नूरजहाँ का उत्थान जहाँगीर कालीन राजनीति की प्रमुख घटना थी। जहाँगीर के शासनकाल में नूरजहाँ ही मुगललिया सल्तनत की वास्तविक शासक थी।
नूरजहाँ का बचपन का नाम मेहरुन्निसा था। फारसी में मेहर प्रेम को कहते हैं तथा अरबी में निसा स्त्री को कहते हैं। इस प्रकार मेहरुन्निसा का शाब्दिक अर्थ प्रेम करने योग्य स्त्री होता है। जब मेहरुन्निसा का विवाह जहाँगीर के साथ हुआ तब उसका नाम नूरमहल रखा गया जिसका अर्थ प्रकाश का भवन होता है। आगे चल कर जहाँगीर ने उसे नूरजहाँ की उपाधि से विभूषित किया जिसका अर्थ विश्व की ज्योति होता है। भारत के इतिहास में वह इसी नाम से प्रसिद्ध है।
मेहरुन्निसा की माता का नाम अस्मत बेगम और पिता का नाम मिर्जा गयासुद्दीन मुहम्मद या गयासबेग था जो तेहरान का रहने वाला था। गयासबेग के पिता का नाम मिर्जा मुहम्मद शरीफ या ख्वाजा शरीफ था जो खुरासान के शासक के यहाँ वजीर था। दुर्भाग्यवश ख्वाजा शरीफ के दुर्दिन आ गये और वह बहुत गरीब हो गया। 1576 ई. वह अपने परिवार को दुःख तथा दारिद्रय में छोड़कर असार संसार से चल बसा। अब परिवार के पालन-पोषण का भार गयासबेग पर आ पड़ा।
नूरजहाँ का जन्म
गयासबेग, तेहरान में अपनी स्थिति सुधरने की संभावना नहीं देखकर अपनी गर्भवती स्त्री तथा बच्चों को लेकर एक काफिले के साथ भारत के लिए चल पड़ा। मार्ग में इस काफिले को डाकुओं ने लूट लिया परन्तु गयासबेग काफिले के साथ आगे बढ़ता रहा।
1576 ई. में जब गयासबेग कन्दहार पहुँचा तब उसकी स्त्री ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम मेहरुन्निसा रखा गया। कन्या के जन्म से गयासबेग की मुसीबतें बढ़ गईं परन्तु काफिले के प्रधान मलिक मसऊद ने उसकी सहायता की। उसने उसे तथा उसके परिवार को फतेहपुर सीकरी तक सुरक्षित पहुँचा दिया और बाहशाह अकबर से उसका परिचय करा दिया। बादशाह गयासबेग की योग्यता से बहुत प्रभावित हुआ और उसे अपनी सेना में रख लिया।
नूरजहाँ का बचपन
गयासबेग अपनी योग्यता, कार्य कुशलता तथा परिश्रम के बल पर उन्नति करने लगा। 1595 ई. में बादशाह ने उसे काबुल का वजीर बना दिया। जब जहाँगीर तख्त पर बैठा तब उसने अपने शासन के प्रथम वर्ष में ही गयासबेग को संयुक्त दीवान बना दिया और उसे ऐतिमादुद्दौला की उपाधि दी जिसका अर्थ होता है राज्य का विश्वासपात्र।
मेहरुन्निसा सुंदर लड़की थी। पिता गयासबेग ने उसकी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। अच्छी शिक्षा ने उसमें व्यवहार कुशलता तथा कई गुण उत्पन्न कर दिये जिनके कारण उसका स्वाभाविक सौन्दर्य कई गुना हो गया। इस कारण वह कुलीन तथा राजवंश की स्त्रियों की संगति के योग्य हो गई।
नूरजहाँ का पहला विवाह
जब मेहरुन्निसा की अवस्था केवल 16 वर्ष की थी तब उसका विवाह अली कुली नामक एक ईरानी नवयुवक के साथ हो गया जो अकबर की सेना में नौकर था। अली कुली वीर तथा साहसी व्यक्ति था। जिस समय शाहजादा सलीम मेवाड़ के विरुद्ध युद्ध करने जा रहा था, उस समय अकबर ने अली कुली को भी उसके साथ भेज दिया।
सलीम ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे शेर अफगान की उपाधि दी। इस प्रकार वह शाहजादे का कृपापात्र बन गया। आगे चलकर जब सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तब अली कुली ने अकबर का साथ दिया। इससे सलीम उससे नाराज हो गया।
जब सलीम को तख्त प्राप्त हो गया तब उसने शेर अफगान को बर्दवान का हाकिम बना कर भेज दिया जो बंगाल के पूर्वी किनारे पर स्थित था। वहाँ का जलवायु अस्वास्थ्यकर था इस कारण वहाँ कोई भी जाना पसन्द नहीं करता था। शेर अफगन भी अपनी नियुक्त से प्रसन्न नहीं था परन्तु उसने बादशाह की आज्ञा का पालन किया और अपनी पत्नी के साथ बर्दवान चला गया परन्तु वहाँ उसने अफगानों के विद्रोहों के दबाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसलिये जहाँगीर ने शेर अफगन को वापस बुला लेना ही अधिक उचित समझा।
जहाँगीर ने कुतुबुद्दीन खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया और उसे निर्देश दिये कि वह शेर अफगन को वापस भेज दे। कुतुबुद्दीन ने शेर अफगन को अपने निवास पर बुलवाया। शेर अफगन ने सूबेदार के निवास पर जाने से मना कर दिया। इस पर कुतुबुद्दीन ने स्वयं बर्दवान जाने और शेर अफगन को दण्डित करने का निश्चय किया।
जब वह बर्दवान पहुँचा तब उसने शेर अफगन को बुलाया। शेर अफगन दो आदमियों को साथ लेकर कुतुबुद्दीन के पास गया जिससे उसकी स्वामि भक्ति पर संदेह न हो परन्तु इसका परिणाम उलटा हुआ। सूबेदार ने इसे सदाचार के विरुद्ध समझा और इसमें अपना अपमान समझा।
इसलिये उसने अपने आदमियों से कहा कि वे उसे चारों ओर से घेर लें। शेर अफगन इस अपमान को सहन नहीं कर सका। उसने सूबेदार को खूब फटकारा और अपनी तलवार से प्रहार करके उसे बुरी तरह घायल कर दिया। सूबेदार के सेवकों ने शेर अफगन के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यह घटना 30 मार्च 1607 को घटी।
जहाँगीर से विवाह
शेर अफगन की मृत्यु से मेहरुन्निसा के पिता तथा उसके भाई जो राज्य में उच्च पदों पर आसीन थे, बड़ी चिन्ता हुई। जहाँगीर ने बंगाल के अधिकारियों के पास आदेश भेजा कि शेर अफगन का परिवार तुरन्त सुरक्षित आगरा भेज दिया जाये। मेहरुन्निसा के शेर अफगान से एक कन्या उत्पन्न हुई थी जिसका नाम लाडली बेगम था।
बादशाह की आज्ञा का तुरन्त पालन किया गया और मेहरुन्निसा अपनी लड़की के साथ आगरा लाई गई तथा राजमहल की सबसे वयोवृद्ध महिला सलीमा बेगम की सेवा में रख दी गई, जो हकीम मिर्जा की लड़की तथा अकबर की प्रथम पत्नी थी। सलीमा बेगम ने मेहरुन्निसा को बड़े स्नेह के साथ अपने पास रखा।
इस प्रकार राजमाता की सेवा तथा सुरक्षा में मेहरुन्निसा के चार वर्ष व्यतीत हुए। अपने शासन के छठे वर्ष में नौरोज के उत्सव के अवसर पर मीना बाजार में जहाँगीर की दृष्टि मेहरुन्निसा पर पड़ी। यद्यपि उस समय मेहरुन्निसा की अवस्था चौंतीस वर्ष की हो चुकी थी परन्तु उसके रूप लावण्य में कोई कमी नहीं आई थी।
उसके अनुपम सौन्दर्य को देखकर जहाँगीर उस पर आसक्त हो गया और मार्च 1611 ई. में उसने मेहरुन्निसा से विवाह कर लिया। उसके अलौकिक सौन्दर्य के कारण जहाँगीर ने उसे पहले नूरमहल और बाद में नूरजहाँ की उपाधि दी। इस विवाह के बाद नूरजहाँ का उत्थान होना आरम्भ हो गया। नूरजहाँ सदैव जहाँगीर की प्रीतपात्री बनी रही। 1612 ई. में नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमन्द बानू बेगम का विवाह शाहजादा खुर्रम के साथ हो गया।
नूरजहाँ का उत्थान
दरबारी राजनीति के चलते जहाँगीर के दरबार में नूरजहाँ के सम्बन्धियों का एक प्रबल गुट बन गया। इस गुट में नूरजहाँ, उसका पिता एतिमादुद्दौला, नूरजहाँ का भाई आसफखाँ और शहजादा खुर्रम सम्मिलित थे। नूरजहाँ ने खुर्रम का समर्थन करना आरम्भ किया और उसकी प्रतिष्ठा तथा प्रभाव को बढ़ाने में योग देना आरम्भ किया।
यह गुट इतना प्रबल हो गया और राज्य में इसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि अन्य अमीर आशंकित हो उठे। इस कारण नूरजहाँ के गुट के विरोध में एक विरोधी दल खड़ा हो गया। विरोधी दल का नेता महावत खाँ था। महावत खाँ को नूरजहाँ का उत्थान अच्छा नहीं लगा। इसलिए महावत खाँ के गुट ने शाहजादा खुसरो का समर्थन करना आरम्भ किया।
नूरजहाँ का गुट अपने उद्देश्यों में अत्यधिक सफल रहा परन्तु धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदलने लगीं। जहाँगीर के पुत्रों में खुर्रम सर्वाधिक योग्य तथा महत्त्वाकांक्षी था। उसकी दृष्टि शाही तख्त पर लगी हुई थी जबकि जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र खुसरो अधिक लोकप्रिय था।
इसलिये जहाँगीर के बाद उसी के बादशाह बनने की सर्वाधिक सम्भावना थी किंतु खुसरो ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा करके अपनी स्थिति खराब कर ली। इस प्रकार खुर्रम का मार्ग प्रशस्त हो गया और उसमें तख्त प्राप्त करने की कामना और अधिक प्रज्वलित हो उठी।
इन दोनों शहजादों के समर्थन में दरबारी अमीर दो गुटों में विभक्त होने लगे। खुर्रम के पक्ष में नूरजहाँ तथा उसका पूरा परिवार था। खुर्रम का श्वसुर आसफखाँ खान-ए-सामान के पद पर था और आसफखाँ का पिता एतिमादुद्दौला प्रधानमन्त्री के पद पर था। नूरजहाँ का प्रभाव बादशाह पर दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा था। इस प्रकार खुर्रम का पलड़ा अधिक भारी पड़ने लगा। खुर्रम स्वयं भी अपनी योग्यता का पूरा परिचय दे रहा था।
खुर्रम से विवाद
1620 ई. में नूरजहाँ ने शेर अफगन से उत्पन्न हुई पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरियार के साथ कर दिया। यहीं से नूरजहाँ तथा शाहजहाँ के बीच खाई उत्पन्न हो गई। अब नूरजहाँ खुर्रम की बजाय शहरियार का प्रभाव बढ़ाने और उसे उसे तख्त पर बैठाने का प्रयत्न करने लगी।
दूसरी तरफ आसफ खाँ अपने दामाद खुर्रम का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास करने लगा। इस प्रकार नूरजहाँ, शाहजहाँ तथा आसफ खाँ का एक गुट में रहना सम्भव नहीं रहा। 1620 ई. नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम और 1621 ई. नूरजहाँ के पिता एतिमादुद्दौला की मृत्यु हो गई। इस प्रकार नूरजहाँ का गुट समाप्त हो गया और नूरजहाँ तथा खुर्रम के बीच मनोमालिन्य तथा विरोध बढ़ने लगा। इस विवाद के बाद से नूरजहाँ का उत्थान रुक गया।
उन्हीं दिनों खुर्रम को मेवाड़ तथा दक्षिण भारत के अभियानों में अच्छी सफलता मिली और सल्तनत में उसे अधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। इस सफलता के कारण खुर्रम उद्दण्ड हो गया। उधर एतिमादुद्दौला के मरने के बाद वकील का पद नूरजहाँ को प्राप्त हो गया जिससे उसके भी प्रभाव तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई। इस प्रकार नूरजहाँ तथा शाहजहाँ दोनों एक दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंद्वी हो गये।
खुर्रम को तख्त तक पहुँचने के लिये दो प्रमुख प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय प्राप्त करनी थी। पहला था खुसरो तथा दूसरा था शहरियार। खुर्रम ने पहले खुसरो को समाप्त करने का निश्चय किया। 1620 ई. में जब जहाँगीर ने खुर्रम को दक्षिण राज्यों के विरुद्ध युद्ध करने का लिये भेजना चाहा तब खुर्रम इस शर्त पर जाने के लिए तैयार हुआ कि खुसरो उसे सौंप दिया जाय।
जहाँगीर ने इस माँग को स्वीकार कर लिया और अभागे शाहजादे को शाहजहाँ को सौंप दिया। इस प्रकार अपने एक प्रतिद्वन्द्वी को अपने अधिकार में करके खुर्रम ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना लिया। 22 फरवरी 1621 ई. को बुरहानपुर के दुर्ग में खुर्रम ने खुसरो की हत्या करवा दी।
मूल आलेख – नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर एवं नूरजहाँ
नूरजहाँ का उत्थान



 
                                    