Tuesday, November 12, 2024
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रामानंद के शिष्य

वैष्णव संत रामानंद तथा रामानंद के शिष्य पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारतीय जनमानस का अध्यात्मिक नेतृत्व करने के लिए विशेष भूमिका निभाने में सफल रहे। इस आलेख में रामानंद तथा उनके शिष्यों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत पर मुगलों का शासन था और मुसलमानों ने राष्ट्र के हर अंग पर शिकंजा कस लिया था। हिन्दुओं को अपने धर्म पर टिके रहना कठिन हो रहा था और वे निराशा के सागर में गोते लगा रहे थे। सनातन धर्म की ऐसी दुरावस्था देखकर वैष्णव संतों ने हिन्दू समाज को भक्ति का मार्ग दिखाने का अद्भुत कार्य किया। इस काल में श्रीसम्पद्राय में रामानंद नामक आचार्य हुए जिन्होंने शिष्यों की एक अद्भुत मण्डली तैयार की।

हिन्दू धर्म की सभी जातियों के शिष्य

रामानंद के शिष्य विभिन्न जातियों के, विभिन्न आयु वर्ग के तथा विभिन्न रुचियों वाले अर्थात् सगुणोपासक एवं निगुणोपासक संत थे। रामानंद की शिष्य मण्डली के सदस्य विलक्षण प्रतिभा वाले, उच्च कोटि के संत एवं सच्चे समाज सुधारक हुए। उन्होंने देश में भक्ति की ऐसी सरिता बहाई कि जनसाधारण को ईश्-भक्ति के रूप में अपनी मुक्ति का मार्ग दिखाई देने लगा और हिन्दू समाज निराशा के पंक से बाहर निकलने में सफल रहा।

संत शिरोमणि रामानंद के शिष्य वास्तव संख्या कितनी थी, इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित मत स्थापति नहीं किया जा सकता। सहज अनुमान किया जा सकता है कि इस युग प्रवर्तक विभूति के शिष्यों की संख्या अत्यधिक रही होगी। भारत भ्रमण के समय में स्थान-स्थान पर लोग उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें अपना गुरु मानने लगे होंगे। फिर भी उनके 12 प्रमुख शिष्यों का उल्लेख कई स्रोतों से मिलता है। इन शिष्यों के बारे में एक दोहा भी कहा जाता है-

अनतानन्द, कबीर, सुखा, सुरसुरा, पद्मावती, नरहरि।

पीपा, भगवानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि।

इन नामों को इस प्रकार से पढ़ा जा सकता है- अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावति, नरहरि, पीपा, भावानंद, रैदास, धन्ना, सेना तथा सुरसुरानंद की धर्मपत्नी।

रामानंदाचार्य तथा उनके शिष्यों का एक चित्र अनेक पुस्तकों में प्रकाशित होता रहा है जिसमें मध्य स्थान में एक चौकी पर रामानंदाचार्य विराजमान हैं तथा उनके दोनों तरफ अर्द्धगोलाकार क्रम में उनके शिष्य सुशोभित हैं। सभी शिष्यों के तिलक एवं छापे एक समान हैं। प्रायः कबीर एवं तुलसी के चित्रों में इस प्रकार के तिलक एवं छापे मिलते हैं। यह चित्र विश्वसनीय नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें सभी बारह शिष्य पुरुष हैं, जबकि रामानंदाचार्य के 12 प्रमुख शिष्यों में दो चित्र स्त्री शिष्यों के होने चाहिये।

यदि शिष्यों की इस नामावली को ध्यान से देखा जाये तो इनमें से कबीर जुलाहे थे तथा कपड़ा बुनकर जीवन यापन करते थे। रैदास चर्मकार थे तथा जूतियां गांठकर जीवन यापन करते थे। पीपा राजा थे तथा गागरोन दुर्ग के स्वामी थे। नरहरिदास काशी की कुलीन परम्परा के सुंस्कृत ब्राह्मण थे। सुरसुरानंद की पत्नी तथा पदमावती भी रामानंद की शिष्य मण्डली में थी। अर्थात् रामानंद की शिष्यमण्डली में पुरुष एवं स्त्री दोनों को स्थान मिला।

रामानंदाचार्य के शिष्यों में से कबीर, पीपा तथा रैदास कवि थे। इन्हें मध्ययुगीन भक्तिकाल में संतकवि की प्रतिष्ठा प्राप्त है। कवि होने के कारण इन संतों की महिमा काल व लोक की सीमाओं को पार करके दूर दूर तक प्रकाशित हुई।

जिस संत के शिष्यों में राजा एवं काशी के पण्डित से लेकर जुलाहे और चर्मकार तक अर्थात् समाज के सभी वर्गों के लोग हों, सगुणोपासक से लेकर निगुणोपासक हों, स्त्री एवं पुरुष हों, उस संत की समन्वयवादी प्रवृत्ति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

गुरु के विशाल व्यक्तित्व की छाप

रामानंदाचार्य के शिष्यों में से कबीर, नरहरि, पीपा तथा रैदास युगप्रवर्तक संत सिद्ध हुए जिन्होंने भारतीय मनीषा को झकझोर कर रख दिया। रामानंद के शिष्यों पर गुरु के विशाल व्यक्तित्व की कितनी गहरी छाप रही होगी, इसका अनुमान इन शिष्यों द्वारा लिखे हुए पदों से लगाया जा सकता है। कबीर ने लिखा है-

गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपके गोबिंद दियो बताय।

नरहरि स्वयं कवि नहीं थे। उन्होंने रामानंद से जो पाया था वह सब ब्याज सहित तुलसीदासजी को प्रदान कर दिया। इसलिये नरहरि की वाणी तुलसी के रूप में प्रकट हुई मानी जा सकती है। तुलसी ने अपने गुरु नरहरि के लिये लिखा है-

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।

तुलसी के काव्य में अभिव्यक्त प्रगाढ़ गुरु-भक्ति, वस्तुतः संत नरहरि की अपने गुरु रामानंद के प्रति समर्पित गुरु-भक्ति की अभिव्यक्ति ही है। संत रैदास ने अपने गुरु की वंदना में लिखा है-

साधो सतगुरु सब जग चेला। अबकै बिछुरे मिलन दुहेला।

रामानंद के शिष्य अध्यात्म की दो शाखाओं पर अग्रसर हुए। इनमें से कबीर तो निर्गुणियों के तारणहार हो गये और नरहरि सगुणोपासकों की एकमात्र आशा। एक ही गुरु से ज्ञान पाकर उनके शिष्य इतने अंतर पर जा खड़े हुए और उन्होंने अपने-अपने मार्ग से संसार को जगाने का काम किया, यह एक आश्चर्य के ही समान है। सगुणोपासकों और निर्गुणोपासकों के भारी दार्शनिक अंतर के उपरांत भी रामानंद के शिष्य एक दूसरे के काफी निकट खड़े हैं।

एक ओर तो निर्गुणिया कबीर अचानक सगुणोपासकों के आराध्य दशरथ नंदन को ही ईश्वर स्वीकार करते हुए कह उठते हैं-

दशरथ सुत तिहुं लोक समाना। राम नाम का मरम है आना।

    तो दूसरी ओर सगुणोपासना की ध्वजा उठाने वाले तुलसी अचानक निर्गुणियों की वाणी बोलने लग जाते हैं-

एक  अनीह  अरूप   अनामा।   अज   सच्चिदानंद  पर  धामा।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।

आनन  रहित  सकल रस भोगी।  बिनु बानी  बकता बड़  जोगी।

तन  बिनु  परस नयन बिनु देखा।  ग्रहइ  घ्रान बिनु बास असेषा।

वस्तुतः रामानंद के भेदाभेद दर्शन को तुलसी के शब्द नयी वाणी देते हुए प्रतीत होते हैं, जब वे कहते हैं-

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं श्रुति पुरान बुध बेदा।

नाभादास कृत भक्तमाल में रामानंदाचार्य के इन अद्वितीय शिष्यों का संक्षिप्त वर्णन मिलता है।

रामानंद के प्रमुख शिष्य

अनंतानंद

रामानंद संप्रदाय के ग्रंथों में इनका नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। इन्हें भी अपने गुरु के ही समान जगद्गुरु कहकर संबोधित किया गया है। नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है-

अनंतानंद पद परिस कै लोकपाल से ते भए।

अर्थात्- अनंतानंद के शिष्य अपने गुरु के चरणों का स्पर्श करके लोकपालों के समान शक्तिशाली हो गये। अनंतानंद के बचपन का नाम छन्नूलाल था। वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। अनंतानंद ने ‘श्रीहरि भक्ति सिंधु वेला’ नामक ग्रंथ की रचना की।

भक्तमाल के अनुसार अनंतानंद के एक शिष्य का नाम नरहरि था। अब यह निर्धारित करना कठिन है कि ये वही नरहरि हैं जो रामानंदाचार्य के शिष्यों में गिने जाते हैं। अथवा कोई भिन्न व्यक्ति हैं। अनुमान यही होता है कि रामानंदाचार्य के शिष्य नरहरि तथा अनंतानंद के शिष्य नरहरि, एक ही व्यक्ति हैं क्योंकि काल गणना के अनुसार भी यही अधिक उपयुक्त सिद्ध होता है।

यदि नरहरि अनंतानंद के शिष्य थे फिर भी वे रामानंदाचार्य के प्रमुख शिष्यों में स्थान पा गये हैं तो भी कुछ अतिश्योक्ति नहीं मानी जा सकती क्योंकि शिष्य का शिष्य होने से नरहरि रामानंदाचार्य के भी शिष्य कहे जा सकते हैं।

श्री रामानंदाचार्य के साकेतवासी होने पर अनंतानंद को ही वैष्णवाचार्य के पीठ पर अभिषिक्त किया गया था किंतु गुरु विरह को सहन नहीं कर पाने के कारण एक वर्ष बाद ही वे अपने वरिष्ठ शिष्य कृष्णदासजी को आचार्य पीठ पर अभिषिक्त करके स्वयं स्वच्छंद परिभ्रमण के लिये निकल पड़े। मान्यता है कि उन्होंने 113 वर्ष की आयु में साकेत गमन किया।

संत कबीर

कबीर का प्राकट्य काल विवादास्पद है और उनका कुल गोत्र आदि भी अज्ञात है। मान्यता है कि कबीर का जन्म विक्रम संवत 1455 में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को सोमवार के दिन हुआ। यह भी मान्यता है कि कबीर ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे तथा किसी कुमारी के पुत्र होने के कारण माता द्वारा लोकलाज के भय से मार्ग में छोड़ दिये गये थे जहाँ से नीरु-नीमा नामक दम्पत्ति उन्हें अपने घर ले आया और अपने पुत्र की ही तरह इनका लालन पालन किया। यही बालक इतिहास में संत कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनकी विधिवत् शिक्षा दीक्षा नहीं हुई थी किंतु इन पर माता सरस्वती की विशेष कृपा रही। ये गृहस्थ संत थे तथा इनके एक पुत्र एवं एक पुत्री भी थी। कबीर का निधन मगहर में वि.सं. 1549 में हुआ। इस मान्यता के अनुसार उनकी आयु 94 वर्ष हुई।

कबीर निर्गुणवादी थे किंतु अपने गुरु रामानंद के प्रभाव के कारण उन्होंने भगवान के सगुण उपाधियों वाले नामों का भी प्रयोग किया है। कबीर ने सिद्धों और नाथों की रहस्यमयी वाणी को जनोपयोगी वाणी में ढाल दिया। वाम मार्ग का निराकरण करके वैष्णव मत का प्रतिपादन करने में उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी। एक स्थान पर वे कहते हैं-

साखत बामन मत मिलो, वैष्णो मिलो चण्डाल।

अंक  माल  दे  भेंटिए मानो  मिले गोपाल।

    रामानंद द्वारा हिंसा के विरोध में मुखर किया गया स्वर कबीर की वाणी में इस प्रकार दिखायी देता है-

बकरी पाती खात है तिनकी काढ़ी खाल।

जे नर बकरी खात हैं तिनका कौन हवाल।

सुखानंद

    ये उज्जैन के ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम त्रिपुरारि भट्ट तथा माता का नाम जाम्बुवती था। इनके बचपन का नाम चंद्रहरि था। नाभादास ने भक्तमाल में इनके बारे में लिखा है-

भक्तिदास भए हरण भुज सुखानंद पारस परस।

सुख सागर की छाप राग गौरी रुचि न्यारी।

पद रचना गुरु मंत्र मनो आगम अनुहारी।

हरि गुरु कथा अपार भाल राजत लीला भर।

भक्तिदास भए हरण भुज सुखानंद पारस परस।  

सुरसुरानंद

इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. सुरेश्वर शर्मा तथा माता का नाम सरला था। इनका जन्म वैशाख कृष्ण नवमी गुरुवार को वसंत ऋतु में हुआ था। जन्म का संवत ज्ञात नहीं है। इन्हें नारद मुनि का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि सरयू के तट पर इन्हें भगवान श्रीराम ने दर्शन दिये। नाभादास ने भक्तमाल में इनका परिचय दिया है।

संत नरहरि

संत नरहरि को शिष्य के रूप में प्राप्त करना, रामानंद की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। नरहरि को रामानंदाचार्य से जो विराट व्यक्तित्व प्राप्त हुआ उसका संपूर्ण उपयोग तुलसीदास जैसे युगप्रवर्तक शिष्य को तैयार करने में हुआ। नरहरि सूकरखेत के रहने वाले थे। उनके जीवन चरित के सम्बन्ध में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है किंतु गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में नरहरि को बारम्बार स्मरण किया है और अगाध श्रद्धा के साथ नमन किया है।

इन्हें नरहर्यानंद भी कहा जाता है। इनका जन्म वृंदावन में हुआ। इनके जन्म की तिथि वैशाख माह में कृष्ण पक्ष की तृतीया मानी जाती है। इनका जन्म संवत ज्ञात नहीं है। आप रामचरित मानस के रचियता तुलसीदास के गुरु थे। नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है-

नपट नरहर्यानंद को कर दाता दुर्गा भई

घर पर लकड़ी नहिं शक्ति को सदन उजारैं।

शक्ति भक्त सो बोलि दिनहिं प्रति बरही डारैं।

लगी परोसनि हबस भवानी भय सो मारैं।

बदले की बेगारि मूडि वाके शिर डारैं

भगत प्रसंग ज्यों कालिका लडू देखि तन में तई

निपट नरहर्यानंद को कर दाता दुर्गा भई।

वस्तुतः रामानंद का विशाल दृष्टिकोण तुलसीदास की लेखनी के माध्यम से पूरे ठाठ-बाट के साथ प्रकट हुआ। लोककल्याण का जो चरम भाव तुलसी की लेखनी में प्रकट हुआ उसका वर्णन शब्दातीत है। वे लिखते हैं-

कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें।

अर्थात्- जो व्यक्ति सब के हित का साधन करता है उसे भला कैसे दुख हो सकता है ठीक उसी प्रकार जैसे पारस मणि के होने पर कोई निर्धन नहीं रह सकता। कहने का आशय यह कि तुलसी ने परहित को पारस मणि के समान परिणाम देने वाला माना है।

रामानंद का समन्वयवादी दृष्टिकोण तुलसी की लेखनी में अपने चरम को प्राप्त कर गया है जब तुलसी, शिव और राम को एक दूसरे का स्वामी, एक दूसरे का सेवक और एक दूसरे का सखा घोषित करते हुए कहते हैं-

‘सेवक स्वामि सखा सिय पिय के।’

इसी प्रकार रामचरित मानस के बालकाण्ड में शिव, पार्वती से कहते हैं-

जो  नहिं करहिं  राम गुन गाना।  जीह सो दादुर जीह समाना।

कुलिस कठोर निठुर सोई छाती। सुनि हरि चरित न जो हरषाती।

दूसरी ओर रामचरित मानस के लंकाकाण्ड में राम, अपने मंत्रियों से कहते हैं-

सिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।

संकर  बिमुख भगति चह मोरी।  सो नारकी मूढ़ मति थोरी।

उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के राम, अपने भक्तों को शिवभक्ति की प्रेरणा देने के लिये हाथ जोड़ते हुए दिखायी देते हैं-

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहऊँ कर जोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।

यह सब रामानंद की अद्भुत समन्वयवादी दृष्टि का ही प्रसाद है जो तुलसीदास, वैष्णव और शैव संप्रदायों में समन्वय स्थापित करने के लिये शिव और राम को एक दूसरे का आराध्य बताते हैं। यद्यपि शिव, विष्णु का ऐक्य कोई सर्वथा नवीन कल्पना नहीं थी तथापि बीज रूप से चले आ रहे इस दर्शन को रामानंद ने अध्यात्मिक जल से सींच कर प्रस्फुटित किया।

तुलसी ने शाक्तों को भी वैष्णव धर्म के निकट लाने के लिये पार्वती की स्तुति के माध्यम से नवीन भक्तिरस की वर्षा की। बालकाण्ड में वे जनकनंदिनी सीता के मुख से पार्वती की स्तुति इन शब्दों में करवाते हैं-

नहिं तव आदि मध्य अवसाना।  अमित प्रभाउ वेद  नहिं  जाना।

भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।

सेवत  तोहि  सुलभ  फल चारी।  बर  दायिनी  पुरारि पिआरी।

संत पीपा

राजस्थान में कालीसिंध नदी के तट पर स्थित गागरौण राज्य के खींची चौहान शासक जैतसिंह की तीसरी पीढ़ी के वंशज थे। उनका जन्म विक्रम संवत् 1417 में चैत्री पूर्णिमा के दिन हुआ। अपने पिता की मृत्यु के बाद वे गागरौण के शासक हुए।

वैष्णव संत रामानंद की कृपादृष्टि प्राप्त होने पर पीपा ने अपने भाई अचलदास खींची को गागरोन का राजपाट देकर रामानंदाचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। जब वे राजपाट त्याग कर गुरु की सेवा में पहुँचे तो गुरु ने कहा कि कुएँ में गिर जाओ। पीपा उसी समय कुंए की ओर चल पड़े। पीपा को देह आसक्ति से मुक्त हुआ जानकर रामानंदाचार्य ने उन्हें अपनी शरण में ले लिया। संत पीपा की सहधर्मिणी भी रानी से सन्यासिन बन गयी तथा जीवन भर इन्हीं के साथ रही।

रामानंद ने हिंसा को सबसे बड़ा पाप और हर हालत में त्याज्य बताया। संत पीपा का यह अकेला दोहा ही न केवल पीपा के अपितु रामानंद के व्यक्तित्व को प्रकट करने में समर्थ है-

जीव मारे जमर करे खाता करे बखान। पीपा यूं प्रत्यक्ष कहे, थाली में धके मसान।

अर्थात्- जो लोग जीवहत्या करते हैं और मांस का भक्षण करते समय उसके स्वाद का गुणगान करते हैं, पीपा को उनकी थाली में शमशान धधकता हुआ दिखाई देता है।

संत पीपा के नीति परक दोहे आज भी पूरे राजस्थान में बड़े चाव से कहे सुने जाते हैं। उन्होंने सदाचार तथा शाकाहार पर बहुत जोर दिया। उनके अनुयायी आज भी स्वयं को पीपा क्षत्रिय कहते हैं। संत पीपा के दोहों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

दारू में दुर्वट बड़ी, कुत्ता पिये न काग।

जो कोई दारू पिये, तिनका बड़ा कुभाग।।

X      X      X

पीपा पाप न कीजिये अलगौ रइजै आप।

करणी जासी आपरी कुण बेटो कुण बाप।।

भावानंद

भावानंद को राजा जनक का पुनर्जन्म माना जाता है। इनका जन्म मिथिला क्षेत्र में बहुवर्ह नामक गाँव में मिश्र ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम विट्ठल पंत था। कहा जाता है कि रामानंदाचार्य की गुफा के बाहर पहुँच कर प्रणाम करते ही इन्हें भगवत्कृपा प्राप्त हो गयी। वे उसी समय वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित होकर रामानंदाचार्य के शिष्य हो गये।

रैदास

    इन्हें धर्मराज का अवतार माना जाता है। इनका पहला जन्म विदुर के रूप में तथा दूसरा जन्म वाराणसी में एक ब्राह्मण कुल में हुआ। तीसरे जन्म में ये रैदास के रूप में प्रकट हुए । इनका जन्म वि.सं. 1465 में तथा साकेत गमन वि.सं. 1584 में हुआ। ये मीरां के गुरु भी कहे जाते हैं। यद्यपि इस बात पर मतभेद अधिक है। ये अपने युग की महान विभूतियों में से एक हुए हैं। इनका यह पद बहुत प्रसिद्ध है-

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥

प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥

प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥

प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा॥

धन्ना

इनका पूरा नाम धन्ना जाट था। ये एक कृषक परिवार में पन्ना जाट के घर में पैदा हुए। इनकी माता का नाम रेवा था। इनका जन्म वैशाख मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में हुआ। एक बार एक ब्राह्मण इनके घर में ठहरा। उसे पूजापाठ करते हुए देखकर ये भी धर्म-कर्म की ओर प्रवृत्त हुए। ये रामानंदाचार्य की शरण ग्रहण करने के लिये काशी आये तथा उनसे वैष्णव मत में दीक्षा ग्रहण की।

सेन

इनका जन्म बांधवगढ़ के निवासी उग्रसेन नापति के घर में हुआ। इनकी माता का नाम यशोदा था। ये वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को रविवार के दिन पूर्व भाद्रपद नक्षत्र में पैदा हुए। जन्म का संवत प्राप्त नहीं होता है। नाभादास ने भक्तमाल में इनका परिचय दिया है। कहा जाता है कि भीष्म पिता को कलियुग में सेन के रूप में मृत्युलोक में आना पड़ा।

महिला शिष्य

रामानंद की दो महिला भक्तों पद्मावती एवं सुरसुरानंद की धर्मपत्नी के जीवन चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं होती है।

रामानंद के शिष्यों पर व्यंग्योक्ति अलंकार

रामानंदाचार्य के शिष्यों की जातियों की ओर संकेत करते हुए किसी अज्ञात कवि ने व्यंग्य पूर्वक लिखा है-

जाट  जुलाह  जुरे  दरजी, मरजी में रहै रैदास चमारौ

ऐते बड़े करुणा निधि को इन पाजिन ने दरबार बिगारौ।

ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं भक्तों की ओर संकेत करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने ब्रह्माजी के मुख से पार्वतीजी की स्तुति के बहाने से कहा है-

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी।

तिन  रंकन  कौ  नाक  संवारत  हौं आयौ नकबानी।

अर्थात्- जिन दरिद्रों के भाग्य में मैंने सुख का कोई संकेत अंकित नहीं किया, उनके द्वारा की गई भोलेनाथ की भक्ति के कारण उन दरिद्रों के लिये स्वर्ग संवारते-संवारते मेरी नाक में दम आ गया है।

वस्तुतः रामानंद न केवल वैष्णव संप्रदायों में समन्वयवादी दृष्टिकोण उत्पन्न करने वाले संत थे अपितु अपने शिष्यों में उन्होंने शैव, शाक्त और वैष्णव संप्रदायों को भी निकट लाने की दृष्टि प्रदान की। उन्होंने हिंसा का जो प्रबल विरोध किया वह भारतीय जनमानस में गहराई तक पैठ गया। आज पूरे विश्व में भारत को अहिंसा का पुजारी कहकर सराहा जाता है, इसके पीछे रामानंदाचार्य और उनके शिष्यों की महत्वपूर्ण भूमिका है।

भारत के मध्यकालीन इतिहास में घटित हुए भक्ति आंदोलन में दशरथनंदन राम का प्रबलता से प्रतिष्ठित होना भी रामानंद की ही देन मानी जा सकती है। रामानंद के शिष्य नरहरिदास के अकेले शिष्य तुलसीदास ही बैकुण्ठवासी विष्णु के लौकिक अवतार के रूप में राम को भारतीय मनीषा में जो स्थान दिला गए, वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।

वस्तुतः शंकराचार्य के बाद इतनी विशाल और व्यापक दृष्टि को लेकर आने वाले आचार्य रामानंद ही थे। उनके योगदान का वास्तविक मूल्यांकन किये जाने के लिये व्यापक शोध की आवश्यकता है।

-मोहनलाल गुप्ता

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