतुर्थ बौद्ध-संगीति काश्मीर के कुण्डलवन में बुलाई। इस संगीति को बुलाने का ध्येय बौद्ध धर्म में उत्पन्न हुए मतभेदों को दूर करना और बौद्ध-ग्रन्थों का सकंलन कर उन पर प्रामाणिक टीका एवं भाष्य लिखवाना था।
इस संगीति में लगभग 500 भिक्षु तथा बौद्ध-आचार्य सम्मिलित हुए। यह सभा बौद्ध-आचार्य वसुचित्र के सभापतित्त्व में हुई। आचार्य अश्वघोष ने उप-सभापति का आसन ग्रहण किया। इस सभा की कार्यवाही संस्कृत भाषा में हुई थी जिससे स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा का सम्मान इस समय बढ़ रहा था।
इस सभा में बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया गया और त्रिपिटक-ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखी गईं। कनिष्क ने इन टीकाओं को ताम्र-पत्रों पर लिखवाकर उन्हें पत्थर के सन्दूक में रखवाकर उन पर स्तूप बनवा दिया।
महायान को मान्यता: चतुर्थ बौद्ध संगीति की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसमें बौद्ध-धर्म के ‘महायान’ संप्रदाय को मान्यता प्रदान की गई। महायान सम्प्रदाय बौद्ध-धर्म का प्रगतिशील तथा सुधारवादी सम्प्रदाय था जो देश तथा काल के अनुसार बौद्ध-धर्म में परिवर्तन करने के पक्ष में था। अब बौद्ध-धर्म का प्रचार विदेशों में हो गया था। भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशियों ने बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में बौद्ध धर्म में थोड़ा बहुत परिवर्तन आवश्यक हो गया था।
इसके अतिरिक्त भारत में भक्ति-मार्ग का प्रचार हो रहा था। इससे बौद्ध-धर्म प्रभावित हुए बिना न रहा। इस समय ब्राह्मण-धर्म का प्रचार भी जोरों से चल रहा था। इसलिये उसकी अपेक्षा बौद्ध-धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए बौद्ध-धर्म में संशोधन की आवश्यकता थी। इन्हीं सब कारणों से बौद्धधर्म में ‘महायान’ पन्थ चलाया गया था। यह पन्थ भक्तिवादी, अवतारवादी तथा मूर्तिवादी बन गया।
महायान सम्प्रदाय वाले, बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी तथा बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी उपासना करने लगे। यद्यपि महायान सम्प्रदाय का बीजारोपण कनिष्क के पहले ही चुका था परन्तु उसे मान्यता बौद्धों की चतुर्थ संगीति में दी गई और उसे कनिष्क ने राज-धर्म बना लिया। यह कनिष्क के शासन-काल की महत्त्वपूर्ण घटना थी।
कनिष्क कालीन साहित्य
कनिष्क के काल में बड़े-बड़े विद्वान् तथा साहित्यकार हुए जिनका कनिष्क से घनिष्ठ सम्पर्क था। बौद्ध-धर्म के आचार्य वसुमित्र, अश्वघोष तथा नागार्जुन इसी काल की महान् विभूतियाँ थीं। वसुमित्र बहुत बड़े धर्माचार्य तथा वक्ता थे। संगीति के आयोजन में भी उनकी बड़ी रुचि थी उनकी विद्वता के कारण ही उन्हें चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष बनाया गया था।
उन्होंने बौद्ध-ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखीं। अश्वघोष इस काल की दूसरी महान् विभूति थे जिनकी गणना बौद्ध-धर्म के महान् आचार्यों में होती है। वे उच्च कोटि के कवि, दार्शनिक, उपदेशक तथा नाटककार थे। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ बुद्ध-चरित्र है जिसकी रचना संस्कृत में हुई। इस महाकाव्य में बुद्ध के चरित्र तथा उनकी शिक्षाओं का वर्णन किया गया है।
नागार्जुन महायान पन्थ का प्रकाण्ड पण्डित तथा प्रवर्तक था। वह विदर्भ का रहने वाला कुलीन ब्राह्मण था परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया और महायान सम्प्रदाय का प्रचारक बन गया। बौद्ध-धर्म का उच्चकोटि का विद्वान् पार्श्व, कनिष्क का गुरु था। आयुर्वेद के आचार्य चरक कनिष्क के राजवैद्य थे। उनकी चरक-संहिता भारतीय आयुर्वेद का अमूल्य ग्रन्थ है।
कनिष्क कालीन कला
कनिष्क के काल में कला की उन्नति हुई। कुषाण वंश के काल में कला की जो उन्नति हुई, उस ओर संकेत करते हुए रॉलिसन ने लिखा है- ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास में कुषाण काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण युग है।’
नये नगरों की स्थापना: अशोक की भाँति कनिष्क भी बहुत बड़ा निर्माता था। उसने दो नगरों का निर्माण करवाया। एक नगर उसने तक्षशिला के समीप बनवाया जिसके खंडहर आज भी विद्यमान हैं। यह नगर ‘सिरपक’ नामक स्थान पर बसाया गया था। कनिष्क ने दूसरा नगर काश्मीर में बसाया था जिसका नाम कनिष्कपुर था।
विहारों की स्थापना: अपनी राजधानी पुष्पपुर में उसने 400 फुट ऊँचा लकड़ी का स्तम्भ तथा बौद्ध-विहार बनवाया। यहीं पर उसने एक पीतल की मंजूषा में बुद्ध के अवशेष रखवाकर एक स्तूप बनवाया। इस स्तूप का निर्माण कनिष्क ने एक यूनानी शिल्पकार से करवाया।
अपने साम्राज्य के अन्य भागों में भी कनिष्क ने बहुत से विहार तथा स्तूप बनवाये। चीनी यात्री फाह्यान ने गान्धार में कनिष्क द्वारा बनवाये गये विहारों तथा स्तूपों को देखा था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 170 विहारों तथा स्तूपों का वर्णन किया है।
मथुरा कला शैली: कनिष्क के काल में मूर्तिकला की बड़ी उन्नति हुई। मथुरा में इस काल की कई मूर्तियाँ मिली हैं। गुप्तकाल की श्रेष्ठ मूर्तिकला शैली को मथुरा शैली का ही विकसित रूप माना जाता है। मथुरा शैली की समस्त कृतियां सरलता से पहचानी जा सकती हैं क्योंकि इनके निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग किया जाता था जो मथुरा के निकट सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था।
मथुरा शैली की मूर्तियां आकार में विशालाकाय हैं। इन मूर्तियों पर मूंछें नहीं हैं। बालों और मूछों से रहित मूर्तियों के निर्माण की परम्परा विशुद्ध रूप से भारतीय है। मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों के दाहिने कंधे पर वस्त्र नहीं रहता। दाहिना हाथ अभय की मुद्रा में उठा हुआ होता है। मथुरा शैली की कुषाण कालीन मूर्तियों में बुद्ध सिंहासन पर बैठे हुए दिखाये गये हैं।
गांधार कला शैली: इस काल में गान्धार-कला की भी बड़ी उन्नति हुई। कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों ने जो बौद्ध-मूर्तियाँ बनवाईं, उनमें से अधिकांश मूर्तियां, गान्धार जिले में मिली हैं। इसी से इस कला का नाम गान्धार-कला रखा गया है। गान्धार-कला की बहुत सी प्रतिमाएँ मुद्राओं पर भी उत्कीर्ण मिलती हैं।
गान्धार-कला को इण्डो-हेलेनिक कला अथवा इण्डो-ग्रीक कला भी कहा जाता है, क्योंकि इस पर यूनानी कला की छाप है। बुद्ध की मूर्तियों में यवन देवताओं की आकृतियों का अनुसरण किया गया है। इस कला को ग्रीक बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस शैली की मूर्तियों में बुद्ध कमलासन मुद्रा में मिलते हैं किंतु मुखमण्डल और वस्त्रों से बुद्ध, यूनानी राजाओं की तरह लगते हैं।
बुद्ध की ये मूर्तियां यूनानी देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्य रखती हैं। महाभिनिष्क्रण से पहले के काल को इंगित करती हुई बुद्ध की जो मूर्तियां बनाई गई हैं, उनमें बुद्ध को यूरोपियन वेश-भूषा तथा रत्नाभूषणों से युक्त दिखाया गया है।
कनिष्क कालीन व्यापार
कनिष्क का साम्राज्य न केवल भारत के बहुत बड़े भाग में अपितु भारत से बाहर उत्तर-पश्चिम एशिया के बहुत बड़े भाग में फैला हुआ था। इस कारण इस काल में भारत का ईरान, मध्य एशिया, चीन, तिब्बत आदि देशों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हो गया। चूँकि कनिष्क ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपना लिया था और बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो गया था, इसलिये इन देशों में उसने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करने का प्रयत्न किया।
सांस्कृतिक सम्बन्ध के साथ-साथ इन देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और इन देशों के साथ स्थायी रूप से व्यापार होने लगा। मुद्राओं से ज्ञात होता है कि इस काल में भारत का रोम साम्राज्य के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध था। भारत से बड़ी मात्रा में वस्त्र, आभूषण तथा शृंगार की वस्तुएँ रोम भेजी जाती थीं और वहाँ से सोना भारत आता था।
कनिष्क की उपलब्धियाँ
कुषाण-वंश के शासकों में कनिष्क सर्वाधिक वीर, साहसी तथा कुशल सेनानायक था। उसने जितने विशाल साम्राज्य पर शासन किया उतने विशाल साम्राज्य पर शासन करने का अवसर किसी अन्य कुषाण शासक को प्राप्त नहीं हुआ। किसी अन्य कुषाणकालीन शासक में प्रशासकीय प्रतिभा भी उतनी नहीं थी जितनी कनिष्क में थी। सांस्कृतिक दृष्टि से भी किसी कुषाण शासक की तुलना कनिष्क से नहीं की जा सकती।
किसी भी अन्य कुषाण शासक में न तो कनिष्क जितनी धर्म परायणता थी और न उतनी सहृदयता तथाा सहिष्णुता थी। कनिष्क का धार्मिक दृष्टिकोण अशोक की भांति व्यापक था। साहित्य तथा कला में भी कनिष्क के समान किसी अन्य कुषाण शासक में रुचि नहीं थी।
कनिष्क की गणना न केवल कुषाण-वंश के वरन् भारत के महान सम्राटों में होनी चाहिये। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के गुणों का समन्वय बताते हुए लिखा है- ‘निस्सन्देह भारत के कुषाण-सम्राटों में कनिष्क का व्यक्तित्त्व सबसे आकर्षक है। वह एक महान् विजेता और बौद्ध-धर्म का आश्रयदाता था। उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य की सामरिक योग्यता और अशोक के धार्मिक उत्साह का समन्वय था।’
उसकी महत्वपूर्ण उपलब्ध्यिाँ निम्नलिखित प्रकार से हैं-
(1) महान् विजेता: कनिष्क की गणना महान् विजेताओं में होनी चाहिये। वह अत्यंत महत्त्वकांक्षी राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और जीवन-पर्यन्त साम्राज्य की वृद्धि करने में लगा रहा। यद्यपि उसने अहिंसात्मक बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था परन्तु अपना विजय अभियान बन्द नहीं किया।
इससे भारत के एक बड़े भाग पर तथा भारत की सीमाओं के बाहर एशिया के बहुत बड़े भाग पर भी उसका शासन हो गया। कनिष्क के अतिरिक्त भारत के अन्य किसी सम्राट् को भारत के बाहर इतने बड़े भू-भाग पर शासन करने का श्रेय प्राप्त नहीं है। उनका साम्राज्य उत्तर में काश्मीर से दक्षिण में सौराष्ट्र तक और पूर्व में बंगाल से पश्चिम में पार्थिया तक विस्तृत था।
उसने काश्गर, यारकन्द तथा खोतन को अपने साम्राज्य में मिला लिया। स्मिथ ने उसकी इन विजयों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘कनिष्क को सर्वाधिक आकर्षक सैनिक सफलता उसकी काशगर, यारकन्द तथा खोतन पर विजय थी।’ चीन के शासन को नत-मस्तक कर उसने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की। इसलिये कनिष्क की गणना भारत के महान् शासकों में करना उचित ही है।
(2) कुशल शासक: प्रशासकीय दृष्टि से भी कनिष्क का स्थान बहुत ऊँचा है। अशोक की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारत में जो कुव्यवस्था तथा अराजकता फैली हुई थी उसे दूर करने में वह सफल रहा। इतने विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखना इस बात का प्रमाण है कि वह शासन करने में अत्यन्त कुशल था।
वह अपने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों पर नियन्त्रण करने में भी सफल रहा। वह अपने साम्राज्य को आन्तरिक उपद्रवों तथा विद्रोहों से मुक्त रख सका। उसकी मुद्राओं, स्तूपों तथा विहारों से ज्ञात होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण था। उसकी प्रजा सुखी थी। उसके शासन काल में विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाने से भारत के उद्योग-धन्धों तथा व्यापार में बड़ी उन्नति हुई। इसलिये एक शासक के रूप में भी कनिष्क को भारतीय इतिहास में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त होना चाहिये।
(3) महान् धर्म-तत्त्ववेत्ता: कनिष्क में उच्चकोटि की धर्म-पराणयता थी। उसने बौद्ध-धर्म की उसी प्रकार सेवा की जिस प्रकार अशोक ने की थी। अशोक की भांति उसने अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया और भिक्षुओं तथा आचार्यों की सहायता की।
उसने चतुर्थ बौद्ध-संगीति बुलाकर बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया और बौद्ध ग्रन्थों पर टीकाएँ तथा भाष्य लिखवाये। महायान सम्प्रदाय को मान्यता देकर, उसे राज धर्म बनाकर और विदेशों में उसका प्रचार करवा कर उसने महायान सम्प्रदाय की बड़ी सेवा की।
उसने महायान को विदेशों में अमर बना दिया। एन. एन. घोष ने लिखा है- ‘महायान सम्प्रदाय के आश्रयदाता तथा समर्थक के रूप में उसे उतना ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जितना अशोक को हीनयान सम्प्रदाय के संरक्षक तथा समर्थक के रूप में प्राप्त था।’ कनिष्क के धार्मिक विचार संकीर्ण नहीं थे और वह कट्टरपन्थी नहीं था। उसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वह अशोक की भांति समस्त धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था।
उसकी मुद्राओं से स्पष्ट हो जाता है कि वह यूनानी, ईरानी तथा ब्राह्मण-धर्म का भी सम्मान करता था। आयंगर ने कनिष्क के सम्बन्ध में लिखा है- ‘वह पारसीक तथा यूनानी देवताओं को भी आदर की दृष्टि से देखता था। इन कथाओं को, कि वह बौद्ध-धर्म का भक्त था, बड़े ही सीमित अंश में स्वीकार करना चाहिए।’ इस प्रकार धार्मिक दृष्टिकोण से कनिष्क, अशोक का समकक्षी ठहरता है।
डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘कनिष्क की ख्याति उसकी विजयों पर उतनी आधारित नहीं जितनी शाक्यमुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।’
(4) महान् निर्माता: यद्यपि कनिष्क का सम्पूर्ण जीवन युद्ध करने तथा अपने साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखने में व्यतीत हुआ था परन्तु उसने शान्ति कालीन कार्यों की ओर भी ध्यान दिया। काश्मीर का कनिष्कपुर नगर उसी ने बसाया। राजधानी पुष्पपुर के समीप उसने एक दूसरे नगर का निर्माण करवाया। राजधानी पुष्पपुर में तथा अपने राज्य के अन्य भागों में उसने कई स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया।
पुष्पपुर में उसने लकड़ी का जो स्तम्भ बनवाया था वह लगभग 400 फीट ऊँचा था। इसलिये एक निर्माता के रूप में भी कनिष्क को यश प्राप्त होना चाहिए। स्मिथ ने एक निर्माता के रूप में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘स्थापत्यकला को उसकी सहायक शिल्प के साथ कनिष्क का उदार संरक्षण प्राप्त था जो अशोक की भांति एक महान् निर्माता था।’
(5) साहित्य तथा कला का महान् प्रेमी: कनिष्क ने अपने युग के बड़े-बड़े विद्वानों, लेखकों तथा धर्माचार्यों को आश्रय प्रदान किया। अपने समय के विख्यात धर्माचार्य वसुमित्र तथा अश्वघोष को चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष बनवा कर उन्हें सम्मानित किया।
कनिष्क ने बौद्ध-आचार्य पार्श्व की शिष्यता ग्रहण कर बौद्ध धर्म को प्रतिष्ठित किया। नागार्जुन जैसा महायान धर्म का आचार्य उसके सम्पर्क में था। यह श्रेय कनिष्क को ही प्राप्त है कि गान्धार-शैली की प्रतिष्ठा उसके शासन-काल में बढ़ी और अन्यत्र भी उसका अनुकरण होने लगा।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि विजेता, शासक, निर्माता, धर्मवेत्ता, साहित्य एवं कला-प्रेमी के रूप में भारतीय इतिहास में कनिष्क को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त होना चाहिए। इस सम्बन्ध में स्मिथ का यह कथन उल्लेखनीय है- ‘कुषाण सम्राटों मे केवल कनिष्क ही अपना नाम छोड़ गया है जो भारत की सीमाओं के सुदूर बाहर भी विश्रुत था और जिसकी समता के करने लिए लोग लालायित रहते आये हैं।’
कनिष्क की हत्या
कनिष्क के शासन काल की अलग-अलग अवधियां अनुमानित की गई हैं। कुछ इतिहासकारों ने आरा अभिलेख के आधार पर उसके शासनकाल की अवधि 45 वर्ष मानी है। अधिकांश विद्वान इस अवधि को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार कनिष्क ने केवल 23 वर्ष तक शासन किया।
दंत कथाओं से ज्ञात होता है कि कनिष्क की प्रजा उसकी सामरिक प्रवृत्ति तथा साम्राज्यवादी नीति से अप्रसन्न हो गयी और उसके सैनिकों ने षड्यंत्र रचकर उसकी हत्या कर दी। यदि उसके शासन की अवधि 45 वर्ष मानते हैं तो उसकी हत्या 123 ई. में हुई और यदि उसके शासन की अवधि 23 वर्ष मानते हैं तो कनिष्क की हत्या 101 ई. में होनी निश्चित होती है।
कनिष्क के उत्तराधिकारी
कनिष्क की मृत्यु के उपरान्त वसिष्क, हुविष्क तथा कनिष्क (द्वितीय) नाम के कुषाण राजा हुए। इन शासकों के सम्बन्ध में अधिक ज्ञात नहीं होता है।
कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव
कुषाण-वंश का अन्तिम शासक वासुदेव था। उसका राज्य केवल मथुरा तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों तक सीमित था। वह भगवान शिव का उपासक था। उसकी मुद्राओं पर नन्दी का चित्र अंकित है। वासुदेव के शासन-काल में कुषाण साम्र्राज्य छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो गया और उत्तरी भारत में कई राज-वंशों का उदय हुआ जिन्होंने कुषाण-साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। कुषाण साम्राज्य के पश्चिमोत्तर भाग पर शकों तथा पार्थियनों ने अधिकार जमा लिया।
कुषाण वंश का पतन
कुषाण-साम्राज्य के पतन का मूल कारण इसके अन्तिम सम्राटों की अयोग्यता थी परन्तु किस शक्ति ने कुषाणों का उन्मूलन किया, इस पर विद्वानों में मतभेद है। काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार कुषाण साम्राज्य के उन्मूलन का कार्य नागों और वाकाटकों द्वारा सम्पन्न किया गया था परन्तु डॉ. अल्तेकर के विचार में यह कार्य यौधेय, कुणिन्द, मालव, नाग और माघ जातियों के द्वारा सम्पन्न किया गया। वास्तव में वह युग विदेशी सत्ता के विरुद्ध एक प्रबल प्रतिरोध का युग था। अनेक तत्कालीन गणराज्यों ने यौधेय राज्य के नेतृत्व में कुषाण-साम्राज्य के उन्मूलन का प्रयत्न किया और वे उसमें सफल रहे।
कुषाण वंश के काल में कला एवं संस्कृति
कुषाण-काल में बड़े-बड़े विद्वान् तथा साहित्यकार हुए। वसुमित्र, अश्वघोष, चरक, पार्श्व तथा नागार्जुन इसी काल की विभूतियाँ है। वसुमित्र ने ‘महाविभाषा-शास्त्र’ की रचना की और चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। बौद्ध-धर्म के महान् आचार्य, कवि, दार्शनिक, उपदेशक तथा नाटककार अश्वघोष ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बुद्ध चरित्र’ की रचना की।
आयुर्वेद के आचार्य चरक कनिष्क के राजवैद्य थे जिन्होने ‘चरक-संहिता’ की रचना की। बौद्ध-धर्म का उच्च कोटि का विद्धान पार्श्व, कनिष्क का गुरु था। नागार्जुन महान् आचार्य एवं दार्शनिक था। इन्हीं उद्भट विद्वानों की ओर संकेत करते हुए डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘अश्वघोष, नार्गाजुन तथा अन्य लोगों की कृतियों से यह सिद्ध हो जाता है कि कुषाण-काल महती क्रियाशीलता का युग था। यह धार्मिक उत्तेजना तथा धर्म-प्रचार का भी युग था।’
रॉलिन्स ने लिखा है- ‘इस काल में नूतन साहित्यिक स्वरूप प्रकाश में आते है, नाटक तथा महाकाव्य सामने आते हैं और प्रतिष्ठित संस्कृत का विकास होता है।’
कुषाण वंश के बाद अन्धकार का युग
कुषाण वंश के पतन के बाद और गुप्त साम्राज्य के उदय के पूर्व के युग को भारतीय इतिहास में ‘अन्धकार का युग’ कहा गया है। डॉ. स्मिथ ने लिखा है- ‘कुषाण तथा आन्ध्र राजवंशों के विनाश और साम्राज्यवादी गुप्त साम्राज्य के उदय के मघ्य काल का समय, भारत के सम्पूर्ण इतिहास में सर्वाधिक अन्धकारमय है।’
स्मिथ का यह कथन सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि आधुनिक काल में मुद्राओं तथा अभिलेखों के आधार पर जो शोध का कार्य हुआ है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि कुषाण वंश के पतन के बाद भारत में अन्धकार का युग नहीं था। इस युग में भारत में अनेक राजतन्त्र तथा गणतन्त्र विद्यमान थे। इस समय सात राजतन्त्र तथा नौ गणतन्त्र विद्यमान थे।
राजतन्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- नाग, अहिक्षत्र, अयोध्या, कौशाम्बी, वाकाटक, मौखरि और गुप्त। गणतन्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- आर्जुनायन, मालव, यौधेय, शिवि, लिच्छवि, कुणिन्द, कुलूट, औदुम्बर और मद्र। राजतन्त्रों में नाग-राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था और गणराज्यों में यौधेय गणराज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था। इन्ही राज्यों के ध्वंशावशेषों पर गुप्तों के विशाल साम्राज्य का निर्माण होना था।