हुमायूँ की सामरिक उपलब्धियाँ भारत के मध्यकालीन इतिहास पर गहा प्रभाव डालने वाली सिद्ध हुईं। उसने अपने शत्रुओं का धैर्य पूर्वक मुकाबला किया तथा उन्हें एक-एक करके परास्त करता चला गया। इस कारण भारत में मुगल सल्तनत की फिर से स्थापना संभव हो सकी।
हुमायूँ की सामरिक उपलब्धियाँ
कालिंजर पर आक्रमण
कालिंजर का दुर्ग उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में स्थित था। वह विन्ध्याचल पर्वत पर कई सौ फुट ऊँची चट्टान पर बना हुआ होने के कारण सुरक्षित तथा अभेद्य समझा जाता था। तुर्कों ने कई बार इस पर अधिकार करने का प्रयास किया था। बाबर ने भी हुमायूँ को इस दुर्ग को जीतने के लिए भेजा था परन्तु हुमायूँ को कालिंजर के शासक राजा प्रताप रुद्र से समझौता करके दुर्ग का घेरा उठाना पड़ा था।
बाबर की मृत्यु के बाद राजा प्रताप रुद्र कालपी पर अधिकार जमाने का प्रयत्न करने लगा। इन दिनों कालपी का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया था क्योंकि गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मार्च 1531 में मालवा पर अधिकार कर लिया था जिससे कालपी उसके लिए उत्तरी हिन्दुस्तान में आने के लिए प्रवेश द्वार बन गया था। इसलिये हुमायूँ ने कालिंजर पर फिर से अधिकार करने का निर्णय लिया तथा कालिंजर दुर्ग पर घेरा डाल दिया।
हुमायूँ की सेना एक महीने तक कालिंजर दुर्ग पर गोलाबारी करती रही परन्तु दुर्ग को अधिकार में नहीं किया जा सका। हुमायूँ को कालिंजर में व्यस्त देखकर इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी ने जौनपुर पर अधिकार कर लिया और वहाँ से मुगल अफसरों को मार भगाया। इसलिये हुमायूं को एक बार फिर कालिंजर के राजा से समझौता करना पड़ा।
महमूद लोदी से संघर्ष
महमूद लोदी तथा उसके समर्थकों ने सबसे पहले बिहार को अपने अधिकार में कर लिया और वहीं पर एक बहुत बड़ी सेना एकत्रित कर ली। इसके बाद इन लोगों ने मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण करने आरम्भ किये। इन लोगों ने जौनपुर से मुगलों को मार भगाया और अवध में भी अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इस समय हुमायूँ कालिंजर में था। वह चुनार होता हुआ जौनपुर की ओर बढ़ा परन्तु वर्षा ऋतु आरम्भ हो जाने के कारण वह अफगानों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सका। इसी समय उसे अपने भाई कामरान के विद्रोह की सूचना मिली। अतः वह आगरा चला गया।
कामरान का विद्रोह
जब कामरान ने देखा कि हुमायूँ अपने शत्रुओं से संघर्ष करने में व्यस्त है तो उसने अफगानिस्तान का प्रबन्ध अपने छोटे भाई अस्करी को सौंप दिया और स्वयं अपनी सेना के साथ पंजाब में घुस आया। कामरान ने मुल्तान तथा लाहौर पर अधिकार करके वहाँ पर अपने अधिकारी नियुक्त कर दिये।
इसके बाद कामरान ने हुमायूँ को चालाकी भरे विनम्र पत्र लिखे कि वह मुल्तान तथा पंजाब के प्रान्त उसे दे दे। चूँकि हुमायूँ के पास अपने साम्राज्य के पश्चिमी भाग में शान्ति बनाये रखने का अन्य कोई उपाय नहीं था। इसलिये उसने कामरान की प्रार्थना स्वीकार कर ली।
महमूद लोदी की पराजय
कामरान को सन्तुष्ट करने के बाद हुमायूँ ने पुनः विद्रोही अफगानों की ओर ध्यान दिया। उसने लखनऊ से थोड़ी दूर पर स्थित दौरान नामक स्थान पर अफगानों के साथ लोहा लिया। अफगानों ने अपने खोये हुए राज्य की प्राप्ति के लिये बड़ी वीरता से युद्ध किया परन्तु वे परास्त हो गये। महमूद लोदी बिहार की ओर भाग गया। उसने फिर कभी युद्ध करने का साहस नहीं किया। जौनपुर पर हुमायूँ का अधिकार हो गया।
बहादुरशाह से संघर्ष
बहादुरशाह की गतिविधियाँ
गुजरात का शासक बहादुरशाह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था। वह निरन्तर अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहा था और मुगल साम्राज्य के लिए खतरा उत्पन्न कर रहा था। उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। मार्च 1531 में उसने मालवा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। मेवाड़ का राज्य, दिल्ली तथा मालवा के बीच स्थित था।
यदि बहादुरशाह मेवाड़ पर अधिकार स्थापित कर लेता तो वह मुगल सम्राज्य की सीमा पर पहुँच जाता और सीधे मुगल साम्राज्य पर आक्रमण कर सकता था। बहादुरशाह ने हुमायूँ केे शत्रु शेरखाँ के साथ गठजोड़ कर लिया था और हुमायूँ के विरुद्ध उसकी सहायता कर रहा था।
बहादुरशाह ने बंगाल के शासक के साथ भी सम्पर्क स्थापित कर लिया था जो हुमायूँ के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा था। वास्तव में बहादुरशाह का दरबार हुमायूँ के शत्रुओं की शरण स्थली बन गया था। बहुत से विद्रोही अफगान तथा असंतुष्ट मुगल अमीर बहादुरशाह के दरबार में चले गये थे।
इनमें हुमायूँ का बहनोई मुहम्मद जमाँ मिर्जा भी था जिसने हुमायूूूँ के विरुद्ध विद्रोह कर रखा था और वह बयाना के कारागार से भागकर बहादुरशाह के पास पहुँचा था। इन अमीरों ने बहादुरशाह को समझाया कि हुमायूँ एक निकम्मा शासक है और उसकी सेना में कोई दम नहीं है। इसलिये उससे दिल्ली का तख्त प्राप्त करना कठिन नहीं है।
बहादुरशाह ने हुमायूँ के विरुद्ध हाथ आजमाने का निर्णय कर लिया। बहादुरशाह को पुर्तगालियों से भी सैनिक सहायता का आश्वासन मिल गया। बहादुरशाह की गतिविधियां देखकर हुमायूँ भी समझ गया था कि उससे युद्ध होना अनिवार्य है। उसने बहादुरशाह को पत्र लिखा कि वह उसके शत्रुओं को, विशेषकर मुहम्मद जमाँ मिर्जा को अपने यहाँ शरण नहीं दे। बहाुदरशाह ने हुमायूँ को संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। इस पर हुमायूँ ने उससे युद्ध करने का निश्चय किया।
हुमायूँ का प्रस्थान
1535 ई. में हुमायूं अपनी सेना के साथ आगरा से प्रस्थान करके ग्वालियर पहुँच गया और वहीं से बहादुरशाह की गतिविधियों पर दृष्टि रखने लगा। थोड़े दिनों बाद हुमायूँ और आगे बढ़ा तथा उज्जैन पहुँच गया। इन दिनों बहादुरशाह चित्तौड़ का घेरा डाले हुए था।
कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा विक्रमादित्य की माता, रानी कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजकर उससे सहायता मांगी। यह हुमायूँ के लिए स्वर्णिम अवसर था परन्तु हुमायूं ने इससे कोई लाभ नहीं उठाया। उसने यह सोचकर कि बहादुरशाह काफिरों से युद्ध कर रहा है और यदि हुमायूँ ने काफिरों की सहायता की तो उसे कयामत के समय उत्तरदायी होना पड़ेगा, राजपूतों की कोई सहायता नहीं की।
इसका परिणाम यह हुआ कि चित्तौड़ पर बहादुरशाह का अधिकार स्थापित हो गया और उसकी शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई। उसने चित्तौड़ को खूब लूटा तथा अपार धन सम्पत्ति प्राप्त की।
बहादुरशाह पर आक्रमण
अब हुमायूँ की भी आँखें खुलीं और वह बहादुरशाह पर आक्रमण करने के लिए वह आगे बढ़ा। बहादुरशाह ने हुमायूँ का मार्ग रोकने के लिये मन्दसौर में चारों ओर से खाइयाँ खुदवा कर मोर्चा बांधा। उसने अपने तोपखाने को सामने करके अपनी सेना उसके पीछे छिपा दी। हुमायूँ को इसका पता लग गया।
इसलिये हुमायूँ के अश्वारोहियों ने दूर से ही बहादुरशाह की सेना पर बाण वर्षा आरम्भ की तथा बहादुरशाह के तोपखाने को बेकार कर दिया। हुमायूँ ने उसके रसद मार्ग को भी काट दिया। इस पर बहादुरशाह मन्दसौर से भाग कर माण्डू चला गया। मुगल सेना ने तेजी से बहादुरशाह का पीछा किया।
बहादुरशाह केवल पाँच स्वामिभक्त अनुयायियों के साथ चम्पानेर भाग गया। माण्डू के दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया। चम्पानेर पहुँचने पर बहादुरशाह ने अपने हरम की स्त्रियों तथा अपने खजाने को ड्यू भेज दिया जो पुर्तगालियों के अधिकार में था। इसके बाद बहादुरशाह ने चम्पानेर में आग लगवा दी जिससे शत्रु कोई लाभ नहीं उठा सके।
इसके बाद बहादुरशाह खम्भात भाग गया। हुमायूँ ने एक हजार अश्वारोहियों के साथ उसका पीछा किया। बहादुरशाह भयभीत होकर ड्यू भाग गया और उसने पुर्तगालियों के यहाँ शरण ली। हुमायूँ भी खम्भात पहुँच गया तथा उसे लूटकर जलवा दिया। हुमायूँ ने खम्भात में रहकर पुर्तगालियों के साथ मैत्री स्थापित करने का प्रयत्न किया परन्तु वह सफल नहीं हो सका। पुर्तगालियों ने बहादुरशाह के साथ गठबन्धन कर लिया और उसकी सहायता करने का वचन दिया।
हुमायूँ का गुजरात पर अधिकार
हुमायूं खम्भात से चम्पानेर लौट आया। उसने चम्पानेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया जहाँ से उसे अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई। हुमायूँ ने इस सम्पत्ति को भोग-विलास में व्यय कर दिया। थोड़े ही दिनों बाद हुमायूँ चम्पानेर से अहमदाबाद की ओर बढ़ा और गुजरात पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ ने अस्करी मिर्जा को गुजरात का शासक नियुक्त किया। गुजरात की व्यवस्था करने के उपरान्त हुमायूँ ड्यू की ओर बढ़ा परन्तु इसी समय उसे उत्तरी भारत में विद्रोह होने की सूचना मिली। इसलिये उसने आगरा के लिए प्रस्थान किया।
बहादुरशाह की मृत्यु
हुमायूँ के लौटते ही बहादुरशाह तथा उसके समर्थकों ने मुगलों को गुजरात से खदेड़ना आरम्भ कर दिया। अस्करी ने चम्पानेर के शासक तार्दी बेग से सहायता मांगी किंतु तार्दीबेग ने अस्करी की सहायता करने से मना कर दिया। हुमायूँ भी अस्करी की सहायता के लिये सेना नहीं भेज सका।
इसलिये बहादुरशाह ने गुजरात तथा मालवा पर फिर से अधिकार कर लिया किंतु वह इस विजय का बहुत दिनों तक उपभोग नहीं कर सका। फरवरी 1537 में जब वह ड्यू के पुर्तगाली गवर्नर से मिलने गया, तब समुद्र में डूब कर मर गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हुमायूँ की सामरिक उपलब्धियाँ मध्यकालीन इतिहास में प्रमुख स्थान रखती हैं।
मूल आलेख – मुगल सल्तनत की अस्थिरता का युग
हुमायूँ की सामरिक उपलब्धियाँ