मुगल कालीन चित्रकला निश्चित रूप से हिन्दू चित्रकला से भिन्न थी। मुगल कालीन चित्रकला के बिम्ब, विषय एवं शैली तीनों ही हिन्दू चित्रकला से अलग थे।
मुगल कालीन चित्रकला
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही चित्रकला में नवजीवन आ गया क्योंकि मुगल बादशाह चित्रकला के महान् प्रेमी थे। वस्तुतः इन इतिहासकारों का यह कथन मुगलों की पूर्ववर्ती तुर्क सल्तनत के संदर्भ में तो उचित है किंतु प्राचीन हिन्दू राजाओं के काल की चित्रकला के संदर्भ में उचित नहीं है। प्राचीन भारत में आदिम काल से ही चित्रकला का विकास हुआ जिसका निरंतर उत्थान होता चला गया था।
हेरात में बहजाद नामक चित्रकार ने चित्रकला की एक नई शैली आरम्भ की जो चीनी कला का प्रान्तीय रूप था और इस पर भारतीय, बौद्ध, ईरानी, बैक्ट्रियाई और मंगोलियन तत्त्वों का प्रभाव था। इसे बहजाद कला कहा जाता था। फारस के तैमूरवंशी राजाओं ने इसे राजकीय सहायता दी।
बाबर के काल में चित्रकला
बाबर जब हेरात में आया, तब उसे इस प्रकार की बहजाद कला की चित्रकला से परिचय प्राप्त हुआ। बाबर इस कला को भारत में ले आया। बाबर ने अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ इस कला शैली में चित्रित करवाईं।
हुमायूँ के काल में चित्रकला
हुमायूँ भी चित्रकला प्रेमी था। उसे निर्वासन काल में फारस के उच्चकोटि के चित्रकारों से परिचय प्राप्त हुआ। इनमें से एक हेरात का प्रसिद्ध चित्रकार बहजाद का शिष्य मीर सैय्यद अली था और दूसरा ख्वाजा अब्दुस समद था। हुमायूँ इन दोनों को अपने साथ भारत ले आया और हुमायूँ तथा अकबर ने इन कलाकारों से चित्रकला का ज्ञान प्राप्त किया।
इस काल में अधिकांशतः सूती वस्त्रों पर चित्र बनाये जाते थे। इन चित्रों में ईरानी भारतीय तथा यूरोपीयन शैलियों का सम्मिश्रण पाया जाता है किन्तु ईरानी शैली की प्रधानता होने के कारण इसे ईरानी कलम कहा गया। इस शैली को मुगल काल की प्रारम्भिक चित्रकला शैली कहा जा सकता है।
अकबर के काल में चित्रकला
अकबर के उदारवादी दृष्टिकोण के कारण अकबर के शासनकाल में चित्रकला की नई शैली विकसित हुई जो ईरानी और भारतीय शैली के सर्वोत्तम तत्त्वों का सम्मिश्रण थी। इस नवीन शैली में विदेशी तत्त्व भारतीय शैली में इस तरह घुलमिल गये कि दोनों के पृथक् अस्तित्त्व का पत लगा पाना असम्भव हो गया और वह बिल्कुल भारतीय हो गई।
जहाँगीर के काल में चित्रकला
जहाँगीर का शासनकाल भारतीय चित्रकला का चरमोत्कर्ष काल था। जहाँगीर स्वयं अच्छा चित्रकार था। उसके दरबार में कई प्रसिद्ध चित्रकार रहते थे। इस काल की चित्रकला में भी कई प्रयोग हुए। जहाँगीर की मृत्यु के साथ ही मुगल चित्रकला का विकास रुक गया।
मुगल कालीन राजपूत चित्रकला
सातवीं एवं आठवीं शताब्दी के लगभग राजपूताना में अजन्ता चित्रकला की समृद्ध परम्परा विद्यमान थी किन्तु अरबों के आक्रमण के कारण पश्चिमी क्षेत्र के कलाकार गुजरात से राजपूताना की ओर आ गये जिन्होंने स्थानीय शैली को आत्मसात करके एक नई शैली को जन्म दिया। चूँकि इस नई शैली की चित्रकला से बड़ी संख्या में जैन ग्रंथों को चित्रित किया गया था, अतः इसे जैन शैली कहा गया।
इस शैली का विकास गुजरात से आये कलाकारों ने किया था इसलिये इसे गुजरात शैली भी कहा जाने लगा। धीरे-धीरे गुजरात और राजपूताना शैली में कोई भेद नहीं रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी में इस पर मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देने लगा। ज्यों-ज्यों राजपूत शासकों ने मुगल बादशाह अकबर से राजनैतिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये और उनका मुगल दरबार में आना-जाना होता रहा, राजपूत चित्रकला पर मुगल प्रभाव अधिकाधिक बढ़ता गया, जिससे राजपूत शैली की पूर्व प्रधानता समाप्त हो गई।
मुगल कालीन मूर्तिकला
मुसलमानों के भारत आने से पहले भारत में मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी किन्तु मुस्लिम आक्रान्ता मूर्तियों को तोड़ना इस्लाम की सेवा एवं अपना कर्त्तव्य मानते थे। अतः उन्होंने भारतीय मूर्तिकला पर घातक प्रहार किया। बाबर और हुमायॅूँ भी कट्टर मुसलमान थे और मूर्ति बनाना पाप समझते थे तथा मूर्तियों एवं मन्दिरों को ध्वस्त करना एक पवित्र कार्य समझते थे। अकबर ने अपने उदार दृष्टिकोण के कारण मूर्तिकला को प्रोत्साहन दिया। जहाँगीर ने भी कुछ मूर्तियाँ बनवाईं किन्तु शाहजहाँ और औरंगजेब ने इसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया, जिससे मूर्तिकला पतनोन्मुख हो गई।
मुगल कालीन आभूषण कला
मुगल शासकों की बेगमें तथा शहजादियाँ, यहाँ तक कि स्वयं मुगल बादशाह एवं शहजादे कलात्मक आभूषणों के शौकीन थे। इस कारण मुगल काल में आभूषण कला को बड़ा प्रोत्साहन मिला तथा कई प्रकार के नये आभूषणों का भी निर्माण होने लगा। राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण भी मुगल शासकों ने स्वर्णकारों को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। स्वर्णकार और जौहरी सदैव अपने काम में लगे रहते थे। शाहजहाँ ने सोने का रत्नजड़ित तख्ते-ताऊस बनवाया जिसे 1739 ई. में नादिरशाह ईरान ले गया।
मुगल कालीन संगीत कला
मुगलों के काल में संगीत कला की बहुत उन्नति हुई। बाबर स्वयं गायन में निष्णात था। उसने गायन कला की एक पुस्तक भी लिखी। हुमायूँ भी संगीत प्रेमी था। अकबर भारतीय शास्त्रीय संगीत का बड़ा प्रेमी था। तानसेन उस युग का महान् संगीतज्ञ था। अकबर के काल में हिन्दू और मुस्लिम संगीत पद्धतियों का समवन्य हुआ जिससे ठुमरी, गजल, कव्वाली आदि अनेक पद्धतियों का सृजन हुआ।