Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 17 : गुप्त साम्राज्य

(प्रारम्भिक गुप्त शासक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त, गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण, गुप्त कला, स्थापत्य कला, साहित्य, दर्शन, धर्म, विज्ञान और तकनीक)

320 ई. से 495 ई. तक भारत में गुप्त शासकों की एक दीर्घ श्ृंखला ने शासन किया जिसे ‘गुप्त-वंश’ के नाम से जाना जाता है। इसे भारतीय पुनर्जागरण का युग तथा भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। मौर्य शासन के नष्ट हो जाने के बाद भारत की राजनीतिक एकता भंग हो गई थी, उस राजनीतिक एकता को इस युग में पुनर्जीवित किया गया। इस वंश के समस्त शासकों के नाम के अंत में प्रत्यय की भांति ‘गुप्त’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो कि उन शासकों की जाति अथवा वंश का सूचक है। इसलिये इस वंश को गुप्त-वंश कहा गया है।

गुप्त काल का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत

साहित्यिक स्रोत

पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

नाटक: विशाखदत्त रचित देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस, शूद्रक रचित मृच्छकटिकम्, कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, कुमारसम्भवम्, रघुवंशम् अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि।

पुरातात्विक स्रोत

स्तम्भलेख, गुहालेख तथा प्रशस्तियां: समुद्रगुप्त के प्रयाग एवं एरण अभिलेख, चंद्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ-लेख, उदयगिरि गुहा अभिलेख। कुमारगुप्त प्रथम का मंदसौर लेख, गढ़वा शिलालेख, बिलसढ़ स्तम्भलेख, स्कन्दगुप्त की जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भ लेख।

ताम्रपत्र: भूमि दान करने सम्बन्धी ताम्रपत्र।

मुद्राएं: गुप्त शासकों की स्वर्ण एवं रजत मुद्राएं।

मंदिर एवं मूर्तियां: उदयगिरि, भूमरा, नचना, कुठार, देवगढ़ एवं तिगवा के मंदिर, सारनाथ बुद्ध मूर्ति, मथुरा की जैन मूर्तियां।

शैलचित्र: अजन्ता एवं बाघ के शैलचित्र।

गुप्त वंश का उद्भव

गुप्तों का मूल स्थान: गुप्त वंश के मूल स्थान के बारे में इतिहासकारों में एक राय नहीं है। कुछ इतिहासकार, बाद के काल के चीनी लेखक इत्सिंग के वर्णन के आधार पर गुप्तों का मूल स्थान मगध को मानते हैं। कतिपय इतिहासकार प्रयाग-साकेत-अवध के क्षेत्र को गुप्तों का मूल स्थान मानते हैं। प्रयाग से समुद्रगुप्त की प्रशस्ति का प्राप्त होना इसका प्रमाण माना जाता है किंतु प्रयाग प्रशस्ति सहित किसी भी लेख में गुप्त शासकों एवं उनके अधिकारियों ने गुप्तों के मूल स्थान का उल्लेख नहीं किया है।

गुप्तों की जाति: गुप्त-सम्राटों की जाति पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है क्योंकि गुप्त उनकी जाति न होकर उनकी उपाधि प्रतीत होती है। वैदिक काल में ‘राजन्य’ के कोष की रक्षा का कार्य करने वाला मंत्री ‘गोप्ता’ कहलाता था। संभवतः गोप्ता ही आगे चलकर गुप्त कहलाये। ‘विष्णुपुराण’ में ब्राह्मणों की उपाधि शर्मा, क्षत्रियों की उपाधि वर्मा, वैश्यों की उपाधि गुप्त और शूद्रों की उपाधि दास बताई गई है। उपाधि के आधार पर गुप्त सम्राट, वैश्य ठहरते है। यह भारतीय परम्परा के अनुकूल भी लगता है। गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘गुप्तों की उत्पत्ति रहस्य से घिरी हुई है, परन्तु नामों के अन्त में गुप्त लगे रहने के कारण उन्हें वैश्य वर्ण अथवा वैश्य जाति का कहना उचित ही होगा।’

आर्य वर्ण व्यवस्था के अनुसार राज-पद क्षत्रियों को ग्रहण करना चाहिए परन्तु अवसर आने पर ब्राह्मणों ने, क्षत्रिय शासकों को पदच्युत करके शासक बनना स्वीकार किया। इसी कारण शुंग, कण्व तथा सातवाहन आदि राज-वंशों की स्थापना हुई। सम्भव है कि ब्राह्मणों का अनुसरण करके वैश्यों ने भी अवसर मिलने पर क्षात्रधर्म स्वीकार कर लिया हो और राज्य की स्थापना करके शासन करने लगे हों। गुप्तों से पूर्व भी इसके उदाहरण मिलते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र प्रांत का प्रांतपति पुष्यगुप्त वैश्य था। इसलिये पर्याप्त सम्भव है कि गुप्त-वंश के शासक वैश्य रहे हों।

गुप्त-वंश के प्रारम्भिक शासक श्रीगुप्त तथा घटोत्कच, किसी अन्य स्वतंत्र राजा के अधीन सामंत थे। इसलिये संभव है कि पुष्यगुप्त कि भांति श्रीगुप्त भी वैश्य रहा हो और किसी क्षत्रिय राजा, सम्भवतः नाग-वंश के सामंत के रूप में शासन करता रहा हो। कालान्तर में इस वंश में उत्पन्न चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करके गुप्त राजवंश की स्थापना की।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुप्त-वंश को वैश्य-वंश स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि इस वंश के राजाओं के वैवाहिक सम्बन्ध क्षत्रिय राजवंशों के साथ थे। चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने लिच्छिव वंश की और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने नाग-वंश की राजकुमारियों से विवाह किये। इतिहासकारों की यह आपत्ति इसलिये मान्य नहीं हो सकती कि राजवंशीय विवाह किसी जाति से बंधे हुए नहीं रहते। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सैल्यूकस की कन्या से विवाह किया था, जो यूनानी था।

डॉ. जायसवाल, डॉ. बी. बी. गोखले आदि इतिहासकारों ने गुप्तों को शूद्र प्रमाणित करने का प्रयास किया है। प्रो. हेमचंद्र रायचौधरी उन्हें ब्राह्मण बताते हैं। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि विद्वानों ने गुप्तों को क्षत्रिय बताया है।

निष्कर्ष: गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जब तक कोई सुदृढ़़ प्रमाण नहीं मिल जाता, तब तक यह कहना कठिन है कि वे किस वर्ण अथवा जाति से थे। तब तक उन्हें वैष्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

गुप्त-काल का महत्त्व

गुप्त-साम्राज्य की स्थापना से भारत के प्राचीन इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है, जिसका राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है।

(1) ऐतिहासिक महत्त्व: गुप्त-वंश का शासन काल हमें ऐतिहासिक तथ्यों के अंधकार से प्रकाश में लाता है। कुषाण-साम्राजय के विध्वंस तथा गुप्त-साम्राज्य के उत्थान के मध्य का काल इतिहास की दृष्टि से अंधकारमय माना जाता है परन्तु गुप्त-काल के आरम्भ होते ही यह अन्धकार समाप्त हो जाता है और क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त होने लगता है। तिथि-सम्बन्धी संदेह भी समाप्त हो जाते हैं। स्मिथ ने लिखा है- ‘चौथी शताब्दी में प्रकाश का पुनः आगमन होता है, अन्धकार का पर्दा हट जाता है और भारतीय इतिहास में फिर एकता तथा दिलचस्पी पैदा हो जाती है।’

(2) राजनीतिक महत्त्व: अशोक की मृत्यु के बाद मौर्यों का विशाल साम्राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया और भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई जिसके परिणाम स्वरूप देश के विभिन्न भागों में देशी-विदेशी राज्यों की स्थापना हो गई, जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में अनेक गणराज्य शक्तिशाली बन गये। इस काल में मालव, यौधेय, अर्जुनायन, मद्र तथा शिवि आदि गणराज्यों ने विदेशी सत्ता पर आघात करके अपनी प्रभुसत्ता का विस्तार किया। विदिशा और मथुरा में नागों की शक्ति का विस्तार हुआ। दक्षिण में वाकाटक शक्तिशाली बन गये। इन्हीं परिस्थितियों में गुप्तों का भी उदय हो रहा था। गुप्त सम्राटों ने देशव्यापी दिग्विजय के माध्यम से इन गणराज्यों एवं छोटे-छोटे राज्यों को अधीन करके, भारत की विच्छन्नता को समाप्त किया और अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर देश को राजनीतिक एकता प्रदान की।

(3) आर्थिक महत्त्व: गुप्त-सम्राटों ने सम्पूर्ण देश में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर उसमें शांति तथा व्यवस्था स्थापित की और लोक-कल्याण के कार्य करके प्रजा को समृद्ध बनाया। गुप्तकाल, भारत की अभूतपूर्व समृद्धि का युग था। इस काल में विदेशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए।

(4) धार्मिक महत्त्व: इस काल में ब्राह्मण-धर्म का चूड़ान्त विकास हुआ। गुप्त-सम्राटों ने ब्राह्मण-धर्म को राजधर्म बना कर संरक्षण प्रदान किया और अश्वमेध यज्ञ करने लगे। इससे ब्राह्मण-धर्म को बड़ा प्रोत्साहन मिला और उसकी द्रुतगति से उन्नति होने लगी। सौभाग्य से गुप्त-साम्राटों में उच्चकोटि की धर्मिक सहिष्णुता थी और वे समस्त धर्मों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करते थे।

(5) सांस्कृतिक महत्त्व: ब्राह्मण-धर्म का संस्कृत भाषा के साथ अटूट सम्बन्ध है। चूंकि गुप्तकाल में ब्राह्मण-धर्म की उन्नति हुई इसलिये संस्कृत भाषा की भी उन्नत्ति हो गई। वास्तव में गुप्तकाल संस्कृत भाषा के चरमोत्कर्ष का काल है। इस काल में साहित्य तथा कला की बड़ी उन्नति हुई और भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में बड़ा प्रचार हुआ। इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक उन्नयन के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।

प्रारंभिक गुप्त शासक

श्रीगुप्त

श्रीगुप्त का काल 275 ई. से 300 ई. माना जाता है। उसी को गुप्त वंश का संस्थापक भी माना जाता है। अभिलेखों में उसे महाराज कहकर सम्बोधित किया गया है। उस काल में महाराज उपाधि का प्रयोग छोटे क्षेत्र के स्वतंत्र शासक के लिये किया जाता था। इसलिये संभव है कि श्रीगुप्त एक सीमित क्षेत्र का स्वतंत्र राजा था। यह क्षेत्र प्रयाग-साकेत होना संभावित है जिसकी राजधानी अयोध्या रही होगी। चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है कि श्रीगुप्त ने नालंदा से 40 योजन (240 मील) दूर पूर्व की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने महाराज की पदवी धारण की। इत्सिंग लिखता है कि 500 वर्ष पूर्व, महाराज श्रीगुप्त ने चीनियों के ठहरने के लिये एक मंदिर बनवाया तथा 240 गांव दान में दिये।

घटोत्कच

श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी घटोत्कच था। उसने संभवतः 300 ई. से 319 ई. अथवा 320 ई. तक शासन किया। उसके शासन काल की किसी भी घटना की जानकारी नहीं मिलती। उसने भी महाराज की उपाधि धारण की। अनेक अभिलेखों में इसे गुप्तवंश का संस्थापक कहा गया है। परंतु सर्वमान्य मत तथा प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि घटोत्कच, गुप्तवंश का दूसरा राजा था। घटोत्कच के नाम की एक स्वर्ण मुद्रा उपलब्ध हुई है जिसे प्रो.एलन ने किसी बाद के राजा का सिक्का माना है। प्रोफेसर गोयल के अनुसार गुप्त-लिच्छवी सम्बन्घ इसी काल में आरम्भ हुए।

चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)

अनेक इतिहासकार चंद्रगुप्त (प्रथम) को गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक मानते हैं। सिंहासन पर बैठते ही उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। जिन दिनों चन्द्रगुप्त का उत्कर्ष आरम्भ हुआ, उन दिनों मगध में कुषाणों का शासन था। मगध की जनता इस विदेशी शासन को विनष्ट कर देने के लिए आतुर थी। चन्द्रगुप्त ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और मगध की जनता की सहायता से विदेशी शासन का अंत कर मगध का स्वतंत्र सम्राट बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने द्वितीय मगध-साम्राज्य की स्थापना की। यह घटना 320 ई. में घटी।

अभिलेखीय साक्ष्य

अब तक चंद्रगुप्त (प्रथम) के काल का कोई व्यक्तिगत लेख या प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हो सकी है। इस कारण उसके काल की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के बारे में अत्यंत अल्प जानकारी उपलब्ध होती है।

कुमार देवी से विवाह: अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्रतापी लिच्छवी-राज्य की राजकुमारी, कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिया। उसे गुप्त लेखों में महादेवी कहा गया है जो उसके पटरानी होने का प्रमाण है। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर ‘लिच्छवयः’ शब्द तथा कुमारदेवी की आकृति अंकित है। इस विवाह की पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशसित से भी होती है। लिच्छवी-राज्य से मैत्री हो जाने से गुप्त सम्राटों को अपने राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। कालान्तर में लिच्छवि राज्य भी मगध-राज्य में सम्मिलित हो गया जिससे मगध-राज्य की प्रतिष्ठा तथा शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई।

नये सम्वत् का प्रारंभ: चन्द्रगुप्त ने एक नया सम्वत् चलाया जिसका प्रारम्भ 26 जनवरी 319-20 ई. अर्थात् उसके राज्याभिषेक के दिन से हुआ था। इसे गुप्त संवत के नाम से जाना जाता है।

उत्तराधिकारी की घोषणा: चन्द्रगुत (प्रथम) ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। उसके इस चयन की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की प्रारंभिक स्थिति चाहे जैसी रही हो, वह गुप्त-सम्राटों में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुआ और उसने अपनी सफलताओं से अपने पिता के चयन के औचित्य को प्रमाणित कर दिया। युद्ध तथा आक्रमण के आदर्शों के कारण चन्द्रगुप्त, अशोक के बिल्कुल विपरीत था।’

राज्य विस्तार: पुराणों में आये विवरणों एवं प्रयाग प्रशस्ति से चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है। उसका राज्य पश्चिम में प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग तक विस्तृत था।

समुद्रगुप्त (335-375 ई.)

चन्द्रगुप्त (प्रथम) के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चन्द्रगुप्त (प्रथम) की माता लिच्छवियों की राजकुमारी कुमारदेवी थी। यद्यपि समुद्रगुप्त के और भी कई भाई थे परन्तु उसके अलौकिक गुणों तथा योग्यता से प्रसन्न होकर चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने अपने जीवन काल में ही उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इसलिये समुद्रगुप्त निर्विरोध अपने पिता के साम्राज्य का स्वामी बन गया और उसने उसका विस्तार करना आरम्भ कर दिया।

अभिलेखीय साक्ष्य

समुद्रगुप्त की उपलब्धियों की जानकारी उसके मंत्री हरिषेण द्वारा प्रयाग में उत्कीर्ण करवाई गई प्रयाग प्रशस्ति से मिलती है। यह प्रशस्ति, प्रयाग के किले के भीतर अशोक के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त का ऐरण अभिलेख भी महत्वपूर्ण साक्ष्य है। समुद्रगुप्त की मुद्रायें भी उसके शासन काल की तिथियों की सूचना देती हैं। उनसे अभिलेखीय प्रमाणों की पुष्टि होती है। गया एवं नालंदा के ताम्रपत्रों से भी उसके शासन काल की सूचनाएं मिलती हैं।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय

समुद्रगुप्त महत्त्वाकांक्षी शासक था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण किया। प्रयाग प्रशस्ति का लेखक हरिषेण सौ युद्धों में उसके रणकौशल का उल्लेख करता है जिसके कारण उसके सारे शरीर पर घावों के निशान बन गये। इस प्रशस्ति में उसकी विजयों की लम्बी सूची मिलती है। समुद्रगुप्त की विजयों को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय, (2) पाटलिपुत्र पर विजय, (3)  मध्य भारत के आटविक राज्यों पर विजय, (4) दक्षिण भारत पर विजय, (5) सीमान्त-प्रदेश पर विजय, (6) गण राज्यों पर विजय तथा (7) विदेशी राज्यों का विलय।

(1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय: समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तरी भारत अथवा अर्यावर्त के राज्यों पर आक्रमण किया। उसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन, नन्दिन, अच्युत और बलवर्मा नामक नौ राजाओं के साथ युद्ध किया और उन्हें परास्त कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इनमें से नागदत्त, गणपति नाग, नागसेन और नन्दिन नागवंशी राजा जान पड़ते हैं जिनके प्रसिद्ध केन्द्र मथुरा तथा पद्मावती थे। अच्युत नामक राजा अहिच्छत्र (उत्तर प्रदेश के बरेली जिले) पर राज्य करता था। अन्य राजाओं की सही पहचान नहीं हो सकी है। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाकर उत्तरी भारत में अपनी स्थिति सुदढ़ कर ली।

(2) पाटलिपुत्र विजय: नाग राजाओं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने कोटकुलज नामक राजा को परास्त करके पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटलिपुत्र विजय गुप्तों के लिये एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।

(2) विध्यांचल क्षेत्र के आटविक राज्यों पर विजय: उत्तर भारत के बाद, समुद्रगुप्त ने मध्य भारत के स्वतंत्र राज्यों पर अभियान किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस काल में जबलपुर तथा नागपुर के आस-पास 18 अटवी राज्य थे। अटवी जंगल को कहते हैं। चंूकि यह प्रदेश पर्वतों तथा जंगलों से भरा पड़ा था इसलिये इन राज्यों को अटवी राज्य कहते थे। प्रयाग के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के राजाओं को अपना परिचारक अथवा सेवक बनाया। इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर लेने से समुद्रगुप्त के लिये दक्षिण-विजय का मार्ग खुल गया।

(3) दक्षिणापथ पर विजय: अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया अपितु उनके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उन्हें विजित राजाओं को लौटा दिया। इन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे अपार धनराशि कर तथा भेंट के रूप में दी। दक्षिण के इन राजाओं को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं करके समुद्रगुप्त ने दूरदर्शिता का परिचय दिया। उस युग में, गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था। इसलिये उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत पर नियंत्रण रखना असम्भव था। यदि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया होता तो दक्षिण भारत अशान्ति तथा उपद्रव का स्थान बन जाता और इसका कुप्रभाव उत्तरी साम्राज्य पर भी पड़ता।

(4) सीमान्त प्रदेशों पर विजय: अपनी दिग्विजय के चतुर्थ चरण में  समुद्रगुप्त ने सीमांत प्रदेशों- समतट (बांगला देश), डवाक (आसाम का नवगांव), कामरूप (आसाम) तथा कर्तृपुर (गढ़वाल में कुमायूं अथवा पंजाब में जालंधर का क्षेत्र) पर विजय प्राप्त की। सीमांत प्रदेश के कुछ राजाओं ने युद्ध में पराजित होकर और कुछ ने बिना युद्ध किये ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ये राज्य समुद्रगुप्त को कर देने लगे और उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगे।

(5) गणराज्यों पर विजय: गुप्त-साम्राज्य के पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में कुछ ऐसे राज्य थे जिनमें अर्द्ध प्रजातंत्रात्मक अथवा गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी। इनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक, खार्परिक आदि प्रमुख थे। ये राज्य गणराज्य कहलाते थे। इन राज्यों ने समुद्रगुप्त के प्रताप से आतंकित होकर, बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार समुद्रगुप्त की सत्ता सम्पूर्ण भारत में व्याप्त हो गई और वह भारत का एकछत्र सम्राट बन गया।

(6) विदेशी राज्यों का विलय: प्रयाग प्रशस्ति की तेबीसवीं एवं चौबीसवीं पंक्ति में उल्लिखित विदेशी शक्तियों के नामों से ज्ञात होता है कि अनेक विदेशी राज्यों ने समुद्रगुप्त की सेवा में उपहार एवं कन्यायें प्रस्तुत करके उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इन शक्तियों ने समुद्रगुप्त के गरुड़ चिह्न से अंकित आज्ञापत्र लेना स्वीकार किया। इन विदेशी शक्तियों में प्रमुखतः कुषाण, शक-मुरण्ड, सिंहल तथा अन्यान्य द्वीपवासी थे जिन्हें क्रमशः देवपुत्र-शाहि-शाहानुशाही, शक-मुरण्ड, सिंहलद्वीपवासी तथा सर्वद्वीपवासी नामों से जाना जाता था। पश्चिम के जो छोटे-छोटे राज्य विद्यमान थे उन्होंने भी समुद्रगुप्त की प्रधानता को स्वीकार कर लिया।

समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाएँ

समुद्रगुप्त की उपर्युक्त दिग्विजय के फलस्वरूप उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में यमुना तथा चम्बल नदी से लेकर पूर्व में हुगली नदी तक फैल गया। उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर समुद्रगुप्त स्वयं शासन करता था। स्वशासित प्रदेश के उत्तर व पूर्व में पांच तथा पश्चिम में नौ गणराज्य उसके करद राज्य थे। दक्षिण में बारह राज्यों की स्थिति भी इन्हीं के समान थी। इन करद राज्यों के अतिरिक्त अनेक विदेशी राज्य भी समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे।

अश्वमेध यज्ञ

अपनी दिग्विजय सम्पूर्ण होने के उपलक्ष में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। प्रयाग-प्रशस्ति में इस यज्ञ का उल्लेख नहीं है इससे अनुमान होता है कि प्रयाग प्रशस्ति अश्वमेध यज्ञ से पहले उत्कीर्ण की गई थी। समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ में दान तथा दक्षिणा देने के लिए स्वर्ण-मुद्राएं ढलवाईं। इन मुद्राओं में एक ओर यज्ञ-स्तम्भ अंकित है जिससे एक अश्व बंधा हुआ है। मुद्रा के इसी ओर ‘अश्वमेध पराक्रमः’ अंकित है। इस अवसर पर सम्राट ने असंख्य मुद्राएं तथा गांव दान में दिये। कई गुप्त लेखों में उसे चिरकाल से न होने वाले अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है।

विदेशों से सम्बन्ध

समुद्रगुप्त की दिग्विजय से उसका यश चारों दिशाओं में दूर-दूर तक  विस्तृत हो गया। निकटवर्ती विदेशी राजा उसकी मैत्री की आकांक्षा करने लगे। चीनी अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में श्रीलंका के राजा मेघवर्ण ने दो बौद्ध-भिक्षुओं को बोधिगया भेजा। वहाँ पर इन भिक्षुओं को यथोचित सुविधा न मिल सकी। जब मेघवर्ण को इसकी सूचना मिली तब उसने समुद्रगुप्त से गया में एक विहार बनवाने की अनुमति मांगी। समुद्रगुप्त ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। मेघवर्ण ने गया में महाबोधि संघाराम नामक विहार का निर्माण करवाया। 631 ई. में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया, तब तक यह विहार सुरक्षित था और इसमें महायान पंथ के लगभग एक हजार भिक्षु निवास करते थे।

समुद्रगुप्त का चरित्र तथा उसके कार्य

समुद्रगुप्त को भारत के इतिहास में उच्च स्थान दिया जाता है। उसके सिक्कों पर मुद्रित पराक्रमांक(पराक्रम है पहचान जिसकी), व्याघ्रपराक्रमः (बाघ के समान पराक्रमी है जो) तथा अप्रतिरथ (प्रतिद्वंद्वी नहीं है जिसका कोई) जैसी उपाधियां उसके प्रचण्ड प्रभाव को इंगित करती हैं।

स्मिथ ने लिखा है ‘गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त, भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा गुण-सम्पन्न सम्राट था।’ उसकी प्रतिभा बुहुमुखी थी। वह न केवल एक महान् विजेता था अपितु अत्यंत कुशल शासक भी था। वह राजनीति का प्रकाण्ड पंडित था। उसकी साहित्य तथा कला में विशेष अनुरक्ति थी और उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था।

डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रसंशा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की सैनिक’ विजय तो महान् थी ही, उसकी व्यक्तिगत साधनाएं भी कम महान् नहीं थीं। उसके राजकवि ने विजित लोगों के प्रति उसकी उदारता, उसकी परिष्कृत प्रतिभा, उसके धर्मशास्त्रों के ज्ञान, उसके काव्य कौशल और उसकी संगीत योग्यता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है।’ स्मिथ ने भी समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत व्यक्तिगत क्षमता वाला व्यक्ति था और उसमें असाधारण विभिन्न गुण थे। वह एक श्रेष्ठ व्यक्ति, विद्वान, कवि, संगीतज्ञ तथा सेनानायक था।’

(1) महान् विजेता: समुद्रगुप्त की गणना भारत के महान् विजेताओं में होती है। उसने अपने पिता के छोटे से राज्य को, जो साकेत, प्रयाग तथा मगध तक सीमित था, एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने छिन्न-भिन्न भारत को अपनी दिग्विजय द्वारा एक राज-सूत्र में बांध कर फिर से राजनीतिक एकता प्रदान की। उन दिनों में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, संपूर्ण भारत, मध्य भारत, दक्षिण भारत, सीमान्त प्रदेशों तथा विदेशी राज्यों को नतमस्तक करना, साधारण कार्य नहीं था। उसने सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय कर राजनीतिक एकता स्थापित करने का जो उनुपम आदर्श उपस्थिति किया, उसका अनुगमन उसके बाद के समस्त महात्वाकांक्षी विजेताओं ने किया। एक विजेता के रूप में समुद्रगुप्त की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘छः सौ वर्ष पूर्व अशोक के काल से इतने बड़े साम्राज्य पर और किसी ने शासन न किया। वह स्वयं को भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट बनाने के महान् कार्य में सफल हुआ।’

(2) महान् सेनानायक: समुद्रगुप्त महान् सेनानायक था। एक मुद्रा पर  वह सैनिक वेश में अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए दिखाया गया है। समुद्रगुप्त की समस्त सैनिक विजयें, उसके अपने बाहुबल से अर्जित की गई थीं। अपने दिग्विजय अभियानों में वह स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व तथा संचालन करता था और रण-स्थल में स्वयं सैनिकों की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। अपने शत्रुओं पर वह बाघ की भांति टूट पड़ता था। इसी से वह व्याघ्र-पराक्रम, पराक्रमांक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया। वह समरशत अर्थात् सौ युद्धों का विजेता था तथा अजेय समझा जाता था।

(3) राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित: समुद्रगुप्त न केवल महान् विजेता तथा सेनानायक था अपितु दूरदर्शी तथा कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने इस बात का अनुभव किया कि उस युग में जब यातायात के साधनों का अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण भारत का शासन करना असंभव था। इसलिये उसने केवल उत्तर भारत के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। शेष राजाओं को परास्त करने के बाद उनका उच्छेदन न करके उन्हें अपना अधीनस्थ मित्र बना लिया। उसका व्यवहार इन राज्यों के साथ इतना उदार तथा सौजन्यतापूर्ण था कि कभी किसी राजा ने उसके विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयास नहीं किया।

(4) सफल शासक: यद्यपि समुद्रगुप्त एक महान् विजेता तथा सेनानायक के रूप में अधिक प्रसिद्ध है, तथापि उसमें प्रशासकीय प्रतिभा का अभाव नहीं था। उसके शासन-काल में किसी का विद्रोह अथवा विप्लव न हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि वह अपने साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में पूर्ण रूप से सफल रहा। उसने जितनी मुद्राएं चलाईं वे सब स्वर्ण निर्मित हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से पूर्ण था और उसकी प्रजा सुखी थी। चूंकि उसका साम्राज्य अत्यंत विशाल था इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि उसने प्रान्तीय शासन की भी व्यवस्था की थी जिन पर वह पूर्ण नियंत्रण रखता था। शासन को सुचारू रीति से चलाने के लिये विभागीय व्यवस्था भी की गई थी। सेना, शासन, न्याय आदि कार्यों के लिए अलग-अलग विभाग होते थे, जिनके अलग-अलग अध्यक्ष नियुक्त रहते थे। समुद्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दयावान् व्यक्ति था, इसलिये उसने दीन-दुखियों, अनाथों तथा असहायों की सहायता के लिये दान आदि की भी व्यवस्था की थी।

(5) महान् साहित्यानुरागी: समुद्रगुप्त में न केवल उच्च-कोटि की सैनिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा थी वरन् उच्च-कोटि की मानसिक प्रतिभा भी थी। वह उच्च-कोटि का विद्वान तथा विद्या-व्यसनी था। साहित्य में उसकी बड़ी रुचि थी। वह उच्च-कोटि का लेखक तथा कवि था। यह साहित्यकारों तथा कवियों का आश्रयदाता था। बौद्ध-विद्वान वसुबंधु को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था। उसका मंत्री हरिषेण भी उच्च-कोटि का कवि था। वह अपने स्वामी का बड़ा कृपा पात्र था। प्रयाग के स्तम्भ-लेख में हरिषेण ने समुद्रगुप्त की बड़ी प्रशंसा की है। उसने कहा है कि अनेक काव्यों को लिखकर समुद्रगुप्त ने कविराज की उपाधि प्राप्त की। उसका साहित्य विद्वानों के मनन करने योग्य है। उसकी काव्य-शैली अध्ययन करने योग्य है, उसकी काव्य रचनाएं कवियों के आध्यात्मिक कोष में अभिवृद्धि करती हैं। हरिषेण की इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त को साहित्य से बड़ा प्रेम था। डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने समुद्रगुप्त की आलौकिक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत प्रतिभा का व्यक्ति था। वह न केवल शस्त्रों में वरन् शास्त्रों में भी कुशल था। वह स्वयं बड़ा ही सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगति प्रिय थी।’

(6) महान् कला प्रेमी: समुद्रगुप्त वीणा बजाने में प्रवीण था। संगीत में उसकी बड़ी रुचि थी। उसकी अनेक स्वर्ण-मुद्राओं पर वीणा अंकित है। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने संगीत में नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था। गायन तथा वादन दोनों में ही उसने प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

(7) भागवत धर्म का अनुयायी: समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ करके ब्राह्मण धर्म तथा यज्ञों की उपयोगिता में विश्वास प्रकट किया। इससे ब्राह्मण धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त हो गया। वह फिर से लोक-धर्म बन गया और उसकी उन्नति होने लगी। समुद्रगुप्त की मुद्राओं पर लक्ष्मी की आकृति अंकित की गई है। उसने परम भागवत की उपाधि धारण की। उसका राज्य-चिन्ह गरुड़ था, जो विष्णु का वाहन है। इन सब तथ्यों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह विष्णु का उपासक था।

(8) धार्मिक सहिष्णुता: संसार के श्रेष्ठ धर्म का अनुयायी होने पर भी वह अन्य धर्मों की प्रजा के साथ सहानुभूति रखता था। वह उन पर किसी प्रकार का भेदभाव अथवा अत्याचार नहीं करता था। वह बौद्ध आदि धर्मों की सहायता करता था। उसने गया में एक बौद्ध-विहार बनावाया जिससे स्पष्ट होता है कि उसका धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा उदार था और उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी।

(9) अलौकिक व्यक्तित्त्व: समुद्रगुप्त के चरित्र तथा उसके कार्यों का विवेचन करने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह साधारण मनुष्य नहीं था। उसे दैवी-शक्तियां प्राप्त थीं। इसी से उसे अमनुज अर्थात् जो मनुष्य न हो तथा अचिंत्य पुरुष आदि कहा गया है जो लोक तथा समय के अनुकूल कार्य करने के लिए ही मुनष्य का स्वरूप धारण किये हुए था। अन्यथा वह धन में कुबेर के समान तथा बुद्धिमत्ता में बृहस्पति के समान था। वह साधु के लिए उदय (आशा) और असाधु के लिए प्रलय (विनाश) था। इसलिये वह देवता का साक्षात् स्वरूप था।

भारत का नेपोलियन

अंग्रेज इतिहासकार डॉ. विसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है। उसने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त ने कलाओं के अभ्यास से चाहे जितनी मात्रा में ख्याति प्राप्त की हो, जिससे उसके न्यूनावकाश की शोभा बढ़ी, यह स्पष्ट है कि वह साधारण शक्तियों में संयुक्त न था। वह वास्तव में विलक्षण प्रतिभा का व्यक्ति था और वह भारतीय नेपोलियन कहलाने का अधिकारी है।’ इसके विपरीत आयंगर ने लिखा है- ‘उसे भारत का नेपोलियन कहना बड़ा ही अनुचित है जो केवल राज्य जितना ही राजा का कर्त्तव्य समझता था।’ समुद्रगुप्त के सम्बन्ध में इन दोनों इतिहासकारों के मतों पर विचार कर लेना आवश्यक है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में समानता: नेपोलियन यूरोप का महान् विजेता तथा सेनानायक था। फ्रांसिसी क्रांति के समय वह फ्रांसिसी सेना का सेनापति था। उसने फ्रांस की समस्त सैन्य शक्ति अपने हाथ में कर ली और वह फ्रांस का सम्राट बन गया। उसने अपने बाहुबल तथा सैन्यबल से न केवल फ्रांस की उसके शत्रुओं से रक्षा की वरन् उसने सम्पूर्ण यूरोप को आतंकित कर उसे नत-मस्तक कर दिया। स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन केवल इस आधार पर कहा है कि जिस प्रकार नेपोलियन एक महान् विजेता तथा सेनानायक था और उसने सम्पूर्ण फ्रांस को नत-मस्तक कर दिया था, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी अपने अलौकिक पराक्रम से सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त कर उसे नत-मस्तक किया था। इस दृष्टिकोण से समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन मानने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए परन्तु दोनों की समानता यहीं समाप्त हो जाती है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में असमानताएं: दो भिन्न महाद्वीपों के इन दो महान् योद्धाओं तथा विजेताओं के पूरे जीवन में आद्योपरांत भिन्नताएं हैं। इन्हें इस प्रकार से समझा जा सकता है-

(1) वंश का अंतर: नेपोलियन एक सामान्य परिवार में उत्पन्न हुआ एक साधारण सैनिक था, उसने अपने लिये राज्य का निर्माण स्वयं किया जबकि समुद्रगुप्त, राजा का पुत्र था, उसे राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।

(2) सामरिक सफलताओं में अंतर: नेपोलियन को अपने उद्देश्य में केवल आरम्भिक चरण में सफलता प्राप्त हुई। उसकी विजय क्षणिक सिद्ध हुई। उसके विपरीत समुद्रगुप्त को अपने उद्देश्य में आद्योपरांत सफलता प्राप्त हुई।

(3) राज्य के स्थायित्व में अंतर: नेपोलियन ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया वह थोड़े ही समय बाद नष्ट हो गया। जबकि समुद्रगुप्त ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया, वह स्थायी सिद्ध हुआ। उसने न केवल स्वयं जीवन-पर्यन्त उस साम्राज्य का सुखपूर्वक उपभोग किया अपितु उसके उत्तराधिकारियों ने भी डेढ़ शताब्दियों से अधिक समय तक उस मधुर फल का उपभोग किया।

(3) विजित शत्रुओं के साथ सम्बन्धों में अंतर: नेपोलियन, विजय के उपरान्त विजित प्रदेशों में शान्ति स्थापित नहीं कर सका और शत्रुओं को मित्र बनाने में असफल रहा। इसके विपरीत समुद्रगुप्त ने जिन प्रदेशों को जीता वहाँ पर उसने स्थायी शान्ति स्थापित की और अपने शत्रुओं को अभयदान देकर उन्हें अपना मित्र बना लिया। नेपोलियन के विरुद्ध स्पेन तथा जर्मनी ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया परन्तु समुद्रगुप्त को इस प्रकार के किसी आन्दोलन का सामना न करना पड़ा।

उद्देश्यों में अंतर: नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त की सफलाताओं और स्थायित्व में अंतर का कारण यह है कि इन दोनों विजेताओं के उद्देश्यों में भी पर्याप्त अंतर था। नेपोलियन केवल समर विजयी योद्धा था और उसकी विजय का नैतिक स्तर अत्यंत निम्नकोटि का था। इसके विपरीत समुद्रगुप्त एक धर्म-विजयी सम्राट था और उसकी विजय का नैतिक स्तर आर्य आदर्शों के अनुरूप अत्यंत ऊँचा था।

जीवन काल के अंत में अंतर: नेपोलियन को अन्त में भयानक पराजयों का आलिंगन करना पड़ा और उसका अन्त बड़ा दुःखद हुआ। ट्राफलर तथा वाटरलू के सामुद्री युद्धों में इंग्लैड की सेनाओं ने उसे बहुत बुरी तरह परास्त किया। उसकी सेनाओं को रूस से हताश होकर वापस लौटना। अन्त में नेपोलियन बन्दी बनाकर सेन्ट निर्जन हेलेना द्वीप में भेज दिया गया, जहाँ अपमानजनक परिस्थितियों में उसकी जीवन-लीला समाप्त हुई। समुद्रगुप्त के जीवन में ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ। समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में सर्वत्र विजय-लक्ष्मी का ही आलिंगन किया था, पराजय का नहीं। समुद्रगुप्त ने 40 वर्षों के दीर्घकालीन शासन में अपनी विजयों के मधुर फलों का आस्वादन किया।

निष्कर्ष: नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त के जीवन में इतना बड़ा अन्तर होने के कारण अधिकांश इतिहासकार स्मिथ के कथन से सहमति नहीं रखते। इतिहासकारों का कहना है कि नेपोलियन कुछ अर्थों में यूरोप का समुद्रगुप्त हो सकता है परन्तु समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहना उचित नहीं है।

रामगुप्त (375 ई.)

समुद्रगुप्त के कई पुत्र तथा पौत्र थे। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम रामगुप्त था जो उसके बाद सिंहासन पर बैठा। कतिपय साहित्यिक उल्लेखों तथा पूर्वी मालवा से प्राप्त रामगुप्त के नाम से अंकित तथा गरुड़ चिह्नांकित सिक्कों के आधार पर रामगुप्त की ऐतिहासिकता स्वीकार की गई है। उसके शासन काल के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। सम्भवतः उसके सिंहासन पर बैठते ही शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। रामगुप्त परास्त हो गया और शकों ने उसे बंदी बना लिया। विवश होकर रामगुप्त को शकों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें उसे अपनी रानी ध्रुवदेवी, शकों को समर्पित करने की शर्त स्वीकार करनी पड़ी। रामगुप्त का छोटा भाई चन्द्रगुप्त बड़ा ही वीर, साहसी तथा स्वाभिमानी राजकुमार था। अपने भ्राता की कायरता से खिन्न होकर चंद्रगुप्त, धु्रवदेवी के वेश में स्त्री-वेशधारी योद्धाओं के साथ शकों की सैन्य छावनी में गया। जब शक राजा धु्रवदेवी का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ा तब चन्द्रगुप्त ने उसका वध कर दिया और अपने सैनिकों की सहायता से शकों को गुप्त साम्राज्य से मार भगाया।

सम्राट रामगुप्त की कायरता तथा कापुरुषता से धु्रवदेवी को बड़ा क्षोभ हुआ। उसने अपने देवर के वीरोचित गुणों का सम्मान करते हुए तथा साम्राज्य के लिये उसका मूल्य एवं उसकी आवश्यकता समझते हुए, चंद्रगुप्त के साथ मिलकर रामगुप्त की हत्या का षड़यंत्र रचा। धु्रवदेवी के सहयोग से चन्द्रगुप्त ने अपने भाई रामगुप्त का वध कर दिया और धु्रवदेवी के साथ विवाह करके गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन गया।

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