मुगलों की सैनिक व्यवस्था ही उनकी साम्राज्य शक्ति का मुख्य आधार थी। सेना के बल पर ही इतने विशाल साम्राज्य को स्थिर रखा जा सकता था।
मुगलों की सैनिक व्यवस्था
बाबर ने सैनिक शक्ति के बल पर मुगल साम्राज्य की नींव रखी। उसकी सैन्य व्यवस्था तैमूर और चंगेज खाँ के संगठन पर आधारित थी। बाबर की सेना की शक्ति तोपखाने के कारण अत्यधिक बढ़ गई थी। उसने तुर्कों, मंगोलों और उजबेगों की युद्ध प्रणाली की भी अनेक बातें अपना ली थीं। हुमायूँ ने बाबर की व्यवस्था को कायम रखा परन्तु वह अच्छा सेनापति नहीं था। अकबर ने सैनिक शक्ति को सुदृढ़ बनाकर सल्तनत का विस्तार किया।
उसने सेना में अनेक सुधार किये। उसने मनसबदारी प्रथा के आधार पर सैनिक व्यवस्था को संगठित बनाया। उस समय में सेना के तीन मुख्य अंग थे- घुड़सवार, तोपखाना और पैदल। अकबर ने नाविक बेड़े का भी गठन किया। सेना के इन समस्त अंगों का महत्त्व एक जैसा नहीं था। बाद में हाथियों का महत्त्व भी बढ़ा।
औरंगजेब के शासनकाल तक मुगलों की सेना अपनी धाक को बनाये रख सकी परन्तु पहले मेवाड़ के विरुद्ध असफल रहने पर और बाद में मराठों के विरुद्ध असफल रहने पर उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।
घुड़सवार सेना
मुगल सेना का सबसे प्रमुख अंग घुड़सवार सेना थी। अधिकांश मुगल शासक स्वयं अच्छे घुड़सवार थे। बाबर ने भारत में जिस तुगलमा पद्धति का उपयोग किया और जिसके कारण उसे विजय प्राप्त हुई, वह घुड़सवारों की गति पर आधारित थी। घुड़सवारों की दो श्रेणियाँ थीं- बरगीर और सिलेदार।
बरगीर सैनिक को राज्य की तरफ से घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र दिये जाते थे। सिलेदार सैनिक घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र की व्यवस्था स्वयं करता था। घुड़सवारों का एक अन्य वर्गीकरण भी था। जिस सैनिक के पास दो घोड़े होते थे वह दुअस्पा कहलाता था। एक घोड़े वाले सैनिक को एक-अस्पा कहा जाता था। दो सैनिकों के बीच एक घोड़ा होने पर उन्हें निम-अस्पा कहा जाता था। इस वर्गीकरण के आधार पर उनका वेतन भी अलग-अलग होता था।
मुगल घुड़सवार सेना की सर्वाधिक श्रेष्ठ टुकड़ी अहदी सैनिकों की होती थी। इनकी भर्ती सीधे केन्द्र द्वारा की जाती थी और इनका सम्पर्क सीधे बादशाह से होता था। ये लोग बादशाह के निजी सेवक होते थे। इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था राज्य की तरफ से की जाती थी। इनके लिए एक अलग दीवान और बख्शी होता था तथा एक अमीर इनका प्रमुख होता था।
विशेष अवसरों पर अहदी सैनिकों को सेना के साथ भेजा जाता था। आरम्भ में एक-एक अहदी के पास आठ-आठ घोड़े रहते थे परन्तु बाद में अकबर के शासन के अन्त में यह संख्या घटाकर पाँच कर दी गई। जहाँगीर ने इस संख्या को और कम करके चार कर दिया। अहदी सैनिकों को 25 रुपये से 500 रुपये प्रतिमाह तक वेतन दिया जा सकता था जबकि अन्य घुड़सवारों को 12 से 15 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था।
पैदल सेना
अकबर के समय में पैदल सेना को प्यादा अथवा पायक कहा जाता था। पैदल सैनिकों की तीन श्रेणियां थीं-
(1.) लड़ाकू: इस श्रेणी में बन्दूकची और तलवारिया (शमशीर बाज) आते थे।
(2.) अर्द्ध-लड़ाकू: इस श्रेणी में संदेशवाहक, दास, चोबदार आदि आते थे।
(3.) गैर लड़ाकू: इस श्रेणी में लुहार, खनिक आदि आते थे। पैदल सेना में बन्दूकचियों की संख्या सबसे अधिक होती थी। उन्हें सेना का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था परन्तु उनका वेतन बहुत कम था। बर्नियर ने लिखा है कि पैदलन सैनिकों को बहुत कम वेतन मिलता था और बन्दूकचियों को अच्छे समय में भी कठिनाई से जीवन यापन करना पड़ता था।
तोपखाना
बाबर ने भारत में सर्वप्रथम तोपखाने का उपयोग किया था परन्तु इसका संगठन अकबर के समय में हो पाया। तोपखाने की व्यवस्था के लिए मीर खानसामा और मीर आतिश नामक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। तोपों की ढलाई के लिए ढलाई खाने बनाये गये।
ये तोपें इतनी भारी होती थीं कि उन्हें ढोने के लिए कई हाथियों और पशुओं की आवश्यकता पड़ती थी। औरंगजेब ने तोपखाने में सुधार करने का अथक प्रयास किया। फिर भी इतिहासकारों का मानना है कि मुगल तोपखाना निम्न स्तर का था। इसलिये आगे चलकर यूरोपीय राष्ट्रों की तुलना में भारतीयों का तोपखाना काफी कमजोर सिद्ध हुआ।
नौ-सेना
मुगल सैनिक व्यवस्था में मुगल नौ-सेना सबसे उपेक्षित थी। अकबर ने पहली बार नौ-सेना के लिए मीर-ए-बहर की अध्यक्षता में एक अलग विभाग खोला। जहाँगीर और शाहजहाँ ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। औरंगजेब ने अवश्य ही इस ओर ध्यान दिया। फिर भी मुगलों की नौ-सेना नावों का छोटा बेड़ा मात्र ही रही, जिसका मुख्य काम शाही परिवार के सदस्यों और सैनिकों को इस किनारे से उस किनारे पहुँचाना था।
मुख्य आलेख- मुगल शासन व्यवस्था एवं संस्थाएँ
मुगलों की सैनिक व्यवस्था



