भारत के विदेशी शासक मुख्यतः यूनानी, शक, पह्लव एवं कुषाण वंश के थे। इस अध्याय में यूनानी, शक एवं पह्लवों पर जानकारी दी गई है। कुषाण वंश के बारे में अगले अध्याय में जानकारी उपलब्ध करवाई गई है।
विदेशी आक्रमण
अशोक की मृत्यु के साथ ही भारत की राजनीतिक विशृंखलता पुनः आरम्भ हो गई। उत्तरकालीन मौर्य शासकों में इतनी शक्ति न थी कि वे पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित रख सकते। इसलिये उत्तर-पश्चिम की ओर से यवन, शक, कुषाण आदि विदेशियों के आक्रमण आरम्भ हो गये और उन्होंने भारत में अपनी सत्ता जमा ली।यूनानी शासक
भारत के विदेशी शासक – यूनानी शासक
यूनानियों को यवन कहा जाता है। भारत पर पहला यूनानी आक्रमण 322 ई.पू. में मकदूनिया के शासक सिकन्दर ने किया किंतु उसे अपना विजय अभियान बीच में ही छोड़ देना पड़ा। उसने सैल्यूकस निकेटर को पंजाब का गवर्नर बनाया था।
सैल्यूकस ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण किया किंतु परास्त होकर संधि करने को विवश हुआ। चंद्रगुप्त ने उसे भारत की सीमा से बाहर कर दिया। सैल्यूकस के उत्तराधिकारी अपनी सेनाओं तथा सैनिक परिवारों के साथ हिन्दूकुश पर्वत तथा आक्सस नदी के मध्य स्थित बैक्ट्रिया में स्थायी रूप से निवास करने लगे। यहीं से वे भारत की राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि लगाये रहते थे।
डिमैट्रियस
अशोक की मृत्यु के उपरान्त जब मौर्य-साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ तब बैक्ट्रिया के यूनानियों के आक्रमण भी भारत पर आरम्भ हो गये। इन दिनों बैक्ट्रिया में डिमेट्रियस नामक राजा शासन कर रहा था। उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उसने 190 ई.पू. में भारत पर आक्रमण किया।
काबुल तथा पंजाब पर अधिकार स्थापित करने के बाद वह तेजी से आगे बढ़ता हुआ पाटलिपुत्र तक पहुँच गया। उसकी यह विजय क्षणिक सिद्ध हुई क्योंकि मध्य-प्रदेश में उसके पैर नहीं जम सके। कंलिग के खारवेल राजा ने उसे न केवल पूर्वी प्रदेशों से वरन् पंजाब से भी मार भगाया।
मगध के राजा पुष्यमित्र शुंग ने भी यवनों का पीछा किया और उन्हें सिन्धु नदी के उस पार खदेड़ दिया परन्तु भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में यूनानियों के पैर जम गये और डिमेट्रियस पूर्वी पंजाब में शाकल (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाकर वहीं से शासन करता रहा।
मिनैण्डर
इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक मिनैण्डर अथवा मेनेन्द्र था। बौद्ध-ग्रन्थों में उसे मिलिन्द कहा गया है। उसका शासन-काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक माना जाता है। उसने भी शाकल अथवा स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मेनेन्द्र बहुत बड़ा विजेता था। उसने शुंग राजाओं के साथ भी लोहा लिया। नागसेन नामक बौद्ध-भिक्षु ने उसे बौद्ध-धर्म में दीक्षित किया। इससे वह बौद्धों का आश्रयदाता बन गया।
उसने बहुत से बौद्ध मठों, स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। वृद्धावस्था में उसने एक बौद्ध-भिक्षु की तरह जीवन व्यतीत किया और अर्हत् का पद प्राप्त किया। मेनेन्द्र के उत्तराधिकारी निर्बल सिद्ध हुए। उन्होंने 50 ई.पू. तक शासन किया। अन्त में शकों ने उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया।
यूक्रेटिडस
162 ई.पू. में बैक्ट्रिया के शासक यूक्रेटिडस ने भारत पर आक्रमण किया और काबुल की घाटी तथा पश्चिमी पंजाब पर अधिकार जमा लिया। तक्षशिला, पुष्कलावती तथा कपिशा भी उसके अधिकार में थे। 155 ई.पू. में यूक्रेटिडस के पुत्र ने उसका वध कर दिया। इन दिनों यूनानियों पर शकों के आक्रमण हो रहे थे।
शकों ने न केवल भारत से यूनानियों को मार भगाया, अपितु बैक्ट्रिया पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार लगभग 40 ई. पू. में यवनों की सत्ता भारत में समाप्त हो गई और भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में शकों की सत्ता स्थापित हो गई।
भारत के विदेशी शासक – शक शासक
शक पर्यटनशील थे। वे मूलतः मध्य-एशिया में सिकंदरिया के उत्तरी प्रदेश में निवास करते थे। उनके समीप उत्तरी-पश्चिमी चीन में यू-ची नाम की एक दूसरी जाति निवास करती थी। यूचियों के पड़ौस में हूँग-नू नामक दूसरी जाति निवास करती थी। 174-176 ई.पू. में हूँग-नू जाति ने यूचियों पर आक्रमण करके उन्हें अपने निवास-स्थान से मार भगाया।
अब यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में निकल पड़े और अपने पड़ौस में बसने वाले शकों पर टूट पड़े तथा उन्हें वहाँ से मार भगाया। इस प्रकार शक लोग अपनी जन्म-भूमि छोड़ने पर विवश हो गये और दक्षिण की ओर चल पडे। ये लोग कई शाखाओं में विभक्त हो गये और विभिन्न देशों में चले गये।
बैक्ट्रिया पर अधिकार
शकों की एक शाखा ने हेलमन्द नदी की घाटी पर अधिकार जमा लिया और उसका नाम शकस्तान अथवा सीस्तान रखा। यहाँ पर भी ये शान्ति से नहीं रह पाये। यूचियों के दबाव के कारण उन्हें आगे बढ़ना पड़ा। अब वे बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के राज्यों पर टूट पड़े। उन्हें पार्थिया के विरुद्ध विशेष सफलता प्राप्त नहीं हो सकी परन्तु पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बैक्ट्रिया पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया।
शकों का भारत में प्रवेश
शकों ने बैक्ट्रिया से भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया। उन्होंने कन्दहार तथा बिलोचिस्तान से होकर बोलन के दर्रे से सिन्ध के निचले प्रदेश में प्रवेश किया और वहीं पर बस गये। शकों के नाम पर इस प्रदेश का नाम शकद्वीप पड़ गया। इसी को शकों ने अपना आधार बनाया और यहीं से वे भारत के विभिन्न भागों मे फैल गये।
जॉन मार्शल के अनुसार भारत में शकों का पहला शासक मावेज था। मावेज के बाद एवेज शकों का शासक बना। एजीलिसेज उसे गद्दी से हटाकर स्वयं शासक बन गया। उसने 12 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद एवेज द्वितीय ने लगभग 43 ई. तक शासन किया।
भारत के विभिन्न भागों पर अधिकार
सिन्ध में अपनी सत्ता स्थापित कर लेने के उपरान्त शकों ने काठियावाड़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और एक ही वर्ष में वे सौराष्ट्र तक पहुंच गये। इसके बाद उन्होंने उज्जयिनी पर आक्रमण किया और उस पर प्रभुत्व जमा लिया। शक आक्रांता उज्जैन से मथुरा की ओर बढ़े और उस पर भी अधिकार कर लिया।
अब शक लोग दो मार्गों से पंजाब की ओर बढ़े। वे मथुरा से उत्तर-पश्चिम दिशा में और सिन्ध से नदियों के मार्ग द्वारा उत्तर-पूर्व दिशा में आगे बढ़े। कालान्तर में शकों ने पंजाब तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के एक बहुत बड़े भाग पर शकों का आधिपत्य स्थापित हो गया। नासिक तथा मथुरा के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि शकों की सत्ता पूर्व में यमुना नदी तक और दक्षिण में गोदावरी नदी तक व्याप्त थी।
क्षत्रप शासन-व्यवस्था
शकों ने भारत में विस्तृत राज्य स्थापित किया। इस पर नियंत्रण रखने के लिये उन्होंने क्षत्रप शासन-व्यवस्था स्थापित की। सामान्यतः शकों के प्रत्येक प्रांत में दो क्षत्रप होते थे- (1) क्षत्रप तथा (2) महाक्षत्रप।
स्पार्टा में द्वैराज्य की प्रथा थी। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इस बात का उल्लेख किया है। प्रारंभ में भारत के क्षत्रप अथवा महाक्षत्रप, स्वतंत्र राजा नहीं थे। वे प्रान्तीय शासक थे तथा केन्द्रीय शासक की अधीनता में शासन करते थे। क्षत्रप शासन-व्यवस्था पंजाब, मथुरा, महाराष्ट्र तथा उज्जैन में स्थापित हुई। शकों की केन्द्रीय शक्ति समाप्त हो जाने के बाद क्षत्रप एवं महाक्षत्रप स्वतंत्र हो गये।
भारत में शक क्षत्रपों के मुख्य केन्द्रों को चार भागों में बांटा जा सकता है-
(1.) उत्तरी भारत के क्षत्रप, (2.) पश्चिमी भारत के शक क्षहरात, (3.) मथुरा के क्षत्रप और (4.) उज्जयिनी के क्षत्रप।
भारत के विदेशी शासक – उज्जयिनी का चष्टन वंश
उज्जयिनी के शक क्षत्रपों में पहला स्वतंत्र शासक चष्टन था। वह बड़ा पराक्रमी सिद्ध हुआ। उसके नाम पर उज्जयिनी का क्षत्रप वंश चष्टन वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
रुद्रदामन (प्रथम)
चष्टन के पुत्र का नाम जयदाम था जो चष्टन के जीवन काल में ही मर गया था। जयदाम के पुत्र का नाम रुद्रदामन था। चष्टन ने अपने पुत्र जयदाम की मृत्यु हो जाने के कारण, अपने पौत्र रुद्रदामन को अपने जीवन काल में ही अपने साथ क्षत्रप बना लिया था। अन्धौ अभिलेख के अनुसार चष्टन ने तथा जयदाम के पुत्र रुद्रदामन ने साथ-साथ शासन किया।
इस अभिलेख में चष्टन तथा रुद्रदामन दोनों के लिये समान रूप से राजा की उपाधि का उपयोग हुआ है। संभवतः दोनों के अधिकार समान थे। भारत के इतिहास में रुद्रदामन को महाक्षत्रप रुद्रदामन (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। वह उज्जयिनी के क्षत्रप शासकों में सर्वाधिक पराक्रमी था।
रुद्रदामन का शासन काल
अन्धौ अभिलेख की तिथि 52 शक संवत् अर्थात् 130 ई. है। इस समय रुद्रदामन, चष्टन के साथ शासन कर रहा था परंतु कतिपय इतिहासकारों के अनुसार रुद्रदामन 140 ई. के बाद सिंहासनारूढ़ हुआ क्योंकि टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्यॉग्राफी में उज्जैन के राजा चष्टन का ही उल्लेख किया है।
हो सकता है कि टॉलेमी ने दोनों राजाओं में से केवल वयोवृद्ध राजा का ही उल्लेख किया हो क्योंकि उसने भूगोल की पुस्तक लिखी न कि इतिहास की। जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन की प्रशस्ति है। इसकी तिथि 72 शक संवत् अर्थात् 150 ई. है। इससे प्रकट होता है कि रुद्रदामन ने कम से कम 150 ई. तक शासन किया।
रुद्रदामन का राज्य विस्तार
अन्धौ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चष्टन और रुद्रदामन सम्मिलित रूप से कच्छ प्रदेश पर शासन कर रहे थे। जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन को स्ववीर्यजित जनपदों वाला, अर्थात् अपने पराक्रम से राज्यों को जीत कर राज्य करने वाला कहा गया है।
जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार आकर (मालवा), अवन्ति (उज्जयिनी), अनूप (नर्मदा के किनारे महिष्मती), नीवृत (पश्चिमी भारत में स्थित एक मण्डल), आनर्त (उत्तरी गुजरात एवं द्वारिका), सुराष्ट्र (सौराष्ट्र अथवा काठियावाड़), श्वभ्र (आधुनिक खेड़), मरु (मारवाड़ अथवा रेगिस्तान का प्रदेश), कच्छ (आधुनिक कच्छ), सिंधु-सौवीर (सिंधु की निचली घाटी), कुकुर (राजपूताना और गुजरात के कुछ भाग), अपरांत (उत्तरी कोंकण) तथा निषाद (पश्चिमी विंध्य एवं सरस्वती की घाटी) रुद्रदामन के राज्य के अंतर्गत थे।
रुद्रदामन के युद्ध अभियान
(1) यौधेयों पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने उन यौधेयों को परास्त किया जिन्हें समस्त क्षत्रियों ने अपना वीर मान लिया था। सिक्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि यौधेयों ने कुषाणों के विरुद्ध एक संघ बना लिया था तथा समस्त क्षत्रियों ने मिलकर यौधेयों को अपना नेता चुना था।
(2) दक्षिणापथ पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को युद्ध में दो बार पराजित किया किंतु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसके प्राण नहीं लिये। इतिहासकार इस शातकर्णि राजा को वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि मानते हैं।
रुद्रदामन का शासन प्रबंध
जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि रुद्रदामन जन्म से लकर राजत्व की प्राप्ति तक राजगुणों और लक्षणों से विभूषित था। इसलिये सभी वर्णों के लोगों ने उसे अपनी रक्षा के लिये अपना स्वामी चुना। इससे उसकी लोकप्रियता का पता चलता है। उसके साम्राज्य में विभिन्न राजपदों, नगरों और निगमों के लोग दस्युओं, सर्पों, हिंसक पशुओं और रोगों से मुक्त थे।
सम्पूर्ण प्रजा उससे अनुरक्त थी। उसने सुदर्शन झील की मरम्मत अपने ही कोष से बिना कोई कर लगाये, प्रजा की समृद्धि के लिये करवाई। इस प्रकार वह प्रजावत्सल जनप्रिय शासक था। उसका कोष सोना, चांदी, वज्र, वैदूर्य, रत्न और बहुमूल्य वस्तुओं से भरा हुआ था जिसे उसने धर्मानुसार बलि, शुल्क तथा भाग के रूप में प्राप्त किया था।
उसने अपने शासन को विभिन्न प्रांतों में बांट रखा था और प्रत्येक प्रांत में अपने अमात्य नियुक्त कर रखे थे। उसकी शासन पद्धति में सचिवों और अमात्यों का महत्वपूर्ण स्थान था। शासन में सहायता देने के लिये मति सचिव (परामर्शदाता), कर्म सचिव (कार्यकारी अधिकारी) आदि नियुक्त थे। रुद्रदामन की शासन पद्धति प्रचलित सप्तांग राज्य-व्यवस्था पर आधारित थी। राज्य की समृद्धि के लिये सिंचाई का उत्तम प्रबंध किया गया था।
रुद्रदामन का व्यक्तित्व
शक क्षत्रपों में रुद्रदामन सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ। उसकी सबसे प्रसिद्ध लिपि जूनागढ़ अभिलेख ही है जिसमें कहा गया है कि वह महान कुरुओं के सम्पर्क में आया तथा उन्होंने ही उसे रुद्रदामन की संज्ञा दी। इसी लेख में उसे शब्दार्थ, संगीत, न्याय आदि विद्याओं में कुशल होने के कारण यशस्वी कहा गया है।
शब्दार्थ से तात्पर्य शब्द शास्त्र अथवा साहित्य से हो सकता है। इसी लेख में उसे विविध शब्द और अलंकारों से युक्त गद्य-पद्य काव्य विधान में प्रवीण कहा गया है। उसकी वाणी संगीत एवं व्याकरण के नियमों से परिबद्ध तथा शुद्ध थी। इससे सिद्ध होता है कि वह गंधर्व विद्या में भी निपुण था।
जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत भाषा में लिखा गया है जिससे हमें उस युग के संस्कृत गद्यकाव्य के स्वरूप का दर्शन होता है। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि वह घोड़े, हाथी और रथ विद्याओं में भी प्रवीण था। असि-चर्म (तलवार-ढाल) के युद्ध में भी वह कुशल था। वह विजेता अवश्य था किंतु उसने निरर्थक रक्तपात न करने की शपथ ली थी। उसने अनेक स्वयंवरों में अपनी शक्ति, शौर्य तथा सौंदर्य से अनेक राजकन्याओं को प्राप्त किया।
रुद्रदामन के उत्तराधिकारी
रुद्रदामन के बाद उसका पुत्र दामघसद (दामोजदश्री) प्रथम, शासक बना। उसका उत्तराधिकारी जीवदामन था। इस वंश का अंतिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था। उसके समय में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसके शासन पर आक्रमण किया तथा उसे मार डाला।
गुप्तकाल में क्षत्रपों का विलोपन
कालान्तर में जब गुप्त साम्राज्य का उत्थान आरम्भ हुआ, तब समस्त क्षत्रप गुप्त साम्राज्य में समाविष्ट हो गये। इस काल में शकों ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को स्वीकार कर लिया और वे भारतीयों में इतना घुल-मिल गये कि वे अपने अस्तित्त्व को खो बैठे। आज उनका कहीं पर नाम-निशान नहीं मिलता।
भारत के विदेशी शासक – पह्लव (पार्थियन) वंश
बैक्ट्रिया के पश्चिम में पार्थिया नामक प्रदेश स्थित था। यह प्रदेश सिकंदर द्वारा स्थापित साम्राज्य के सीरिया प्रांत के अंतर्गत आता था। पार्थिया के लोग पार्थियन अथवा पह्लव कहलाते थे। जिस समय शकों ने भारत में सत्ता स्थापित की उसी समय पह्लवों ने भी भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर आक्रमण करके उसके कुछ भाग में अपनी सत्ता स्थापित की।
माना जाता है कि पार्थिया का प्रथम स्वतंत्र शासक मिथेडेटस था। उसी के नेतृत्व में भारत पर पहला पार्थियन आक्रमण हुआ। पह्लवों के भारतीय राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक वानेजीज था। वह तक्षशिला के शक शासक मावेज का समकालीन था। उसका सीस्तान एवं दक्षिणी अफगानिस्तान पर भी शासन था।
उसने महाराज रजरस महतस (महाराजाधिराज) की उपाधि धारण की। वानेजीज के बाद स्पैलिरिसिस राजा हुआ। पह्लवों में गाण्डोफर्नीज सबसे प्रतापी शासक हुआ। उसने भारत में अपनी शक्ति का खूब विस्तार किया। उसका राज्य पूर्वी फारस से लेकर भारत में पूर्वी पंजाब तक था। उसकी राजधानी गांधार थी।
वह लगभग 19 ई. में सिंहासन पर बैठा तथा लम्बे समय तक शासन करता रहा। गाण्डोफार्नीज के बाद पह्लवों का राज्य दो भागों में विभक्त हो गया जिससे राज्य के विभिन्न भागों में नियुक्त गवर्नर स्वतंत्र होते चले गये। इसी समय कुषाणों के भारत पर आक्रमण आरम्भ हुए जिनके कारण पह्लवों का राज्य समाप्त हो गया।
पह्लव राजाओं के विषय में बहुत जानकारी मिलती है। जो कुछ जानकारी मिली है, वह भी विवाद-ग्रस्त है। इनका इतिहास शकों के साथ इतना घुल-मिल गया है कि उसे अलग करना कठिन है। शकों की भांति पह्लव भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपनाकर भारतीयों में घुल-मिल गये। पश्चिमोत्तर प्रदेश में पह्लवों, शकों तथा यूनानियों की राज-सत्ता को समाप्त करने का श्रेय एक नई जाति को प्राप्त हुआ जो ‘कुषाण’ के नाम प्रसिद्ध है।
भारत के विदेशी शासक – कुषाण वंश
भारत के विदेशी शासक शृंखला में कुषाण वंश के बारे में पढ़िए अगले अध्याय में।