मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्वों में कृषि, भूस्वामित्व, भूराजस्व, कृषि, प्रौ़द्योगिकी एवं उद्यो तथा वाणिज्य एवं व्यापार आते हैं।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्वों में कृषि, भूस्वामित्व, भूराजस्व, कृषि, प्रौ़द्योगिकी एवं उद्यो तथा वाणिज्य एवं व्यापार आते हैं। हमने इस अध्याय को तीन भागों में विभक्त किया है-1. मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्व, 2. मुगलकालीन प्रौद्योगिकी एवं उद्योग तथा 3. मुगलकालीन व्यापार तथा वाणिज्य।
मध्यकालीन मुस्लिम बादशाह भारत में आक्रांता के रूप में आये थे। उन्होंने सेना के बल पर इस देश का शासन प्राप्त किया था अतः उनका ध्यान अपनी सेनाओं को मजबूत बनाये रखना, उन्हें निरंतर राज्य विस्तार के काम में लगाये रखना तथा शत्रुओं से अपने राज्य को सुरक्षित रखने पर अधिक था।
कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योगों का संरक्षण एवं विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं थे। यही कारण है कि मध्यकालीन फारसी और अरबी ग्रन्थों में भारत की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में बहुत कम सूचनाएँ मिलती हैं। मंगोल बादशाह भी आक्रांताओं की तरह इस देश में प्रविष्ट हुए।
1221 ई. में मंगोलों ने चंगेजखाँ के नेतृत्व में भारत पर पहला बड़ा आक्रमण किया तथा 1526 ई. में बाबर के नेतृत्व में उन्हें पहली बार दिल्ली की सल्तनत पर शासन करने का अधिकार मिला। मुस्लिम शासकों की परम्परा के अनुसार मंगोलकालीन फारसी एवं अरबी ग्रंथों ने बादशाहों द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों, शहजादों द्वारा किये गये उत्तराधिकार के युद्धों, विप्लवों आदि का विस्तार से वर्णन किया है किंतु देश की कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं अर्थव्यवस्था का बहुत कम उल्लेख किया है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था जानने के प्रमुख स्रोत
भारतीय आर्य परम्परा में राजाओं के तिथिक्रम, वंशक्रम तथा युद्धों का वर्णन करने की बजाय धर्म, अध्यात्म एवं पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कृषि, पशुपालन, अकाल, आदि का बहुतायत से उल्लेख होता था। यही कारण है कि मंगोलों के शासन में रचे गये संस्कृत ग्रंथों तथा क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में सूचनाएँ अंकित की जाती रहीं। मुगलकालीन एवं परवर्ती विदेशी पर्यटकों के विवरणों से भी मुगलकालीन अर्थव्यवस्था का ज्ञान होता है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्व
मुगलकाल में भी भारत की अर्थव्यवस्था प्राचीन आर्य परम्परा के अनुसार कृषि, पशुपालन एवं घरेलू उद्योगों पर आधारित थी। इस कारण गाय ही ग्रामीण जीवन एवं अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी। अर्थव्यवस्था में जटिलता उत्पन्न नहीं होने से, प्रजा का जीवन सरल एवं मंथर-गति युक्त था। ग्रामीण प्रजा की आवश्यकताएँ गाँवों में ही पूरी हो जाती थीं। पूरा परिवार प्रायः एक ही कार्य करता था। प्रत्येक परिवार का कार्य परम्परा से निर्धारित था। स्त्रियां घर का काम करती थीं तथा अपने परिवार के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों में भी भूमिका निभाती थीं।
श्रम विभाजन
परम्परागत रूप से आर्यों द्वारा किया गया श्रम विभाजन अब भी समूची ग्रामीण एवं नगरीय अर्थव्यवस्था का आधार था। किसान खेती करते थे। बढ़ई तथा लौहार कृषि उपकरण तथा घरेलू उपभोग का सामान बनाते थे। सामान्यतः खेती के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाता था किंतु कुछ लोग केवल पशुपालक एवं चरवाहे के रूप में जीवन यापन करते थे।
वे पशुओं को पालने एवं दूध बेचने का काम करते थे। जुलाहे कपड़ा बुनते थे। चर्मकार चमड़े का काम करते थे। पुजारी, ज्योतिषी, वैद्य, महाजन, धोबी, नाई तथा भंगी आदि जातियों के लोग, परम्परागत रूप से अपने लिये निश्चित किये गये कार्य करते थे। कुछ लोग रस्सी और टोकरी बनाने, शक्कर तथा गुड़ बनाने, इत्र तथा तेल आदि बनाने का काम करते थे।
हाट-बाजार
नगरीय जीवन में बाजार दैनंदिनी का अंग थे जहाँ विभिन्न प्रकार की सामग्री का क्रय-विक्रय होता था किंतु गाँवों में बाजार प्रायः नहीं थे। अलग-अलग गांवों में छोटे-छोटे नियतकालिक बाजार लगते थे जिनमें कपड़ा, मिठाइयाँ तथा दैनिक आवश्यकता की विविध सामग्री बिकती थी। फसलों एवं पशुओं का क्रय विक्रय बड़े स्तर पर होता था।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था में भू-स्वामित्व एवं भू-राजस्व
भू-स्वामित्व
मध्यकालीन भारत में भू-स्वामित्व के सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। समकालीन यूरोपियन यात्री बादशाह को भूमि का स्वामी मानते हैं किन्तु डॉ. इरफान हबीब का मत है कि भूमि का स्वामी न तो बादशाह था और न किसान। कुछ परिस्थितियों में उसका अधिकार मिलकियत का था अर्थात् सिद्धान्ततः भूमि का स्वामी बादशाह था परन्तु व्यवहारिक रूप से भूमि पर काश्त करने वाले जब तक भू-लगान देते रहते थे, तब तक वे भूमि के स्वामी बने रहते थे।
सामान्य रूप से किसान न तो भूमि को बेच सकता था और न उससे अलग हो सकता था। डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी का मानना है कि कृषकों को जमीन बेचने और बंधक रखने जैसे अधिकार नहीं थे। फिर भी कृषकों का एक वर्ग जिसे मौरूसी कहा जाता था, इस प्रकार के अधिकारों का दावा करता था, जिन्हें दखलदारी का अधिकार (ओक्यूपेंसी राइट्स) कहा जा सकता है।
सामान्यतः उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता था और उनके वंशजों का उनके खेतों पर उत्तराधिकार होता था। साथ ही ऐसे किसान भी थे जो जमींदारों की अनुमति से खेत जोतते थे और उन्हें जमींदार कभी भी बेदखल कर सकते थे। वस्तुतः कृषकों का वर्गीकरण कई स्तरों एवं श्रेणियों में हो सकता था।
किसान यदि अपनी भूमि को छोड़कर अन्यत्र चला जाता था तो सरकारी कर्मचारियों को आदेश थे कि वे किसान को समझा-बुझाकर वापस ले आयें। औरंगजेब के काल में बहुत से किसान ताल कोंकण से भाग गये थे। उन्हें बलपूर्वक वापस लाकर छः सौ गाँवों में बसाया गया था।
भूमि का वर्गीकरण
मुगलकाल में भूमि को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था- (1.) खालसा भूमि और (2.) गैर-खालसा (जागीर, साराण आदि)। खालसा भूमि सीधी बादशाह के नियंत्रण में थी। मालगुजारी निश्चित करने के लिए भूमि को पोलज, परती, चाचर एवं बंजर में बाँटा गया था। यह वर्गीकरण भूमि को जोतने पर आधारित था।
पोलज वह भूमि थी जिसे प्रत्येक वर्ष जोता जाता था। परती को कुछ समय के लिए बिना जोते ही छोड़ दिया जाता था। चाचर भूमि तीन-चार साल के लिए बिना जुते ही छोड़ दी जाती थी। बंजर भूमि वह थी जिस पर पाँच साल से अधिक समय तक कोई उपज नहीं होती थी। गैर खालसा भूमि जागीरदारों के अधिकार में थी। अकबर के शासनकाल में जागीरदार अर्द्ध-स्वतन्त्र शासक थे। बादशाह का उनके आंतरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं था।
भ-ूराजस्व का निर्धारण
प्रथम दो प्रकार की भूमियों (पोलज तथा परती) को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया-
(1.) अच्छी,
(2.) मध्यम और
(3.) खराब।
इन तीन श्रेणियों की प्रति बीघा औसत उपज को पोलज अथवा परती के प्रति बीघा की सामान्य उपज मान लिया गया था। इन दोनों भूमि में विशेष अन्तर नहीं था क्योंकि जिस वर्ष भी परती भूमि पर खेती की जाती थी, उसकी उपज पोलज के समान ही हुआ करती थी।
चाचर भूमि में जब पहले साल खेती होती थी तो निश्चित दर अर्थात् 2/5 भाग मालगुजारी के रूप में ली जाती थी और पाँच साल खेती होने के पश्चात् उस पर सामान्य दर से मालगुजारी वसूल की जाती थी। इसी प्रकार बंजर भूमि पर भी पांॅच साल के बाद पूरी दर से मालगुजारी वसूल की जाती थी।
रैयती जमींदारों के अत्याचार
डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी के अनुसार मुगलकाल में किसानों की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं थी। किसान को भूमि की पैदावार के अनुसार एक-तिहाई से लेकर आधा हिस्सा तक भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। भू-राजस्व के साथ-साथ किसानों को चुंगियों तथा अनुलाभों के रूप में कुछ और भी देना पड़ता था। यह वसूली भू-राजस्व के निर्धारण एवं संग्रह पर हुए व्यय की पूर्ति के लिए विभिन्न मदों में की जाती थी।
ऐसा प्रतीत होता हैं कि तलबाना और शहनामी जैसी चुंगियाँ जमींदारों से ली जाती थी जो आमतौर पर अपना भार किसानों पर डाल देते थे। छोटे ओहदे वाले मनसबदारों को भू-राजस्व संग्रहण हेतु छोटी-मोटी सेना रखने की अनुमति होती थी। यह सेना किसानों, जन-सामान्य तथा रयैती जमींदारों को आतंकित करने के लिए पर्याप्त होती थी।
इस कारण छोटे मनसबदार, भू-राजस्व संग्रहण, रैयती जमींदारों के साधनों की जानकारी कर उन पर अधिक भू-राजस्व-कर आरोपित करके करते थे। रयैती जमींदार भू-राजस्व-कर का सारा भार किसानों पर डाल देते थे। जब किसान पैसा जमा नहीं करवा पाते थे तो उन पर रैयती जमींदार द्वारा अत्याचार किये जाते थे।
जब किसानों पर अत्याचार, सहन करने की सीमा से बाहर हो जाता था तब वे रैयती जमींदारों के क्षेत्रों को छोड़कर जोर टलब जमींदारों के क्षेत्रों में चले जाते थे। जहाँ उन्हें रैयती जमींदारों के क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक सुविधा मिलती थी। इससे किसानों की दयनीय स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था में कृषि
आर्यों द्वारा स्थापित संस्कृति ने वैदिक काल से भारत को कृषि प्रधान देश का स्वरूप प्रदान किया था। मंगोलों के शासन में भी खेती का काम सामान्यतः हिन्दुओं के हाथों में रहा। इस कारण अब भी खेती प्राचीन आर्य पद्धति से, बैलों के द्वारा हल चलाकर की जाती थी। हल, कसी, खुरपी, पटेला तथा हंसिया, इस युग में भी खेती के मुख्य उपकरण थे। प्राचीन आर्य शासकों ने खेतों में सिंचाई के लिए नहरें बनाने की परम्परा आरम्भ की थी किंतु मध्यकालीन मुस्लिम आक्रमणों के बाद शासकों द्वारा नहरों की मरम्मत नहीं करवाने से खेती पूर्णतः वर्षा पर निर्भर हो गई। वर्षा के अभाव में प्रायः अकाल की स्थिति उपत्न्न हो जाती थी।
मुख्य फसलें
मुगलकाल में बोई जाने वाली मुख्य फसलें गेहूँ, बाजरा, मक्का, चावल, मटर, तिलहन, गन्ना, रूई आदि थीं। फलों में आम, अंगूर, केला, खरबूजा, अंजीर, नींबू, खिरनी, जामुन आदि उत्पन्न किये जाते थे। आयुर्वेदिक औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ, मसाले और सुगन्धित काष्ठ भी उत्पन्न किये जाते थे। इन उत्पादों को भारत के विभिन्न भागों एवं भारत से बाहर ले जाकर भी बेचा जाता था। अनाज भण्डारण के लिये गड्ढों या खत्तियों का उपयोग किया जाता था जिनमें लम्बे समय तक अनाज सुरक्षित रखा जा सकता था।
बागवानी
मुगल बादशाहों ने फलों की उपज में वृद्धि और किस्मों में सुधार करने के प्रयास किये तथा बागवानी को प्रोत्साहन दिया। बाबर को बागों में विशेष रुचि थी। उसने ईरानी शैली के अनुसार कुछ बागों का निर्माण करवाया, जिनमें कृत्रिम झरने तथा ढलुआ जमीनों पर चबूतरे आदि बनवाये।
अकबर के शासन काल में किसानों की सहायता
मुगल शासकों में अकबर सबसे पहला बादशाह था जिसने किसानों को प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई। उसके शासन काल में किसानों को गन्ना, नील, अफीम, मसाले आदि नगद फसलें उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। राज्य तकाबी के रूप में किसानों को ऋण देता था और सिंचाई की सुविधाएँ प्रदान करने का प्रयत्न करता था।
अनावृष्टि, अतिवृष्टि अथवा दुर्भिक्ष या अन्य किसी दैवी प्रकोप से फसल नष्ट हो जाने पर राज्य की ओर से उस क्षेत्र का भूमि कर माफ कर किसानों को आर्थिक सहायता दी जाती थी। फसलों को हुई क्षति का विवरण रखा जाता था। जब अधिक वर्षा या बाढ़ के कारण भूमि बिना जुती रह जाती थी, तब किसानों को भीषण कष्ट होता था।
ऐसे समय में भी राज्य किसानों की सहायता करता था। सरकारी कर्मचारियों को आदेश था कि वे किसानों से कोई अतिरिक्त कर वसूल न करें तथा उनके साथ कठोर व्यवहार न करें। यदि सैनिक अभियानों के समय किसानों की फसलों को किसी प्रकार की क्षति उठानी पड़ती थी तो राज्य उस क्षति की पूर्ति करता था।
कुछ मामलों में अकबर ने अपने सैनिक अभियानों के समय खड़ी फसल को क्षति से बचाने के लिए सशस्त्र सैनिकों को नियुक्त किया तथा फसलों को सेना के कारण हुई क्षति के लिये किसानों को नकद राशि का भुगतान किया।
अकबर ने आलू की फसल तैयार करवाने का प्रयत्न किया था तथा जहाँगीर ने अनेक प्रकार के अंगूरों की उपज करवाई। तम्बाकू और तरबूज भी पैदा किये जाने लगे। मुहम्मद रिदा को जिसने पहली बार तरबूज उगाये थे, सम्मानित किया गया। मुगलों के काल में गेहूँ और चावल का निर्यात किया जाता था। इसलिये यह आवश्यक था कि उपज को बढ़ाया दिया जाये ताकि आन्तरिक माँगों की पूर्ति के साथ-साथ निर्यात के लिए भी जिन्स उपलब्ध हो सके।
किसानों का जीवन
कुछ मुस्लिम इतिहासकारों का मानना है कि मुगलों के समय में किसानों की स्थिति अच्छी थी जबकि अधिकांश विदेशी इतिहासकारों के अनुसार मुगल काल में किसानों की स्थिति बहुत खराब थी। पेलसर्ट के अनुसार जहाँगीर के समय में किसानों की स्थिति बहुत ही खराब थी।
उनके घरों में केवल दुःखों और विपत्तियों का स्थान था। कश्मीर के लोग मोटा चावल खाते थे। बिहार के ग्रामीण केसरी दाल खाने को बाध्य थे, जिससे वे रोगग्रस्त रहते थे। मालवा के लोगों को गेहूँ के आटे की व्यवस्था करना बहुत कठिन था, इसलिए वे ज्वार के आटे का प्रयोग करते थे।
मुगलों के शासन काल में इजारेदारी के व्यापक प्रचलन से किसानों पर बुरा प्रभाव पड़ा। क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत किसान इजारा लेने वाले व्यक्ति की दया पर निर्भर होते थे, जिनका उद्देश्य किसानों से अधिक से अधिक कर वसूल करना होता था। अतः साधारण किसान साधन सम्पन्न होे ही नहीं सकते थे। वे बड़ी निर्धनता में अपना जीवन-निर्वाह करते थे।
किसानों द्वारा घोर परिश्रम करने के बाद फसल तैयार होती थी, किन्तु भू-राजस्व एवं अन्य करों तथा चुंगियों को चुकाने के बाद उनके पास इतना अनाज बड़ी कठिनाई से बचता था कि वे अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल सकें। किसानों के इस शोषण के विरुद्ध छुटपुट विद्रोह होते थे परन्तु उन्हें निर्ममता से कुचल दिया जाता था।
औरंगजेब के काल में सतनामियों और जाटों के विद्रोह इसकी पुष्टि करते हैं। इन विद्रोहों के लिए जहाँ औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता जिम्मेदार थी वहीं किसानों के असन्तोष ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
किसानों द्वारा अपना पेट भरने के लिये केवल एक ही रास्ता था कि वे अधिक से अधिक भूमि पर खेती करें ताकि भूराजस्व चुकाने के बाद इतना अनाज बच जाये कि वे अपने परिवार का पेट भर सकें। सौभाग्य से उस समय देश की जनसंख्या कम थी तथा खेती योग्य भूमि अधिक मात्रा में उपलब्ध थी, इस कारण पूरा परिवार दिन रात हाड़ तोड़ परिश्रम करके अधिक से अधिक अन्न पैदा करता था। जिसका अधिकांश भाग रैयती जमींदार ले जाते थे।
किसानों को अपनी अन्य न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये जंगल से लकड़ी काटनी पड़ती थी तथा पशुओं के माध्यम से भी कमाई करनी पड़ती थी। बहुत से लोग रस्सी, टोकरी, छाज आदि बनाकर बेचते थे। इसलिए शोषण होने पर भी किसान खेती करता रहता था।
मुख्य आलेख – मुगलकालीन अर्थव्यवस्था
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्व



 
                                    