Sunday, August 17, 2025
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रामानन्दाचार्य

रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में 14वीं शताब्दी ईस्वी में रामानंद हुए जिन्हें वैष्णव परम्परा की धार्मिक क्रांति को दक्षिण से उत्तर भारत में ले आने का श्रेय प्राप्त है- ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानन्द।’ कुछ विद्वानों के अनुसार रामानंद का जन्म ई.1299 में प्रयाग के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ। उन्होंने बनारस में शिक्षा प्राप्त की तथा वहाँ स्वामी राघवानन्द से श्री सम्प्रदाय की दीक्षा ली।

रामानन्द ने बैकुण्ठवासी विष्णु के स्थान पर मानव शरीरधारी और राक्षसों का संहार करने वाले भगवान् राम को अपना आराध्य बनाया। उस समय हिन्दू समाज को एक ऐसे धर्म की आवश्यकात थी जो वीरत्व, त्याग एवं बलिदान के लिए प्रेरित कर सके। यद्यपि विष्णु के अवतार के रूप में भगवान राम को पहले से ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी परन्तु राम की भक्ति और उपासना का व्यापक प्रचार रामानन्द ने ही किया।

रामानन्द ने ‘ब्रह्मसूत्र’ पर ‘आनन्द भाष्य’ लिखा जिसमें ब्रह्म के रूप में श्रीराम को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ईश्वर के सगुण और निर्गुण, दोनों रूपों का समर्थन किया। उनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय ‘रामावत सम्प्रदाय’ कहलाता है। रामानन्दी लोग राम तथा सीता की पूजा करते हैं।

रामानंद रामानुज के ‘विशिष्ठ दर्शन’ में आस्था रखते थे और उन्होंने रामानुज के विचारों का समस्त उत्तर भारत में प्रचार किया। रामानुज, निम्बार्क और मध्वाचार्य के उपदेशों की भाषा संस्कृत थी किंतु रामानंद ने अपने उपदेश हिन्दी में दिए।

रामानन्द के विचार रामानुज के विचारों से भी अधिक क्रान्तिकारी थे। रामानुज चारों वर्णों और अनेक जातियों की एकता में विश्वास नहीं करते थे परन्तु रामानन्द जाति-प्रथा को नहीं मानते थे। रामानन्द ने जाति-पाँति और ऊँच-नीच का भेद नहीं माना और शूद्रों, मुसलमानों तथा स्त्रियों को भी अपना शिष्य बनाया। उनके पूर्व स्त्रियों को सार्वजनिक रूप से धार्मिक विचार-विमर्षों में भाग नहीं लेने दिया जाता था।

रामानन्द ने इस प्रतिबन्ध को नहीं माना। उनकी मान्यता थी कि राम के भक्त बिना भेदभाव के एक साथ खा-पी सकते हैं। भगवान के भक्तों के लिए वर्णाश्रम का बन्धन व्यर्थ है। परमेश्वर का एक ही गोत्र है और एक ही परिवार है। अतः समस्त विष्णु-भक्त भाई-भाई हैं और सबकी जाति एक है।

रामानंद के 12 शिष्यों में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित थे- अनन्तानन्द, सुखानन्द, योगानन्द, सुरसुरानन्द, गालवानन्द, नरहरि आनन्द, भावानन्द (सभी ब्राह्मण), कबीरदास (जुलाहा), पीपा (क्षत्रिय), रैदास (चमार), धन्ना (जाट) तथा सेन (नाई)। कुछ सूचियों में योगानंद तथा गालवानंद के स्थान पर पद्मावती तथा सुरसुरी नामक महिला शिष्याओं के नाम मिलते हैं।

कहा जाता है कि गंगा नामक एक वेश्या ने भी रामानंद से दीक्षा प्राप्त की। रामानंद के शिष्यों में से कुछ सगुणोपासक हुए तथा कुछ निर्गुणोपासक। ये सभी शिष्य मुस्लिम शासन काल में हिन्दू-धर्म को दृढ़ता देने वाले सिद्ध हुए। इनकी प्रेरणा से समाज के विभिन्न वर्गों एवं जातियों के करोड़ों लोग, अनेक विपत्तियां सहकर भी वैष्णव धर्म में बने रहे।

चूंकि रामानंद ने स्वर्ग में रहने वाले विष्णु के स्थान पर धरती पर विचरने वाले राम एवं सीता को अपना आराध्य बनाया, संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को उपदेशों का माध्यम बनाया तथा ब्राह्मण की जगह हर जाति के व्यक्ति को अपना शिष्य बनाया इसलिए उन्हें अपने पूर्ववर्ती वैष्णव आचार्यों अर्थात् रामानुज, माधवाचार्य तथा निम्बार्क से अधिक सफलता मिली। इस सफलता के आधार पर कई बार यह भी कह दिया जाता है कि मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन का सूत्रपात रामानन्द ने किया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन

भगवद्भक्ति की अवधारणा

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण

मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदाय

भक्तिआन्दोलन की प्रमुख धाराएँ

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

रामानुजाचार्य

माधवाचार्य

निम्बार्काचार्य

संत नामदेव

रामानंदाचार्य

वल्लभाचार्य

सूरदास

संत कबीर

भक्त रैदास

गुरु नानकदेव

मीरा बाई

तुलसीदास

संत तुकाराम

दादूदयाल

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