हिन्दू जल स्थापत्य अथवा जल संग्रहण स्रोतों की स्थापत्य कला अत्यंत प्राचीन काल से ही उन्नत दशा में थी। भारत में जल को देवता के रूप में सम्मान दिया जाता था और जल की पूजा की जाती थी इसलिए जलाशयों को तीर्थ की तरह पवित्र बनाया जाता था।
भारत में सार्वजनिक उपयोग हेतु कुओं, तालाबों, बावड़ियों एवं अन्य प्रकार के जलाशयों के निर्माण की सुदीर्घ परम्परा रही है। ऋग्वेद में पुष्करिणी (तालाब) का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद का यह उल्लेख हिन्दू जल स्थापत्य का संसार भर में सबसे पहला लिखित उल्लेख है। शांखायनगृह्यसूत्र, अपरार्क, हेमाद्रि, दानक्रिया कौमुदी, जलाशयोत्सर्गतत्व, प्रतिष्ठामयूख, उत्सर्गमयूख, राजधर्म कौस्तुभ आदि ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के कूप, तालाब एवं जलाशयों को खुदवाने एवं उनकी प्रतिष्ठा करवाने की विधि लिखी है।
विष्णुधर्मसूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति जनहित के लिए कूप खुदवाता है, उसके आधे पाप उसमें पानी निकालने के समय नष्ट हो जाते हैं। जो व्यक्ति तालाब खुदवाता है वह सदा निष्पाप रहता है एवं वरुण लोक में निवास करता है। जनकल्याण हेतु खुदवाए गए जलाशय चार प्रकार के होते हैं- कूप, वापी, पुष्करिणी एवं तड़ाग्। कुछ ग्रंथों में लिखा है कि चतुर्भुजाकार या वृत्ताकार होने से कूप का व्यास 5 हाथ से 50 हाथ तक हो सकता है।
इसमें साधारणतः पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां नहीं होतीं। वापी वह कूप है जिसमें चारों ओर से अथवा तीन अथवा दो अथवा एक ओर से जल तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां बनी होती हैं तथा जिसका मुख 50 से 100 हाथ तक हो। पुष्करिणी 100 से 200 हाथ व्यास की होती है। तड़ाग 200 से 300 हाथ लम्बा होता है।
मत्स्य पुराण के अनुसार वापी 10 कुओं के बराबर एवं हृद (गहरा जलाशय) 10 वापियों के बराबर होता है। एक पुत्र 10 हृदों के बराबर एवं एक वृक्ष 100 पुत्रों के बराबर होता है। वसिष्ठ संहिता के अनुसार पुष्करिणी 400 हाथ लम्बी और तड़ाग उसका 5 गुना बड़ा होता है। मिताक्षरा के अनुसार तड़ागों की सुरक्षा के लिए बने नियमों की पालना करना राजा का कर्त्तव्य है।
विवादरत्नाकर के अनुसार जब कोई व्यक्ति वाटिका, कूप, बांध, जलाशय को तोड़ दे तो उनका जीर्णोद्धार होना चाहिए तथा अपराधी को 800 पणों का दण्ड मिलना चाहिए।
हिन्दू जल स्थापत्य : वापी एवं रहट
भारत में रहट (जलपात्रों के चक्र से युक्त कुंआ) और बावड़ी (सीढ़ीदार कुआँ) का निर्माण अत्यंत प्राचीन काल से होता था। वासुदेव शरण अग्रवाल का अनुमान है कि रहट और बावड़ी, दो विशेष प्रकार के कुएं शकों द्वारा भारत में लाये गये। बावड़ी के लिये प्राचीन नाम शकन्धु (शक देश का कुंआ) और रहट के लिये कर्कन्धु थे।
बाण ने भी हर्षचरित में रहट का उल्लेख किया है। राजस्थान के प्राचीन शिलालेखों में उल्लेखित अरहट्ट भी इसी का द्योतक है। संभव है कि राजस्थान में वापी और रहट दोनों ही विदेशी सम्पर्क के कारण प्रचलित हुए हों।
जयपुर क्षेत्र में नगर नामक प्राचीन स्थल के विक्रम संवत् 741 (ई.684) के शिलालेख में एक वापी निर्माण का श्रेय मारवाड़ भीनमाल के कुशल शिल्पियों को दिया गया है और उन वास्तुविद्या विशारद सूत्रधारों की पर्याप्त प्रशंसा की गई है कि वे तो वास्तुविद्या के प्रगाढ़ पण्डित थे। सातवीं शती की यह वापी आज तक ज्ञात प्राचीनतम वापी है।
कुछ वर्ष पूर्व तक मृदभाण्डों वाले रहटों का राजस्थान के कुछ भागों में प्रयोग किया जाता रहा है और यही स्थिति बैलगाड़ी की भी है। भीनमाल में मध्य-कालीन, आयताकार वापी चण्डीनाथ मंदिर में आज भी स्थित है इसमें पूर्वमध्य-युगीन दो स्तंभ जडे़ हैं। भीनमान के वास्तुकारों का वापी निर्माण कला में अत्यन्त दक्ष होना इसी बात को इंगित करता है कि शकों ने इस क्षेत्र पर शासन किया और उनके साथ आई वास्तुकला को सीखकर यहाँ के शिल्पी उस विद्या में पारंगत हुए जिन्हें वापी निर्माण हेतु दूर-दूर तक बुलाया जाता था।
परमार शासक पूर्णपाल के वि.सं.1102 (ई.1045) के भडुण्ड अभिलेख के अनुसार पूर्णपाल के शासनकाल में 22 ब्राह्मण और 1 क्षत्रिय द्वारा एक बावड़ी का निर्माण करवाया गया। अभिलेख के अनुसार भडुण्ड गांव के ब्राह्मणों ने संसार की असारता का अनुभव करते हुए सज्जनों और साधुओं के हृदयों को आनंदित करने वाली सुंदर वापी बनवाई।
रानी की वाव
गुजरात के पाटण में रानी की वाव नामक एक प्राचीन वापिका अथवा बावड़ी है। इसे ई.1063 में चौलुक्य राजा भीमदेव (प्रथम) की रानी उदयामति ने बनवाया था। इस सीढ़ी युक्त बावड़ी में किसी समय सरस्वती नदी का जल आता था। यह वापिका 64 मीटर लंबी, 20 मीटर चौड़ी तथा 27 मीटर गहरी है। यह संसार भर में अपनी तरह की अकेली वापिका है।
रानी की वाव के स्तम्भ चौलुक्य कालीन वास्तुकला के अनुपम उदाहरण हैं। वापिका की भीतरी दीवारों और स्तंभों पर भगवान विष्णु के दशावतारों, राम, वामन, कल्कि तथा महिषासुरमर्दिनी आदि की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।
यह बावड़ी सात मंजिला है तथा मारू-गुर्जर शैली में बनी है। जब सरस्वती नदी का जल कम पड़ने लगा तब यह बावड़ी जल के साथ आई गाद (मिट्टी) से भर गई। धीरे-धीरे यह मिट्टी में दब गई और लोग इसके बारे में भूल गए। भारतीय पुरातत्व सर्वे ने इस बावड़ी को खोजकर उसका उद्धार किया।
राजपूत काल में हिन्दू जल स्थापत्य
न्यून वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संग्रहण की सुदीर्घ परम्परा रही है। इस कड़ी की मजबूती सिर्फ शासकों पर नहीं छोड़ी गई थी अपितु समाज के वे अंग जो आज भी आर्थिक दृष्टि से कमजोर माने जाते हैं, बंध-बंधा, ताल-तलाई, जोहड़-जोहड़ी, नाडी, तालाब, सरवर, सर, झील, देईबंध, डहरी, खडीन आदि बनाते थे।
राजपूत स्थापत्य शैली में बने जलाशयों पर कलात्मक भित्तियों एवं घाटों का निर्माण करवाया जाता था जिनके ऊपरी भाग में छतरियाँ बनी रहती थीं। जलाशय के निकट एक कलात्मक स्तम्भ लगाया जाता था जिसके ऊपरी भाग में शिखर बना रहता था और नीचे चारों ओर बनी ताकों में देव प्रतिमाएं उत्कीर्ण की जाती थीं। स्तम्भ के मध्य में जलाशय के निर्माण से सम्बन्धित सूचना लिखी जाती थी।
जलाशय तक पहुँचने के लिए कलात्मक सीढ़ियां एवं घाट बनाए जाते थे। इस काल में जैसलमेर में कौशिकराम का कुण्ड, जैत सागर तथा ब्रह्म्रासागर; बूँदी में फूलसागर और सूरसागर; जोधपुर में बालसमन्द, गुलाब सागर, चौखेलाव तालाब और सरूप सागर; बीकानेर में सूरसागर, अनूपसागर, नाथूसर आदि जलाशय बनाए गए।
17वीं शताब्दी में उदयपुर में महाराणा राजसिंह द्वारा निर्मित राजसंमद जलाशय निर्माण-कला का श्रेष्ठतम उदाहरण है जिसके तोरण द्वार विशुद्ध हिन्दू शैली के हैं किन्तु मण्डपों में बनी जालियां तथा बेल-बूटों के अलंकरण पर मुगल शैली का प्रभाव है। जलाशय-निर्माण की यह पद्धति 19वीं शताब्दी तक काम में ली गई।
मुख्य लेख : भारतीय वास्तु एवं स्थापत्य कला
हिन्दू जल स्थापत्य