Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 36 – भारतीय वास्तु एवं स्थापत्य कला (प्राचीन स्थापत्य एवं राजपूत स्थापत्य) (ब)

हिन्दू स्थापत्य कला

मौर्य काल के बाद हिन्दू स्थापत्य का तेजी से विकास हुआ। हिन्दू स्थापत्य दो रूपों में मिलता है- (1.) निजी उपयोग के भवन, (2.) सार्वजनिक उपयोग के भवन।

निजी उपयोग के भवन प्रायः आवासीय थे। इनमें जन-साधारण के छोटे घरों से लेकर राजाओं के भव्य प्रासाद एवं सामंतों की हवेलियां तक सम्मिलित थे जबकि सार्वजनिक स्थापत्य कला में मंदिर, दुर्ग, उद्यान एवं जलाशय आदि आते थे। सार्वजनिक स्थापत्य के विकास में चार कारण प्रतीत होते हैं- (1.) धार्मिक प्रेरणा, (2.) सामरिक आवश्यकता, (3.) ऐश्वर्य, विलास एवं प्रतिष्ठा की आकांक्षा (4.) जनकल्याण की भावना।

भारत में सार्वजनिक स्थापत्य की परम्परा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में जलाशयों, मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों का निर्माण पूर्त-धर्म माना जाता था। याज्ञवलक्य स्मृति की टीका मिताक्षरा में स्त्रियों एवं विधवाओं को भी पूर्त-धर्म हेतु धन व्यय करने की अनुमति दी गई है। प्राचीन काल में सार्वजनिक लाभ एवं उपयोग के लिए दातव्य कार्यों एवं वस्तुओं से सम्बन्धित नियम बने हुए थे।

स्मृतियों के अनुसार लोगों को कुएं, बांध जलयंत्र इत्यादि बनवाने चाहिए। कुछ ग्रंथकारों ने लिखा है कि यज्ञों से केवल स्वर्ग मिलता है परंतु मंदिरों एवं तालाबों के निर्माण से मुक्ति हो जाती है। स्मृति चंद्रिका, कात्यायन आदि ग्रंथों से ज्ञात होता है कि राजा लोग मंदिरों, तड़ागों, कूपों आदि सम्पत्तियों पर दृष्टि रखते थे और उन पर विपत्ति आने पर उनकी रक्षा करते थे।

मंदिर स्थापत्य कला

मंदिर मुख्यतः धार्मिक वास्तु है जिसमें भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट विकास देखने को मिलता है। देवी-देवताओं के मूर्त रूपों की पूजा हेतु मूर्ति स्थापना के लिए जो सुंदर भवन निर्मित हुए, वही भवन मंदिर कहलाए। मंदिरों की कल्पना ईश्वर के आवास के रूप में की जाती है इसलिए ईश्वर के प्रिय स्थलों को प्रतीकात्मक रूप में मंदिर में उत्कीर्ण किया जाता है।

यही कारण है कि नदियां एवं उद्यान आदि के अंकन का मंदिर-वास्तुकला में प्रमुख स्थान है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर प्रतीकों का अंकन करके उपासकों एवं श्रद्धालुओं का मन एवं मस्तिष्क ईश्वर के ध्यान एवं दर्शन के लिए तैयार किया जाता है। भारतीय साहित्य में हिन्दू मंदिर की संकल्पना एक पर्वत के रूप में की गई है, जहाँ देवगण निवास एवं क्रीड़ा करते हैं।

इस संकल्पना का आधार विष्णुधर्मोत्तर पुराण है। बृहत्संहिता तथा भविष्य पुराण के अनुसार तीर्थों एवं धर्म-क्षेत्रों में देवताओं की उपस्थिति अनुभव की जा सकती है। बृहत्संहिता तथा मत्स्य पुराण में पर्वतों की सूची में उद्धृत प्रथम तीन पर्वतों- मरु, मन्दर तथा कैलाश का नाम मंदिरों के अन्तर्गत भी आता है। मंदिरों की कल्पना पर्वतों के रूप में न केवल स्थापत्य-ग्रंथों में मिलती है अपितु साहित्य तथा अभिलेखों में भी प्राप्त होती है।

गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य

 गुप्तकाल (ई.320-495) से पहले की स्थापत्यकला मंथर गति से चलती है। गुप्तकाल से पहले के काल में मंदिरों का निर्माण प्रायः लकड़ी से होता था। इसलिए गुप्तकाल से पहले का मंदिर-स्थापत्य बहुत पहले ही नष्ट हो गया। तत्कालीन ग्रंथों से भी उन मंदिरों की जानकारी नहीं मिलती। पाँचवीं शताब्दी ईस्वी अर्थात् गुप्तकाल से भवन निर्माण में पक्की ईंटों का बहुतायत से प्रयोग होने लगा।

उस समय समाज में बौद्ध प्रभाव क्षीण होकर ब्राह्मण प्रभाव अपने चरम पर पहुँच गया था। इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, बुद्ध, बोधिसत्वों तथा तीर्थकरों की पूजा का महत्व बढ़ गया इस कारण उनकी पूजा के लिए बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण किया गया। इन मन्दिरों में पूजा-पाठ तथा देवताओं की उपासना की जाती थी।

गुप्तकाल में स्थापत्य के क्षेत्र में नवीन प्ररेणा, नवीन पद्धति और नवीन योजनाओं का विकास हुआ। इस कारण गुप्तकाल में मूर्ति-शिल्प एवं मंदिरों की स्थापत्य-कला ने भारतीय संस्कृति में अपना चिरस्थाई स्थान बना लिया। मान्यता है कि गुप्तकाल में ही सर्वप्रथम पाषाण मंदिरों का निर्माण हुआ।

गुप्तकाल के अनेक मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनसे उस काल के मंदिर-स्थापत्य की जानकारी मिलती है। गुप्तकाल में मंदिर निर्माण कला का विकास तीन चरणों में हुआ। सबसे प्रारम्भिक मंदिर एक कक्ष वाले होते थे और उस कक्ष में प्रतिमा प्रतिष्ठित रहती थी। दूसरे चरण में मंदिरों की छतों में पत्थरों के ऊर्ध्वरोही निर्माण हुए जो या तो सीधे अथवा वक्ररेखी भागों वाले पिरामिड जैसे दृष्टिगोचर होते थे। तीसरे चरण में गुप्तकालीन मंदिर शैली अपने चरम को प्राप्त कर गई।

गुप्तकालीन मंदिर शैली मुख्यतः उत्तर भारत में प्रचलित हुई, इस शैली को ‘नागर शैली’ कहा जाता है। नागर शैली के मंदिरों में गर्भगृह, शिखर, मण्डप, प्रदक्षिणा-पथ, जगती, आमलक, कीर्तिमुख जंघा, रथिकाएं, स्तम्भ, प्रवेश द्वार, चौखट एवं गवाक्षों का निर्माण अनिवार्य रूप से किया जाता है।

प्रतीक शास्त्रियों ने मंदिर के अंग-प्रत्यंग के निर्माण का उद्देश्य एवं विधान निश्चित किया है। मंदिर निर्माण की पृष्ठभूमि में दार्शनिक रहस्य निहित हैं। देव-मंदिर परम-पुरुष का प्रतीक है। आकार-प्रकार, स्वरूप, ऊँचाई, ध्वज, कलश, बाह्य अलंकरण, वेदी, प्राचीर, प्रदक्षिणा, आदि सभी का धर्मशास्त्रीय तथा आगमशास्त्रीय महत्व है। मंदिर की बनावट दो भागों में विभक्त होती है-

(1.) ऊर्ध्वछंद: नींव से लेकर शिखर की चोटी तक की ऊँचाई तथा

(2.) तलछंद: एक सिरे से दूसरे सिरे तक बने भवन की लम्बाई।

शिल्पियों ने देवालयों के विभिन्न भागों पर मूर्तियों के माध्यम से उत्कीर्ण पौराणिक वृत्तान्तों एवं कथानकों को प्रदर्शित करने के लिए निश्चित शिल्प-विधानों का पालन किया है। देवताओं तथा दिग्पालों के अंकन में उनके वाहन एवं आयुधों को एक निश्चित अनुपात में उत्कीर्ण किया गया है। मूर्तिकारों ने मूर्ति में निहित सौन्दर्य-मूल्यों को यथावत् बनाए रखा है।

मंदिरों का गर्भगृह छोटा तथा अन्धकारपूर्ण होता है। इसमें केवल प्रमुख देव स्थापित होता है तथा दीवारें एकदम सपाट होती हैं। गर्भगृह की बाह्य भित्ति अभिष्ठान, मंडोवर, प्रवेशद्वार तथा स्तम्भ मूर्तियों से भरे रहते हैं। गर्भगृह की बाह्यभित्ति पर अंकित देव, गन्धर्व, अप्सरा तथा गंधर्व आदि, मुख्य देव की प्रकृति के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करते हैं।

मंदिर की प्रत्येक प्रतिमा चाहे बाहर हो या भीतर, उनका एक निश्चित उद्देश्य होता है। देव-मूर्तियाँ मुख्य देव के विभिन्न स्वरूपों की मूर्त रूप हैं तथा उपासक के लिए भक्तिभाव का वातावरण उत्पन्न करती हैं एवं ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति करवाती हैं।

गुप्तकालीन ब्राह्मण मंदिरों में भीटागाँव (कानपुर जिला), बुधरामऊ (फतेहपुर जिला), सीरपुर और खरोद (रायपुर जिला) तथा तेर (शोलापुर के निकट) के मंदिरों की शृंखला उल्लेखनीय है। भीटागाँव का मंदिर, जो संभवतः अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन मंदिर है, 36 वर्ग फुट के ऊँचे चबूतरे पर मीनार की भाँति 70 फुट ऊँचा बना हुआ है।

बुधरामऊ का मंदिर भी ऐसा ही है। अन्य हिंदू मंदिरों की भाँति इनमें मण्डप आदि नहीं है, केवल गर्भगृह हैं। भीतर की दीवारें यद्यपि सादी हैं तथापि उनमें पट्टे, किंगरियाँ, दिल्हे, आले आदि बनाएं गए हैं। इनके विभिन्न भागों का अनुपात सुंदर है और वास्तु प्रभाव कौशलपूर्ण है। आलों में बौद्धचैत्यों की डाटों का प्रभाव अवश्य पड़ा दिखाई पड़ता है। इनकी शैलियों का अनुकरण शताब्दियों बाद बनने वाले मंदिरों में भी हुआ है।

गुप्तोत्तर कालीन मंदिर स्थापत्य

गुप्तकाल के बाद की मंदिर स्थापत्य कला का वर्गीकरण दो तरह से किया जाता है- (1.) क्षेत्रीयता के आधार पर तथा (2.) सम्प्रदाय के आधार पर।

क्षेत्र के आधार पर मंदिर स्थापत्य शैलियां

क्षेत्र के आधार पर हुए वर्गीकरण में उत्तर भारत की आर्य मंदिर शैली एवं दक्षिण भारत की अनार्य अथवा द्रविड़ मंदिर शैली आती हैं। ग्वालियर के तेली का मंदिर (11वीं शती) और भुवनेश्वर के बैताल देवल मंदिर (9वीं शती) उत्तरी शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि सोमंगलम् एवं मणिमंगलम् आदि के चोल मंदिर (11वीं शती) दक्षिणी शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मंदिरों की उत्तरी एवं दक्षिणी शैलियाँ पूरी तरह भौगोलिक सीमा में नहीं बँधतीं। चालुक्यों की राजधानी पट्टदकल के दस मंदिरों में से चार- (1.)  पप्पानाथ मंदिर ई.680, (2.) जंबुलिंग मंदिर, (3.) करसिद्धेश्वर मंदिर तथा (4.) काशी विश्वनाथ उत्तरी शैली के हैं जबकि छः मंदिर- (1.) संगमेश्वर ई.750, (2.) विरूपाक्ष ई.740, (3.) मल्लिकार्जुन ई.740, (4.) गलगनाथ ई.740, (5.) सुनमेश्वर और (6.) जैन मंदिर, दक्षिणी शैली के हैं।

10वीं एवं 11वीं शती में पल्लवों, चोलों, पांड्यों, चालुक्यों और राष्ट्रकूटों ने दक्षिणी शैली को संरक्षण दिया। दोनों ही शैलियों पर बौद्ध वास्तु का प्रभाव है, विशेषकर शिखरों में।

सम्प्रदायों के आधार पर मंदिर स्थापत्य की शैलियां

सम्प्रदायों के आधार पर किए गए वर्गीकरण में मंदिरों को नागर, द्रविड़ और बेसर कहा जाता है। नागर शैली में विष्णु के पवित्र पर्वतों का और द्रविड़ शैली में शिव के पवित्र पर्वतों का रूपांकन किया गया है। नागर और द्रविड़ मंदिर-स्थापत्य में स्तम्भों, गर्भक्षेत्रों और शिखरों को अत्यंत कलात्मक बनाया जाता था जबकि बेसर शैली में नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का मिश्रण होता है।

बेसर शैली में छतों का आकार-प्रकार कई प्रकार की विशेषताएं लिए हुए होता था। मध्य भारत तथा कर्नाटक के मन्दिरों में प्रायः आर्य तथा द्रविड़ दोनों शैलियों का सम्मिलित स्वरूप मिलता है। चालुक्यों और होयसालों ने मिश्रित बेसर शैली को प्रोत्साहन दिया। विमान शिखर छोटा, फैले कलश, मूर्तियों का आधिक्य, अलंकरण परम्परा का बाहुल्य ही इनकी विशेषता है।

फर्ग्यूसन का मत है कि नागर शैली हिमालय से लेकर विंध्याचल तक फैली हुई थी और द्रविड़ शैली कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक विस्तृत थी। हैवेल ने इस मत से असहमति व्यक्त करते हए कहा है कि दोनों ही सम्प्रदायों का दोनों ही क्षेत्रों में एक साथ प्रचार हुआ। अनेक स्थानों पर विष्णु और शिव के देवालय साथ-साथ विद्यमान हैं।

बौद्ध स्थापत्य

बौद्ध धर्म के अनुयाई मंदिर न बनाकर स्तूपों, चैत्यगृहों एवं विहारों का निर्माण करते थे। पगोडा शैली स्तूपों का ही विकसित रूप है। स्तूप का शाब्दिक अर्थ होता है- ‘मिट्टी का टीला’। सांची, भरहुत तथा अमरावती भारत के सबसे पुराने स्तूपों मे से हैं। स्तूप भगवान बुद्ध का रूप होता है। अर्थात् स्तूप स्वयं अपने आप में बुद्ध की विशालाकाय प्रतिमा है जो ध्यान मुद्रा में व्याघ्रजीन (सिंहासन) पर मुकुट धारण करके विराजमान है। स्तूप का शिखर भगवान बुद्ध का सिर है, स्तूप का मध्यभाग भगवान बुद्ध का धड़ है, स्तूप की सीढ़ियाँ भगवान के पैर हैं तथा स्तूप का आधार भगवान बुद्ध का सिंहासन है।

हर्षकालीन मंदिर स्थापत्य

हर्ष के शासन काल में प्रशासनिक कौशल के साथ-साथ कला और साहित्य की भी उन्नति हुई। हर्ष स्वयं कला और साहित्य का अनुरागी था। इस काल में भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के मंदिर, चैत्य तथा संघाराम बने। एलोरा का मंदिर, एलिफैण्टा का गुहा मंदिर, कांची में मामल्लपुरम् का शैल मंदिर इसी काल में बने। इस काल में मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में बनीं।

वृहत्तर भारत की भारतीय वास्तुकला

वृहत्तर भारत में आज के अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान, बांगलादेश, नेपाल, भूटान, बर्मा, लंका एवं इण्डोनेशिया आदि देश सम्मिलित थे। इन सभी देशों में भारतीय वास्तुकला से निर्मित भवन स्थित हैं। नेपाल, श्रीलंका, बर्मा, स्याम, जावा, सुमात्रा, बाली, हिंदचीन और कंबोडिया में भी भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं।

नेपाल के भक्तपुर का पगोडा शैली का मण्डप-विहीन मन्दिर भारतीय वास्तुकला का ही प्रतिनिधित्व करता है। नेपाल के शंभुनाथ, बोधनाथ, मामनाथ मंदिर, लंका में अनुराधापुर का स्तूप और लंकातिलक मंदिर, बरमा के बौद्ध मठ और पगोडा, कंबोडिया में अंकोर के मंदिर, स्याम में बैंकाक के मंदिर, जावा में परमबनम का शिव मंदिर, कलासन मंदिर और बोरोबुदूर स्तूप आदि हिंदू और बौद्ध वास्तु के प्रमाण हैं।

जावा में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के कुछ प्रमाण गुप्तकाल में 4थी शती ईस्वी में मिलते हैं। वहाँ के अनेक स्मारकों से पता लगता है कि मध्य जावा में ई.625 से ई.928 तक और पूर्वी जावा में ई.928 से ई.1478 तक वास्तुकला का स्वर्णकाल था।

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