Friday, October 4, 2024
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अध्याय – 34 (ब) : मुगल शासन व्यवस्था एवं संस्थाएँ

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मुगलों की सैनिक व्यवस्था

बाबर ने सैनिक शक्ति के बल पर मुगल साम्राज्य की नींव रखी। उसकी सैन्य व्यवस्था तैमूर और चंगेज खाँ के संगठन पर आधारित थी। बाबर की सेना की शक्ति तोपखाने के कारण अत्यधिक बढ़ गई थी। उसने तुर्कों, मंगोलों और उजबेगों की युद्ध प्रणाली की भी अनेक बातें अपना ली थीं। हुमायूँ ने बाबर की व्यवस्था को कायम रखा परन्तु वह अच्छा सेनापति नहीं था। अकबर ने सैनिक शक्ति को सुदृढ़ बनाकर सल्तनत का विस्तार किया। उसने सेना में अनेक सुधार किये। उसने मनसबदारी प्रथा के आधार पर सैनिक व्यवस्था को संगठित बनाया। उस समय में सेना के तीन मुख्य अंग थे- घुड़सवार, तोपखाना और पैदल। अकबर ने नाविक बेड़े का भी गठन किया। सेना के इन समस्त अंगों का महत्त्व एक जैसा नहीं था। बाद में हाथियों का महत्त्व भी बढ़ा। औरंगजेब के शासनकाल तक मुगलों की सेना अपनी धाक को बनाये रख सकी परन्तु पहले मेवाड़ के विरुद्ध असफल रहने पर और बाद में मराठों के विरुद्ध असफल रहने पर उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।

घुड़सवार सेना

मुगल सेना का सबसे प्रमुख अंग घुड़सवार सेना थी। अधिकांश मुगल शासक स्वयं अच्छे घुड़सवार थे। बाबर ने भारत में जिस तुगलमा पद्धति का उपयोग किया और जिसके कारण उसे विजय प्राप्त हुई, वह घुड़सवारों की गति पर आधारित थी। घुड़सवारों की दो श्रेणियाँ थीं- बरगीर और सिलेदार। बरगीर सैनिक को राज्य की तरफ से घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र दिये जाते थे। सिलेदार सैनिक घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र की व्यवस्था स्वयं करता था। घुड़सवारों का एक अन्य वर्गीकरण भी था। जिस सैनिक के पास दो घोड़े होते थे वह दुअस्पा कहलाता था। एक घोड़े वाले सैनिक को एक-अस्पा कहा जाता था। दो सैनिकों के बीच एक घोड़ा होने पर उन्हें निम-अस्पा कहा जाता था। इस वर्गीकरण के आधार पर उनका वेतन भी अलग-अलग होता था।

मुगल घुड़सवार सेना की सर्वाधिक श्रेष्ठ टुकड़ी अहदी सैनिकों की होती थी। इनकी भर्ती सीधे केन्द्र द्वारा की जाती थी और इनका सम्पर्क सीधे बादशाह से होता था। ये लोग बादशाह के निजी सेवक होते थे। इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था राज्य की तरफ से की जाती थी। इनके लिए एक अलग दीवान और बख्शी होता था तथा एक अमीर इनका प्रमुख होता था। विशेष अवसरों पर अहदी सैनिकों को सेना के साथ भेजा जाता था। आरम्भ में एक-एक अहदी के पास आठ-आठ घोड़े रहते थे परन्तु बाद में अकबर के शासन के अन्त में यह संख्या घटाकर पाँच कर दी गई। जहाँगीर ने इस संख्या को और कम करके चार कर दिया। अहदी सैनिकों को 25 रुपये से 500 रुपये प्रतिमाह तक वेतन दिया जा सकता था जबकि अन्य घुड़सवारों को 12 से 15 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था।

पैदल सेना

अकबर के समय में पैदल सेना को प्यादा अथवा पायक कहा जाता था। पैदल सैनिकों की तीन श्रेणियां थीं- (1.) लड़ाकू: इस श्रेणी में बन्दूकची और तलवारिया (शमशीर बाज) आते थे। (2.) अर्द्ध-लड़ाकू: इस श्रेणी में संदेशवाहक, दास, चोबदार आदि आते थे। (3.) गैर लड़ाकू: इस श्रेणी में लुहार, खनिक आदि आते थे। पैदल सेना में बन्दूकचियों की संख्या सबसे अधिक होती थी। उन्हें सेना का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था परन्तु उनका वेतन बहुत कम था। बर्नियर ने लिखा है कि पैदलन सैनिकों को बहुत कम वेतन मिलता था और बन्दूकचियों को अच्छे समय में भी कठिनाई से जीवन यापन करना पड़ता था।

तोपखाना

बाबर ने भारत में सर्वप्रथम तोपखाने का उपयोग किया था परन्तु इसका संगठन अकबर के समय में हो पाया। तोपखाने की व्यवस्था के लिए मीर खानसामा और मीर आतिश नामक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। तोपों की ढलाई के लिए ढलाई खाने बनाये गये। ये तोपें इतनी भारी होती थीं कि उन्हें ढोने के लिए कई हाथियों और पशुओं की आवश्यकता पड़ती थी। औरंगजेब ने तोपखाने में सुधार करने का अथक प्रयास किया। फिर भी इतिहासकारों का मानना है कि मुगल तोपखाना निम्न स्तर का था। इसलिये आगे चलकर यूरोपीय राष्ट्रों की तुलना में भारतीयों का तोपखाना काफी कमजोर सिद्ध हुआ।

नौ-सेना

मुगल सैनिक व्यवस्था में मुगल नौ-सेना सबसे उपेक्षित थी। अकबर ने पहली बार नौ-सेना के लिए मीर-ए-बहर की अध्यक्षता में एक अलग विभाग खोला। जहाँगीर और शाहजहाँ ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। औरंगजेब ने अवश्य ही इस ओर ध्यान दिया। फिर भी मुगलों की नौ-सेना नावों का छोटा बेड़ा मात्र ही रही, जिसका मुख्य काम शाही परिवार के सदस्यों और सैनिकों को इस किनारे से उस किनारे पहुँचाना था।

वित्त और राजस्व व्यवस्था

बाबर और हुमायूँ, दोनों का शासनकाल किसी प्रकार के आर्थिक सुधारों को कार्यान्वित करने के लिए अपर्याप्त रहा। अकबर ने सल्तनत की अर्थव्यवस्था को संगठित करने का प्रयास किया। उसे इस कार्य में सफलता भी मिली। अकबर जनकल्याण को उतना ही महत्त्व देता था जितना कि वह राज्य की सुरक्षा को देता था। उसकी कर पद्धति का उद्देश्य न केवल राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारना था अपितु मोटे तौर पर किसानों, व्यापारियों और आम आदमी के हितों की रक्षा करना भी था। जहाँगीर और शाहजहाँ ने उसकी नीति का पालन किया परन्तु औरंगजेब के समय अकबर द्वारा स्थापित व्यवस्था लड़खड़ाने लगी।

आय के स्रोत

आय का मुख्य साधन भूमि कर था। व्यापारिक कर, खानों पर कर, पैतृक सम्पत्ति कर, नमक कर, चुँगी कर, युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति का 1/5वाँ भाग, टकसाल, अधीनस्थ राज्यों से प्राप्त होने वाले उपहार तथा वार्षिक कर, राजकीय कारखानों से होने वाली आय आदि मुगल राज्य की आय के मुख्य साधन थे। स्थानीय शासन को विभिन्न प्रकार के करों से होने वाली आय का उपयोग स्थानीय शासन के लिए किया जाता था। बाबर ने मुसलमानों से जकात नामक धार्मिक कर और गैर मुसलमानों से जजिया तथा तीर्थयात्रा कर लेने की व्यवस्था की। हुमायूूँ ने यह व्यवस्था जारी रखी। अकबर ने जजिया और तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया। जहाँगीर और शाहजहाँ ने अकबर की नीति को जारी रखा परन्तु औरंगजेब ने बादशाह बनने के कुछ वर्षों बाद इन करों को पुनः आरम्भ कर दिया। मुगलों को व्यय के मुकाबले अधिक आय होती थी।

चुँगी

मुगल शासन की आय का एक प्रमुख साधन चुँगी थी। देश के आंतरिक भागों और विदेशों से आने वाली वस्तुओं पर चुँगी ली जाती थी। विदेशों से आने वाले और विदेशों को भेजे जाने वाले माल पर बन्दरगाहों और सीमाओं पर चुँगियाँ लगा करती थीं। अकबर के समय में उत्तरी भारत में लगभग 21 बन्दरगााह थे। इनमें से लहारीबन्दर, सूरत और बालसौर अधिक प्रसिद्ध थे। बन्दरगाहों से प्राप्त चुँगी का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केवल सूरत के बन्दरगाह से राज्य को तीस लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। सामान्यतः जिले के अधिकारी को शाही फरमान के द्वारा उस जिले में स्थित बन्दरगाहों का नियंत्रण सौंप दिया जाता था। जिन्सों पर राज्य की ओर से कर निर्धारित किये जाते थे। बादशाह के आदेश से समय-समय पर इन दरों में फेरबदल होता रहता था। करों की वसूली का काम जिलाधिकारी अथवा अन्य किसी व्यक्ति को सौंप दिया जाता था। कभी-कभी किसी स्थान से प्राप्त होने वाली चुँगी की आय किसी व्यक्ति विशेष को भी प्रदान कर दी जाती थी। सामान्यतः चुँगी की दर जिन्स के मूल्य पर ढाई से पाँच प्रतिशत ली जाती थी। औरंगजेब के शासनकाल तक यह दर कायम रही। समकालीन विदेशी यात्री लिखते हैं कि सीमा शुल्क अधिकारी बड़े कठोर थे। भारत आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की तलाशी ली जाती थी। थेवेनो ले लिखा है- ‘कभी-कभी व्यापारी को माल छुड़ाने में एक महीना तक लग जाता था।’ देश के भीतरी भागों में माल ले जाने पर भी चुँगी वसूल की जाती थी। इसे राहदारी कहा जाता था।

टकसाल

राज्य के आय के साधनों में टकसाल भी महत्त्वपूर्ण थी। 1577 ई. से पहले तक, प्रान्तीय टकसालें चौधरियों के अधीन कार्य करती थीं। अकबर ने इस व्यवस्था को समाप्त करके टकसालों के लिए अलग अधिकारी नियुक्त किये। इन अधिकारियों के ऊपर एक निदेशक नियुक्त किया। सरकारी खजाना एक प्रकार से विनिमय बैंक था। लोगों को टकसाल में जाकर सिक्के ढलवाने की स्वतंत्रता थी। इससे राज्य को बट्टे के रूप में धन प्राप्त होता था। घिसे हुए सिक्कों को बदलते समय भी राज्य बट्टा वसूल करता था। राज्य को टकसाल से कितनी आय होती थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि औरंगजेब के शासनकाल में केवल सूरत की टकसाल से नौ लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। अधिकांश इतिहासकारों ने मुगलकालीन सिक्कों की विशुद्धता तथा बनावट की सुन्दरता की प्रशंसा की है। मुगलों का चाँदी का रुपया 177.4 ग्राम वजन का होता था।

सम्पत्ति जब्ती

यूरोपीय यात्रियों ने सम्पत्ति जब्ती के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। उनके अनुसार शाही मनसबदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सम्पत्ति पर बादशाह का स्वामित्व हो जाता था। बड़े व्यापारी की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति बादशाह की हो जाती थी। एक यात्री ने लिखा है- ‘बादशाह अपने सामन्त की सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता था। यदि मृतक ने निष्ठापूर्वक सेवा की हो तो उसके बीवी-बच्चों को जीविका निर्वाह योग्य धन दे दिया जाता था, इससे अधिक नहीं।’

मुगलों की न्याय व्यवस्था

मुगलों की न्याय व्यवस्था के सम्बन्ध में इतिहासकारों के मध्य विवाद रहा है। जदुनाथ सरकार ने इस व्यवस्था को सुगम, सक्रिय एवं अपूर्ण बताया है। डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने इसे दोषपूर्ण बताया है जबकि डॉ. हसन ने इसे समयानुकूल माना है। डॉ. जैन का मत है कि मुगलों की न्याय व्यवस्था कम खर्चीली, शीघ्र कार्य करने वाली, सरल तथा तथ्यों पर आधारित थी। वास्तविकता यह है कि मुगलों की न्याय व्यवस्था काफी दुर्बल थी।

बादशाह

बादशाह, सल्तनत का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था जो सप्ताह में एक बार खुले दरबार में बैठकर अपीलों एवं अभियोगों का निर्णय करता था। हुमायूँ ने अपनी न्यायप्रियता का ढिंढोरा पीटने के लिए तबल-अदल अर्थात् न्याय के नगाड़े की स्थापना की थी। अकबर धार्मिक मतभेदों तथा प्रभावों से दूर रहकर न्याय करने का प्रयास करता था। जहाँगीर ने सोने की जंजीर का एक सिरा शाहबुर्ज के कंगूरे में लगाकर और दूसरे सिरे को यमुना नदी के तट तक ले जाकर पत्थरों के खम्भों में बाँधकर अपने न्यायप्रिय होने की घोषणा की। न्याय में देर होने अथवा और किसी प्रकार की कठिनाई के समय इस जंजीर को हिलाकर बादशाह का ध्यान आकर्षित किया जा सकता था। औरंगजेब के लिये कहा जाता है कि तैमूर के वंशजों में न्याय के लिए इतना अधिक सेवानिष्ठ एवं कठोर शासक कोई दूसरा नहीं था।

अधीनस्थ न्यायिक संस्थाएँ

मुगल बादशाह के साथ-साथ सल्तनत में एक ही समय में कार्य करने वाली एक-दूसरे से स्वतंत्र चार तरह की न्यायिक संस्थाएँ थीं-

(1.) काजी एवं मुफ्ती: राजधानी में प्रथम काजी, प्रान्तीय राजधानियों में प्रान्त का प्रधान काजी तथा बड़े-बड़े नगरों और कस्बों में भी काजी लोग न्याय प्रदान करते थे। काजी की अदालतों में धर्मिक विवाद तथा दीवानी मामले प्रस्तुत किये जाते थे। प्रथम न्यायालय में काजी शरीयत के अनुसार न्याय करता था। उसके सामने कुल विधि, आनुवंशिक सम्बन्धी झगड़े, धार्मिक संस्था के पूँजी सम्बन्धी विवाद आदि प्रस्तुत किये जाते थे। काजियों की सहायता करने एवं इस्लामी कानूनों की व्याख्या करने के लिये मुफ्तियों को नियुक्त किया जाता था।

(2.) राजकीय अधिकारी: दूसरे प्रकार के न्यायालय बादशाह एवं केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त सूबेदार, फौजदार, शिकदार और कोतवाल आदि अधिकारियों द्वारा चलाये जाते थे। ये लोग सामान्यतः फौजदारी मामलों की सुनवाई करते थे। दीवान, अमल गुजार, आमिल आदि अधिकारी लगान सम्बन्धी मामलों की सुनवाई करते थे।

(3.) उर्फ: तीसरे प्रकार के न्यायालय को उर्फ कहा जाता था। वे राजद्रोहों तथा संगीन अपराधों के सम्बन्ध में निर्णय देते थे।

(4.) जातीय पंचायतें: चौथे प्रकार के न्यायालय गांवों में परम्परागत रूप से चलने वाली वे जातीय पंचायतें थीं जो अलिखित प्रथाओं अथवा जातीय परम्पराओं की विधि संहिता के अनुसार न्याय करती थीं।

हिन्दुओं के लिये न्याय व्यवस्था

अकबर ने हिन्दुओं के परस्पर दीवानी झगड़ों की सुनवाई के लिये हिन्दू पण्डितों को भी न्यायाधीश नियुक्त किया। ये पण्डित हिन्दू कानूनों, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के आधार पर निर्णय करते थे। गाँवों में न्याय करने का उत्तरदायित्व ग्राम पंचायतों का था। शासक भी उनके निर्णयों को सम्मान देते थे। निम्न अदालतों के निर्णय के विरुद्ध उससे ऊपर की अदालत में अपील की जा सकती थी।

मुगलों की न्याय व्यवस्था के दोष

मुगलों की न्याय व्यवस्था में कई दोष थे-

(1.) एक न्यायालय का दूसरे न्यायालय के साथ पारस्परिक सम्बन्ध और अधिकार क्षेत्र स्पष्ट नहीं था।

(2.) मंगोल न्याय व्यवस्था इस्लामी कानून पर आधारित थी किंतु कानूनों की व्याख्या में काफी अन्तर आ जाता था।

(3.) साम्राज्य में प्रचलित नियमों का संग्रह नहीं था। इससे लोगों को कानूनों की पर्याप्त जानकारी नहीं मिल पाती थी।

औरंगजेब के शासनकाल में इन कानूनों को फतवा-ए-आलमगिरी के रूप में संगृहीत कराने का प्रयास किया गया। इस प्रकार मुगलों की न्याय व्यवस्था में न तो न्यायालयों में कोई नियमित श्रेणी बद्धता थी, न ही समुचित विभाजन था और न न्याय की सुव्यवस्थित प्रणाली ही थी।

दण्ड विधान

मुगलों का दण्ड-विधान काफी कठोर था। चोरी, डकैती, हत्या, राजद्रोह, यौन अपराध तथा घूस आदि लेना-देना प्रमुख अपराध थे। गम्भीर अपराधों तथा राजद्रोह के मामलों में प्राणदण्ड, अंग-विच्छेद, सम्पूर्ण सम्पत्ति का अपहरण आदि दण्ड दिये जाते थे। साधारण अपराधों के लिए कोड़ों से पीटने की सजा, सामाजिक दृष्टि से अपमानित करना, आर्थिक जुर्माना आदि सजाएँ दी जाती थीं।

बंदीगृह

मुगलों के शासन काल में आजकल की भाँति बन्दीगृहों की पृथक् व्यवस्था नहीं थी। ग्वालियर, आगरा, हांसी, इलाहाबाद आदि पुराने दुर्गों को बन्दी गृहों के रूप में काम में लिया जाता था। कैदियों का व्यवहार संतोषजनक पाये जाने पर उनको समय के पूर्व ही रिहा कर दिया जाता था। बादशाहों के राज्यारोहण एवं शहजादों के जन्म आदि अवसरों पर भी कैदियों को रिहा करने की परम्परा थी।

मुगल शासन व्यवस्था का मूल्यांकन

मुगलकालीन शासन व्यवस्था का मूल्यांकन करते समय हमें मध्ययुगीन परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिये। उस युग में धार्मिक कट्टरता की प्रधानता थी और कोई भी संस्था उससे अप्रभावित नहीं रह पाई थी। उस युग में यातायात, आवागमन तथा संचार के साधनों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया था। केन्द्रीय सरकार के लिए शासन की प्रांतीय एवं जिला इकाइयों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना सम्भव नहीं था। अनेक इतिहासकारों ने मुगल शासन व्यवस्था को मध्ययुग की श्रेष्ठ शासन व्यवस्था माना है।

दिल्ली सुल्तानों के समय में केन्द्रीय तथा प्रान्तीय स्तर पर शासन के मूलभूत सिद्धान्त व्यवस्थित नहीं हो पाये थे। उन्होंने इस देश में अब्बासिद संस्थाओं को लागू करने का प्रयास किया था परन्तु खलजी और तुगलक शासकों के अलावा अन्य सुल्तानों के समय में इस दिशा में विशेष प्रगति नहीं हो पाई। लोदी शासनकाल में अमीरों में कबीलाई भावना की प्रधानता तथा सुल्तान के साथ उनके समानता के दावे के कारण शासन व्यवस्था शिथिल पड़ गई थी और मुगल बादशाहों को केन्द्रीय शासन को नये सिरे से मजबूत बनाने के लिये नई व्यवस्थाएँ करनी पड़ीं।

बाबर एवं हुमायूँ की शासन व्यवस्था

बाबर और हुमायूँ को केन्द्रीय एवं प्रांतीय शासन व्यवस्था को संगठित करने का समय नहीं मिल सका। वे राज्य के विजेता तो थे किंतु उन दोनों की शासकीय प्रतिभा संदिग्ध है।

अकबर की शासन व्यवस्था

मुगल सल्तनत में शासन व्यवस्था स्थापित करने का श्रेय अकबर को जाता है। अकबर ने सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था विकसित करने के लिये निम्नलिखित नवाचार किये-

(1.) अधिकारियों के कार्यों एवं अधिकारों का विभाजन: अकबर ने प्रशासन की विभिन्न इकाइयों के कार्यों तथा अधिकारों का स्पष्ट विभाजन करके उनके उत्तरदायित्व को स्पष्ट कर दिया।

(2.) अधिकारियों पर दृष्टि रखने की व्यवस्था: अकबर ने विभागीय कार्यों के लिए विभिन्न अधिकारियों को नियुक्त किया तथा प्रत्येक अधिकारी पर दूसरे अधिकारी द्वारा दृष्टि रखने की व्यवस्था लागू की। प्रान्तीय शासन व्यवस्था इसका सबसे अच्छा उदारहण है। इस प्रकार की व्यवस्था से कोई भी पदाधिकारी अपनी गतिविधियों को केन्द्रीय सरकार से अधिक दिनों तक गुप्त नहीं रख सकता था तथा सामान्यतः विद्रोह करने के सम्बन्ध में भी नहीं सोच सकता था।

(3.) मनसबदारी प्रथा: अलाउद्दीन खलजी के समय से घोड़ों को दागने, सैनिकों का हुलिया नोट करने, दशमलव पद्धति के आधार पर सैनिकों का विभाजन करने आदि प्रथाएँ चली आ रही थीं। अकबर ने उन प्रथाओं को विकसित रूप देकर मनसबदारी प्रथा प्रारम्भ की।

(4.) दहसाला बंदोबस्त: शेरशाह के समय में भी राजा टोडरमल ने भू एवं राजस्व सम्बन्धी सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अकबर के सौभाग्य से उसे भी राजा टोडरमल की सेवाएं प्राप्त हो गईं। राजा टोडरमल ने मालगुजारी के क्षेत्र में पर्याप्त सुधार करके दहसाला बंदोबस्त को लागू किया।

जहाँगीर की शासन व्यवस्था

अकबर द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था को उसके उत्तराधिकारियों ने थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ लागू रखा। जहाँगीर ने शासन व्यवस्था में किसी प्रकार का विशेष सुधार नहीं किया। उसके शासनकाल में अकबर की शासन व्यवस्था अपने मूलरूप में कायम रही।

शाहजहाँ की शासन व्यवस्था

शाहजहाँ के समय में भी अकबर कालीन शासन व्यवस्था चलती रही। शाहजहाँ ने शासन व्यवस्था में परिस्थ्तििवश मामूली सुधार किये।

औरंगजेब की शासन व्यवस्था

औरंगजेब इस्लाम का कट्टर अनुयायी था। अतः उसने इस्लामिक सिद्धान्तों को आधार बनाकर शासन व्यवस्था में कई बदलाव किये। शासन से उदारता लुप्त हो गई। हिन्दुओं को प्रजा का दर्जा नहीं दिया गया। उन पर जजिया एवं तीर्थ कर पुनः आरोपित कर दिये गये। हिन्दुओं के तीर्थस्थलों, देवालयों एवं देवमूर्तियों को भंग करना शासन का कर्त्तव्य हो गया।

परवर्ती मुगल शासकों की शासन व्यवस्था

औरंगजेब की मृत्यु के बाद परवर्ती अयोग्य एवं विलासी मुगल शासकों के समय शासन व्यवस्था में धीरे-धीरे इतने दोष उत्पन्न हो गये कि अन्त में मुगल साम्राज्य और मुगलवंश का ही पतन हो गया। फिर भी, मध्ययुग में लम्बे समय तक मुगल शासन व्यवस्था ने भारत को सुरक्षा तथा शान्ति प्रदान की। बाद में अंग्रेजों ने भी उस शासन व्यवस्था की उपादेयता को ध्यान में रखकर उसकी बहुत सी बातों को अपनाया।

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