हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष हुमायूँ के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी थी। इस संघर्ष के कारण हूमायूँ को न केवल अपना राज्य छोड़कर अपितु भारत छोड़कर भी भाग जाना पड़ा।
शेर खाँ हुमायूँ का सबसे भयंकर शत्रु सिद्ध हुआ। वह अफगानों का नेता था। उसने दक्षिण बिहार पर अधिकार स्थापित करके चुनार का दुर्ग भी जीत लिया। यह दुर्ग आगरा से पूर्व की ओर जाने वाले स्थलों तथा नदियों के मार्ग में पड़ता था। इस कारण उसे पूर्वी भारत का फाटक कहा जाता था तथा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। हुमायूँ तथा शेर खाँ दोनों ही उसे अपने अधिकार में रखना चाहते थे।
हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष – चुनार के लिए संघर्ष
1531 ई. में जब हुमायूँ कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाले हुए था तब उसे पूर्व में अफगानों के उपद्रव की सूचना मिली। अतः हुमायूँ कालिंजर का घेरा उठाकर चुनार के लिए चल दिया। चुनार पहुँचते ही उसने दुर्ग का घेरा डाला परन्तु वह दुर्ग को प्राप्त नहीं कर सका।
चूँकि महमूद लोदी ने जौनपुर पर अधिकार कर लिया था, इसलिये हुमायूँ ने चुनार का घेरा उठा लिया और महमूद लोदी का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। महमूद लोदी से छुटकारा पाने के बाद हुमायूँ ने फिर चुनार की ओर ध्यान दिया। उसने शेर खाँ से कहा कि चुनार का दुर्ग वह उसे लौटा दे।
हुमायूँ ने चुनार के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए हिन्दू बेग को चुनार भेज दिया। शेर खाँ ने दुर्ग देने से मना कर दिया। इस पर हुमायूँ भी सेना लेकर चुनार पहुँच गया। चार महीने घेरा चलता रहा परन्तु अफगानों ने मुगलों को दुर्ग नहीं दिया।
शेर खाँ से संधि
इसी बीच परिस्थितियों ने पलटा खाया और दोनों ही पक्ष समझौता करने के लिए तैयार हो गये। शेर खाँ अपनी शक्ति बंगाल की ओर बढ़ाना चाहता था। इसलिये वह मुगलों के साथ संघर्ष नहीं चाहता था। बंगाल का शासक नसरत शाह, शेर खाँ जैसे महत्त्वाकांक्षी सेनापति की बढ़ती हुई शक्ति से चिन्तित था और शेर खाँ से समझौता करने के लिए प्रस्तुत था।
शेर खाँ ने इस अनुकूल परिस्थिति से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। उसने हुमायूँ के साथ सन्धि की बातचीत आरम्भ की तथा हुमायूँ से प्रार्थना की कि वह चुनार का दुर्ग शेर खाँ के अधिकार में छोड़ दे। इसके बदले में शेर खाँ ने अपने तीसरे पुत्र कुत्ब खाँ को एक सेना के साथ हुमायूँ की सेवा में भेजना स्वीकार कर लिया।
हुमायूँ ने शेर खाँ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और आगरा लौट गया। इस समझौते से हुमायूं की प्रतिष्ठा को धक्का लगा तथा शेर खाँ को अपनी योजनाएँ पूर्ण करने का अवसर मिल गया।
शेर खाँ की तैयारियाँ
शेर खाँ से समझौता करने के बाद हुमायूँ, बहादुरशाह की गतिविधि जानने के लिए ग्वालियर की ओर चला गया। इधर शेर खाँ अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने में लग गया। थोड़े ही समय में उसने बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली और वह पूर्व के समस्त अफगानों का नेता बन गया।
उसने उन्हें यह आश्वासन दिया कि यदि वे संगठित होकर मुगलों का सामना करेंगे तो वह मुगलों को भारत से निकाल बाहर करेगा तथा भारत में पुनः अफगानों की सत्ता स्थापित कर देगा। इसका परिणाम यह हुआ कि दूर-दूर से अफगान सरदार उसके झंडे के नीचे आकर एकत्रित होने लगे।
उसने गुजरात के शासक बहादुरशाह के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया जिसने धन से उसकी बड़ी सहायता की। शेर खाँ ने एक व्यवस्थित आर्थिक नीति का अनुसरण करके बहुत सा धन इकट्ठा कर लिया। इस धन की सहायता से उसने एक विशाल सेना तैयार की।
यद्यपि शेर खाँ ने अपने पुत्र कुत्ब खाँ को कुछ सैनिकों के साथ हुमायूँ की सेवा में भेजने का वचन दिया था परन्तु उसने इस वादे को पूरा नहीं किया और अपनी सेना बढ़ाने में लगा रहा। उसने गंगा के किनारे-किनारे अपनी शक्ति का विस्तार करना आरम्भ किया और चुनार तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार कर लिया।
शेर खाँ ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया जिसकी स्थिति उन दिनों बड़ी डाँवाडोल थी। शेर खाँ अपनी विशाल सेना के साथ गौड़ के द्वार पर आ डटा। बंगाल के शासक महमूदशाह ने शेर खाँ से संधि कर ली और उसे तेरह लाख दीनार देकर अपना पीछा छुड़ाया परन्तु शेर खाँ ने इसका यह अर्थ निकाला कि महमूदशाह ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है और वह उसे आर्थिक कर दिया करेगा।
जब हुमायूँ आगरा लौटकर आया तब उसे शेर खाँ की गतिविधियों की जानकारी मिली किन्तु हुमायूँ तुरन्त शेर खाँ के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने की स्थिति में नहीं था। इसी बीच हुमायूँ ने हिन्दू बेग को जौनपुर का गवर्नर बना कर भेजा और उसे यह आदेश दिया कि वह पूर्व की स्थिति से उसे अवगत कराये।
शेर खाँ ने कूटनीति से काम लेते हुए चुनार तथा बनारस को छोड़कर, पूर्व के समस्त जिलों से नियंत्रण हटा लिया। उसने हिन्दू बेग के पास बहुमूल्य भेंटें भेजीं और हुमायूँ के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की। हिन्दू बेग को संतोष हो गया और वह शेर खाँ की ओर से निश्चिन्त हो गया। उसने हुमायूँ को संदेश भेजा कि पूर्व की स्थिति बिल्कुल चिन्ताजनक नहीं है।
हुमायूँ भी निश्चिन्त हो गया। कठिनाई से एक-दो माह बीते थे कि हुमायूँ को सूचना मिली की शेर खाँ ने बंगाल पर फिर आक्रमण कर दिया है क्योंकि महमूदशाह ने उसे आर्थिक भेंट नहीं भेज थी। इससे हुमायूँ का सतर्क हो जाना स्वाभाविक ही था। शेर खाँ ने एक विशाल सेना खड़ी कर ली थी।
शेर खाँ के साधनों में भी बड़ी वृद्धि हो चुकी थी। उसने चुनार से गौड़ तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अपनी धाक जमा ली थी। वह भारत में एक बार फिर से अफगान राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहा था। इन कारणों से हुमायूँ, शेर खाँ के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए बाध्य हो गया।
हुमायूँ का प्रस्थान
जुलाई 1537 में वर्षा ऋतु आरम्भ हो जाने पर भी हुमायूँ ने आगरा से प्रस्थान किया। उसने कई महीने तक कड़ा मानिकपुर में पड़ाव डाले रखा तथा वहाँ से चलकर नवम्बर 1537 में चुनार से कुछ मील दूर पड़ाव डाला। अफगान सरदारों ने हुमायूँ को परामर्श दिया कि वह सीधा गौड़ जाये और शेर खाँ की बंगाल विजय की योजना को विफल कर दे परन्तु मुगल सरदारों ने परामर्श दिया कि चुनार जैसे महत्त्वपूर्ण दुर्ग को, जो बंगाल के मार्ग में पड़ता था, शेर खाँ के हाथ में छोड़ना ठीक नहीं है।
चुनार जीत लेने से हुमायूँ के साधनों में भी वृद्धि हो जायेगी, आगरा का मार्ग सुरक्षित बना रहेगा और चुनार को आधार बनाकर पूर्व के अफगानों के साथ युद्ध किया जा सकेगा। हुमायूँ को शेर खाँ की शक्ति का सही अनुमान नहीं था इस कारण हुमायूँ को लगा कि बंगाल का शासक कुछ दिनों तक अपने राज्य की रक्षा कर सकेगा।
इसलिये हुमायूँ ने मुगल सरदारों के परामर्श को स्वीकार करके चुनार पर आक्रमण कर दिया। मुस्तफा रूमी खाँ ने बादशाह को यह आश्वासन दिया कि तोपखाने की सहायता से दुर्ग पर शीघ्र ही अधिकार स्थािपत हो जाएगा परन्तु ऐसा नहीं हो सका। दुर्ग को जीतने में लगभग 6 माह लग गये। इस विलम्ब के परिणाम बड़े भयानक हुए।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि इस भयंकर भूल के कारण ‘हुमायूँ को अपना साम्राज्य खो देना पड़ा।’ हुमायूँ ने इस अवसर पर एक और भूल की। जब उसने चुनार के दुर्ग पर अधिकार किया तब उसे या तो इस दुर्ग को नष्ट कर देना चाहिए था या उसकी सुरक्षा का प्रबंध करना चाहिए था परन्तु हुमायूँ ने इन दोनों में से एक भी काम नहीं किया। शेर खाँ को चुनार खो देने का कोई दुःख नहीं हुआ क्योंकि उसने राजा चिन्तामणि से विश्वासघात करके रोहतास के सुदृढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया था।
हुमायूं का गौड़ पर अधिकार
चुनार जीतने के बाद हुमायूँ बनारस चला गया जहाँ उसे सूचना मिली कि शेर खाँ ने गौड़ पर अधिकार जमा लिया है। चूँकि वर्षा ऋतु आरम्भ हो गई थी इसलिये हुमायूँ ने शेर खाँ से युद्ध करने के स्थान पर समझौता करना चाहा परन्तु समझौते की वार्ता सफल नहीं हुई और विवश होकर हुमायूँ को शेर खाँ से युद्ध करने का निश्चय करना पड़ा।
इसी समय बंगाल के शासक महमूदशाह ने भी शेर खाँ के विरुद्ध हुमायूँ से सहायता की याचना की। हुमायूँ ने उसकी सहायता करने तथा उसे फिर से बंगाल की गद्दी पर बैठाने का वचन दिया परन्तु बंगाल में कदम रखने के पहले ही हुमायूँ को सूचना मिली की महमूदशाह की मृत्यु हो गई है और उसके दोनों पुत्रों की हत्या हो गई है। इस प्रकार हुसैनी राजवंश के समाप्त हो जाने पर हुमायूँ के लिए बंगाल पर अधिकार करना और शेर खाँ के साथ लोहा लेना अनिवार्य हो गया। इसलिये हुमायूँ ने सितम्बर 1538 में गौड़ पर अधिकार कर लिया।
हिन्दाल का विद्रोह
हुसैनी वंश का पतन हो जाने के बाद बंगाल में बड़ी गड़बड़ी फैल गई। इसलिये वहाँ पर शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने एवं अपनी थकी हुई सेना को विश्राम देने के लिये हुमायूँ तीन-चार माह तक बंगाल में ही ठहर गया। हुमायूँ ने हिन्दाल मिर्जा को उसकी जागीर तिरहुत तथा पुनिया में भेज दिया ताकि वहा से रसद लाई जा सके किंतु हिन्दाल हुमायूँ की आज्ञा का पालन न करके आगरा चला गया।
इस प्रकार हुमायूँ का उसके साथ सम्पर्क समाप्त हो गया। हिन्दाल के इस व्यवहार से हुमायूँ को बड़ी चिन्ता हुई। उसने वास्तविकता का पता लगाने के लिय शेख बहलोल को आगरा भेजा। हिन्दाल के कर्त्तव्य भ्रष्ट हो जाने के कारण हुमायूँ की सेना में रसद की कमी हो गई। इधर शेर खाँ ने आगरा जाने वाले मार्गों पर नियन्त्रण कर लिया।
इन परिस्थितियों में बंगाल में रुकने और वहीं से वापसी यात्रा की तैयारी करने के अतिरिक्त हुमायूं के पास कोई चारा नहीं बचा। थोड़े ही दिनों में हुमायूँ को सूचना मिली कि हिन्दाल ने प्रभुत्व शक्ति अपने हाथ में ले ली है तथा शेख बहलोल की हत्या कर दी गयी है। इस कारण पश्चिम की ओर से शेर खाँ पर किसी भी प्रकार से दबाव पड़ने की आशा नहीं है और शेर खाँ ने बनारस से कन्नौज तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार जमा लिया है। इस सूचना के बाद हुमायूँ ने बंगाल से शीघ्र ही प्रस्थान करने का निश्चय किया।
हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष – चौसा का युद्ध
हुमायूँ बंगाल का प्रबन्ध जहाँगीर कुली खाँ को सौंपकर आगरा के लिए चल दिया। पहले वह उत्तर के मार्ग से चला परन्तु उसे मिर्जा अस्करी ने सूचना दी कि अफगानों ने विरोध करने की पूरी तैयारी कर ली है। इसलिये हुमायूँ ने अपना मार्ग बदल दिया। मुंगेर के निकट उसने गंगा नदी को पार किया तथा दक्षिण की ओर चलता हुआ चौसा पहुँच गया।
मार्च 1539 में उसने कर्मनाशा नदी को पार करके उसके पश्चिमी तट पर पड़ाव डाला। शेर खाँ ने हुमायूँ के साथ सन्धि की भी वार्ता आरम्भ की और चुपके से उस पर आक्रमण करने की भी तैयारियाँ करता रहा। शेर खाँ के कहने से हुमायूँ नदी के दूसरे तट पर आ गया।
जब शेर खाँ को पता लगा कि हुमायूँ के पास रसद की बड़ी कमी है और उसे अपने भाइयों से सहायता मिलने की सम्भावना नहीं है। तब एक दिन प्रातःकाल में वह मुगल सेना पर टूट पड़ा और उसे तीन ओर से घेर लिया। मुगल सेना में भगदड़ मच गई और वह कर्मनाशा के तट की ओर भाग खड़ी हुई।
चूँकि अफगानों द्वारा नदी का पुल नष्ट कर दिया गया था इसलिये मुगलों ने तैरकर नदी पार करने का प्रयत्न किया। अफगानों ने बड़ी क्रूरता से मुगलों का वध किया। लगभग सात हजार मुगलों के प्राण गये जिनमें से कई बड़े अधिकारी भी थे। हुमायूँ स्वयं अपने घोड़े के साथ नदी में कूद पड़ा। घोड़ा नदी में डूब गया।
हुमायूँ स्वयं भी डूबने ही वाला था कि एक भिश्ती ने अपनी मशक की सहायता से उसके प्राण बचाये। अफगानों ने मुगलों का पीछा किया। हुमायूँ मिर्जा अस्करी के साथ कड़ा मानिकपुर पहुँचा और वहाँ से कालपी होता हुआ जुलाई 1539 में आगरा पहुँच गया। आगरा पहुँचकर हुमायूँ ने एक दरबार किया जिसमें उसने आधे दिन के लिए उस भिश्ती को तख्त पर बिठा कर उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जिसने कर्मनाशा नदी में हुमायूँ की जान बचाई थी।
कामरान के मन में संदेह
हुमायूँ के आगरा पहुँचने के पहले ही हिन्दाल के विद्रोह को दबाने के लिये कामरान लाहौर से आगरा चला आया था। हिन्दाल डरकर अलवर भाग गया परन्तु कामरान ने उसे वहाँ से बुला लिया। अब चारों भाई आगरा में एकत्रित हुए और शेर खाँ का सामना करने के लिए योजनाएँ बनाने लगे।
चौसा के युद्ध में परास्त हो जाने पर भी अमीरों ने हुमायूँ का साथ नहीं छोड़ा परन्तु हुमायूँ की सेना छिन्न-भिन्न हो गई थी। कामरान के पास अब भी एक सुशिक्षित तथा सुदृढ़ सेना उपलब्ध थी जिसका प्रयोग अफगानों के विरुद्ध किया जा सकता था परन्तु इसी बीच कामरान बीमार पड़ गया और लगभग तीन माह तक बिस्तर पर पड़ा रहा।
चारों तरफ अफवाह फैल गई कि हुमायूँ ने उसे विष दिलवाया है। कामरान के मन में भी हुमायूँ के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। कामरान को पंजाब छोड़े लगभग एक वर्ष हो गया था और उत्तर-पश्चिम की राजनीति में इतने बड़े परिवर्तन हो रहे थे कि कामरान को पंजाब तथा कन्दहार की रक्षा की चिन्ता हो रही थी।
इसलिये कामरान ने आगरा से तुरन्त चले जाने का निश्चय कर लिया। हुमायूँ चाहता था कि कामरान अपनी पूरी सेना आगरा में छोड़ दे परन्तु कामरान ने ऐसा नहीं किया। वह केवल तीन हजार सैनिकों को हुमायूँ की सेवा में छोड़कर लाहौर चला गया।
हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष कन्नौज अथवा बिलग्राम का युद्ध
चौसा की विजय के उपरान्त शेर खाँ ने स्वयं को बनारस में स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और सुल्तान-ए-आदिल की उपाधि धारण की। अफगान सेना ने बंगाल को फिर से जीत लिया और वहाँ के मुगल गवर्नर की हत्या कर दी। अब शेर खाँ ने भारत विजय की योजना बनाई।
उसने अपने पुत्र कुत्ब खाँ को यमुना नदी के किनारे-किनारे आगरा की ओर बढ़ने का आदेश दिया और स्वयं एक सेना के साथ कन्नौज के लिए चल पड़ा। कुत्ब खाँ का कालपी के निकट मुगल सेना से भीषण संघर्ष हुआ जिसमें कुत्ब खाँ परास्त हुआ और मारा गया। 13 मार्च 1540 को हुमायूँ ने शेरशाह का सामना करने के लिए आगरा से प्रस्थान किया।
हुमायूँ ने गंगा नदी को पार करके उसके किनारे पड़ाव डाला। अब वह शेरशाह की गतिविधि को देखता रहा। शेरशाह भी खवास खाँ की प्रतीक्षा कर रहा था। जब खवास खाँ पूर्व से कन्नौज आ गया तब शेरशाह युद्ध करने के लिए तैयार हो गया। मुगलों की सेना, अफगान सेना की अपेक्षा कुछ निचले स्थान में थी।
हुमायूँ जिस स्थान पर वह पड़ाव डाले हुए था, वह स्थान वर्षा के कारण पानी से भर गया। हुमायूँ ने अपनी सेना को ऊंचे स्थान पर ले जाने का प्रयत्न किया। ठीक इसी समय शेरशाह मुगल सेना के दोनों पक्षों पर टूट पड़ा। मुगल सेना में भगदड़ मच गई। हुमायूँ ने हिन्दाल तथा अस्करी के साथ गंगा नदी को पार कर लिया और भाग कर आगरा पहुँच गया।
हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष – हुमायूँ का पलायन
शेरशाह ने मुगलों का पीछा नहीं छोड़ा। उसने एक सेना सम्भल की ओर तथा दूसरी सेना आगरा की ओर भेजी। हुमायूँ अत्यन्त भयभीत हो गया। वह केवल एक रात आगरा में रहा तथा दूसरे दिन अपने परिवार और कुछ खजाने के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया। रोहतास में हिन्दाल भी उससे आ मिला। अब दोनों भाइयों ने लाहौर के लिए प्रस्थान किया।
लाहौर में मिर्जा अस्करी भी उनसे आ मिला। अब चारों भाइयों ने मिलकर संकटापन्न स्थिति पर विचार करना आरम्भ किया परन्तु उन्हें शेरशाह से लोहा लेना असम्भव प्रतीत हुआ। कामरान ने पंजाब को भी सुरक्षित रखने की आशा छोड़ दी। इसलिये उसने अफगानिस्तान जाने तथा काबुल एवं कन्दहार को सुरक्षित रखने का निश्चय किया।
कामरान तथा मिर्जा अस्करी अफगानिस्तान चले गये। हुमायूँ ने हिन्दाल के साथ सिन्ध के लिए प्रस्थान किया। अब शेरशाह के लिए रास्ता साफ था। वह तेजी से आगे बढ़ा और उसने सम्पूर्ण पंजाब पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने मुगलों को सिन्ध नदी के उस पार खदेड़ दिया और बाबर के पुत्रों को भारत से निष्कासित कर दिया।
हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष – हुमायूँ की विफलता के कारण
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि जिस साम्राज्य की स्थापना बाबर ने पानीपत तथा घाघरा के युद्धों में अफगानों को परास्त करके की थी, उसे हुमायूँ ने चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में शेरशाह से पराजित होकर खो दिया। हुमायूँ अनुभवी सेनानायक था, फिर भी वह शेरशाह के समक्ष असफल हो गया। हुमायूँ की विफलता के कई कारण थे-
(1.) मिर्जाओं का असहयोग
मुहम्मद जमान मिर्जा, मुहम्मद सुल्तान मिर्जा, मेंहदी ख्वाजा आदि तैमूरवंशीय मिर्जा वर्ग के अमीर, बाबर के सहयोगी रहे थे तथा स्वयं को बाबर के समान ही मंगोलों के तख्त का अधिकारी समझते थे। उनमें से अधिकतर मिर्जाओं ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया तथा हुमायूँ के विरोधियों के साथ मिल गये। इस कारण हुमायूँ की सैनिक शक्ति क्षीण हो गई और वह लम्बे समय तक अपने शत्रुओं का सामना नहीं कर सका।
(2.) भाइयों का असहयोग
इतिहासकारों ने हुमायूँ की विफलता का सबसे बड़ा कारण उसके भाइयों का असहयोग करना बताया है। हुमायूँ ने अपने राज्य का बहुत बड़ा हिस्सा अपने भाइयों को दे दिया था किंतु भाइयों ने समय पर हुमायूँ की सहायता नहीं की। परन्तु इतिहासकारों की यह धारणा सही नहीं है क्योंकि हुमायूँ के शासन के प्रथम दस वर्षों में कामरान ने उसके साथ किसी प्रकार की शत्रुता नहीं रखी वरन् वह उसका सम्मान करता रहा और उसके प्रति निष्ठावान बना रहा।
जब मिर्जा हिन्दाल ने विद्रोह किया था तब कामरान लाहौर से आगरा चला आया था और हिन्दाल को सही रास्ते पर लाने में हुमायूँ की सहायता की थी। कन्नौज के युद्ध के बाद, कामरान का हुमायूँ में विश्वास नहीं रह गया और उसका साथ छोड़ दिया। जब हुमायूँ ने अपने साम्राज्य को खो दिया तब कामरान का अपने साम्राज्य की सुरक्षा का प्रयत्न करना स्वाभाविक था।
अन्य भाइयों का भी हुमायूँ की विफलता के लिए बहुत कम उत्तरदायित्त्व है। मिर्जा अस्करी ने हुमायूँ के विरुद्ध कभी विद्रोह नहीं किया और वह समस्त बड़े युद्धों में हुमायूँ के साथ रहा। कन्नौज के युद्ध के बाद वह भी कामरान के साथ चला गया था। हिन्दाल ने हुमायूँ के विरुद्ध अवश्य विद्रोह किया था परन्तु ऐसा केवल एक बार हुआ था।
इसमें संदेह नहीं है कि चौसा के युद्ध में हुमायूँ की पराजय का एक बहुत बड़ा कारण हिन्दाल का बिहार से आगरा भाग जाना था। हिन्दाल ने न कभी इसके पहले और न कभी इसके बाद ही हुमायूँ के साथ किसी प्रकार का विश्वासघात किया वरन् उसन उसकी सहायता ही की और उसी के लिये अपने प्राण भी दिये।
(3.) रिक्त राजकोष
इतिहासकारों ने हुमायूँ के रिक्त राजकोष को भी हुमायूँ की असफलताओं के लिये जिम्मेदार माना है। बाबर ने दिल्ली एवं आगरा से प्राप्त बहुत सारा धन समरकंद, बुखारा एवं फरगना में अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों को भिजवा दिया। जिससे सेना के लिये धन की कमी हो गई। जब हुमायूँ को शेर खाँ से लड़ने के लिये सेना के रसद एवं आयुध की आवश्यकता थी, तब हुमायूँ को कहीं से आर्थिक सहयोग नहीं मिला। स्वयं हुमायूँ को चम्पानेर से जो धन मिला था, वह धन उसने आमोद-प्रमोद में लुटा दिया।
(4.) हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताएँ
इतिहासकारों ने हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं को उसकी विफलता का कारण बताया है। उनके अनुसार हुमायूँ अफीमची, कोमल स्वभाव का तथा काहिल था परन्तु यह धारण ठीक नहीं है। हुमायूँ वीर, साहसी तथा शान्त स्वभाव का व्यक्ति था। उसमें उच्चकोटि की कार्य क्षमता तथा क्रियाशीलता थी।
वह दयालु, सहृदय, बुद्धिमान, सभ्य एवं शिष्ट था। वह अनुभवी सेना-नायक था। उसमें सफल तथा लोकप्रिय शासक बनने के समस्त गुण विद्यमान थे। जहाँ तक अफीम के व्यसन का आरोप है वह किसी भी नशे का इतना व्यसनी न था कि उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाये। उसका पिता बाबर उससे कहीं अधिक मादक द्रव्यों का सेवन करता था। इसलिये हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं को उसकी विफलताओं के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
(5.) विजय के उपरान्त आमोद-प्रमोद
हुमायूँ पर यह आरोप लगाया जाता है कि विजय प्राप्त करने के उपरान्त वह आमोद-प्रमोद में लग जाता था और अपने मूल्यवान समय को खो देता था। गौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने अमूल्य समय को इसी प्रकार नष्ट किया था परन्तु वास्तविकता यह है कि हुमायूँ बंगाल में परिस्थितियों से बाध्य होकर रुका था न कि भोग-विलास के लिए। इसलिये उसके आमोद-प्रमोद को हम उसकी विफलताओं का कारण नहीं मान सकते।
(6.) हुमायूँ की धर्मान्धता
हुमायूँ ने उस काल के मुस्लिम शासकों की तरह धार्मिक कट्टरता का परिचय दिया तथा राजपूतों के साथ मित्रता करने का प्रयास नहीं किया। जब मेवाड़ की राजमाता कर्णावती ने राखी भिजवाकर हुमायूँ की सहायता मांगी तो हुमायूँ के लिये बड़ा अच्छा अवसर था कि वह मेवाड़ की सहायता करके राजपूतों का विश्वास जीत लेता किंतु उसने काफिरों की मदद करना उचित नहीं समझा। यदि उसने राजपूतों को मित्र बनाया होता तो इन राजपूतों ने न केवल गुजरात के बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध अपितु अफगानों एवं शेर खाँ के विरुद्ध भी हुमायूँ की बहुत सहायता की होती।
(7.) शेर खाँ तथा बहादुरशाह का एक साथ सामना
हुमायूँ की विफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि उसे शेरशाह तथा बहादुरशाह के विरुद्ध एक साथ संघर्ष करना पड़ा था। हुमायूँ में दोनों के विरुद्ध एक साथ लोहा लेने की क्षमता नहीं थी। बहादुरशाह ने धन से शेरशाह की सहायता की थी जिससे उसकी शक्ति बहुत बढ़ गई थी।
(8.) शेरशाह की योजना
यदि बहादुरशाह की सहायता न भी मिली होती तो भी शेरशाह अकेले ही हुमायूँ को विफल बनाने के लिए पर्याप्त था। वह हुमायूँ से अधिक अनुभवी, कूटनीतिज्ञ तथा कुशल राजनीतिज्ञ था। वह हुमायूँ से अधिक चालाक तथा अवसरवादी था। संगठन करने की शक्ति भी शेरशाह में हुमायूँ से अधिक थी। इसलिये शेरशाह के विरुद्ध हुमायूँ का विफल हो जाना स्वाभाविक था।
(9.) अफगानों द्वारा अफगान अस्मिता का युद्ध
शेरशाह के नेतृत्व में अफगानों ने जो युद्ध आरम्भ किया उसने अफगानों की अस्मिता के युद्ध का रूप ले लिया। यह युद्ध अफगानों के उन्मूलित राज्य की पुनर्स्थापना का युद्ध था। इसलिये अफगान सेना अंतिम सांस तक मरने-मारने को तैयार थी। उन्होंने अत्यन्त संगठित होेकर मुगलों से युद्ध किया जबकि हुमायूँ की सेना वेतन के लिये लड़ रही थी और उसमें अपने बादशाह के प्रति अधिक निष्ठा नहीं थी। इसी कारण अफगान मुगलों को परास्त करके अफगान साम्राज्य को पुनर्स्थापित करने में सफल हुए।
(10.) तोपखाने के कुशल प्रयोग का अभाव
हुमायूँ की विफलता का एक यह भी कारण था कि वह अपने पिता बाबर की भाँति तोपखाने का कुशल प्रयोग नहीं कर सका क्योंकि अफगानों के पास भी तोपखाना था और वह मुगलों के तोपखाने से कहीं अधिक अच्छा हो गया था। इसीलिये लाख प्रयत्न करने पर भी हुमायूँ का तोपची मुस्तफा रूमी खाँ पाँच महिने तक चुनार के दुर्ग को नहीं भेद सका। शेर खाँ को अपनी स्थिति दृढ़ करने के लिये समय मिल गया तथा परिस्थितियाँ हुमायूँ के हाथ से निकल गईं।
(11.) अफगानों को तुलगमा का ज्ञान
भारत में बाबर की विजय का एक बहुत बड़ा कारण उसके द्वारा अपनाई गई तुलगमा रणपद्धति थी। बाबर अपनी सेना के दोनों किनारों पर तुलगमा सैनिक रखता था जो उस समय शत्रु को पीछे से घेर लेते थे जब शत्रु पूरी तरह से सामने वाली सेना से युद्ध करने में संलग्न होता था। हुमायूँ तुलगमा रणपद्धति का लाभ नहीं उठा सका क्योंकि अफगान लोग भी इस रणपद्धति को समझ गये थे और पहले से ही अपनी सेना की सुरक्षा की व्यवस्था कर लेते थे।
(12.) हुमायूँ की विफल आर्थिक नीति
हुमायूँ की विफलता का एक बहुत बड़ा कारण उसकी विफल आर्थिक नीति थी। उसने राजकोष में निरंतर धन आने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की थी तथा बहादुरशाह एवं शेर खाँ जैसे बड़े शत्रुओं के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया था। हुमायूँ जब बंगाल में था तब उसे किसी भी तरफ से आर्थिक सहायता नहीं मिली। इस कारण सेना को युद्ध एवं रसद सामग्री की कमी का सामना करना पड़ा। धनाभाव के कारण हुमायूँ के सहायकों का उत्साह भंग हो गया।
(13.) चुनार पर अधिकार करने में विलम्ब
अनेक इतिहासकारों के अनुसार चुनार जीतने में विलम्ब हो जाने के कारण ही हुमायूँ को अपना साम्राज्य खो देना पड़ा। चुनार पर विजय प्राप्त करने में हुमायूँ को 6 माह से अधिक समय लग गया और उसकी सारी सेना चुनार में फँसी रही। इस बीच शेर खाँ ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और बंगाल को रौंदकर अपने साधनों में वृद्धि कर ली।
(14.) बंगाल से प्रस्थान करने में विलम्ब
बंगाल में शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित करने, सेना को विश्राम देने तथा युद्ध सामग्री एकत्रित करने के लिये हुमायूँ को लगभग चार माह तक बंगाल में रुकना पड़ा। इस विलम्ब के परिणाम बड़े घातक हुए। इस समय में शेर खाँ ने बंगाल से आगरा जाने वाले मार्ग पर अधिकार कर लिया और हुमायूँ के रसद प्राप्ति के मार्ग को काट दिया। इसी समय हिन्दाल भी आगरा भाग गया। चौसा युद्ध में हुमायूँ की पराजय का यही सबसे बड़ा कारण था।
(15.) हुमायूँ का विश्वासी स्वभाव
हुमायूँ सबका विश्वास कर लेता था। इससे उसे अनेक बार धोखा खाना पड़ा। यदि वह शेर खाँ से हुई संधियों के समय सावधानी से काम लेता तो संभवतः उसे चौसा युद्ध में विकट पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। लेनपूल ने लिखा है कि हुमायूँ की असफलता का मुख्य कारण उसकी सुंदर परन्तु विवेकहीन दयालुता थी।
(16.) हुमायूँ का दुर्भाग्य
अनेक स्थलों पर भाग्य ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया। यदि बंगाल का शासक महमूदशाह थोड़े समय तक शेर खाँ से अपने राज्य की रक्षा कर सका होता तो पूर्व की स्थिति हुमायूँ के पक्ष में हो गयी होती परन्तु महमूदशाह की विफलता ने हुमायूँ को कठिनाई में डाल दिया। इसी प्रकार कन्नौज के युद्ध के समय मई महीने के मध्य में अचानक अत्यधिक वर्षा हुई जिससे हुमायूँ का खेमा पानी से भर गया। जब उसने अपनी सेना को ऊँचे स्थान पर ले जाने का प्रयास किया तभी शेर खाँ ने उस पर आक्रमण कर दिया।
(17.) हुमायूँ की कमजोरी
हुमायूँ को जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था उनमें सफलता प्राप्त करने के लिए कुछ विशिष्ट गुणों की आवश्यकता थी परन्तु हुमायूं में उन गुणों का अभाव था। इसके विपरीत शेरशाह में वे गुण विद्यमान थे। हुमायूँ एक समय में केवल एक ही योजना बनाकर उस पर अमल करता था किंतु जब मूल योजना विफल हो जाती थी और नई परिस्थिति उत्पन्न हो जाती थी तब वह तेजी से नये निर्णय नहीं कर पाता था।
हुमायूँ बिना सोचे-समझे स्वयं को नई समस्याओं में उलझा लेता था और उनका सामना करने के लिए अपनी क्षमता का सही मूल्यांकन नहीं कर पाता था। उसे गुजरात तथा बंगाल जैसे दूरस्थ प्रदेशों में जाकर युद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। मालवा तथा बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ बना लेने के उपरान्त वह इन सुदूरस्थ प्रान्तों का अभियान कर सकता था।
हुमायूँ को मनुष्य तथा उसकी नीयत की बहुत कम परख थी। इसलिये वह प्रायः धोखा खा जाता था। उसमें राजनीतिक चालाकी तथा कूटनीति का अभाव था। इस कारण वह उलझी हुई समस्याओं के सुलझाने की क्षमता नहीं रखता था। इन दुर्बलताओं के कारण हुमायूँ को विफलता का सामना करना पड़ा।
हुमायूँ की दुर्बलताओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘उसकी सामान्य काहिली तथा उसकी अपार उदारता प्रायः उसकी विजय के फलों को नष्ट कर देती थी।’
लेनपूल ने लिखा है- ‘उसमें चरित्र तथा दृढ़ता का अभाव था। वह निरन्तर प्रयास करने में असमर्थ था और प्रायः विजय के अवसर पर अपने हरम में व्यसन में मग्न हो जाता था और अफीम के स्वर्गलोक में अपने मूल्यवान समय को व्यतीत कर देता था।’
मूल आलेख – मुगल सल्तनत की अस्थिरता का युग
हुमायूँ – शेर खाँ संघर्ष