Friday, March 29, 2024
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अध्याय – 22 : मध्यकालीन कला, स्थापत्य एवं साहित्य

तुर्क शासक बर्बर आक्रांताओं के रूप में भारत में आये। उनके तीन उद्देश्य थे-

1. भारत की अपार सम्पदा को लूटना,

2. भारत से कुफ्र को हटाकर इस्लाम का प्रसार करना तथा

3. भारत पर सत्ता स्थापित करना।

इन तीनों ही उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये तुर्कों ने भारत में भारी मारकाट मचाई। इसके कारण न केवल भारत के स्थापत्य को भारी क्षति पहुँची अपितु हजारों अच्छे संगीतकारों, शिल्पकारों, गायकों, नर्तकों चित्रकारों, लेखकों, विद्वानों एवं चिंतकों को मार डाला गया। इसके कारण बहुत सी कलात्मक सामग्री, भवन एवं साहित्य नष्ट हो गया तथा भारतीय कला, स्थापत्य एवं साहित्य का विकास अवरुद्ध हो गया। तुर्क शासक अपने साथ जो इस्लामी संस्कृति भारत में लाये उसके आधार पर भारत में नवीन कला, स्थापत्य एवं साहित्य की रचना आरम्भ हुई।

सारसैनिक या इस्लामिक स्थापत्य कला

जिस समय तुर्कों ने दिल्ली पर विजय प्राप्त की, उस समय तक मध्य एशिया में स्थापत्य कला की एक मिश्रित शैली विकसित हो चुकी थी यह। शैली एक ओर ट्रान्स-ऑक्सियाना, ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, मिò, उत्तरी अफ्रीका तथा दक्षिण-पश्चिम यूरोप की स्थानीय शैलियों और दूसरी ओर अरब की मुस्लिम शैली के समन्वय से बनी थी। इस शैली को सारसैनिक या इस्लामिक कला कहा जाता है किंतु यह स्थापत्य शैली न तो पूर्ण रूप से मुस्लिम थी और न अरबी। यह एक मिश्रित शैली थी जिसकी कुछ निश्चित मौलिक विशेषताएँ थीं, जैसे-नोकदार तिपतिया मेहराब, मेहराबी डाटदर छतें, इमारतों का अठपहला रूप, गुम्बज आदि। यह स्थापत्य शैली भारत की परम्परागत स्थापत्य शैली से पर्याप्त भिन्न थी। मंगोलों के भारत आने से पहले मुस्लिम स्थापत्य शैली भारत में भली-भांति स्थापित हो चुकी थी।

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हिन्दू स्थापत्य कला

मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आगमन से पहले भारत में जो भारतीय स्थापत्य शैलियां विद्यमान थीं, उन्हें विदेश से आई मुस्लिम शैली से अलग करने के लिये इतिहासकारों ने हिन्दू स्थापत्य शैली कहा है। वस्तुतः ऐसी कोई एक शैली नहीं थी जिसे हिन्दू स्थापत्य शैली कहा जा सके। यह परम्परागत भारतीय स्थापत्य शैलियों का समुच्चय थी जिसका विकास अलग-अलग सदियों तथा अलग-अलग राज्यवंशों के काल में अलग-अलग प्रकार से हुआ था। उत्तर एवं दक्षिण भारत की स्थापत्य शैलियों में बहुत अंतर था, गुप्तों तथा प्रतिहारों के काल की स्थापत्य शैलियों में भी पर्याप्त अंतर था। चोलों तथा चालुक्यों की स्थापत्य शैलियों में भी अंतर था। फिर भी इस्लामिक शैली से अलग करने के लिये समस्त भारत की स्थापत्य शैलियों को सामूहिक रूप से हिन्दू स्थापत्य शैली कहा जा सकता है क्योंकि समस्त भारतीय स्थापत्य शैलियों में कुछ बातें एक जैसी अवश्य थीं।

हिन्दू स्थापत्य कला एवं इस्लामिक स्थापत्य कला में अन्तर

इस्लामिक स्थापत्य (अथवा सारसैनिक कला) और हिन्दू स्थापत्य कला में अन्तर स्पष्ट दिखाई देता था। मोटे तौर पर ये अन्तर इस प्रकार से थे-

(1.) हिन्दू स्थापत्य कला में अलंकरणों की भरमार थी किन्तु इस्लामिक कला सादगी पर आधारित थी।

(2.) हिन्दू स्थापत्य कला के अन्तर्गत मन्दिरों के ऊपर शिखर बनाये जाते थे, जबकि इस्लामिक कला में मस्जिदों के ऊपर गुम्बद बनाये जाते थे।

(3.) हिन्दू स्थापत्य कला में मजबूती और सुन्दरता को अधिक महत्त्व दिया जाता था जबकि इस्लामिक कला में विशालता, स्थान की अधिकता और सरलता को महत्त्व दिया जाता था।

(4.) हिन्दू मन्दिरों के गर्भगृह में प्रकाश एवं वायु का प्रवेश बहुत कम होता था जबकि मस्जिद का भीतरी भाग प्रकाश एवं वायु से युक्त होता था।

(5.) हिन्दू कला में स्तम्भों एवं सीधे पाटों का महत्त्व था जबकि इस्लामिक कला में मेहराबों एवं गुम्बदों को अधिक महत्त्व दिया जाता था।

हिन्दू स्थापत्य कला एवं इस्लामिक स्थापत्य कला में समानताएँ

अनेक विभिन्नताओं के उपरांत भी हिन्दू स्थापत्य शैली तथा इस्लामिक स्थापत्य शैली में कुछ समानताएँ भी थीं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

(1.) दोनों ही स्थापत्य शैलियों में धार्मिक महत्व के भवनों को इस प्रकार से बनाया जाता था कि वे दूर से ही पहचान लिये जायें।

(2.) दोनों ही शैलियों में शासकों के आवासीय भवन विशाल होते थे। दोनों ही शैलियों में रनिवास अथवा हरम के लिये भिन्न प्रकार का निर्माण किया जाता था।

हिन्दू स्थापत्य कला एवं इस्लामिक स्थापत्य कला में समन्वय

जब मुसलमान स्थाई रूप से भारत में रहने लगे तब मुस्लिम स्थापत्य कला पर स्थानीय भारतीय स्थापत्य कला का प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप भारत में एक नई स्थापत्य कला विकसित हुई। इसके विकास में निम्नलिखित तत्त्वों का योगदान रहा-

(1) यह स्वाभाविक ही था कि मंगोल शासक अपने साथ मध्य एशिया से बड़ी संख्या में भवन निर्माताओं एवं शिल्पकारों को लेकर नहीं आ सकते थे। इसलिये उन्हें अपने लिये भवनों के निर्माण में भारतीय शिल्पकारों की सेवाओं की आवश्यकता पड़ी। भारतीय शिल्पकारों ने मुस्लिम बादशाहों एवं अमीरों के लिये निर्मित भवनों में मुस्लिम शिल्पकारों द्वारा बताये गये ढंग के साथ-साथ परम्परागत भारतीय शैली का भी प्रयोग किया अतः अनजाने में ही हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का समन्वय हो गया।

(2) हिन्दू-मन्दिरों एवं मुस्लिम-मस्जिदों में कुछ समानताएँ थीं, दोनों में खुला आँगन होता था, जिसके चारों ओर खम्भेदार बरामदे एवं कमरे होते थे। इसलिये मंगोल शासक प्रायः हिन्दू एवं जैन मन्दिरों की पटी हुई छतों को गिरा कर उनके स्थान पर गुम्बदें और मीनारें बनवा देते थे। इस प्रकार बनी मस्जिदों में भी हिन्दू एवं मुस्लिम स्थापत्य का समन्वय हो गया। ऐसे कुछ भवन अजमेर, दिल्ली एवं आगरा आदि नगरों में आज भी देखे जा सकते हैं।

(3) मुस्लिम आक्रान्ताओं ने अनेक हिन्दू भवनों को मस्जिदों, मकबरों, राजकीय आावासों एवं महलों में बदला। इन भवनों के बाह्य आकारों को तो पूरी तरह मुस्लिम शैली के अनुसार बना दिया गया किंतु उनके भीतर का निर्माण भारतीय स्थापत्य के अनुसार ही रहा। आगे चलकर इस प्रकार के भवनों को ही आदर्श स्थापत्य मान लिया गया। और नये बनने वाले भवनों में उनका अनुकरण किया गया। इस कारण भी हिन्दू एवं मुस्लिम स्थापत्य कलाआंे का समन्वय हुआ।

भारतीय मुस्लिम कला

हिन्दू स्थापत्य एवं मुस्लिम स्थापत्य शैलियों के समन्वय के फलस्वरूप एक नई स्थापत्य शैली का विकास हुआ जिसे हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला अथवा भारतीय मुस्लिम कला कहा गया।

डा. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘जिन परिस्थितियों में भारतीय मुस्लिम कला का प्रादुर्भाव हुआ, उसके कारण दोनों के आदर्शों में भी समन्वय अनिवार्य हो गया। हिन्दुओं में मूर्तिपूजा थी, मुसलमान इसका विरोध करते थे। हिन्दू अलंकरण और शृंगार चाहते थे और इस्लाम सादगी पर जोर देता था। इन विरोधी आदर्शों ने मिलकर ऐसी नवीन कला को जन्म दिया कि जिसे हम सुविधा की दृष्टि से ‘भारतीय मुस्लिम कला’ कहते हैं।’

स्थापत्य कलाओं के इस समन्वयन में हिन्दू स्थापत्य कला अधिक प्रभावित हुई अथवा मुस्लिम स्थापत्य कला, इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है। स्मिथ, फर्ग्यूसन और एल्फिंसटन आदि अधिकांश विद्वानों का मानना है कि मध्यकालीन भवनों पर हिन्दू स्थापत्य का प्रभाव नगण्य था। जबकि डॉ. परमात्मा शरण आदि अधिकांश भारतीय विद्वानों का मानना है कि मध्ययुगीन स्थापत्य कला में हिन्दू कला का बाहुल्य है। हेवल ने भी इस मत का समर्थन किया है।

डॉ. परमात्मा शरण ने लिखा है- ‘फर्ग्यूसन जैसे विद्वानों ने यह समझने में भूल की है कि पठानकालीन सुल्तानों ने एक नई शैली का विकास किया। वास्तव में न तो पठानों की कोई नई शैली थी, न तुर्कों की, न मंगोलों की, वे सब प्राचीन कला के रूपान्तर थे। हिन्दू घरों, मन्दिरों तथा बौद्ध विहारों के चौक और दालान मस्जिदों के नामाजशाह बन गये। भारतीय देवालयों के तोरण, मस्जिदों में मक्के की मेहराबों की तरह बनाये जाने लगे, अंतर केवल इतना था कि मस्जिदों में कोई प्रतिमा नहीं होती थी।’ वस्तुतः भारतीय जयस्तम्भों को देखकर ही मस्जिदों के ऊपर मीनारें बनवाई गई थीं। छज्जे, बालकनी और तोरण भी स्पष्टतः भारतीय थे, जो मुस्लिम स्थापत्य में पाये जाते हैं। मुस्लिम स्थापत्य में सजावट तो शुद्ध भारतीय ही है।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्थापत्य कलाओं के इस समन्वयन एवं सम्मिश्रण में मुस्लिम कला अधिक प्रभावित हुई थी न कि भारतीय कला। वास्तव में मुस्लिम शासकों ने भारतीय और मुस्लिम शैलियों का प्रयोग ऐसे समुचित ढंग से किया था कि वह एक सर्वथा नई शैली दिखाई देने लगी।

सल्तनतकालीन स्थापत्य कला

गुलाम शासकों का स्थापत्य

कुवत-उल-इस्लाम मस्जिद: कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा 1197 ई. में निर्मित दिल्ली की कुवत-उल-इस्लाम मस्जिद प्रथम मुस्लिम भवन है जो एक हिन्दू मन्दिर के चबूतरे पर 27 हिन्दू एवं जैन मन्दिरों की ध्वस्त सामग्री से बनाई गई थी। इसमें मेहराबदार दरवाजों की पर्दे जैसी दीवार विशिष्ट इस्लामिक शैली की है जिस पर कुरान की आयतें उत्कीर्ण हैं। मस्जिद के बहुत-से स्तम्भों के शिरोभाग हिन्दू मन्दिरों से लेकर लगाये गये हैं। मेहराबों की सजावट हिन्दू शैली की है।

कुतुबमीनार: कुतुबुद्दीन ऐबक के काल में निर्मित दूसरा महत्वपूर्ण भवन कुतुबमीनार है। कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसकी पहली मंजिल बनवाई। इल्तुतमिश ने 1232 ई. में इसे पूरा किया। फीरोज तुगलक ने इस मीनार की दो मंजिलें और बनवाईं। इस मीनार की ऊँचाई इल्तुतमिश के काल में 225 फुट थी जो फीरोज तुगलक के काल में 240 फुट की गई। यह मीनार वृत्ताकार है। इसका व्यास आधार भाग पर 46 फुट और शिखर भाग पर 10 फुट है। कुछ विद्वानों का मत है कि कुतुबमीनार की उत्पत्ति हिन्दू है। मुसलमानों ने इसकी ऊपरी सतह को पुनः गढ़ा था। इस मत की पुष्टि कुतुबमीनार पर खुदे हुए देवनागरी अभिलेखों की उपस्थिति से होती है।

अढाई दिन का झौंपड़ा: अजमेर में स्थित ‘अढाई दिन का झौंपड़ा’ आज एक मस्जिद के रूप में स्थित है। चौहानों के काल में इसे संस्कृत विद्यालय और मन्दिर के रूप में बनाया गया था। चौहान काल में पूरे भारत में इससे सुंदर भवन और कोई नहीं था। कुतुुबुद्दीन ऐबक ने इस भवन का ऊपरी भाग गिराकर उस पर गुम्बजें और महराबें बनावा दीं। इसकी मेहराबें इस्लामिक कला की प्रतीक होते हुए भी, हिन्दू निर्माण पद्धति का परिचय देती हैं।

नासिरूद्दीन महमूद का मकबरा: सल्तनकाल में बनाये गये मकबरों में इल्तुतमिश द्वारा बनवाया गया उसके ज्येष्ठ पुत्र नासिरूद्दीन महमूद का मकबरा प्रमुख है जो कुतुबमीनार से लगभग तीन मील की दूरी पर मलकापुर में बना है। इसके स्तम्भ, स्तम्भों के शिरो-भाग और अधिकांश सजावट हिन्दू स्थापत्य शैली की है किन्तु इसकी मेहराबें एवं गुम्बद इस्लामी स्थापत्य शैली के हैं।

इल्तुतमिश का मकबरा: इल्तुतमिश का मकबरा महत्त्वपूर्ण इस्लामी इमारत है जो लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है। यह एक वर्गाकार इमारत है। इसके तीन ओर मेहराबदार प्रवेश-द्वार हैं। इस मकबरे का भीतरी भाग हिन्दू स्थापत्य का प्रतीक है। इल्तुतमिश का मकबरा गुम्बद के इतिहास में ेुनदपबी पद्धति के लिए प्रसिद्ध है। इस पद्धति के अन्तर्गत चौकोर कमरे में गोलाई लाने के लिए कोनों में मेहराब बना दिये गये हैं। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् भवनों का निर्माण कार्य रुक गया था।

बलबन का मकबरा: इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद बनी इमारतों में बलबन का मकबरा महत्त्वपूर्ण है जो कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के दक्षिण-पूर्वी छोर पर स्थित है। इसके मेहराब, दीवारों के दोनों सिरों से एक के ऊपर एक पत्थर रखकर और इनमें से प्रत्येक थोड़ा आगे निकाल कर बनाये गये हैं।

खलजी शासकों का स्थापत्य

अलाउद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के बाद, दिल्ली में हिन्दू-मुस्लिम शैली के नये युग का सूत्रपात हुआ। खिलजी काल की स्थापत्य कला की मुख्य विशेषता यह है कि इस काल में मुसलमानों ने सजावट के लिए पत्थर के बेल और फल आदि विषयों को स्थापत्य कला का अभिन्न अंग बना लिया था।

अलाई दरवाजा: अलाउद्दीन खिलजी कुतुब क्षेत्र में एक विशाल मस्जिद और अत्यंत ऊँची मीनार बनाना चाहता था किन्तु 1316 ई. में उसकी मृत्यु के कारण यह योजना कार्यान्वित नहीं की जा सकी। उसके द्वारा निर्मित अलाई दरवाजा इस्लामी स्थापत्य कला का सर्वाधिक कीमती रत्न समझा जाता है। यह एक वर्गाकार कक्ष है जिसके ऊपर एक गुम्बद है। इसके चारों ओर दीवारों में एक-एक मेहराबदार दरवाजा है। यद्यपि सारी इमारत लाल पत्थर की बनी हुई है किन्तु सजावट के लिये सफेद संगमरमर की पट्टियों, कुरानी सुन्दर लिखावटी अभिलेखों और शोभनीय डिजाइनों का प्रयोग किया गया है।

हजार-सितुन: अलाउद्दीन ने कुतुब क्षेत्र के उत्तर में सीरी का नया नगर बसाया था, जहाँ बनाया गया ‘हजार-सितुन’ (हजार खम्भों वाला) महल अधिक महत्त्वपूर्ण है। अब यह नगर और महल खण्डहर अवस्था में है।

जमैयतखाना मस्जिद: अलाउद्दीन ने निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के अहाते में जमैयतखाना नामक मस्जिद बनवाई थी जो अलाई दरवाजे के नमूने पर बनी हुई है। इसमें मुसलमानी स्थापत्य कला के तत्त्वों को स्पष्ट देखा जा सकता है।

ऊरवा मस्जिद: अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन मुबारक ने बयाना में ऊरवा मस्जिद बनवाई थी जो खिलजी काल की श्रेष्ठ शैली का पतनोन्मुख रूप है।

तुगलक कालीन स्थापत्य कला

तुगलकों के उत्थान के साथ ही स्थापत्य कला के आदर्शों और शैली दोनों में परिवर्तन आया। घनी सजावट और विलासितापूर्ण वैभव का स्थान इस्लामिक सादगी और गंभीरता ने ले लिया। इस कारण तुगलकों की इमारतें खलजियों की इमारतों की तुलना में कम कलात्मक लगती हैं। गियासुद्दीन तुगलक के समय की महत्त्वपूर्ण इमारतें हैं- तुगलकाबाद में निर्मित महल, दुर्ग और गियासुद्दीन का मकबरा।

गियासुद्दीन का महल: इब्नबतूता सूचित करता है कि गियासुद्दीन का महल सुनहरी ईटों से निर्मित था। जब सूर्योदय होता था तो वह इतनी तेजी से चमकता था कि किसी की उस पर आँख नहीं ठहरती थी।

तुगलकाबाद का दुर्ग: नगर से ऊँचा उठा हुआ और दुहरे-तिहरे परकोटे से रक्षित दुर्ग अपनी विशालता और अभेड्ड मजबूती के लिए प्रसिद्ध था जो ग्वालियर, चितौड़, रणथम्भौर आदि हिन्दू शासकों द्वारा निर्मित स्थापत्य के अनुरूप दिखाई देता था।

गियासुद्दीन का मकबरा: तुगलकाबाद के दुर्ग के निकट ही बना मकबरा पंचभुजीय छोटी-सी गढ़ी जैसा है। यह लाल पत्थर का बना है और इसकी मेहराबों के ऊपर संगमरमर की पट्टियाँ जड़ी हुई हैं। इसका विशाल गुम्बज संगमरमर का है। इसका शिखर हिन्दू स्थापत्य कला के प्रतीक ‘कलश’ या ‘आमलक’ के अनुकरण पर निर्मित है।

मुहम्मद तुगलक का किला: मुहम्मद बिन तुगलक ने तुगलकाबाद नामक छोटे-से किले की नींव डाली थी किन्तु इसके भवन बहुत ही मामूली सामग्री से बनाये गये प्रतीत होते हैं। मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद में नवीन राजधानी का निर्माण किया जिसमें दिल्ली के अनुकरण पर कई भवन बनाये गये।

फीरोज तुगलक के निर्माण: फीरोजशाह तुगलक अपने समय का महान् निर्माता था किन्तु वह खर्चीले कार्य सम्पन्न करने में असमर्थ होने के कारण सादगीपूर्ण इमारतें ही बनवा सका। उसने अनेक सार्वजनिक इमारतें, जैसे- नगर, किले, मस्जिदें, नहरें एवं मकबरे बनवाये। उसने यमुना के किनारे अपनी नयी राजधानी फीरोजाबाद का निर्माण करवाया जो फीराजशाह कोटला के नाम से प्रसिद्ध है।

फीरोजबाद का दुर्ग: फीरोज तुगलक ने फीरोजबाद में चार दुर्ग और नौ मस्जिदें बनवाईं। उसके द्वारा निर्मित दुर्ग में दुर्ग की दीवार से बाहर निकली हुई मंुडेर है जिसमें शत्रु पर पिघली हुई धातु डालने के लिए छिद्र बने हुए हैं। यह नवीन शैली भारतीय स्थापत्य कला में पहली बार प्रयोग में लाई गयी थी।

फीरोजशाह द्वारा निर्मित मस्जिदें: फीरोजशाह ने अपने जीवन काल में अनेक मस्जिदें बनवाई थीं जिनमें ‘काबा मस्जिद’, ‘बेगमपुरी’, ‘खिर्की मस्जिद’ और ‘काली मस्जिद’ अधिक उल्लेखनीय हैं।

खान-ए-जहाँ तिलंगानी का मकबरा: फीरोजशाह के प्रधानमंत्री खान-ए-जहाँ तिलंगानी का मकबरा फीरोजशाह द्वारा निर्मित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इमारत है। उस युग के मकबरे वर्गाकार बनाये जाते थे परन्तु तिलंगानी के मकबरे की योजना अठपहला थी। इसके ऊपर एक ही गुम्बद था और इसके चारों ओर नीचा मेहराबदार बरामदा था।

कबीरूद्दीन औलिया का मकबरा: तुगलक काल की एक अन्य इमारत कबीरूद्दीन का मकबरा है जो लाल गुम्बद के नाम से प्रसिद्ध है। यह नासिरूद्दीन महमूद (1389-92 ई.) के समय में बना। यह मकबरा गियासुद्दीन तुगलक के मकबरे की नकल है किन्तु इसमें खिलजी काल की श्रेष्ठ शैली का पुनः प्रदर्शन किया गया है। इस मकबरे के निर्माण के बाद तैमूर लंग के आक्रमण के कारण दिल्ली के सुल्तान बड़े पैमाने पर इमारतों का निर्माण नहीं करवा सके।

सैयद और लोदी काल का स्थापत्य

तुगलक वंश की समाप्ति के बाद पहले सैयदों ने और फिर लोदियों ने दिल्ली पर शासन किया। सैयदों और लोदियों के काल में निर्मित इमारतों में अब केवल  मकबरे ही बचे हैं। इन मकबरों में दो शैलियाँ दिखाई देती हैं- (1.) तिलंगानी मकबरे के अनुकरण पर बने अठपहला मकबरे और (2.) परम्परागत शैली में बनाये गये वर्गाकार मकबरे।

सिकन्दर लोदी का मकबरा: अठपहला मकबरों में मुहम्मद शाह सैयद के मकबरे के नमूने पर बना सिकन्दर लोदी का मकबरा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें पहली बार दुहरे गुम्बद का प्रयोग किया गया। चारदीवारी से घिरे सहन की विशालता और उसकी अर्धसजावट सर्वाधिक महत्त्वूपर्ण है। इन्ही दो विशेषताओं ने मुगलकाल के मकबरों का मार्गदर्शन किया। वर्गाकार मबकरे ऊँचाई में अधिक हैं किन्तु लम्बाई चौड़ाई में कम हैं। इनके ऊपर एक गुम्बद है जिसके आधार के चारों ओर कमल की पत्तियों की बेल है। इसके चारों कोनों पर एक-एक स्तम्भ-युक्त छतरी बनी हुई है। इन वर्गाकार मकबरों में अठपहला मकबरों का गंभीर सौन्दर्य नहीं है।

मोठ की मस्जिद: लोदी काल में निर्मित मस्जिदों में मोठ की मस्जिद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें पाँच मेहराबदार प्रवेश द्वार हैं। इस मस्जिद के गुम्बद देखने में सुन्दर लगते हैं। सर जॉन मार्शल ने लिखा है- ‘लोदियों की स्थापत्य कला में जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ है उसका संक्षिप्त रूप मोठ की मस्जिद में वर्तमान है।’

सूरी वंश की इमारतं

भारत में मुगल वंश की स्थापना के बाद शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को पराजित कर सूरी वंश की स्थापना की। शेरशाह न केवल विजयी सेनापति, विशाल साम्राज्य का संस्थापक एवं कुशल शासक ही था अपितु कला-प्रेमी भी था।

किला-ए-कुहन् मस्जिद: शेरशाह सूरी ने दिल्ली के पुराने किले के पास ‘किला-ए-कुहन् मस्जिद’ बनवाई। इसके प्रवेश द्वार और गुम्बद के चारों ओर की मीनारें ईरानी प्रभाव लिये हुए हैं। इमारत का शेष भाग भारतीय शैली के आधार पर निर्मित है। अतः यह इमारत हिन्दू-इस्लामी स्थापत्य का श्रेष्ठ उदाहरण है।

शेरशाह का मकबरा:  सूरी काल में निर्मित हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का दूसरा सुन्दर नमूना सहसराम (बिहार) में झील के बीच ऊँची कुर्सी पर बना शेरशाह का मकबरा है जिसे स्वयं शेरशाह ने बनवाया था। इसकी आकृति मुस्लिम है किन्तु इसके भीतर तोड़ों तथा हिन्दू शैली के खम्भों का सुन्दर प्रयोग किया गया है। विद्वानों का मत है कि यह मकबरा तुगलक काल की इमारतों के गाम्भीर्य और शाहजहाँ की महान् कृति ताजमहल के òियोचित सौन्दर्य के बीच सम्पर्क स्थापित करता है। पर्सी ब्राउन तथा स्मिथ ने इस इमारत की बड़ी प्रशंसा की है।

सल्तनत कालीन चित्रकला

इस्लाम में मूर्ति पूजा की तरह चित्रकला भी वर्जित है क्योंकि चित्रकार जीव-जन्तुओं के चित्र बनाते हुए कल्पना करने लगता है कि वह अपनी चित्रित वस्तुओं को जीवन प्रदान कर रहा है। इस प्रकार वह अल्लाह से समता करने लगता है। जबकि जीवन प्रदान करने वाला एकमात्र अल्लाह है। इस दृष्टिकोण के कारण कट्टर मुसलमान जीव-जन्तुओं को चित्रित करना पाप समझते थे। इसलिए दिल्ली के सुल्तान, मुसलमान अमीर और जनसाधारण चित्रकला से दूर रहते थे और सुल्तान चित्रकारों को संरक्षण नहीं देते थे। फिर भी सल्तनतकाल में इक्के-दुक्के चित्र बने जिन पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है

सल्तनत कालीन संगीत कला

यद्यपि मुसलमान संगीत को अधार्मिक मानते थे तथापि उन्होंने भारत में नवीन संगीत का प्रचलन किया। इस कारण भारतीय संगीत में भी परिवर्तन आ गये तथा नई रागों एवं वाद्य यंत्रों की उत्पत्ति एवं विकास संभव हो सका। अलाउद्दीन खलजी एवं जलालुद्दीन खलजी के दरबार में संगीत गोष्ठियाँ होती थीं। सूफी संत कव्वालियों के प्रेमी थे। अलाउद्दीन के दरबारी संगीतज्ञों में अमीर खुसरो विशेष उल्लेखनीय है जिसने हिन्दी एवं ईरानी रागों के सम्मिश्रण से नई रागों का आविष्कार किया। माना जाता है कि अमीर खुसरो ने भारतीय वीणा एवं ईरानी तम्बूरे को मिलाकर सितार का आविष्कार किया तथा भारतीय मृदंग को तबले का रूप प्रदान किया। मुस्लिम शासकों के दरबार में गायक-गायिकाएं एवं नृतकियाँ स्थायी रूप से नियुक्त किये जाते थे। धीरे-धीरे भारतीय संगीत में ईरानी, अरबी एवं तुर्की धुनों का समावेश होता चला गया।

सल्तनत कालीन मूर्तिकला

मुसलमानों के भारत आने से पहले भारत में मूर्तिकला अत्यन्त ही उन्नत अवस्था में थी किन्तु मुस्लिम आक्रान्ता मूर्तियों को तोड़ना इस्लाम धर्म की सेवा तथा धार्मिक कर्त्तव्य मानते थे। अतः उन्होंने भारतीय मूर्तिकला पर घातक प्रहार किया। मुहम्मद गौरी एवं कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण में दिल्ली, आगरा, अजमेर आदि में स्थित लगभग समस्त प्राचीन धार्मिक स्थलों की मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया। बहुत से मंदिरों ने अपने मंदिर के बाहर इस्लामिक चिह्न अंकित किये ताकि मुस्लिम आक्रांता उन्हें पूरी तरह नष्ट न कर सकें। फिर भी इन मंदिरों की मूर्तियों को पूर्णतः अथवा अंशतः विक्षत कर दिया गया। सल्तनत काल में मंदिर एवं मूर्तियों के निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा दी गई इसलिये उत्तर भारत में मूर्तिकला का विकास ठप्प हो गया। दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य सहित उन अन्य राज्यों में मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण होता रहा जहाँ हिन्दू शासक राज्य कर रहे थे।

सल्तनतकालीन धातुकला

सल्तनतकाल में रंग-बिरंगी डिजाइनों में सुसज्जित मिट्टी के बर्तनों और धातु की चीजें बनाने की कला विकसित अवस्था में थी। शाही महलों, अमीरों और मुस्लिम अधिकारियों के घरों में धातु के जड़ाऊ भांडों, चीनी मिट्टी, पीतल तथा चाँदी के बहुत ही सजावटपूर्ण बर्तनों का उपयोग किया जाता था। सुन्दर कलात्मक खुदाई के बर्तन, पीतल के खिलौने, उभरी नक्काशी की ढालें, उभरे काम की धातु की थालियाँ, प्याले, प्यालियाँ, विभिन्न प्रकार की कलात्मक सुराहियाँ बड़े स्तर पर बनाई जाती थीं। दिल्ली के सुल्तान धातु के सजावटी काम के शौकीन थे। मुस्लिम बादशाहों एवं अमीरों की बेगमें भारत के रत्नाभूषणों की ओर आकर्षित हुईं जिससे स्वर्णकारों को आभूषण कला प्रदर्शित करने का पर्याप्त अवसर मिल गया। स्वर्णकार और जौहरी सदैव काम में लगे रहते थे।

मध्यकालीन साहित्य

फारसी साहित्य

अधिकांश तुर्क शासक साहित्य प्रेमी थे और विद्वानों तथा कवियों के आश्रयदाता थे। अतः मध्ययुगीन भारत में महत्त्वपूर्ण साहित्यिक उन्नति हुई किन्तु अधिकतर साहित्य अरबी और फारसी भाषाओं में लिखा गया। इस काल का अधिकांश साहित्य इस्लामिक एवं विभिन्न सूफी मतों से सम्बन्धित है।

अलबरूनी: महमूद गजनवी के भारत आक्रमणों के समय उसके साथ कई कवि और लेखक भारत आए। अलबरूनी भी उन्हीं में से एक था। उसने संस्कृत भाषा एवं साहित्य का ज्ञान भी प्राप्त किया। उसने अपनी पुस्तक ‘तहकीकाते हिन्द’ में भारत की तात्कालिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का विस्तृत वर्णन किया है। भारत विषयक ज्ञान की गहराई और विस्तार में कोई भी अन्य मुसलमान लेखक अलबरूनी की बराबरी नहीं करता।

मिनहाज-उस-सिराज: इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज इल्तुतमिश के काल में शाही सेवा में था। उसने ‘तबकात-ए-नासिरी’ लिखी जिसमें प्रारम्भिक काल से लेकर 1260 ई. तक का इतिहास है। यद्यपि उसकी गद्य शैली प्रभावपूर्ण नहीं है तथापि घटनाओं की स्पष्टता के कारण ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

बलबन कालीन साहित्यकार: जब मंगोलों ने मध्य एशियन देशों को विध्वस्त कर डाला, तब इन देशों के मुस्लिम विद्वान् और कवियों ने भागकर दिल्ली में बलबन के दरबार में आश्रय लिया। इस प्रकार दिल्ली में फारसी साहित्य के इतिहास के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। बलबन का ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद अच्छे कवियों का बड़ा आदर करता था। फारसी के दो महान् कवियों- अमीर खुसरो और मीर हसन देहलवी ने उसी के आश्रय में काव्य-सृजन आरम्भ किया था।

अमीर खुसरो: अमीर खुसरो फारसी का सर्वश्रेष्ठ भारतीय कवि था। उसका जन्म 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के वर्तमान इटावा जिले के पटियाली गाँव में हुआ था। उसका पिता सैफुद्दीन महमूद एक तुर्क था जो नासिरूद्दीन मुहम्मद के काल में भारत में आकर बस गया था और बाद में इल्तुतमिश और उसके उत्तराधिकारियों के शासन काल में उच्च प्रशासनिक पदों पर रहा। अमीर खुसरो की माँ बलबन के एक अमीर इमादउलमुल्क की पुत्री थी। खुसरो में काव्य प्रतिभा बचपन से ही थी। उसने आठ वर्ष की आयु में कविता लिखना आरम्भ किया और 12 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते परिपक्व कवि बन गया। उसने फारसी काव्य से प्रेरणा प्राप्त की। धीरे-धीरे उसने स्वयं अपनी शैली का विकास कर लिया। वह समस्त प्रकार की काव्य-रचना बड़ी सुगमता से कर लेता था। गीत लिखने में उसे विशेष दक्षता प्राप्त थी। तुर्की, फारसी और हिन्दी भाषाओं पर उसका पूर्ण अधिकार था। खुसरो ने कविता, कहानी, मनसवी और इतिहास के अनेक ग्रन्थ लिखे। उसके कुछ महत्त्वूपर्ण ग्रन्थ हैं- शीरी एवं फरहाद, लैला एवं मजनूं, आइने सिकन्दरी, हश्त-विहिश्त, देवलरानी एवं खिज्रखाँ, तुगलकनामा, तारीखे दिल्ली आदि। अमीर खुसरो, बलबन से लेकर गियासुद्दीन तुगलक के समय तक कई सुल्तानों के दरबार में रहा। वह सूफी सन्त निजामुद्दीन औलिया का शिष्य था। वह प्रथम भारतीय मुसलमान लेखक था जिसने हिन्दी शब्द और मुहावरों का प्रयोग किया और भारतीय विषयों पर लिखा। वह उच्चकोटि का कवि, कहानीकार और इतिहासकार होने के साथ-साथ संगीतकार भी था। उसने अपनी कविताओं, पहेलियों और गजलों में हिन्दी और फारसी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया। सूफी होने के कारण उसका दृष्टिकोण उदार था। उसने भारतीय विषयों पर भी लिखा। अपनी प्रसिद्ध मसनवी ‘नूह सिफ’ (नौ आकाश) में उसने भारतीय जलवायु, पशु, पक्षी, धार्मिक विश्वासों और जन-भाषा का उल्लेख किया। मिनहाज-उस-सिराज की तरह उसने भी भारत की तुलना स्वर्ग के उद्यानों से की। वह भारतीय भूमि की ऊर्वरता, समशीतोष्ण जलवायु और मोरों की प्रशंसा करता है। कहीं-कहीं तो वह भारत को विश्व के अन्य देशों से श्रेष्ठ ठहराता है। खुसरो भारतीय संगीत का बड़ा प्रेमी था। उसका कहना था कि भारतीय संगीत में विशेष आकर्षण है। माना जाता है कि अमीर खुसरो ने भारतीय वीणा और ईरानी तम्बूरे को मिलाकर सितार का आविष्कार किया।

मीर हसन देहलवी: सुप्रसिद्ध भारतीय मुसलमान कवि मीर हसन देहलवी, अमीर खुसरो का समकालीन और उसका मित्र था। वह अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी कवियों में से था तथा अपनी गजलों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। गजलों के कारण वह हिन्दुस्तानी सादी कहलता था। मीर हसन भी निजामुद्दीन औलिया का शिष्य था। उसने औलिया के वार्तालापों को अपने फवायद-उल-फौद नामक ग्रन्थ में उल्लेखित किया है। यह ग्रन्थ सूफी दर्शन का अमूल्य ग्रन्थ माना जाता है। इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी उसकी काव्य प्रतिभा से बड़ा प्रभावित हुआ था। उसकी मृत्यु, अमीर खुसरो की मृत्यु के दो वर्ष बाद 1327 ई. में हुई थी।

तुगलक कालीन साहित्यकार: तुगलक शासकों के काल में कई महत्वर्पूण ग्रंथ रचे गये जिनसे उस काल के इतिहास की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। उनमें से कुछ इतिहासकारों का परिचय इस प्रकार से है-

जियाउद्दीन बरनी: मुस्लिम इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी मुहम्मद-बिन-तुगलक के दरबार में 17 वर्ष तक रहा। उसने अपने ग्रन्थ का नाम अपने अन्तिम आश्रयदाता फीरोजशाह तुगलक के नाम पर ‘तारीख-ए-फीरोजशाही’ रखा। इस ग्रन्थ में सुन्दर भाषा का प्रयोग हुआ है। यद्यपि वह निजामुद्दीन औलिया का शिष्य था किन्तु अपने अनुदार दृष्टिकोण के कारण उसने उदार सुल्तानों की बड़ी निन्दा की है। अपने विरोधियों की चालों के कारण फीरोज तुगलक के काल में वह राज्याश्रय से वंचित हो गया। इस कारण उसने अपने अन्तिम वर्ष बड़ी निर्धनता में काटेे।

बदरूद्दीन मुहम्मद: मुहम्मद-बिन-तुगलक के दरबार में एक अन्य विद्वान चय (ताशकन्द) निवासी बदरूद्दीन मुहम्मद भी था। उसके दो ग्रन्थ- ‘दीवान’ और ‘शाहनामा’ प्रसिद्ध हैं।

इसामी: इसामी इस युग का प्रसिद्ध विद्वान था उसने ‘फुतूह-उल-फसलातीन’ नामक पद्यबद्ध ग्रन्थ लिखा जिसमें गजनवियों के काल से लेकर 1350 ई. तक के भारत के मुसलमान शासकों का इतिहास है।

फीरोज तुगलक: सुल्तान फीरोज तुगलक स्वयं भी इतिहास लेखन से प्रेम करता था। उसने ‘फतूहात-ए-फीरोजशाही’ नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें उसने अपने राज्यकाल का विवरण दिया है।

शम्ससिराज अफीफ: फीरोज तुगलक के समय में शम्ससिराज अफीफ ने ‘तारीखे फीरोजशाही’ नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा।

मुहम्मद बिहामदखानी: तुगलक शासकों के अन्तिम काल में मुहम्मद बिहामदखानी ने ‘तारीखे मुहम्मदी’ लिखी।

शाइया-बिन-अहमद: शाइया-बिन-अहमद ने तुगलक शासकों के अन्तिम काल में ‘तारीखे मुबारकशाही’ लिखी।

सैयद और लोदी काल के साहित्यकार: सैयद और लोदी काल में भी फारसी साहित्य की प्रगति हुई। इस काल में रफीउद्दीन शीराजी, शेख अब्दुल्ला तुलावनी, शेख जमालुद्दीन के नाम उल्लेखनीय हैं। चौदहवीं सदी के अन्तिम चतुर्थांश में औषधि-शास्त्र, ज्योतिष, संगीत आदि के कुछ उपयोगी संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया। फारसी विद्वानों ने मुख्य रूप से साहित्य, इतिहास और धर्म पर ग्रन्थ लिखे थे। इस काल में ऐतिहासिक ग्रन्थ अधिक लिखे गये, जिनमें इतिहासकारों ने अपने आश्रयदाता के शासन की घटनाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया। फिर भी इन ग्रन्थों से सल्तनकालीन इतिहास की अच्छी सामग्री प्राप्त हो जाती है।

प्रांतीय शासकों के समय के साहित्यकार: तुगलक वंश के पतन के बाद भारत में जो प्रान्तीय राज्य स्थापित हुए उनमें भी फारसी साहित्य की अच्छी प्रगति हुई। दक्षिण के बहमनी वंश के शासकों में से कई स्वयं अच्छे विद्वान थे। सुल्तान ताजुद्दीन फीरोजशाह ज्योतिष का विद्वान् था। उसने दौलताबाद में एक वेधशाला बनवाई। गुजरात के महमूद बेगड़ा के शासन काल में फजालुल्लाह जैनुल ओबिदीन ने प्रारम्भ से लेकर नौवीं सदी तक का इतिहास लिखा। बीजापुर के महमूद अयाज ने कामशास्त्र पर ग्रन्थ लिखा जिसमें विभिन्न प्रकार की स्त्रियों की विशेषताओं का वर्णन किया गया है।

संस्कृत साहित्य

दिल्ली के सुल्तानों ने संस्कृत साहित्य को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। राजकीय संरक्षण नहीं मिलने पर भी संस्कृत साहित्य में वृद्धि होती रही। इस युग के अधिकांश संस्कृत ग्रन्थ विजयनगर, वारंगल, गुजरात और राजपूताने के हिन्दू राजाओं के संरक्षण में लिखे गये। कुछ संस्कृत ग्रन्थों की रचना बंगाल और दक्षिण भारत के भक्ति आन्दोलन के कारण भी हुई। इस काल के ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थों में कल्हण कृत ‘राजतंरगिणी’, न्यायचन्द्र का ‘हम्मीर काव्य’ और सोमचरित गुणी का ‘गुरु गुण रत्नाकर’ उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। जयदेवकृत ‘गीत गोविन्द’ इसी काल की रचना है। इस काल में संस्कृत नाटक भी बड़ी संख्या में रचे गये। अलबरूनी संस्कृत का ज्ञाता था। उसने संस्कृत के कई ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद करके संस्कृत ग्रंथों के उपयोगी ज्ञान की जानकारी फारसी भाषा के पाठकों तक पहुंचाई।

हिन्दी साहित्य

तुर्की सुल्तानों का हिन्दी भाषा के प्रति कोई लगाव नहीं था किंतु इस काल में चले भक्ति आन्दोलन के अनेक सन्तों ने अपने मत का प्रचार करने के लिए हिन्दी भाषा का सहारा लिया। रामानुज और रामानन्द ने भी हिन्दी भाषा में प्रचार किया। राजपूत शासकों की शौर्य गाथाएँ- पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, खुमाण रासो, आल्हा-ऊदल आदि ग्रन्थ हिन्दी भाषा के अन्य रूप डिंगल में लिखे गये। अमीर खुसरो ने अनेक रचनाओं का हिन्दी भाषा में सृजन किया। खुसरो के समकालीन गोपाल नायक ने हिन्दी की ही एक बोली बृजभाषा में ध्रुपद के गीतों की रचना की। मौलाना दाऊद ने हिन्दी के एक अन्य रूप अवधी में ‘चन्दायन’ की रचना की और कुतबन ने ‘मृगावती’ लिखी। ये दोनों, प्रेम कथाएँ हैं।

उर्दू साहित्य

सल्तनतकाल अथवा उससे थोड़ा पहले मध्य एशियन तुर्कों और हिन्दुओं के सम्पर्क के फलस्वरूप उर्दू भाषा का विकास हुआ। आरम्भ में इसे ‘जबान-ए-हिन्दवी’ कहा जाता था। बाद में इसे उर्दू कहने लगे। इस भाषा का व्याकरण भारतीय है तथा शब्दावली अरबी एवं फारसी है। अमीर खुसरो पहला मुसलमान कवि था जिसने इस भाषा को अपनी कविता का माध्यम बनाया। तेरहवीं और चौदहवीं सदी की जनभाषा ‘जबान-ए-हिन्दवी’ ही थी। इसलिए सूफी सन्तों और भक्ति आन्दोलन के कुछ सन्तों ने उर्दू में अपने मत का प्रचार किया। सल्तनतकालीन दिल्ली के सुल्तानों ने उर्दू को प्रश्रय नहीं दिया। मुगलकाल में भी 18वीं सदी के मध्य तक इसे कोई दरबारी संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार तेरहवीं सदी के प्रारंभ से लेकर अठारहवीं सदी के मध्य भाग तक फारसी ही दरबारी भाषा बनी रही।

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