मुगलों की राजस्व व्यवस्था पूर्ववर्ती दिल्ली सल्तनत कालीन राजस्व व्यवस्था से अधिक मजबूत थी। प्रजा से कर वसूल करके केन्द्रीय कोषागार तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त प्रबंध किए गए थे।
बाबर और हुमायूँ, दोनों का शासनकाल किसी प्रकार के आर्थिक सुधारों को कार्यान्वित करने के लिए अपर्याप्त रहा। अकबर ने सल्तनत की अर्थव्यवस्था को संगठित करने का प्रयास किया। उसे इस कार्य में सफलता भी मिली। अकबर जनकल्याण को उतना ही महत्त्व देता था जितना कि वह राज्य की सुरक्षा को देता था।
उसकी कर पद्धति का उद्देश्य न केवल राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारना था अपितु मोटे तौर पर किसानों, व्यापारियों और आम आदमी के हितों की रक्षा करना भी था। जहाँगीर और शाहजहाँ ने उसकी नीति का पालन किया परन्तु औरंगजेब के समय अकबर द्वारा स्थापित व्यवस्था लड़खड़ाने लगी।
मुगलों की राजस्व व्यवस्था
आय के स्रोत
आय का मुख्य साधन भूमि कर था। व्यापारिक कर, खानों पर कर, पैतृक सम्पत्ति कर, नमक कर, चुँगी कर, युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति का 1/5वाँ भाग, टकसाल, अधीनस्थ राज्यों से प्राप्त होने वाले उपहार तथा वार्षिक कर, राजकीय कारखानों से होने वाली आय आदि मुगल राज्य की आय के मुख्य साधन थे।
स्थानीय शासन को विभिन्न प्रकार के करों से होने वाली आय का उपयोग स्थानीय शासन के लिए किया जाता था। बाबर ने मुसलमानों से जकात नामक धार्मिक कर और गैर मुसलमानों से जजिया तथा तीर्थयात्रा कर लेने की व्यवस्था की। हुमायूूँ ने यह व्यवस्था जारी रखी।
अकबर ने जजिया और तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया। जहाँगीर और शाहजहाँ ने अकबर की नीति को जारी रखा परन्तु औरंगजेब ने बादशाह बनने के कुछ वर्षों बाद इन करों को पुनः आरम्भ कर दिया। मुगलों को व्यय के मुकाबले अधिक आय होती थी।
चुँगी
मुगल शासन की आय का एक प्रमुख साधन चुँगी थी। देश के आंतरिक भागों और विदेशों से आने वाली वस्तुओं पर चुँगी ली जाती थी। विदेशों से आने वाले और विदेशों को भेजे जाने वाले माल पर बन्दरगाहों और सीमाओं पर चुँगियाँ लगा करती थीं। अकबर के समय में उत्तरी भारत में लगभग 21 बन्दरगााह थे।
इनमें से लहारीबन्दर, सूरत और बालसौर अधिक प्रसिद्ध थे। बन्दरगाहों से प्राप्त चुँगी का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केवल सूरत के बन्दरगाह से राज्य को तीस लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। सामान्यतः जिले के अधिकारी को शाही फरमान के द्वारा उस जिले में स्थित बन्दरगाहों का नियंत्रण सौंप दिया जाता था।
जिन्सों पर राज्य की ओर से कर निर्धारित किये जाते थे। बादशाह के आदेश से समय-समय पर इन दरों में फेरबदल होता रहता था। करों की वसूली का काम जिलाधिकारी अथवा अन्य किसी व्यक्ति को सौंप दिया जाता था। कभी-कभी किसी स्थान से प्राप्त होने वाली चुँगी की आय किसी व्यक्ति विशेष को भी प्रदान कर दी जाती थी।
सामान्यतः चुँगी की दर जिन्स के मूल्य पर ढाई से पाँच प्रतिशत ली जाती थी। औरंगजेब के शासनकाल तक यह दर कायम रही। समकालीन विदेशी यात्री लिखते हैं कि सीमा शुल्क अधिकारी बड़े कठोर थे। भारत आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की तलाशी ली जाती थी।
थेवेनो ले लिखा है- ‘कभी-कभी व्यापारी को माल छुड़ाने में एक महीना तक लग जाता था।’
देश के भीतरी भागों में माल ले जाने पर भी चुँगी वसूल की जाती थी। इसे राहदारी कहा जाता था।
टकसाल
राज्य के आय के साधनों में टकसाल भी महत्त्वपूर्ण थी। 1577 ई. से पहले तक, प्रान्तीय टकसालें चौधरियों के अधीन कार्य करती थीं। अकबर ने इस व्यवस्था को समाप्त करके टकसालों के लिए अलग अधिकारी नियुक्त किये। इन अधिकारियों के ऊपर एक निदेशक नियुक्त किया। सरकारी खजाना एक प्रकार से विनिमय बैंक था।
लोगों को टकसाल में जाकर सिक्के ढलवाने की स्वतंत्रता थी। इससे राज्य को बट्टे के रूप में धन प्राप्त होता था। घिसे हुए सिक्कों को बदलते समय भी राज्य बट्टा वसूल करता था। राज्य को टकसाल से कितनी आय होती थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि औरंगजेब के शासनकाल में केवल सूरत की टकसाल से नौ लाख रुपये वार्षिक आय होती थी।
अधिकांश इतिहासकारों ने मुगलकालीन सिक्कों की विशुद्धता तथा बनावट की सुन्दरता की प्रशंसा की है। मुगलों का चाँदी का रुपया 177.4 ग्राम वजन का होता था।
सम्पत्ति जब्ती
यूरोपीय यात्रियों ने सम्पत्ति जब्ती के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। उनके अनुसार शाही मनसबदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सम्पत्ति पर बादशाह का स्वामित्व हो जाता था। बड़े व्यापारी की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति बादशाह की हो जाती थी।
एक यात्री ने लिखा है- ‘बादशाह अपने सामन्त की सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता था। यदि मृतक ने निष्ठापूर्वक सेवा की हो तो उसके बीवी-बच्चों को जीविका निर्वाह योग्य धन दे दिया जाता था, इससे अधिक नहीं।’
मुख्य आलेख- मुगल शासन व्यवस्था एवं संस्थाएँ
मुगलों की राजस्व व्यवस्था



