आर्यों की आश्रम व्यवस्था में स्त्री का स्थान जानने के लिए वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल, महाकाव्य काल, बुद्ध काल, शुंग काल तथा मध्य काल में स्त्रियों की बदलती हुई स्थिति को जानना आावश्यक है।
पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए आश्रम-व्यवस्था के प्रावधानों में अंतर था। ब्राह्मण पुरुषों के लिए चार आश्रमों का तथा क्षत्रिय एवं वैश्य पुरुषों के लिए तीन आश्रमों का प्रावधान था किंतु इन तीनों वर्णां की स्त्रियों के लिए आश्रम-व्यवस्था स्वैच्छिक थी। शूद्र स्त्री-पुरुषों के लिए आश्रम व्यवस्था नहीं थी।
स्त्रियों के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम
उत्तरवैदिक-काल में द्विज वर्णों की स्त्रियां ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करती थीं तथा उनका उपनयन संस्कार भी होता था। 16-17 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाली कन्या ‘सद्योवधू’ कहलाती थी। इसके बाद उसका विवाह कर दिया जाता था। जो कन्या आजीवन शिक्षा ग्रहण करने में लगी रहती थी तथा वैवाहिक-बन्धन में नहीं बंधती थी, उसे ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था।
बहुत कम स्त्रियाँ ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करती थी। सूत्रकाल से स्त्रियों का ब्रह्मचर्य जीवन प्रायः समाप्त हो गया। वे विद्याध्ययन के लिए किसी गुरु के आश्रम में नहीं जाती थीं। इसलिए स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया। उनकी शिक्षा घर या गांव में ही होती थी। उनकी शिक्षा, साधारण ज्ञान तक सीमित हो गई।
स्त्रियों के लिए गृहस्थ आश्रम
सूत्रकाल एवं उसके बाद के युगों में कन्या का विवाह बाल्यावस्था में किया जाता था। जिस प्रकार ब्रह्मचारी अपने गुरु की सेवा करता था उसी प्रकार स्त्री को अपने पति की सेवा करनी होती थी। स्त्रियों के लिए विवाह अनिवार्य था। स्त्री के सहयोग के बिना गृहस्थ जीवन प्रयोजनहीन था।
मनु के अनुसार प्रजनन के उद्देश्य से ही स्त्री की सृष्टि हुई थी। गृहस्थ आश्रम में रहकर स्त्री अपने सामाजिक-धार्मिक कर्त्तव्यों का संपादन करती थी। वह पंचमहायज्ञ आदि यज्ञों के साथ-साथ अतिथि यज्ञ भी करती थी। स्त्रियों का परम कर्त्तव्य था कि गृहस्थ जीवन सुखी और सम्पन्न रहे। अथर्ववेद में उसे ‘गृह-साम्राज्ञी’ कहा गया है।
स्त्रियों के लिए वानप्रस्थ आश्रम
गृहस्थ आश्रम की समाप्ति के बाद स्त्री अपनी इच्छानुसार अपने पति के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करती थी। यह स्त्री की इच्छा पर निर्भर करता था कि वह वानप्रस्थ आश्रम में अपने पति के साथ जाए या अपने पुत्रों के साथ जीवन निर्वाह करे। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब स्त्री अपने पति के साथ वानप्रस्थ में गई थी। बाद में स्त्रियों का वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश बिल्कुल बंद हो गया।
स्त्रियों के लिए संन्यास आश्रम
प्रायः समस्त धर्मशास्त्रकारों ने स्त्री के लिए संन्यास आश्रम का कोई उल्लेख नहीं किया है। संन्यास आश्रम की व्यवस्था पुरुषों के लिए थी, स्त्रियों के लिए नहीं। बौद्ध युग में युवतियाँ भी भिक्षुणी बनने लगीं, जिससे बौद्ध-संघारामों का नैतिक पतन हो गया। सम्भवतः इन्हीं समस्याओं की आंशका से धर्मशास्त्रकारों ने स्त्री के लिए संन्यासी का जीवन स्वीकार नहीं किया तथा उन्हें परिवार के वरिष्ठ सदस्य के संरक्षण में रहने का निर्देश दिया।
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