Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 25 (अ) : द्वितीय अफगान साम्राज्य

शेरशाह सूरी (1540-45 ई.)

सूर कबीला

 सूर कबीला अफगानिस्तान में निवास करता था। ये लोग स्वयं को मुहम्म्द गौरी का वंशज मानते थे। शेरशाह के पूर्वज इसी सूर कबीले के थे। इसलिये वे सूरी कहलाते थे। जब शेरशाह ने दिल्ली में अपने नये राजवंश की स्थापना की तब वह राजवंश, सूरवंश अथवा सूरी वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

सूरी परिवार का भारत में आगमन

शेरशाह के पितामह का नाम इब्राहीम सूरी और पिता का नाम हसन सूरी था। इब्राहीम सूरी, अफगानिस्तान के रौह नामक स्थान का निवासी था। वह घोड़ों का व्यापारी था। उसने सामान्य जीवन व्यतीत किया। जब बहलोल लोदी ने अफगानों को भारत में आने का निमंत्रण दिया तब इब्राहीम सूरी अपने पुत्र हसन के साथ हिन्दुस्तान चला आया। उसने हिसार-फिरोजा में जमाल खाँ नामक एक अफगान अफसर के यहाँ नौकरी कर ली। जमाल खाँ ने उसे कुछ गाँव जागीर में दे दिये जिससे वह पचास घोड़ों का खर्च चला सके। धीर-धीरे वह उन्नति करने लगा और पाँच घोड़ों का सरदार बन गया।

शेरशाह का जन्म

हसन सूरी की चार पत्नियाँ थीं। उनमें से पहली पत्नी एक अफगान महिला थी और शेष तीन हिन्दुस्तानी नौकरानियाँ थीं जिन्हें हसन ने अपनी पत्नी बना लिया था। हसन की अफगान पत्नी से दो पुत्र- फरीद तथा निजाम का जन्म हुआ। शेष तीन पत्नियों से चार पुत्र थे। इस प्रकार फरीद अपने पिता की सबसे बड़ी संतान था। उसका जन्म हिसार-फिरोजा अथवा नारनोल में हुआ। कुछ इतिहासकार फरीद का जन्म 1472 ई. में तथा कुछ लोग 1486 ई. में होना मानते हैं। यही फरीद आगे चलकर पहले शेर खाँ तथा बाद में शेरशाह सूरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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शेरशाह का प्रारम्भिक जीवन

इब्राहीम सूरी की मृत्यु के बाद हसन सूरी अपने पिता इब्राहीम की जागीर का मालिक बना। कुछ समय पश्चात् जमाल खाँ को पूर्वी प्रान्तों का सूबेदार बनाकर भेजा गया। हसन भी जमाल खाँ के साथ सपरिवार वहीं चला गया और सहसराम में बस गया। जमाल खाँ ने उसे सहसराम तथा खवासपुर टाँडा की जागीरें प्रदान कीं। इस प्रकार हसन एक बड़ी जागीर का स्वामी बन गया परन्तु घर में चार औरतों के कारण उसका पारिवारिक जीवन अत्यंत कलहपूर्ण था। वह अपनी सबसे छोटी पत्नी से अधिक प्रेम करता था जिससे सुलेमान तथा अहमद नाम के दो पुत्र थे। हसन को उनसे भी विशेष स्नेह था। चूँकि हसन, फरीद की उपेक्षा करता था तथा उसके सौतेले भाइयों पर विशेष कृपा रखता था, इसलिये फरीद अपने पिता से खिन्न होकर प्रान्तीय सरकार की राजधानी जौनपुर चला गया जो उन दिनों शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र थी तथा उसे भारत का सीराज कहा जाता था।

जौनपुर में विद्याध्ययन

फरीद जौनपुर में कई वर्षों तक रहा। वहाँ पर उसने बड़े परिश्रम से विद्याध्ययन किया। उसने फारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया और थोड़ी-बहुत अरबी भी सीख ली। उसने इतिहास, साहित्य तथा महापुरुषों की जीवन गाथाओं के अध्ययन की ओर  विशेष ध्यान दिया। फरीद ने प्रान्त के सैनिक शासन तथा प्रशासकीय शासन का भी पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया। उसने अनेक सन्तों तथा विद्वानों से भी मैत्री कर ली जिनका जनता में बहुत बड़ा प्रभाव था।

पिता-पुत्र में सुलह

फरीद जौनपुर में रहते हुए, अपने पिता के संरक्षक एवं जौनपुर के शासक जमाल खाँ के सम्पर्क में रहा। जमाल खाँ, फरीद की बुद्धिमत्ता, सद्व्यवहार, परिश्रमशीलता तथा व्यवहार कुशलता से बड़ा प्रभावित हुआ। इन गुणों के बल पर फरीद ने जौनपुर में बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली। एक बार जब हसन खाँ किसी काम से जौनपुर आया तो जमाल खाँ ने हसन खाँ तथा फरीद के बीच सुलह करवा दी तथा हसन खाँ से कहा कि वह अपनी जागीर का काम फरीद से करवाये। हसन खाँ ने जमाल खाँ का आदेश स्वीकार कर लिया। इस पर फरीद ने जमाल खाँ से कहा कि ये आपके सामने तो जागीर देने की हाँ भरते हैं किंतु सहसराम जाते ही अपनी हिन्दुस्तानी बीवी की उपस्थिति में मना कर देंगे। हसन खाँ ने जमाल खाँ तथा फरीद दोनों को आश्वस्त किया कि ऐसा नहीं होगा। इस पर फरीद ने अगली शर्त रखी कि आप मेरे काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। हसन ने इस शर्त को भी स्वीकार कर लिया।

पिता की जागीर का प्रबंध

पिता से सुलह होने के बाद फरीद जौनपुर से सहसराम आ गया। हसन ने उसे अपनी जागीर का प्रबन्ध सौंप दिया। जागीर में चारों ओर कुप्रबंध फैला हुआ था। कई उद्दण्ड किसान लगान नहीं देते थे। फरीद ने उनके गांव लूट लिये तथा उनके स्त्री-बच्चों को बंदी बना लिया। फरीद ने किसानों को धमकी दी कि यदि वे लगान नहीं देंगे तो उनके स्त्री-बच्चे गुलाम बनाकर बेच दिये जायंगे। किसानों ने भयभीत होकर लगान भर दिया। इसके बाद फरीद ने जागीर में चोर-डाकुओं का सफाया किया। फरीद ने प्रजा पर अत्याचार करने वाले सरकारी कर्मचारियों का भी दृढ़ता से दमन किया। कुछ ही दिनों में हसन की जागीर में शान्ति तथा सम्पन्नता दिखाई देने लगी। फरीद द्वारा पिता की जागीर में की गई व्यवस्था की दो प्रधान विशेषताएँ थीं-

(1.) फरीद ने अपने पिता की जागीर की सम्पूर्ण भूमि की नपाई करवाकर किसानों को उसके पट्टे दे दिये।

(2.) फरीद ने जागीर की समस्त भूमि का वर्गीकरण करके पैदावार के आधार पर लगान का निर्धारण किया।

(3.) फरीद ने लगान निश्चित करते समय किसानों के प्रति उदारता दिखाई तथा उन्हें कई प्रकार की सुविधाएं दीं। लगान वसूल करते समय उसने कठोर रवैया दिखाया।

(4.) उस समय हसन की जागीर के विभिन्न भागों में लगान निर्धारित करने तथा वसूल करने की विभिन्न प्रकार की प्रथाएँ प्रचलित थीं। फरीद ने किसानों को अपनी मर्जी से लगान निर्धारित करवाने की प्रथा चुनने की स्वतन्त्रता दी।

(5.) फरीद ने किसानों से सीधे सम्पर्क में रहने की व्यवस्था की। वह हर समय उनकी फरियाद सुनने के लिये प्रस्तुत रहता था।

(6.) फरीद ने किसानों की एक स्थानीय सेना का संगठन किया और उस सेना की सहायता से अनुशासनहीन, उपद्रवी तथा अत्याचारी जमींदारों का दमन किया।

पिता की जागीर का त्याग

हसन अपने पुत्र फरीद की अद्भुत प्रशासकीय प्रतिभा को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु फरीद की सौतेली माँ के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। उसने हसन से कहा कि उसके पुत्र सुलेमान को भी एक बार जागीर के प्रबन्धन का अवसर दिया जाए। हसन ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। इस पर सुलेमान की माता ने हसन से बात करना बंद कर दिया। हारकर हसन को अपनी पत्नी की माँग स्वीकार करनी पड़ी। फरीद लगभग बीस वर्षों से जागीर का प्रबन्ध करता आ रहा था। इसलिये वह स्वयं को जागीर का एकाधिकारी समझने लगा था किंतु जैसे ही फरीद को अपने पिता द्वारा सुलेमान को जागीर का प्रबंध सौंपने के निर्णय का पता चला, वैसे ही फरीद ने स्वयं ही अपने पिता की जागीर के दोनों परगने हाजीपुर तथा ख्वासपुर टाण्डा का परित्याग कर दिया और 1519 ई. में फरीद आगरा के लिए चल दिया।

फरीद का भाग्योदय

आगरा में फरीद ने दौलत खाँ के यहाँ नौकरी कर ली। दौलत खाँ उसकी सेवाओं से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने सुल्तान इब्राहीम लोदी से प्रार्थना की कि वह हसन की जागीर फरीद को दे दे। सुल्तान ने दौलत खाँ की प्रार्थना को इस आधार कर अस्वीकार कर दिया कि फरीद ने अपने पिता की निन्दा करके बड़ी ही नीचता का कार्य किया है। 1520 ई. में हसन की मृत्यु हो गई। इसकी सूचना पाते ही फरीद ने आगरा से सहसराम के लिए प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचते ही उसने भाइयों को अपने पिता की जागीर से मार भगाया और जागीर पर अधिकार कर लिया। फरीद के सौतले भाई चुप नहीं बैठे और उसके विरुद्ध षड़यंत्र रचने लगे। उन्हें चौंद के जागीरदार मुहम्मद खाँ सूरी का संरक्षण तथा समर्थन प्राप्त हो गया जो एक प्रभावशाली व्यक्ति था। इससे फरीद संकट में पड़ गया। अपने भाइयों के षड़यंत्रों को रोकने के लिए फरीद ने बिहार के शासक बहादुर खाँ नूहानी के यहाँ नौकरी कर ली जिसके प्रभाव का प्रयोग कर फरीद अपने भाइयों के षड़यंत्रों को विफल कर सकता था। अपनी योग्यता तथा परिश्रम से फरीद ने अपने नये स्वामी को भी प्रसन्न कर लिया। एक बार फरीद ने एक शेर का शिकार किया। अपने सेवक की वीरता से प्रसन्न होकर बहादुर खाँ ने उसे शेर खाँ की उपाधि दी। तब से फरीद शेर खाँ कहलाने लगा। थोड़े दिन बाद शेर खाँ को शाहजादे जलाल खाँ का नायब तथा शिक्षक नियुक्त कर दिया गया। इससे शेर खाँ के प्रभाव तथा उसकी प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हो गई।

एक बार शेर खाँ छुट्टी लेकर अपनी जागीर पर चला गया परन्तु वहाँ पर अधिक दिनों तक रुक गया। इस पर शेर खाँ के शत्रु मुहम्मद खाँ सूरी ने बिहार के सुल्तान बहादुर खाँ नूहानी को शेर खाँ के विरुद्ध भड़काया। बहादुर खाँ नूहानी, मुहम्मद खाँ की बातों में आ गया तथा शेर खाँ से अप्रसन्न हो गया। इसके बाद मुहम्मद खाँ ने शेर खाँ से कहा कि वह जागीर में अपने भाइयों को हिस्सा दे दे। शेर खाँ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इससे अप्रसन्न होकर मुहम्मद खाँ ने शेर खाँ की जागीर पर आक्रमण कर दिया। शेर खाँ भाग खड़ा हुआ और 1517 ई. में उसने जुनैद बर्लस के यहाँ नौकरी कर ली जो उन दिनों बाबर के पूर्वी प्रान्तों का गवर्नर था। अपने नये स्वामी की सहायता से शेर खाँ ने मुहम्मद खाँ को मार भगाया और एक बार फिर अपनी जागीर का स्वामी बन गया। जुनैद बर्लस शेर खाँ से इतना प्रसन्न हो गया कि वह शेर खाँ को अपने भाई खलीफा के पास आगरा ले गया जो बाबर का प्रधानमन्त्री था। खलीफा ने शेर खाँ को मुगल सेना में रख लिया जिसमें वह पन्द्रह महीने तक रहा। इस प्रकार मुगलों के सैनिक संगठन, उनकी रणपद्धति तथा उनकी शासन व्यवस्था का उसने अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। बाबर भी शेर खाँ की प्रतिभा से बड़ा प्रसन्न हुआ और उसकी जागीर में उसकी पुनर्स्थापना कर दी। शेर खाँ फिर से अपनी जागीर में चला आया परन्तु इस बार भी वह अधिक दिनों तक वहाँ न रह सका। इसी बीच बिहार के शासक बहादुर खाँ की मृत्यु हो गयी और उसके स्थान पर उसका अल्पवयस्क बालक जलाल खाँ बिहार का सुल्तान बना। जलाल खाँ की माँ दूदू उसकी संरक्षिका बन गई। शेर खाँ, सुल्तान जलाल खाँ का शिक्षक रह चुका था। दूदू ने शेर खाँ को बुला भेजा और उसे नायब के पद पर नियुक्त कर दिया। इस पद पर रहते हुए शेर खाँ को राजनीति, कूटनीति तथा शासन कला का ज्ञान प्राप्त हुआ।

शेर खाँ की लड़ाइयाँ

बिहार में शेर खाँ की शक्ति तथा उसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और वह थोड़े ही दिनों में राज्य का सर्वेसर्वा बन गया। इससे नूहानी अफगानों में बड़ी ईर्ष्या पैदा हो गई और वे उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे।

बिहार पर अधिकार

शेर खाँ के उत्कर्ष से असन्तुष्ट कुछ नूहानी अफगान बिहार से भागकर बंगाल पहुँचे और वहाँ के शासक नसरत शाह से बिहार पर आक्रमण करने के लिये उकसाया ताकि वे अपनी खोई हुई शक्ति को फिर से प्राप्त कर लें। नसरत शाह ने इस अवसर का लाभ उठाने के लिये बिहार पर आक्रमण कर दिया परन्तु शेर खाँ ने बंगाल की सेना को परास्त करके मार भगाया। नसरत शाह के मरने के बाद उसके पुत्र महमूद ने भी बिहार पर आक्रमण किया परन्तु शेर खाँ ने उसे सूरजगढ़ के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया। सूरजगढ़ का युद्ध मध्यकालीन इतिहास के निर्णयात्मक युद्धों में से एक है। इस युद्ध में शेर खाँ को विपुल युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। उसने नूहानियों की शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इससे शेर खाँ को बंगाल के शासक की दुर्बलता का पता लग गया और शेर खाँ बिहार का स्वतन्त्र शासक बन गया।

गौड़ पर अधिकार

बिहार का स्वतंत्र शासक बनने के बाद शेर खाँ ने बंगाल पर आक्रमण करने आरम्भ किये। 1525 ई. में शेर खाँ ने बंगाल के शासक को परास्त कर उससे 13 लाख दीनार वसूल किये। 1537 ई. में शेर खाँ ने फिर बंगाल पर आक्रमण किया और गौड़ पर अधिकार कर लिया। महमूदशाह ने भाग कर हुमायूँ के यहाँ शरण ली।

चुनार पर अधिकार

चुनार का दुर्ग अत्यंत सुदृढ़ होने के कारण अभेद्य समझा जाता था। विशेष भौगोलिक परिस्थिति होने के कारण यह दुर्ग पूर्व का फाटक कहलाता था। यह दुर्ग इब्राहीम लोदी के सरदार ताज खाँ के अधिकार में था जो अपनी पत्नी लाद मलिका के वशीभूत था। एक रात ताज खाँ के बड़े पुत्र ने जो एक दूसरी पत्नी से था, लाद मलिका पर आक्रमण करके उसे घायल कर दिया। उसने अपने पिता ताज खाँ की भी हत्या कर दी और चुनार से भाग खड़ा हुआ। शेर खाँ ने इस अवसर से लाभ उठाया और चुनार के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद शेर खाँ ने लाद मलिका से विवाह कर लिया। शेर खाँ को चुनार दुर्ग में बड़ी सम्पत्ति मिली। इससे शेर खाँ की शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई। 1539 ई. में जब शेर खाँ बंगाल में व्यस्त था तब हुमायूँ ने इस दुर्ग पर अधिकार जमा लिया।         

रोहतास पर अधिकार

चुनार का दुर्ग हाथ से निकल जाने पर शेर खाँ को बड़ी क्षति पहुँची। उसे हुमायूँ के विरुद्ध डटे रहने के लिये एक दुर्ग की आवश्यकता थी। इसलिये शेर खाँ ने रोहतास दुर्ग पर अधिकार करने की योजना बनाई। वहाँ का राजा चिन्तामणि शेर खाँ का मित्र था। शेर खाँ ने थोड़े समय के लिए उससे दुर्ग माँग लिया और अपने परिवार को वहाँ भेज दिया। अब शेर खाँ ने राजा के अफसरों को हटाकर अपने अफसर नियुक्त कर दिये और दुर्ग पर स्थायी रूप से अधिकार जमा लिया। शेर खाँ का यह कार्य बड़े ही विश्वासघात का था।

मुगल साम्राज्य पर अधिकार

हुमायूँ से शेर खाँ का प्रथम संघर्ष चुनार दुर्ग के लिए आरम्भ हुआ। दुर्ग पर हुमायूँ का अधिकार स्थापित हो गया। इसके बाद जब हुमायूँ गौड़ में था तब शेर खाँ ने मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने आरम्भ किये। जब हुमायूं गौड़ से लौटा तब शेर खाँ ने रास्ते में चौसा के युद्ध में उसे बुरी तरह परास्त किया। इसके बाद कन्नौज अथवा बिलग्राम के युद्ध में शेर खाँ ने पुनः हुमायूँ को परास्त किया और मुगल साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। अब शेर खाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की, अपने नाम में खुतबा पढ़वाया, अपने नाम की मुद्राएँ चलवाईं और अपने साम्राज्य के संगठन तथा विस्तार के कार्य में संलग्न हो गया।

सूरी साम्राज्य की सुरक्षा

दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद शेरशाह के सामने दो तात्कालिक समस्याएँ थीं- (1.) साम्राज्य की सीमाओं की सुरक्षा और (2.) मुगलों के दुबारा आक्रमण की संभावना। शेरशाह सूरी को अपने साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा तथा पूर्वी सीमा की सुरक्षा करना आवश्यक था क्योंकि इन दोनों ओर से ही राज्य पर आक्रमण होने की संभावना अधिक थी।

पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा

शेरशाह ने सबसे पहले पश्चिमोत्तर प्रदेश की ओर ध्यान दिया। उन दिनों राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा पर घक्करों की लड़ाका जाति निवास करती थी जो मुगलों से सहानुभूति रखती थी। शेरशाह ने घक्करों को निर्देश भिजवाया कि वे शेरशाह के नये साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर लें। घक्करों ने यह निर्देश अस्वीकार कर दिया। इसलिये शेरशाह ने घक्कर प्रदेश पर आक्रमण करके उनके गाँवों को जलाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। शेरशाह ने घक्कर में स्थायी शान्ति स्थापित करने के लिए रोहतास नामक स्थान पर टोडरमल खत्री के निरीक्षण में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। यह रोहतास दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें शेरशाह ने युद्ध एवं रसद सामग्री जमा करवाई तथा कुशल सैनिकों की एक सेना नियुक्त की।

पूर्वी सीमा की सुरक्षा

1541 ई. में शेरशाह को बंगाल में गड़बड़ी फैलने की सूचना मिली। इन दिनों खिज्र खाँ बंगाल का गवर्नर था। उसने बंगाल के भूतपूर्व सुल्तान महमूदशाह की कन्या से विवाह करके स्वतन्त्र शासक की भाँति शासन करना आरम्भ कर दिया। शेरशाह ने उसे गवर्नर के पद से हटाकर कैद करवा लिया। चूँकि बंगाल का प्रान्त बहुत बड़ा था, इसलिये शेरशाह ने उसे कई भागों में विभक्त करके प्रत्येक भाग की देख-भाल के लिए एक-एक अधिकारी नियुक्त कर दिया। इन अधिकारियों के कार्यों का निरीक्षण करने के लिए उनके ऊपर एक और अधिकारी नियुक्त किया जो अमीन-ए-बंगाल कहलाता था।

सूरी साम्राज्य का विस्तार

अपने साम्राज्य की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करने के उपरान्त शेरशाह ने उसके विस्तार की ओर ध्यान दिया। हुमायूँ के पलायन के साथ ही मुगलों के सम्पूर्ण क्षेत्रों पर शेरशाह का अधिकार हो चुका था। इसलिये शेरशाह ने उसकी सीमाओं के परे जाकर राज्य विस्तार करने का निश्चय किया।

मालवा विजय

बहादुरशाह की मृत्यु के बाद मल्लूखाँ ने मालवा पर अधिकार कर लिया था। वह कादिर खाँ की उपाधि धारण कर मालवा पर शासन कर रहा था। शेरशाह के मालवा पर आक्रमण करने के और भी कई कारण थे। पहला कारण तो यह था कि मालवा पर हुमायूँ ने अधिकार कर लिया था। इसलिये हुमायूँ को परास्त करने के बाद शेरशाह स्वयं को मालवा का अधिकारी समझने लगा। दूसरा कारण यह था कि शेरशाह कादिर खाँ को अपने अधीन समझता था परन्तु कादिर खाँ स्वयं को स्वतन्त्र शासक मानता था। तीसरा कारण यह था कि कादिर खाँ ने कालपी के युद्ध में शेरशाह के पुत्र कुत्ब खाँ की सहायता नहीं की थी जिससे उसकी पराजय तथा मृत्यु हो गई थी। चौथा कारण यह कि हुमायूँ अभी सिन्ध में घूम रहा था और यह सम्भव था कि मालवा जैसे दुर्बल राज्य पर वह अधिकार करने का प्रयास करे। पाँचवा कारण यह था कि मारवाड़ का शासक मालदेव इन दिनों अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था और मालवा पर अधिकार करना चाहता था। यदि मालदेव इस उद्देश्य में सफल हो जाता तो शेरशाह के लिए बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाता। इसलिये शेरशाह ने मालवा पर आक्रमण करने के उद्देश्य से एक विशाल सेना लेकर मालवा के लिए प्रस्थान कर दिया। मार्ग में उसने ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार किया। इसी समय रायसेन के शासक राजा प्रतापशाह के प्रमुख सामंत पूरनमल ने शेरशाह का स्वामित्व स्वीकार कर लिया। इन गतिविधियों से कादिर खाँ का साहस भंग हो गया और वह अपने परिवार के साथ गुजरात भाग गया। इस प्रकार मालवा पर शेरशाह का अधिकार हो गया। मालवा में अपने अधिकारी नियुक्त करके शेरशाह ने रणथम्भौर के लिए प्रस्थान किया।

रणथम्भौर पर अधिकार

इन दिनों उस्मान खाँ रणथम्भौर का गवर्नर था। उसने शेरशाह का विरोध नहीं किया और उसे दुर्ग सौंप दिया। शेरशाह रणथम्भौर से आगरा लौट आया।

रायसेन विजय

बहादुरशाह की मृत्यु के उपरान्त पूरनमल, रायसेन तथा चन्देरी पर अधिकार करके अपने भतीजे राजा प्रताप के नाम से वहाँ पर शासन कर रहा था। जिस समय शेरशाह मालवा विजय के लिए जा रहा था उस समय पूरनमल उससे मिला था परन्तु शेरशाह की आँखों में राजपूतों का यह प्रबल राज्य खटक रहा था। इसलिये शेरशाह ने पूरनमल पर आरोप लगाया कि वह मुसलमानों पर अत्याचार करता है तथा उनके परिवारों को गुलाम बनाकर उनकी लड़कियों को नर्तकियाँ बनाता है। इसके बाद 1543 ई. में शेरशाह ने रायसेन पर घेरा डाल दिया। यह घेरा 6 माह तक चला। अन्त में दोनों पक्षों में समझौता हो गया। शेरशाह ने पूरनमल को वचन दिया कि वह अपने परिवार के साथ दुर्ग से बाहर आ जाये। उसके परिवार तथा राजपूत सैनिकों को कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। पूरनमल अपने परिवार के साथ दुर्ग से बाहर निकल आया परन्तु शेरशाह ने रायसेन के हिन्दू राजा के साथ भी वैसा ही जघन्य विश्वासघात किया जैसा उसने रोहतास के हिन्दू राजा चिन्तामणि के साथ किया था। उसने राजपूतों का भीषण हत्याकाण्ड करवाया। एक भी राजपूत जीवित नहीं बचा। राजपूत स्त्रियों ने ‘जौहर’ करके अपने सतीत्व की रक्षा की। कुछ बच्चे मुसलमानों के हाथ पड़े जो गुलाम बना लिये गये। पूरनमल की एक छोटी कन्या को नर्तकी बनाकर उसे बाजारों मे नचाया गया। इस प्रकार हिन्दुओं के गौरव को नष्ट करने की जो निदंनीय परम्परा मुहम्मद बिन कासिम के समय से आरम्भ हुई थी, शेरशाह सूरी ने भी उसका निर्वहन किया।

राजपूताना विजय

राजपूताना में कई स्वतन्त्र राज्य थे जिन पर प्राचीन क्षत्रियों के अलग-अलग वंश शासन करते थे। इनमें से अधिकांश राजा वीर, धर्मनिष्ठ, सत्य-प्रतिज्ञ, देश-प्रेमी एवं उच्च आदर्शों का पालन करने वाले थे किंतु दुर्भाग्यवश उन्होंने देश की परिभाषा अपने राज्य तक ही सीमित कर ली थी। इस कारण वे अकारण ही मंूछ का सवाल खड़ा करके परस्पर लड़ते-मरते थे। शेरशाह ने इन्हें अपने अधीन करने का निश्चय किया।

मारवाड़ के विरुद्ध अभियान: इन दिनों मारवाड़ का राज्य राजपूताने में सर्वाधिक शक्तिशाली था जिसकी राजधानी जोधपुर थी। 1562 ई में मालदेव जोधपुर के सिंहासन पर बैठा। वह बड़ा ही वीर तथा दुःसाहसी राजा था। उसने अपने बाहुबल से अपने राज्य की सीमाओं में अत्यधिक वृद्धि कर ली थी। उसने पुराने दुर्गों की मरम्मत करवाई और कई नये दुर्गों का निर्माण करवाया। उसकी सेना में पचास हजार सैनिक थे। मालदेव वीर तो था किंतु अदूरदर्शी भी था। उसने अपने ही भाइयों को अपना शत्रु बना लिया। मालदेव से असन्तुष्ट बीकानेर का शासक कल्याणमल और मेड़ता का शासक वीरमदेव शेरशाह की शरण में चले गये और उसे मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया। 1544 ई. में शेरशाह ने एक विशाल सेना लेकर मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान किया। लगभग एक माह तक शेरशाह तथा मालदेव की सेनाएँ एक दूसरे के सामने खड़ी रहीं परन्तु किसी को भी पहले आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ। अन्त में शेरशाह ने हिन्दू नरेशों को छल से मारने की नीति से काम लेते हुए एक जाली पत्र लिखवाया जिसमें मालदेव के सामन्तों की तरफ से शेरशाह को यह आश्वासन दिया गया कि वे मालदेव को कैद करके उसके सामने उपस्थित करेंगे। यह पत्र मालदेव के मंत्री के शिविर के पास डाल दिया गया। जब मालदेव को इस पत्र की जानकारी मिली तो वह शंकित हो उठा। सामन्तों के लाख विश्वास दिलाने पर भी उसका संदेह दूर नहीं हुआ और वह अपनी सेना के साथ पीछे हटने लगा। इससे जैता और कूंपा आदि कुछ सामन्त बड़े दुखी हुए और अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देने के लिए अफगान सेना पर टूट पडे़। इस युद्ध में शेरशाह की सेना विजयी रही। राजपूत बड़ी संख्या में वीरगति को प्राप्त हुए। राजपूतों की वीरता को देखकर शेरशाह ने कहा- ‘मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो बैठता।’ शेरशाह की सेना ने जोधपुर तथा अजमेर पर अधिकार कर लिया। मालदेव ने सिवाना में शरण ली और शेरशाह आगरा चला गया।

चित्तौड़ पर अधिकार

आगरा से लौटने के बाद शेरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। इन दिनों चित्तौड़ में गृहकलह चल रही थी। इसलिये उसमें शेरशाह के आक्रमण को रोकने की क्षमता नहीं थी। उदयसिंह के मन्त्रियों ने चितौड़ के दुर्ग की चाबियाँ शेरशाह को सौंप दीं।

आम्बेर पर अधिकार

शेरशाह आम्बेर की ओर गया और उसे भी उसने जीत लिया। इस प्रकार सारे राजपूताना पर उसका अधिकार स्थापित हो गया।

कालिंजर विजय

आम्बेर जीतने के बाद शेरशाह ने कालिंजर के लिए प्रस्थान किया जहाँ उन दिनों कीर्तिसिंह शासन कर रहा था। कालिंजर पर आक्रमण करने के कई कारण थे। यह यमुना घाटी का सबसे प्रबल दुर्ग था और अभेद्य समझा जाता था। इसलिये इस पर अधिकार करना आवश्यक था। मालवा तथा राजपूताना को जीतने के बाद सैनिक तथा प्रशासकीय दोनों ही दृष्टि से इस दुर्ग का महत्त्व बढ़ गया था और इसे जीतना आवश्यक हो गया था। इसे जीत लेने पर दिल्ली तथा मालवा से पूर्वी प्रान्तों तक दुर्गों  की पंक्ति पूरी हो जाती है। जब शेरशाह सेहोंदा नामक स्थान पर गया था, जो कालिंजर से थोड़ी ही दूर था, तब कीर्तिसिंह उसे प्रणाम करने नहीं आया। चूँकि कीर्तिसिंह हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर चुका था, इसलिये सेहोंदा में उसके न आने से शेरशाह का संदेह बढ़ने लगा और उसे अधीन करने का निश्चय किया। कीर्तिसिंह के पास एक नर्तकी थी जो अपने रूप-लावण्य के लिए दूर-दूर तक विख्यात थी। शेरशाह इस नर्तकी को प्राप्त करना चाहता था। कीर्तिसिंह ने गहोरा के राजा वीरसिंह को शरण दी थी जो बाबर का मित्र था और जिसकी माँ रायसेन के शासक पूरनमल की कन्या थी। यह भी कहा जाता है कि जब हुमायूँ चौसा के युद्ध में परास्त होकर भाग रहा था तब वीरसिंह के पुत्र वीरभानु ने उसे कड़ा तक पहुँचने में सहायता की थी।

उपर्युक्त कारणों से शेरशाह ने 1545 ई. में कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग को अभेद्य पाकर शेरशाह ने दुर्ग के निकट मिट्टी का ढेर बनवाया। जब यह ढेर दुर्ग की दीवारों से ऊँचा हो गया तब शेरशाह ने इस ढेर पर तोपें तैनात करके दुर्ग पर गोले बरसाये। अचानक एक गोला वहीं फट गया जहाँ शेरशाह खड़ा था। इससे वह गम्भीर रूप से घायल हो गया। शेरशाह के प्राण पंखेरू उड़ने के पूर्व ही दुर्ग जीत लिया गया। इसकी सूचना पाकर शेरशाह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने इस विजय के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। 22 मई 1545 को उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु पर खेद प्रकट करते हुए प्रो. कानूनगो ने लिखा है- ‘इस प्रकार महान् सैनिक तथा राजनीतिज्ञ अपने लाभप्रद, क्रियाशील तथा विजयी जीवन के मध्य में चल बसा जिसके साथ दण्डित हिन्दुओं के लिए सहिष्णुता, न्याय तथा राजनीतिक अधिकारों की समानता का उषाकाल आरम्भ हुआ था जो अकबर के सिंहासनारोहण के समय दैदीप्यमान मध्याह्न में फैल गई।’ उसकी इच्छानुसार सहसराम के मनोहर मकबरे में वह दफन कर दिया गया जिसे उसने इसी ध्येय से बनवाया था।

शेरशाह की सफलता के कारण

शेरशाह सूरी का जन्म अत्यन्त साधारण परिवार में और कलहपूर्ण परिस्थितियों में हुआ था परन्तु अपने बुद्धि कौशल एवं बाहुबल से उसने भारतवर्ष में द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। उसने इस साम्राज्य की स्थापना ऐसे समय में की जब भारत में अफगानों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी थी और मुगलों की शक्ति पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी। शेरशाह ने न केवल मुगल साम्राज्य को उन्मूलित करके उसके स्थान पर अपने साम्राज्य की स्थापना की अपितु वह नवनिर्मित साम्राज्य का मुगल साम्राज्य से भी अधिक विस्तृत क्षेत्र में प्रसार करने में सफल रहा। उसकी सफलताओं के कारण निम्नलिखित थे-

(1.) पारिवारिक परिस्थितियाँ: शेरशाह की सफलता का बीजारोपण उसकी पारिवारिक परिस्थितियों में हुआ था। उसका पारिवारिक जीवन बड़ा ही कष्टमय था। उसे सौतेली मां के कुचक्रों के कारण पितृ स्नेह से वंचित रहना पड़ा जिससे उसमें अपना अधिकार प्राप्त करने के लिये कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति आ गई तथा उसके जीवन को नई दिशा प्राप्त हो गई। वह अपने परिवार को छोड़कर जौनपुर चला गया जहाँ उसे अपने लिये नये अवसर तलाशने का अवसर मिला। जौनपुर में उसे अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई तथा प्रान्तीय शासन को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। शेरशाह का जौनपुर जाना उसके व्यक्तित्त्व के निर्माण में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ।

(2.) विभिन्न प्रकार के अनुभव: शेरशाह को युवावस्था में बीस वर्ष तक अपने पिता की जागीर का प्रबन्ध करने का अवसर प्राप्त हुआ। इससे उसे जमींदारों के उपद्रवों का दमन करने तथा भूमि सम्बन्धी सुधार करने का अनुभव मिल गया। साथ ही सैनिक तथा प्रशासकीय अनुभव भी प्राप्त हुए। मुगलों की सेना में भर्ती होकर उसने मुगलों के सैनिक संगठन, उनकी रणपद्धति, उनके शासन प्रबंध, उनकी वास्तविक शक्ति तथा दुर्बलताओं का ज्ञान प्राप्त किया। बिहार के शासक के यहाँ नौकरी करके उसे दरबारी राजनीति एवं कूटनीति सीखने का अवसर मिला। इस कारण वह एक साधारण सिपाही से लेकर बादशाह तक के कर्त्तव्यों को जान गया। इन अनुभवों ने उसे विलक्षण व्यक्तित्त्व प्रदान किया जिसने उसकी सफलताओं का द्वार खोल दिया।

(3.) जीवन भर भाग्य का साथ: भाग्य ने शेरशाह को सदैव दूसरों से आगे रखा। जिस समय उसने पूर्व में अपनी शक्ति को बढ़ाना आरम्भ किया ठीक उसी समय हुमायूँ का गुजरात के शासक बहादुरशाह से संघर्ष आरम्भ हो गया। इससे शेरशाह को बंगाल में पैर जमाने का अवसर मिल गया। इसके बाद हुमायूँ 6 महीने तक चुनार में फंसा रहा। इससे शेरशाह को बंगाल जीतने का अवसर प्राप्त हो गया। शेरशाह के सौभाग्य से ही हुमायूं गौड़ में कई महीने तक पड़ा रहा और मिर्जा हिन्दाल बिहार से आगरा भाग गया जिससे शेरशाह को अपनी शक्ति के बढ़ाने का अवसर मिल गया और उसने चौसा के युद्ध में हुमायूँ को मार भगाया। शेरशाह के भाग्य से कन्नौज के युद्ध के समय अत्यधिक वर्षा हुई और हुमायूँ का खेमा पानी से भर गया। इस प्रकार भाग्य ने शेरशाह का पलड़ा सदैव ऊपर ही रखा। भाग्य के खेल से ही मालदेव अपने सरदारों का विश्वास न करके युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ। शेरशाह के भाग्य ने केवल एक बार ही उसका साथ छोड़ा जब वह कालिंजर के दुर्ग में अपनी ही तोप के फटने से घायल होकर मर गया।

(4.) विलक्षण प्रतिभा: शेरशाह प्रतिभावान व्यक्ति था। इसके कारण ही उसने जीवन के प्रारंभिक काल में जौनपुर में इतनी अधिक ख्याति प्राप्त कर ली कि उसके पिता ने उसे अपनी विशाल जागीर का प्रबन्ध सौंप दिया। अपनी प्रतिभा तथा सेवाओं के कारण ही बिहार के शासक बहादुर खाँ ने उसे आगे बढ़ने का अवसर दिया। शेरशाह ने विकट साहस का प्रदर्शन करते हुए शेर का शिकार करके शेर खाँ की उपाधि प्राप्त की। उसने अपनी सेवाओं से जुनैद वर्लस को प्रसन्न करके अपने पिता की जागीर को पुनः प्राप्त किया। प्रतिभा के बल पर ही उसे मुगल सेना में प्रवेश मिल सका जिससे उसे मुगलों के सैनिक संगठन तथा शासन का अनुभव प्राप्त हो सका। शेरशाह ने बाबर को अपनी प्रतिभा तथा सेवाओं से प्रभावित करके अपनी जागीर पुनः प्राप्त की। बिहार के शासक जलाल खाँ की माँ ने भी शेरशाह की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे अपने यहाँ बुलाकर बादशाह का नायब बनाया जिससे शेरशाह को अपनी शक्ति बादशाह के बराबर करने का अवसर मिल गया।

(5.) सैनिक गुण: शेरशाह में एक योग्य सैनिक तथा सेनापति के गुण विद्यमान थे। वह दुःसाहसी तथा धैर्यशाली योद्धा था। भयानक से भयानक आपत्ति के आ जाने और विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न हो जाने पर भी उसका धैर्य भंग नहीं होता था। कोई भी असफलता अथवा दुःखद घटना उसे हतोत्साहित नहीं कर पाती थी। वह सदैव आशावादी बना रहता था। संकट आ जाने पर वह अपने ऊपर नियन्त्रण रखता था तथा सदैव सावधान एवं सतर्क रहता था।

(6.) नेतृत्व शक्ति: शेरशाह में विलक्षण नेतृत्व शक्ति थी। जिन दिनों अफगान अमीर मुगलों के हाथों परास्त होकर इधर-उधर भटक रहे थे, उन दिनों में शेरशाह उन्हें नेतृत्व देने के लिये आगे आया और उसने अफगानों को संगठित करके उनमें आशा का संचार किया। उसने अफगानों की प्रबल सेना का निर्माण किया जो मुगलों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती थी और जिसने अन्त में मुगलों को भारत से मार भगाया।

(7.) व्यवहारिक बुद्धि: शेरशाह अपनी योजनाओं को बड़ी सावधानी से बनाता था और पूरी तैयारी के साथ कार्यान्वित करता था। वह व्यावहारिक बुद्धि का धनी था और असम्भव दिखने वाले कार्यों में हाथ नहीं डालता था।

(8.) कूटनीति: शेरशाह बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ तथा कूटनीतिज्ञ था। किस समय शत्रु के सामने झुक जाना चाहिये और किस समय शत्रु पर प्रहार करना चाहिये इस कला में वह बड़ा प्रवीण था। जब तक हुमायूँ शक्तिशाली था तब तक शेरशाह ने उसके साथ लोहा नहीं लिया वरन् उसकी अनुनय-विनय करता रहा। चुनार के सम्बन्ध में उसने इसी नीति का अनुसरण किया परन्तु बाद में जब हुमायूँ की स्थिति ठीक नहीं रही तब वह चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में उस पर टूट पड़ा। बहादुरशाह के साथ गठबन्धन करके उसने हुमायूँ को विपत्ति में डाल दिया। मादलेव तथा उसके मन्त्रियों के बीच उसने जाली पत्रों के माध्यम से फूट डलवा दी।

(9.) स्वार्थ सिद्धि के लिये अनैतिक साधनों का प्रयोग: शेरशाह अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये किसी भी सीमा तक गिर सकता था। उसे अनैतिक साधनों का उपयोग करने में किंचित् भी संकोच नहीं होता था। उसने हुमायूँ के साथ किये गये वादे को कई बार तोड़ा। शेरशाह ने रोहतास के राजा चिन्तामणि से मित्रता के नाम पर दुर्ग मांगा तथा उसके साथ छल करके हमेशा के लिये दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शेर खाँ का यह कार्य बड़े ही विश्वासघात का था। शेरशाह ने रायसेन के राजा पूरनमल से संधि करके उसे वचन दिया कि वह दुर्ग से बाहर आ जाये, उसके परिवार तथा सैनिकों को हानि नहीं पहुंचाई जायेगी किंतु शेरशाह ने न तो संधि की शर्तों का पालन किया और न अपने वचन का निर्वहन किया। शेरशाह ने बिहार के बादशाह जलाल खाँ का संरक्षक बनकर उसका राज्य हड़प लिया।

(10.) समय का सदुपयोग: शेरशाह अपने समय को नष्ट नहीं करता था और बड़े परिश्रम से उसका उपयोग करता था। वह विजयोत्सव तथा आमोद-प्रमोद में समय नष्ट नहीं करके आगामी विजय की तैयारी में संलग्न हो जाता था। उसकी दृष्टि सदैव भविष्य पर लगी रहती थी। परास्त हो जाने पर वह निराश नहीं होता था वरन् अपनी विच्छिन्न शक्ति को फिर से संगठित करने में लग जाता था। वह किसी भी कार्य को अपनी शान के खिलाफ नहीं समझता था। वह आवश्यकता पड़ने पर एक साधारण सैनिक की भाँति कार्य करने लगता था।

(11.) मितव्ययता: शेरशाह बड़ा मितव्ययी था इस कारण उसका कोष भरा रहता था। चुनार के दुर्ग में उसे बहुत सा धन मिला था। बहादुरशाह से भी उसे बड़ी आर्थिक सहायता मिली थी। बंगाल के शासक पर भी विजय प्राप्त कर उसने धन प्राप्त किया था। उसने राज्य में आर्थिक सुधार करके भी कोष में वृद्धि की। इन सब आर्थिक योजनाओं का परिणाम यह हुआ कि शेरशाह ने कभी भी धन की कमी का अनुभव नहीं किया। इस धन से उसने प्रबल सेना का संगठन किया। शेरशाह की सेना के पास सदैव पर्याप्त मात्रा में युद्ध एवं रसद सामग्री उपलब्ध रहती थी।

(12.) प्रशासकीय गुण: शेरशाह ने अपने पिता की विशाल जागीर का बीस वर्ष तक सफलतापूर्वक संचालन करके प्रशासकीय गुण विकसित कर लिये थे। उसने इन गुणों का उपयोग बिहार के बादशाह के संरक्षक के रूप में भलीभांति किया। इस कारण उसके शासन क्षेत्र में सदैव शासन व्यवस्था कायम रहती थी तथा राजकोष में भी निरंतर धन आता था। इस कारण उसे आगे की योजनाएं बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने में सफलता प्राप्त होती थी।

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