Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 24 (ब) : मुगल सल्तनत की अस्थिरता का युग

नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ

हुमायूँ की विफलता के कारण

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि जिस साम्राज्य की स्थापना बाबर ने पानीपत तथा घाघरा के युद्धों में अफगानों को परास्त करके की थी, उसे हुमायूँ ने चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में शेरशाह से पराजित होकर खो दिया। हुमायूँ अनुभवी सेनानायक था, फिर भी वह शेरशाह के समक्ष असफल हो गया। हुमायूँ की विफलता के कई कारण थे-

(1.) मिर्जाओं का असहयोग: मुहम्मद जमान मिर्जा, मुहम्मद सुल्तान मिर्जा, मेंहदी ख्वाजा आदि तैमूरवंशीय मिर्जा वर्ग के अमीर, बाबर के सहयोगी रहे थे तथा स्वयं को बाबर के समान ही मंगोलों के तख्त का अधिकारी समझते थे। उनमें से अधिकतर मिर्जाओं ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया तथा हुमायूँ के विरोधियों के साथ मिल गये। इस कारण हुमायूँ की सैनिक शक्ति क्षीण हो गई और वह लम्बे समय तक अपने शत्रुओं का सामना नहीं कर सका।

(2.) भाइयों का असहयोग: इतिहासकारों ने हुमायूँ की विफलता का सबसे बड़ा कारण उसके भाइयों का असहयोग करना बताया है। हुमायूँ ने अपने राज्य का बहुत बड़ा हिस्सा अपने भाइयों को दे दिया था किंतु भाइयों ने समय पर हुमायूँ की सहायता नहीं की। परन्तु इतिहासकारों की यह धारणा सही नहीं है क्योंकि हुमायूँ के शासन के प्रथम दस वर्षों में कामरान ने उसके साथ किसी प्रकार की शत्रुता नहीं रखी वरन् वह उसका सम्मान करता रहा और उसके प्रति निष्ठावान बना रहा। जब मिर्जा हिन्दाल ने विद्रोह किया था तब कामरान लाहौर से आगरा चला आया था और हिन्दाल को सही रास्ते पर लाने में हुमायूँ की सहायता की थी। कन्नौज के युद्ध के बाद, कामरान का हुमायूँ में विश्वास नहीं रह गया और उसका साथ छोड़ दिया। जब हुमायूँ ने अपने साम्राज्य को खो दिया तब कामरान का अपने साम्राज्य की सुरक्षा का प्रयत्न करना स्वाभाविक था। अन्य भाइयों का भी हुमायूँ की विफलता के लिए बहुत कम उत्तरदायित्त्व है। मिर्जा अस्करी ने हुमायूँ के विरुद्ध कभी विद्रोह नहीं किया और वह समस्त बड़े युद्धों में हुमायूँ के साथ रहा। कन्नौज के युद्ध के बाद वह भी कामरान के साथ चला गया था। हिन्दाल ने हुमायूँ के विरुद्ध अवश्य विद्रोह किया था परन्तु ऐसा केवल एक बार हुआ था। इसमें संदेह नहीं है कि चौसा के युद्ध में हुमायूँ की पराजय का एक बहुत बड़ा कारण हिन्दाल का बिहार से आगरा भाग जाना था। हिन्दाल ने न कभी इसके पहले और न कभी इसके बाद ही हुमायूँ के साथ किसी प्रकार का विश्वासघात किया वरन् उसन उसकी सहायता ही की और उसी के लिये अपने प्राण भी दिये।

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(3.) रिक्त राजकोष: इतिहासकारों ने हुमायूँ के रिक्त राजकोष को भी हुमायूँ की असफलताओं के लिये जिम्मेदार माना है। बाबर ने दिल्ली एवं आगरा से प्राप्त बहुत सारा धन समरकंद, बुखारा एवं फरगना में अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों को भिजवा दिया। जिससे सेना के लिये धन की कमी हो गई। जब हुमायूँ को शेर खाँ से लड़ने के लिये सेना के रसद एवं आयुध की आवश्यकता थी, तब हुमायूँ को कहीं से आर्थिक सहयोग नहीं मिला। स्वयं हुमायूँ को चम्पानेर से जो धन मिला था, वह धन उसने आमोद-प्रमोद में लुटा दिया।

(4.) हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताएँ: इतिहासकारों ने हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं को उसकी विफलता का कारण बताया है। उनके अनुसार हुमायूँ अफीमची, कोमल स्वभाव का तथा काहिल था परन्तु यह धारण ठीक नहीं है। हुमायूँ वीर, साहसी तथा शान्त स्वभाव का व्यक्ति था। उसमें उच्चकोटि की कार्य क्षमता तथा क्रियाशीलता थी। वह दयालु, सहृदय, बुद्धिमान, सभ्य एवं शिष्ट था। वह अनुभवी सेना-नायक था। उसमें सफल तथा लोकप्रिय शासक बनने के समस्त गुण विद्यमान थे। जहाँ तक अफीम के व्यसन का आरोप है वह किसी भी नशे का इतना व्यसनी न था कि उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाये। उसका पिता बाबर उससे कहीं अधिक मादक द्रव्यों का सेवन करता था। इसलिये हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं को उसकी विफलताओं के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

(5.) विजय के उपरान्त आमोद-प्रमोद: हुमायूँ पर यह आरोप लगाया जाता है कि विजय प्राप्त करने के उपरान्त वह आमोद-प्रमोद में लग जाता था और अपने मूल्यवान समय को खो देता था। गौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने अमूल्य समय को इसी प्रकार नष्ट किया था परन्तु वास्तविकता यह है कि हुमायूँ बंगाल में परिस्थितियों से बाध्य होकर रुका था न कि भोग-विलास के लिए। इसलिये उसके आमोद-प्रमोद को हम उसकी विफलताओं का कारण नहीं मान सकते।

(6.) हुमायूँ की धर्मान्धता: हुमायूँ ने उस काल के मुस्लिम शासकों की तरह धार्मिक कट्टरता का परिचय दिया तथा राजपूतों के साथ मित्रता करने का प्रयास नहीं किया। जब मेवाड़ की राजमाता कर्णावती ने राखी भिजवाकर हुमायूँ की सहायता मांगी तो हुमायूँ के लिये बड़ा अच्छा अवसर था कि वह मेवाड़ की सहायता करके राजपूतों का विश्वास जीत लेता किंतु उसने काफिरों की मदद करना उचित नहीं समझा। यदि उसने राजपूतों को मित्र बनाया होता तो इन राजपूतों ने न केवल गुजरात के बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध अपितु अफगानों एवं शेर खाँ के विरुद्ध भी हुमायूँ की बहुत सहायता की होती।

(7.) शेर खाँ तथा बहादुरशाह का एक साथ सामना: हुमायूँ की विफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि उसे शेरशाह तथा बहादुरशाह के विरुद्ध एक साथ संघर्ष करना पड़ा था। हुमायूँ में दोनों के विरुद्ध एक साथ लोहा लेने की क्षमता नहीं थी। बहादुरशाह ने धन से शेरशाह की सहायता की थी जिससे उसकी शक्ति बहुत बढ़ गई थी।

(8.) शेरशाह की योजना: यदि बहादुरशाह की सहायता न भी मिली होती तो भी शेरशाह अकेले ही हुमायूँ को विफल बनाने के लिए पर्याप्त था। वह हुमायूँ से अधिक अनुभवी, कूटनीतिज्ञ तथा कुशल राजनीतिज्ञ था। वह हुमायूँ से अधिक चालाक तथा अवसरवादी था। संगठन करने की शक्ति भी शेरशाह में हुमायूँ से अधिक थी। इसलिये शेरशाह के विरुद्ध हुमायूँ का विफल हो जाना स्वाभाविक था।

(9.) अफगानों द्वारा अफगान अस्मिता का युद्ध: शेरशाह के नेतृत्व में अफगानों ने जो युद्ध आरम्भ किया उसने अफगानों की अस्मिता के युद्ध का रूप ले लिया। यह युद्ध अफगानों के उन्मूलित राज्य की पुनर्स्थापना का युद्ध था। इसलिये अफगान सेना अंतिम सांस तक मरने-मारने को तैयार थी। उन्होंने अत्यन्त संगठित होेकर मुगलों से युद्ध किया जबकि हुमायूँ की सेना वेतन के लिये लड़ रही थी और उसमें अपने बादशाह के प्रति अधिक निष्ठा नहीं थी। इसी कारण अफगान मुगलों को परास्त करके अफगान साम्राज्य को पुनर्स्थापित करने में सफल हुए।

(10.) तोपखाने के कुशल प्रयोग का अभाव: हुमायूँ की विफलता का एक यह भी कारण था कि वह अपने पिता बाबर की भाँति तोपखाने का कुशल प्रयोग नहीं कर सका क्योंकि अफगानों के पास भी तोपखाना था और वह मुगलों के तोपखाने से कहीं अधिक अच्छा हो गया था। इसीलिये लाख प्रयत्न करने पर भी हुमायूँ का तोपची मुस्तफा रूमी खाँ पाँच महिने तक चुनार के दुर्ग को नहीं भेद सका। शेर खाँ को अपनी स्थिति दृढ़ करने के लिये समय मिल गया तथा परिस्थितियाँ हुमायूँ के हाथ से निकल गईं।

(11.) अफगानों को तुलगमा का ज्ञान: भारत में बाबर की विजय का एक बहुत बड़ा कारण उसके द्वारा अपनाई गई तुलगमा रणपद्धति थी। बाबर अपनी सेना के दोनों किनारों पर तुलगमा सैनिक रखता था जो उस समय शत्रु को पीछे से घेर लेते थे जब शत्रु पूरी तरह से सामने वाली सेना से युद्ध करने में संलग्न होता था। हुमायूँ तुलगमा रणपद्धति का लाभ नहीं उठा सका क्योंकि अफगान लोग भी इस रणपद्धति को समझ गये थे और पहले से ही अपनी सेना की सुरक्षा की व्यवस्था कर लेते थे।

(12.) हुमायूँ की विफल आर्थिक नीति: हुमायूँ की विफलता का एक बहुत बड़ा कारण उसकी विफल आर्थिक नीति थी। उसने राजकोष में निरंतर धन आने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की थी तथा बहादुरशाह एवं शेर खाँ जैसे बड़े शत्रुओं के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया था। हुमायूँ जब बंगाल में था तब उसे किसी भी तरफ से आर्थिक सहायता नहीं मिली। इस कारण सेना को युद्ध एवं रसद सामग्री की कमी का सामना करना पड़ा। धनाभाव के कारण हुमायूँ के सहायकों का उत्साह भंग हो गया।

(13.) चुनार पर अधिकार करने में विलम्ब: अनेक इतिहासकारों के अनुसार चुनार जीतने में विलम्ब हो जाने के कारण ही हुमायूँ को अपना साम्राज्य खो देना पड़ा। चुनार पर विजय प्राप्त करने में हुमायूँ को 6 माह से अधिक समय लग गया और उसकी सारी सेना चुनार में फँसी रही। इस बीच शेर खाँ ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और बंगाल को रौंदकर अपने साधनों में वृद्धि कर ली।

(14.) बंगाल से प्रस्थान करने में विलम्ब: बंगाल में शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित करने, सेना को विश्राम देने तथा युद्ध सामग्री एकत्रित करने के लिये हुमायूँ को लगभग चार माह तक बंगाल में रुकना पड़ा। इस विलम्ब के परिणाम बड़े घातक हुए। इस समय में शेर खाँ ने बंगाल से आगरा जाने वाले मार्ग पर अधिकार कर लिया और हुमायूँ के रसद प्राप्ति के मार्ग को काट दिया। इसी समय हिन्दाल भी आगरा भाग गया। चौसा युद्ध में हुमायूँ की पराजय का यही सबसे बड़ा कारण था।

(15.) हुमायूँ का विश्वासी स्वभाव: हुमायूँ सबका विश्वास कर लेता था। इससे उसे अनेक बार धोखा खाना पड़ा। यदि वह शेर खाँ से हुई संधियों के समय सावधानी से काम लेता तो संभवतः उसे चौसा युद्ध में विकट पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। लेनपूल ने लिखा है कि हुमायूँ की असफलता का मुख्य कारण उसकी सुंदर परन्तु विवेकहीन दयालुता थी।

(16.) हुमायूँ का दुर्भाग्य: अनेक स्थलों पर भाग्य ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया। यदि बंगाल का शासक महमूदशाह थोड़े समय तक शेर खाँ से अपने राज्य की रक्षा कर सका होता तो पूर्व की स्थिति हुमायूँ के पक्ष में हो गयी होती परन्तु महमूदशाह की विफलता ने हुमायूँ को कठिनाई में डाल दिया। इसी प्रकार कन्नौज के युद्ध के समय मई महीने के मध्य में अचानक अत्यधिक वर्षा हुई जिससे हुमायूँ का खेमा पानी से भर गया। जब उसने अपनी सेना को ऊँचे स्थान पर ले जाने का प्रयास किया तभी शेर खाँ ने उस पर आक्रमण कर दिया।

(17.) हुमायूँ की कमजोरी: हुमायूँ को जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था उनमें सफलता प्राप्त करने के लिए कुछ विशिष्ट गुणों की आवश्यकता थी परन्तु हुमायूं में उन गुणों का अभाव था। इसके विपरीत शेरशाह में वे गुण विद्यमान थे। हुमायूँ एक समय में केवल एक ही योजना बनाकर उस पर अमल करता था किंतु जब मूल योजना विफल हो जाती थी और नई परिस्थिति उत्पन्न हो जाती थी तब वह तेजी से नये निर्णय नहीं कर पाता था। हुमायूँ बिना सोचे-समझे स्वयं को नई समस्याओं में उलझा लेता था और उनका सामना करने के लिए अपनी क्षमता का सही मूल्यांकन नहीं कर पाता था। उसे गुजरात तथा बंगाल जैसे दूरस्थ प्रदेशों में जाकर युद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। मालवा तथा बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ बना लेने के उपरान्त वह इन सुदूरस्थ प्रान्तों का अभियान कर सकता था। हुमायूँ को मनुष्य तथा उसकी नीयत की बहुत कम परख थी। इसलिये वह प्रायः धोखा खा जाता था। उसमें राजनीतिक चालाकी तथा कूटनीति का अभाव था। इस कारण वह उलझी हुई समस्याओं के सुलझाने की क्षमता नहीं रखता था। इन दुर्बलताओं के कारण हुमायूँ को विफलता का सामना करना पड़ा। हुमायूँ की दुर्बलताओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘उसकी सामान्य काहिली तथा उसकी अपार उदारता प्रायः उसकी विजय के फलों को नष्ट कर देती थी।’ लेनपूल ने लिखा है- ‘उसमें चरित्र तथा दृढ़ता का अभाव था। वह निरन्तर प्रयास करने में असमर्थ था और प्रायः विजय के अवसर पर अपने हरम में व्यसन में मग्न हो जाता था और अफीम के स्वर्गलोक में अपने मूल्यवान समय को व्यतीत कर देता था।’

हुमायूँ का भारत से पलायन

सिंध प्रवास

हुमायूँ ने हिन्दाल के साथ लाहौर से प्रस्थान कर सिन्ध में प्रवेश किया परन्तु दोनों भाई वहाँ अधिक दिनों तक एक साथ नहीं रह सके। हुमायूँ का हिन्दाल के धर्मगुरु की कन्या हमीदा बानू के साथ प्रेम हो गया जिसके साथ उसने 31 अगस्त 1541 को विवाह कर लिया। इससे हिन्दाल हुमायूं से अप्रसन्न हो गया और उसका साथ छोड़कर कन्दहार चला गया। हुमायूँ के साथियों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगी। इसलिये हुमायूँ का सिन्ध में रहना खतरे से खाली नहीं रहा। हुमायूँ ने मारवाड़ के शासक राजा मालदेव के यहाँ जाने का निश्चय किया परन्तु जब वह जोधपुर के निकट पहुँचा तब उसे यह ज्ञात हुआ कि मालदेव शेरशाह से मिल गया है और हुमायूँ को कैद कर लेने का वचन दे चुका है। इस सूचना से हुमायूं आतंकित हो उठा और वहाँ से जैसलमेर होता हुआ अमरकोट की तरफ भाग खड़ा हुआ।

अमरकोट प्रवास

22 अगस्त 1542 को हुमायूँ अत्यंत दयनीय दशा में अमरकोट पहुँचा। अमरकोट के राणा ने हुमायूँ का स्वागत किया और उसे हर प्रकार से सहायता देने का वचन दिया। हुमायूूँँ लगभग डेढ़ महीने तक अमरकोट में रहा। यहीं पर 14 अक्टूबर 1542 को हमीदा बानू की कोख से अकबर का जन्म हुआ। कई महीने तक सिन्ध में भटकने के बाद हुमायूँ ने जुलाई 1543 में कन्दहार के लिए प्रस्थान किया।

भारत से निष्कासन

हुमायूँ अभी कन्दहार के मार्ग में था कि उसे सूचना मिली की मिर्जा अस्करी, कामरान की आज्ञा से उसे कैद करने आ रहा है। इस पर हुमायूँ ने अपने नवजात शिशु को अपने विश्वसनीय आदमियों के संरक्षण में छोड़कर अपनी पत्नी तथा बाईस स्वामिभक्त अनुचरों के साथ दिसम्बर 1543 में गजनी के मार्ग से फारस के लिए प्रस्थान कर दिया। इन स्वामिभक्त सेवकों में बैरमखाँ भी था। अस्करी ने हुमायूँ को चुपचाप चले जाने दिया तथा उसका पीछा नहीं किया। इस प्रकार हुमायूँ भारत की सीमाओं से बाहर चला गया।

फारस प्रवास

हुमायूँ ने मार्ग में ही एक पत्र फारस के शाह तहमास्प को भिजवाकर अपने फारस आने की सूचना भिजवाई। इस पर तहमास्प ने अपने अफसरों तथा सूबेदारों को आदेश भिजवाया कि हुमायूं का फारस राज्य में हर स्थान पर राजसी स्वागत किया जाय। फलतः जब हुमायूँ सीस्तान पहुँचा तब वहाँ के गवर्नर ने हुमायूँ का बड़ा स्वागत किया। हुमायूँ सीस्तान से हिरात तथा नशसीमा होता हुआ फारस पहुँचा। जुलाई 1544 में हुमायूँ फारस के शाह तहमास्प से मिला। फारस में हुमायूँ अधिक प्रसन्न नहीं रहता था। हुमायूँ एक सुन्नी मुसलमान था परन्तु फारस का शाह शिया था। इसलिये एक शिया की शरण में रहना हुमायूँ के लिए पीड़ाजनक था। हुमायूँ को पारसीकों जैसे कपड़े पहनने पड़ते थे तथा उन्हीं की तरह व्यवहार करना पड़ता था। शाह का भाई भी हुमायूँ से वैमनस्य रखने लगा। कुछ लोगों ने हुमायूँ के विरुद्ध तहमास्प के कान भरने आरम्भ किये इससे वह हुमायूं से अप्रसन्न हो गया। यहाँ तक कि हुमायूँ की जान खतरे में पड़ गई। इस स्थिति में शाह की एक बहिन ने हुमायूँ की बड़ी सहायता की।

शाह द्वारा सैनिक सहायता

तहमास्प की बहिन ने तहमास्प को हुमायूँ की सहायता करने के लिये तैयार किया ताकि हुमायूँ फिर से अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त कर सके। शाह ने हुमायूँ को शाहजादे मुराद की अध्यक्षता में 13 हजार अश्वारोही दिये ताकि हुमायूँ कन्दहार पर आक्रमण कर सके। इस सहायता के बदले में हुमायूँ से यह वचन लिया गया कि वह शाह की बहिन की लड़की से विवाह करेगा और जब फारस की सेना कन्दहार, गजनी तथा काबुल जीत कर हुमायूं को सौंप देगी, तब हुमायूँ कन्दहार फारस के शाह को लौटा देगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धार्मिक, साम्प्रदायिक अथवा राजनीतिक शर्त नहीं रखी गई।

हुमायूँ की भारत वापसी

कंदहार पर अधिकार

हुमायूँ ने फारस के शाह की सेना के साथ भारत के लिए प्रस्थान किया। उसने सबसे पहले कन्दहार पर आक्रमण किया। कंदहार की सुरक्षा कामरान ने मिर्जा अस्करी को सौंप रखी थी। कन्दहार का घेरा लगभग पाँच माह तक चला। 3 सितम्बर 1545 को अस्करी ने कन्दहार का दुर्ग हुमायूँ को समर्पित कर दिया। फारस के शहजादे ने हुमायूँ से यह माँग की कि वह कन्दहार को, कन्दहार से प्राप्त कोष तथा अपने भाई अस्करी के साथ फारस के शाह को समर्पित कर दे। वे लोग मिर्जा अस्करी को कैद करके शाह के पास भेजना चाहते थे। हुमायूँ ने फारस के शहजादे की प्रथम दो मांगें तो स्वीकार कर लीं परन्तु तीसरी माँग अस्वीकार कर दी क्योंकि इससे बाबर के परिवार की प्रतिष्ठा पर बहुत बड़ा धक्का लगता। इस पर हुमायूँ का फारस वालों से झगड़ा हो गया। हुमायूं ने फारस वालों को वहाँ से मार भगाया और कन्दहार पर अधिकार स्थापित कर लिया। हुमायूँ ने फारस के शाह को प्रसन्न करने के लिए शिया मुसलमान बैरमखाँ को कन्दहार का गवर्नर बना दिया।

फारस वालों से झगड़ा: कुछ इतिहासकारों ने कन्दहार प्रकरण में हुमायूँ पर विश्वासघात करने का आरोप लगाया है परन्तु यह आरोप उचित नहीं हैं। हुमायूँ ने शाह को इस शर्त पर कन्दहार देने का वचन दिया था कि शाह हुमायूँ को काबुल, गजनी तथा बदख्शाँ जीतने में सहायता करेगा। इसलिये जब तक इन तीनों स्थानों पर हुमायूँ का अधिकार नहीं होता तब तक फारस के द्वारा हुमायूँ से कन्दहार माँगना उचित नहीं था। फारस के शासक शिया थे जबकि कन्दहार की जनता सुन्नी थी। इस कारण फारस के शिया मुसलमान कन्दहार के सुन्नी मुसलमानों पर अत्याचार करते थे। इसलिये कन्दहार की जनता उन्हें घोर घृणा की दृष्टि से देखती थी। ऐसी स्थिति में कन्दहार फारस वालों को सौंपना उचित नहीं था। इतना ही नहीं, जब तक हुमायूँ अफगानिस्तान की विजय में संलग्न था तब तक के लिए फारस के शाह द्वारा हुमायूँ के परिवार को दुर्ग में रहने की अनुमति नहीं दी गई। इससे हुमायूँ को बड़ी पीड़ा हुई। हुमायूँ को एक सुरक्षित आधार की आवश्यकता थी जहाँ से वह अपने युद्धों का संचालन कर सकता। उसकी इस आवश्यकता की पूर्ति कन्दहार ही कर सकता था। अतः हुमायूँ का फारस के शाह को कन्दहार नहीं देना सर्वथा उचित था।

काबुल तथा बदख्शाँ पर अधिकार

हुमायूँ ने कन्दहार को आधार बनाकर काबुल की ओर ध्यान दिया। उन दिनों हिन्दाल काबुल में था। वह कामरान का साथ छोड़कर हुमायूँ से आ मिला। कामरान के अन्य साथी भी कामरान का साथ छोड़कर हुमायूँ की तरफ आ गये। इससे कामरान भयभीत हो गया और काबुल से सिन्ध भाग गया। नवम्बर 1545 में हुमायूँ ने काबुल में प्रवेश किया जहाँ पर वह अपने तीन वर्षीय बालक अकबर से मिला। हुमायूँ ने बदख्शाँ पर भी अधिकार कर लिया। यहाँ पर हुमायूँ बीमार हो गया। कुछ लोगों ने उसकी मृत्यु की अफवाह उड़ा दी। जब कामरान को यह सूचना मिली तो वह सिन्ध से चला आया और उसने फिर से काबुल पर अधिकार कर लिया। स्वस्थ हो जाने पर हुमायूँ ने बदख्शाँ छोड़ दिया और काबुल का घेरा डाल दिया। कामरान ने हुमायूं तथा उसके अनुयायियों के परिवारों पर घोर अत्याचार किया तथा उन्हें तोप से उड़ाने के लिये दीवार पर लटका दिया गया। हुमायूँ के पुत्र अकबर को भी दीवार से लटका दिया गया परन्तु उसे समय पर पहचान लिया गया और तोप का मुँह फेर कर उसकी जान बचाई गई।

अप्रैल 1547 में हुमायूँ ने पुनः काबुल पर अधिकार कर लिया परन्तु कामरान ने संघर्ष जारी रखा। इन्हीं संघर्ष के दौरान एक रात को मिर्जा हिन्दाल को मार डाला गया। अन्त में कामरान घक्कर प्रदेश को भाग गया। वहाँ के शासक ने कामरान को पकड़कर हुमायूँ को समर्पित कर दिया। समस्त अमीरों की राय थी कि कामरान की हत्या करवा दी जाय परन्तु हुमायूँ इसके लिए तैयार नहीं हुआ। इसलिये उसे अन्धा कर देने का निश्चय किया गया। दिसम्बर 1551 में कामरान को अन्धा कर दिया गया। इसके बाद उसे अपनी पत्नी तथा नौकर के साथ मक्का जाने की आज्ञा दे दी गई जहाँ 5 अक्टूबर 1557 को कामरान की मृत्यु हो गई। मिर्जा अस्करी को भी मक्का जाने की अनुमति दे दी गई।

भारत पर पुनर्विजय

अब बाबर के चार पुत्रों में से एक, हिन्दाल मारा जा चुका था, दो पुत्र  कामरान तथा अस्करी मक्का जा चुके थे। इस कारण भारत में अब बाबर के पुत्रों में से अकेला हुमायूँ बचा था। उसे अपने भाइयों के विरोध से पूरी तरह छुटकारा मिल चुका था। उसके पास एक सुसज्जित तथा सुदृढ़ सेना थी। हुमायूँ के अमीर भी उसके आज्ञाकारी बन गये थे। इसलिये उसने भारत को फिर से जीतने का निश्चय किया। भारत की परिस्थितियाँ अब हुमायूं के अनुकूल हो गई थीं क्योंकि शेर खाँ की मृत्यु हो चुकी थी तथा उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के शासन में अफगान राज्य पतनोन्मुख हो चला था। 12 नवम्बर 1554 को हुमायूँ ने काबुल से प्रस्थान किया। 31 दिसम्बर को वह सिन्धु नदी के तट पर पहुँचा जहाँ बैरमखाँ भी उससे आ मिला। हुमायूँ ने सिन्धु नदी को पार करके बिना किसी कठिनाई के रोहतास दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 24 फरवरी 1555 को हुमायूँ लाहौर पहुँच गया और आसानी से उस पर अधिकार कर लिया। लाहौर से हुमायूं की सेनाएँ आगे बढ़ीं। 15 मई 1555 को मच्छीवारा नामक स्थान पर अफगानों एवं मंगोलों में बड़ा युद्ध हुआ जिसमें हुमायूँ विजयी रहा।

23 जून 1555 को सरहिन्द के मैदान में मुगल तथा अफगान सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ। इस युद्ध में भी अफगान सेना परास्त हो गई और हुमायूँ को पूर्ण विजय प्राप्त हो गई। सरहिन्द की विजय ने हुमायूँ के लिये दिल्ली का द्वार खोल दिया। वह समाना के मार्ग से दिल्ली की ओर बढ़ा। 20 जुलाई 1555 को हुमायूँ ने सलीमगढ़ दुर्ग में प्रवेश किया जो हुमायूँ के ‘दीनपनाह’ के चारों ओर बनाया गया था। इस प्रकार हुमायूँ ने अपने पूर्वजों के खोये हुए साम्राज्य को पुनः प्राप्त कर लिया।

हुमायूँ के अन्तिम दिवस

 यद्यपि हुमायूँ ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया था परन्तु अभी उसका कार्य पूरा नहीं हुआ था। पंजाब की जनता उससे सन्तुष्ट नहीं थी। सिकन्दर सूरी परास्त होकर शिवालिक की पहाड़ियों में चला गया था और अपनी शक्ति को पुनः संगठित करने में लगा हुआ था। अन्य प्रान्तों में भी अफगान सरदार बड़े शक्तिशाली थे और बिना संघर्ष किये हुमायूँ की अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। इसलिये भारत विजय का कार्य अभी अपूर्ण ही था किंतु अब उसके सामने उस प्रकार की कठिनाइयाँ नहीं थी जिस प्रकार की उसके प्रारम्भिक जीवन में थीं। अब उसे बहाहुरशाह अथवा शेरशाह जैसे प्रबल शत्रुओं एवं अपने इर्ष्यालु भाइयों का सामना नहीं करना था। उसके अमीर भी उसके प्रति स्वामिभक्त बन गये थे और विश्वासघात की अधिक सम्भावना नहीं थी। भंयकर मुसीबतों का सामना करने से हुमायूँ में दृढ़ता आ गई थी और उसका अनुभव भी बढ़ गया था। प्रशासकीय क्षेत्र में उसे किसी नई रचना की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि शेरशाह ने बड़ी ही व्यवस्थित शासन व्यवस्था की स्थापना कर दी थी। इसलिये भारत विजय के कार्य को पूरा करना हुमायूँ के लिए असाध्य कार्य नहीं था। 

हुमायूं की मृत्यु

24 जनवरी 1556 को हुमायूँ शीतल वायु का आनन्द लेने के लिए अपने दिल्ली  स्थित पुस्तकालय की छत पर गया। शाम को जब वह नीचे उतर रहा था और सीढ़ी के दूसरे डण्डे पर था कि उसे अजान की आवाज सुनायी दी। वह जहाँ था वहीं पर बैठ गया परन्तु उसका पैर फिसल गया और वह सिर के बल गिर पड़ा। उसके सिर में गम्भीर चोट लगी जिसके कारण रविवार 26 जनवरी 1556 को हुमायूँ की मृत्यु हो गई। उसकी इच्छा के अनुसार उसे काबुल में दफनाया गया।

हुमायूँ के चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन

हुमायूँ की अच्छाइयाँ

(1.) सुशिक्षित एवं सभ्य: व्यक्ति के रूप में हुमायूँ सरल हृदय, सहज विश्वासी, परिवार से प्रेम करने वाला, सुशिक्षित तथा सभ्य व्यक्ति था। वह उच्च कोटि का साहित्यानुरागी था और साहित्यकारों को आदर की दृष्टि से देखता था। उसकी बहिन गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा लिखा तथा उसके समकालीन मिर्जा हैदर ने तारीखे रशीदी नामक ग्रंथ लिखा। हुमायूँ को भूगोल, गणित, ज्योतिष तथा मुस्लिम धर्मशास्त्र में अच्छी रुचि थी। हुमायूँ ने दिल्ली में एक सुन्दर पुस्तकालय का निर्माण करवाया था जिसे दीनपनाह कहते थे। वह उच्च कोटि का दानशील था। उसकी उदारता से उसके शत्रु भी लाभान्वित हो जाते थे।

(2.) उपकार मानने वाला: बादशाहों में उपकार मानने और कृतज्ञता अनुभव करने की भावना प्रायः कम ही होती है किंतु हुमायूँ ने अपना उपकार करने वालों के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया। जिस भिश्ती ने कर्मनाशा नदी में हुमायूँ को डूबने से बचाया, उसके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये हुमायूँ ने उसे आधे दिन के लिये आगरा के तख्त पर बैठाया। उसने बैरमखाँ की सेवाओं का सम्मान करते हुए उसके शिया होते हुए भी उसे कन्दहार का शासक नियुक्त किया।

(3.) वचन का पक्का: हुमायूँ ने अपने पिता को दिये हुए वचन की पालना करने के लिये सदैव अपने विद्रोही भाइयों को क्षमा किया। हुमायूँ ने विद्रोही हिन्दाल को क्षमा करके अपने साथ मिला लिया। हुमायूँ ने फारस वालों को मिर्जा अस्करी सौंपने से मना कर दिया। जब हुमायूँ के अमीर कामरान के प्राण लेने की सलाह दे रहे थे, हुमायूँ ने उसे अंधा करके हज पर जाने की अनुमति दे दी। उसने अस्करी को भी मक्का चले जाने की अनुमति दे दी।

(4.) विलासी व्यक्ति: हुमायूँ विलासी प्रवृत्ति का शासक था। वह जीत के मैदान में ही जश्न मनाने लग जाता था। अफीम का शौकीन था। स्त्रियों के प्रति अनुरक्त रहता था। उसने कई विवाह किये। उसने हिन्दाल के विरोध के बावजूद हिन्दाल के धर्मगुरु की पुत्री हमीदा बानू से विवाह किया जो उम्र में बहुत छोटी थी तथा उसके कंधों तक भी मुश्किल से पहुँचती थी। हुमायूँ ने फारस के शाह की बहिन की पुत्री से भी विवाह किया जो शिया मुसलमान थी।

(5.) उत्साही योद्धा: अपनी परिस्थतियों एवं दुर्भाग्य के बावजूद हुमायूँ में सैनिक प्रतिभा विद्यमान थी। पानीपत के प्रथम युद्ध में वह सेना के एक पक्ष का सेनापति था और उसने सफलतापूर्वक युद्ध किया था। वह भारत के अन्य युद्धों में भी अपने पिता की तरफ से लड़ा। बाबर की मृत्यु के उपरान्त भी उसने राजपूतों तथा अफगानों से बड़ी सफलतापूर्वक युद्ध किये। वह मालवा तथा गुजरात के प्रचुर साधन सम्पन्न प्रान्तों के शासक बहादुरशाह को खदेड़ता ही चला गया था और उसके सम्पूर्ण राज्य पर अधिकार कर लिया था। उसने पूर्व के अफगानों को भी नतमस्तक कर दिया था। प्रारम्भ में शेर खाँ को भी हुमायूूूँ से लड़ने का साहस नहीं हुआ था और हुमायूँ तेजी से विजय करता हुआ गौड़ तक पहुँच गया किंतु चुनार को जीतने में विलम्ब तथा हिन्दाल के विद्रोह के कारण हुमायूँ को चौसा के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा।

(6.) हारी हुई बाजी जीतने वाला: फारस पहुँचकर भी हुमायूँ चुप नहीं बैठा। उसने फिर से भारत विजय की योजना बनाई तथा फारस के शाह की बहिन की सहायता से फारस से सैन्य सहायता प्राप्त की। जब हुमायूँ को फारस के शाह से सैन्य सहायता प्राप्त हो गई तब उसे कन्दहार जीतने में कोई कठिनाई नहीं हुई। उसने फारस वालों की अनुचित मांगें अस्वीकार करके अपने बल पर काबुल तथा बदख्शाँ को जीतते हुए भारत में प्रवेश किया। अफगास्तिान से दिल्ली तक के मार्ग में उसने स्थान-स्थान पर अफगान सेनाओं से युद्ध किये। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि हुमायूँ में सैनिक गुणों का अभाव नहीं था और वह हारी हुई बाजी को फिर से जीतने का हौंसला रखता था।

हुमायूँ की भूलें

हुमायूँ जीवन भर एक के बाद एक भूल करता रहा जिनके गंभीर परिणाम निकले।

(1.) साम्राज्य का बंटवारा: हुमायूँ ने सबसे बड़ी भूल अपने भाइयों में साम्राज्य का बंटवारा करके की। इससे आर्थिक आय का आधार समाप्त हो गया। सैनिक शक्ति कमजोर हो गई तथा भाई स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करने लगे।

(2.) साम्राज्य का असमान बंटवारा: हुमायूँ ने दूसरी भूल राज्य का असमान बंटवारा करके की। कामरान को उसने पंजाब, काबुल तथा कांधार जैसे विस्तृत प्रदेश दे दिये जबकि उसने अस्करी को सम्भल एवं हिन्दाल को अलवर का राज्य दिया। इस असमान वितरण से कामरान अत्यधिक शक्तिशाली हो गया और वह हुमायूँ से प्रतिस्पर्धा करने लगा। दूसरी ओर अस्करी एवं हिन्दाल छोटी जागीरें मिलने से असंतुष्ट हो गये।

(3.) मिर्जाओं को भाग जाने का अवसर देना: हुमायूँ ने असंतुष्ट एवं विद्रोही मिर्जाओं को भागकर गुजरात के बादशाह से मिल जाने का अवसर दिया। इससे बहादुरशाह की ताकत बहुत बढ़ गई। हुमायूँ ने यदि विद्रोही मिर्जाओं पर समय रहते नियंत्रण पा लिया होता तो उसे आगे चलकर इतने बुरे दिन नहीं देखने पड़ते।

(4.) कालिंजर अभियान: हुमायूँ का कालिंजर अभियान उसकी असफलताओं की शुरुआत कहा जा सकता है। इस अभियान से कोई परिणाम नहीं निकला। राज्य की सामरिक शक्ति क्षीण हुई, बादशाह की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। कालिंजर के राजा को अधीन नहीं किया जा सका। यहाँ तक कि उसे मित्र भी नहीं बनाया जा सका।

(5.) चुनार का दुर्ग शेर खाँ को सौंपना: हुमायूँ ने ही शेर खाँ को पनपने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई तथा उसकी बातों में आकर चुनार का दुर्ग उसी को सौंप दिया। इससे शेर खाँ एक सामान्य जागीरदार से विशेष सेनानायक बन गया।

(6.) चित्तौड़ की सहायता नहीं करना: गुजरात के शासक बहादुरशाह के विरुद्ध चित्तौड़ की सहायता का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करना, हुमायूँ की बड़ी भूल थी। इससे उसने राजपूतों को मित्र बनाने का अवसर खो दिया।

(7.) चम्पानेर का धन बर्बाद करना: चम्पानेर से हुमायूँ को पर्याप्त धन मिला था किंतु हुमायूँ ने उस धन को दावतें देने तथा आमोद-प्रमोद में नष्ट कर दिया।

(8.) सैनिक शिविर निचले स्थान पर लगाना: हुमायूँ ने कन्नौज में अपना सैनिक शिविर निचले स्थान पर लगाया। उसके दुर्भाग्य से मई के महीने में भी तेज बारिश हो गई और उसका सैनिक शिविर पानी से भर गया।

(9.) हमीदा बानू से विवाह: हमीदा बानू, हिन्दाल के धर्मगुरु की पुत्री थी। इसलिये हिन्दाल नहीं चाहता था कि हुमायूँ उससे विवाह करे किंतु हुमायूँ ने उसकी बात नहीं मानी और हिन्दाल नाराज होकर हुमायूँ का साथ छोड़ गया। हुमायूँ की लम्पटता देखकर अन्य साथी भी हुमायूँ का साथ छोड़ गये। इसका परिणाम यह हुआ कि हुमायूँ को उसके ही भाइयों ने भारत से बाहर भाग जाने पर विवश कर दिया।

(10.) कमजोर प्रशासक: हुमायूँ अपने शासन के आरम्भिक दस वर्षों में युद्धों में इतना व्यस्त रहा कि उसने प्रजा को अच्छा शासन देकर अपने अधिकारियों एवं जन सामान्य का विश्वास जीतने का प्रयास ही नहीं किया। जब वह दुबारा भारत का बादशाह बना तब तक शेरशाह ने ऐसे संगठित तथा व्यवस्थित शासन की स्थापना कर दी थी कि हुमायूं को प्रशासकीय प्रतिभा दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उसकी अकाल मृत्यु ने भी उसे इससे वंचित कर दिया। इस प्रकार हुमायूँ एक कमजोर प्रशासक सिद्ध हुआ।

हुमायूँ का दुर्भाग्य

हुमायूँ का शाब्दिक अर्थ होता है सौभाग्यशाली परन्तु वास्तव में वह सौभाग्यशाली नहीं था। उसके भाग्य ने बहुत कम अवसरों पर उसका साथ दिया। लेनपूल ने लिखा है- ‘एक बादशाह के रूप में वह असफल रहा। उसके नाम का अर्थ है सौभाग्यशाली परन्तु कोई भी दुर्भाग्यशाली व्यक्ति इतने गलत नाम से नहीं पुकारा गया है।’ भारत में उसके पिता ने जिस नये साम्राज्य की स्थापना की थी उसे खो देने का अपयश हुमायूँ को ही मिला। यद्यपि बाबर से हुमायूँ को एक सुसंगठित साम्राज्य प्राप्त नहीं हुआ था परन्तु उसे अपने पिता से मुगलों की विशाल एवं कुशल सेना अवश्य प्राप्त थी जिसकी सहायता से वह अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य को न केवल सुरक्षित रख सकता था अपितु उसमें वृद्धि भी कर सकता था। बाबर ने अफगानों तथा राजपूतों की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया था परन्तु हुमायूँ अपने पिता के साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख सका और अफगानों ने उसे परास्त करके एक बार फिर से भारत में अफगान राज्य की स्थापना कर दी थी।

निष्कर्ष

हुमायूँ के सम्पूर्ण जीवन वृत्त को देखने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हुमायूँ की विफलता का कारण उसकी प्रतिकूल परिस्थियतियाँ ही थीं जिनको वह अपने अनुकूल नहीं बना सका। यह उसका बहुत बड़ा दुर्भाग्य था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और परिस्थितियाँ अनुकूल होते ही अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त कर लिया किंतु दुर्भाग्य ने अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ा और दिल्ली पर अधिकार करने के छः माह पश्चात् ही वह सीढ़ियों से गिरकर बुरी तरह घायल हो गया और मर गया।

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