Tuesday, September 2, 2025
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शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन

शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन सम-सामयिक परिस्थितियों के अनुसार किया जाना चाहिए। उसके कार्य अपने समय से बहुत आगे थे। उसने विस्मयकारी उपलब्धियाँ अर्जित कीं।

शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन

(1.) साम्राज्य संस्थापक के रूप में

शेरशाह भारत के उन गिने-चुने शासकों में से है जिसने एक साधारण परिवार में जन्म लेकर विशाल साम्राज्य खड़ा किया। उसे भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य स्थापित करने का श्रेय है। उसने इस कार्य को उस समय सम्पन्न किया जब अफगानों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी थी तथा भारत में मुगलों की सत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी।

शेरशाह ने अपने पाँच वर्ष के अल्पकालीन शासन में जिस प्रशासकीय प्रतिभा का परिचय दिया वह न केवल भारत के इतिहास में वरन् विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। उसने जिस साम्राज्य की स्थापना की उसे सुसंगठित तथा सुदृढ़ बनाने के उपाय किये। इस कारण शेरशाह की गणना मध्यकालीन भारत के सफल शासकों में होती है।

(2.) व्यक्ति के रूप में

शेरशाह एक साधारण जागीरदार का पुत्र था परन्तु उसने अपनी प्रतिभा के बल पर स्वयं को सदैव आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। जौनपुर में अध्ययनरत रहकर उसने अपनी जीवन यात्रा की तैयारी की। उसका पिता भी उसकी प्रतिभा की उपेक्षा नहीं कर सका और उसे अपनी जागीर का प्रबन्ध सौंप दिया।

जिस कुशलता के साथ उसने पिता की जागीर का प्रबन्ध किया उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। उसने जागीर में पूर्ण शांति स्थापित की और उसे सम्पन्न बना दिया। अपने पिता के मरने के बाद उसने भाइयों के कुचक्रों को निष्फल करके अपने पिता की जागीर पर अधिकार बनाये रखा। अनेक गुणों के होते हुए भी शेरशाह अत्यंत स्वार्थी था।

स्वार्थ पूर्ति के लिये वह बार-बार नीचे गिर सकता था। उसने हुमायूँ के साथ किये गये वादे को कई बार तोड़ा। रोहतास के राजा चिन्तामणि से छल करके उसका दुर्ग हड़प लिया। शेरशाह ने रायसेन के राजा पूरनमल से संधि करके उसके परिवार को मार डाला तथा उसकी लड़की को नर्तकी बनाकर नचाया। शेरशाह ने बिहार के बादशाह जलालखाँ का संरक्षक बनकर उसका राज्य हड़प लिया।

(3.) अधिकारी के रूप में

शेरशाह ने बिहार के सुल्तान बहादुरखाँ की सेवा करके उसका विश्वासपात्र बन गया। बादशाह ने उसे शाहजादे जलालखाँ का शिक्षक बना दिया। बहादुरखाँ की मृत्यु के उपरान्त उसकी बेगम दूदू ने भी शेरशाह को राजकार्य सँभालने बुलाया। दूदू ने शेरशाह को अपना नायब बनाकर शासन का सारा कार्य उसी को सौंप दिया। शेरशाह ने अपनी प्रशासकीय प्रतिभा के बल पर शासन के कोने-कोने में अपना प्रभाव प्रस्थापित कर लिया। इस कारण वह बिहार के अफगान अमीरों की दृष्टि में खटकने लगा। शेरशााह ने उनके समस्त कुचक्रों को निष्फल करके स्वयं बिहार का सुल्तान बन गया।

(4.) सैनिक और सेनापति के रूप में

सैनिक और सेनापति के रूप में शेरशाह को बंगाल के शासकों के विरुद्ध तथा हुमायूँ के विरुद्ध जो सफलताएं प्राप्त र्हुईं, उनसे उसकी  सैनिक प्रतिभा का परिचय मिल जाता है। जब बंगाल के शासकों ने बिहार पर आक्रमण किया तब शेरशाह ने न केवल उनके आक्रमण को निष्फल कर दिया अपतिु उसने स्वयं ने बंगाल पर आक्रमण करके राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक से खिराज वसूल किया।

चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में हुमायूँ के विरुद्ध उसे जो सफलता प्राप्त हुई, वे उसके कुशल सेनापतित्व का परिचायक हैं। युद्धों में लगातार मिली सफलताओं ने शेरशाह को हिन्दुस्तान का बादशाह बना दिया।

(5.) कूटनतिज्ञ के रूप में

जिस समय शेरशाह का हुमायूँ के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ हुआ उस समय हुमायूँ एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था और शेरशाह एक साधारण जागीरदार। इसलिये शेरशाह ने कूटनीति से काम लिया। वह एक तरफ तो हुमायूँ से अनुनय-विनय करके उसके प्रति स्वामिभक्ति दिखाता रहा तथा दूसरी तरफ अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा रहा। उसने हुमायूँ से तब तक युद्ध नहीं किया जब तक उसे यह विश्वास न हो गया कि वह हुमायूँ से सफलतापूर्वक लड़ सकता है।

(6.) सुल्तान के रूप में

शेरशाह ने सुल्तान बनने के उपरान्त प्रशासकीय क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की, वह अन्य सुल्तानों को दुर्लभ है। अपने पाँच वर्ष के अल्पकालीन शासन में उसने जो सुधार किये, उतने सुधार अन्य सुल्तान दो दशाब्दियों में भी नहीं कर सके। प्रशासकीय क्षेत्र में शेरशाह ने जो नवीन व्यवस्थायें कीं, आगे चलकर अकबर ने उनका अनुकरण किया।

शेरशाह ने जिस उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का सूत्रपात किया, वह मुस्लिम राजनीति में नई बात थी। शेरशाह के शासन-सम्बन्धी आदर्श अत्यंत उच्च थे जिनका मूल आधार लोक कल्याण था। इस कारण उसके द्वारा किये गये सुधार स्थायी तथा अनुकरणीय सिद्ध हुए।

(7.) इतिहासकारों की दृष्टि में

लगभग समस्त भारतीय एवं यूरोपीय इतिहासकारों की दृष्टि में शेरशाह अदभुत साम्राज्य निर्माता तथा प्रतिभावान शासक था।

स्मिथ ने लिखा है- ‘यदि शेरशाह और जीवित रहा होता तो महान् मुगल बादशाह इतिहास के मंच पर प्रकट नहीं हुए होते।’ कीन ने लिखा है- ‘किसी भी सरकार ने यहाँ तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी ऐसी बुद्धिमता नहीं दिखाई है, जैसी कि इस पठान ने।’

डॉ. त्रिपाठी ने लिखा है-  ‘शेरशाह दिल्ली के महानतम शासकों में से था। वह भाग्य का राजकुमार था……भारतीय इतिहास में उसका व्यक्तित्व महान् था।’

प्रो. कानूनगो ने लिखा है- ‘शेरशाह सम्राट था परन्तु उसने साम्राटत्व नहीं दिखलाया। वह अपने तुच्छतम सैनिक की भाँति फावड़ा चलाने में संकोच नहीं करता था।’

डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी ने लिखा है- ‘यदि शेरशाह अधिक दिनों तक जीवित रहा होता तो वह अकबर के पाल से हवा निकाल दिये होता। वह निस्संदेह दिल्ली के महान् राजनीतिज्ञों में से था। उसने वास्तव में अकबर की अत्यन्त प्रबुद्धशील नीति के लिये मार्ग प्रशस्त कर दिया था और उसका सच्चा अग्रदूत था।’

एडवर्ड्स तथा गैरेट का कहना है- ‘जितना इस योग्य तथा कर्त्तव्यशील व्यक्ति ने पाँच वर्षो के अल्पकाल में कर दिया उतना बहुत कम लोग कर सकते हैं।’

इस प्रकार शेरशाह सूरी के कार्यों का मूल्यांकन करने पर हम पाते हैं कि उसने बहुत कम समय में बहुत बड़ी सफलताएं अर्जित कीं।

क्या शेरशाह राष्ट्र निर्माता था ?

क्या शेरशाह अफगानों का राष्ट्र निर्माता था ?

शेरशाह की गणना भारत के राष्ट्र निर्माताओं में की जाती है। इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत में अफगानों के द्वितीय साम्राज्य का निर्माता था। जिस समय शेरशाह ने भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की, उस समय अफगानों की सत्ता नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी थी। ऐसे समय में शेरशाह ने बलपूर्वक अफगानों का नेतृत्व ग्रहण किया। उनकी खोई हुई सत्ता को फिर से स्थापित किया और अन्त में अफगान साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर दी। इस प्रकार वह अफगानों का राष्ट्र निर्माता बन गया जिसमें हिन्दू प्रजा के लिये भी पहले से कहीं अधिक आरामदायक स्थान था।

क्या शेरशाह हिन्दू राष्ट्र का भी निर्माता था ?

यह सही है कि शेरशाह अफगान राष्ट्र का निर्माता था किंतु क्या वह हिन्दुओं का भी राष्ट्र-निर्माता था? इतिहासकार इस तथ्य के पक्ष और विपक्ष में तर्क देते हैं।

(1.) शेरशाह हिन्दुओं का भी राष्ट्र निर्माता था

इस कथन के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कांे के अनुसार शेरशाह पहला मध्य युगीन सुल्तान था जिसने उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं पर वैसे अत्याचार नहीं किये जैसे अत्याचार फीरोजशाह तुगलक के समय में किये गये थे। न ही हिन्दुओं पर करों का इतना बोझ लादा, जितना उसके पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों ने लादा था।

उसने हिन्दुओं को भी न्याय देने का प्रयास किया। उसके सुधारों तथा उनके द्वारा बनवाई हुई सरायों से हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को लाभ हुआ। हिन्दुओं को अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता थी। उसके शासन काल में हिन्दी साहित्य का विकास हुआ और उसके द्वारा निर्मित इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम कला का सम्मिश्रण किया गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से हिन्दुओं के शोषण, अत्याचार, हिंसा, लूट और सम्पत्ति हरण का जो सिलसिला आरम्भ हुआ था, उस सिलसिले में शेरशाह सूरी के समय में अभूतपूर्व कमी आई। शेरशाह के समय में हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान नहीं बनाया गया। न ही हिन्दू कन्याओं को बलपूर्वक मुसलमानों से ब्याहा गया।

न ही हिन्दू बच्चों को गुलाम बनाया गया। न हिन्दुओं के मंदिर तोड़े गये, न देवमूर्तियां तोड़ी गईं। न उनके तीर्थ अपवित्र किये गये। हिन्दू जजिया चुका कर शांतिपूर्वक अपने धर्म एवं तीर्थों का सेवन कर सकते थे। इन तथ्यों के आलोक में शेरशाह की राष्ट्र निर्माण की नीति स्पष्ट हो जाती है।

(2.) शेरशाह हिन्दुओं का राष्ट्र निर्माता नहीं था

शेरशाह के विरोध में दिये जाने वाले मत के अनुसार शेरशाह को हिन्दुओं का राष्ट्र निर्माता स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि उसने हिन्दुओं पर जजिया पूर्ववत् जारी रखा। उसने हिन्दुओं के राज्यों का उन्मूल करने में साधारण नैतिकता का भी पालन नहीं किया। हिन्दुओं को शासन तथा सेना में उच्च पद नहीं दिये। हिन्दू अपने धर्म का पालन तभी कर सकते थे जब वे जजिया चुका दें। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के मुकदमों का निर्णय करने के लिये अलग-अलग कानून बनाये गये। ऐसी स्थिति में शेरशाह को हिन्दुओं के राष्ट्र का निर्माता नहीं माना जा सकता।

निष्कर्ष

यह सही है कि शेरशाह ने मुसलमान प्रजा को हिन्दू प्रजा की अपेक्षा अधिक सुविधायें दीं तथा अफगानों को हिन्दुओं की अपेक्षा आर्थिक एवं राजनीतिक उन्नति के अधिक अवसर उपलब्ध करवाये किंतु शेरशाह ने राष्ट्र निर्माण की जिस नीति का सूत्रपात किया उससे हिन्दुओं को बहुत राहत पहुंची।

अकबर की उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति, राजपूतों के साथ सद्भावना रखने तथा उनका सहयोग प्राप्त करने की नीति और उसकी सुलह-कुल की नीति का बीजारोपण शेरशाह ने कर दिया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि शेरशाह मध्यकाल का राष्ट्र निर्माता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

यह भी देखें-

द्वितीय अफगान साम्राज्य का संस्थापक – शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी का शासन

शेरशाह सूरी के कार्यों का मूल्यांकन

शेरशाह के उत्तराधिकारी

सूरी साम्राज्य का पतन

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