Saturday, July 27, 2024
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93. एक दरवेश हुमायूँ के लिए जूतियां लेकर भारत से काबुल पहुंचा!

जब मिर्जा कामरान सिंधु नदी से हुमायूं का शिविर छोड़कर हज के लिए मक्का चला गया तब हुमायूँ सिंधु नदी पार करके विक्रम नामक स्थान पर पहुंचा। इस स्थान पर अत्यंत प्राचीन काल में निर्मित एक दुर्ग हुआ करता था जिसे इस क्षेत्र के प्राचीन हिन्दू-शासकों ने बनवाया था। जब बादशाह हुमायूँ गक्खर पर अभियान करने गया था, तब कुछ अफगान कबायलियों ने विक्रम दुर्ग को नष्ट कर दिया। हुमायूँ ने इस दुर्ग को फिर से बनाने के आदेश दिए।

दुर्ग के काम को अपनी देखरेख में आरम्भ करवाने के लिए हुमायूँ काफी समय तक वहीं पर ठहरा रहा। जब दुर्ग की दीवारें ऊंची हो गईं तो हुमायूँ ने उस दुर्ग का नाम पेशावर रखा। इसके बाद हुमायूँ काबुल के लिए रवाना हो गया। अब बाबर के कुनबे में कोई भी ऐसा नहीं बचा था जो हुमायूँ का विरोध करे। इसलिए कामरान तथा अस्करी के पक्ष के बहुत से अमीर जो इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे थे, किसी न किसी तरह बादशाह से माफी मांगकर बादशाह की तरफ आ गए।

अब तक हुमायूँ के एक ही पुत्र था जिसका नाम अकबर था और अब वह 12 वर्ष का हो चुका था। पाठकों को स्मरण होगा कि अकबर का जन्म हमीदा बानो बेगम के गर्भ से हुआ था। अप्रेल 1554 में हुमायूँ की एक अन्य पत्नी चूचक बेगम के गर्भ से एक और पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम मिर्जा हकीम रखा गया।

नवम्बर 1554 में हुमायूँ ने भारत विजय के लिए प्रस्थान करने का मन बनाया। उस काल में मुसलमान दरवेश लम्बी-लम्बी पैदल यात्राएँ किया करते थे और निरंतर चलते हुए एक देश से दूसरे देश जाया करते थे। भारत से भी कुछ मुस्लिम दरवेश हुमायूँ से मिलने के लिए आया करते थे। ये दरवेश भारत की राजनीतिक स्थिति की जानकारी हुमायूँ को दिया करते थे।

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अबुल फजल ने बादशाह के पास आने वाले फकीरों के सम्बन्ध में दो विचित्र घटनाओं का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि एक दिन एक दरवेश भारत से बनी हुई जूतियां लेकर हुमायूँ के पास पहुंचा और उसने बादशाह को जूतियां भेंट कीं। बादशाह को इससे पहले किसी ने भी ऐसी भेंट नहीं दी। इसलिए बादशाह ने इन जूतियों को भारत विजय के शुभ समय के आगमन के चिह्न के रूप में ग्रहण किया।

एक अन्य दरवेश ने नाश्ते के समय बादशाह को भेड़ के सीने की हड्डी परोसी। बादशाह ने इसे भी भारत विजय के लिए शुभ शकुन के रूप में स्वीकार किया। संभवतः उसने सोचा कि भारत एक भेड़ की तरह है जिसके सीने की हड्डी वह नाश्ते में खा सकता है। इस प्रकार जब बादशाह को शुभ संकेत मिलने लगे तो उसने भारत अभियान के बारे में सोचना आरम्भ कर दिया।

हुमायूँ को भारत की राजनीतिक दुर्दशा के समाचार समय-समय पर मिलते रहते थे। हुमायूँ इस समय तक राजनीतिक रूप से काफी परिपक्व हो चुका था, हुमायूँ के भाइयों का भी सफाया हो चुका था, हुमायूँ के अमीर भी उसके आज्ञाकारी बन गये थे, इसलिए हुुमायूँ ने भारत की राजनीतिक कमजोरी का लाभ उठाने का निश्चय किया।

हुमायूँ ने मुनीम खाँ को अकबर का तथा शाहवली बकावल बेगी को मिर्जा हकीम का संरक्षक नियुक्त कर रखा था। हालांकि हुमायूँ ने अकबर को भारत अभियान पर अपने साथ ले जाने का निश्चय किया किंतु उसके संरक्षक मुनीम खाँ को अपने साथ भारत अभियान पर ले जाने की बजाय उसे मुगल हरम की औरतों और मुगल राज्य की राजधानी काबुल की रक्षा के निमित्त काबुल में ही रहने का आदेश दिया।

बादशाह की अनुपस्थिति में कोई व्यक्ति मुनीम खाँ के आदेशों की अवहेलना न करे, इसके लिए हुमायूँ ने मुनीम खाँ को काबुल प्रांत का गवर्नर बना दिया तथा शाही हरम की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी भी उसी को सौंप दी। इसके बाद हुमायूँ ने नजूमियों से शुभ मुहूर्त निकलवाकर नवम्बर 1554 में भारत के लिए प्रस्थान किया।

अबुल फजल ने लिखा है कि उस समय हुमायूँ की सेना में तीन हजार से अधिक सैनिक नहीं थे किंतु अल्लाह उसकी सहायता कर रहा था। हुमायूँ बैराम खाँ को अपने साथ भारत ले जाना चाहता था किंतु बैराम खाँ कुछ सरकारी मामलों की व्यवस्था करने के लिए हुमायूँ से अनुमति लेकर कुछ दिनों के लिए काबुल में रुक गया। हुमायूँ की सेना में अधिकांशतः घुड़सवार थे किंतु कुछ सैनिक ऊंटों पर भी चलते थे जबकि असैनिक कर्मचारी प्रायः खच्चरों एवं टट्टुओं पर चला करते थे। हुमायूँ की सेना थलमार्ग से चलती हुई जलालाबाद पहुंची तथा वहाँ से बेड़ों में सवार होकर दिसम्बर 1554 के अंतिम दिनों में पेशावर पहुंच गई।

31 दिसम्बर 1554 को हुमायूँ ने सिंधु नदी के किनारे अपना खेमा गाढ़ा और बैराम खाँ के आने की प्रतीक्षा करने लगा। सिंधु नदी को उन दिनों अफगानिस्तान में नीलाब नदी के नाम से जाना जाता था। यहाँ से हुमायूँ ने गक्खड़ प्रदेश के शासक सुल्तान आदम को पत्र भिजवाया कि वह बादशाह की सेवा में उपस्थित हो।

सुल्तान आदम हुमायूँ की सेवा में नहीं आना चाहता था। इसलिए उसने हुमायूँ को स्पष्ट लिख भेजा कि इस समय मैं पंजाब के शासक सिकंदरशाह सूरी के साथ संधि में बंधा हुआ हूँ और मेरा पुत्र लश्करी सिकंदरशाह की सेवा में गया हुआ है। यदि मैं आपकी सेवा में आता हूँ तो सिकंदरशाह मेरे पुत्र लश्करी को मार डालेगा। अतः मैं बादशाह की सेवा में उपस्थित होने में असमर्थ हूँ।

सुल्तान आदम की ऐसी बदतमीजी देखकर हुमायूँ के दरबारियों ने उसे सलाह दी कि इस बागी को दण्डित करना चाहिए किंतु हुमायूँ ने उसकी पुरानी सेवाओं का स्मरण करके सुल्तान आदम के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने से मना कर दिया। तीन दिन बाद बैराम खाँ अपनी टुकड़ी के साथ आ पहुंचा। अब हुमायूँ ने सिंधु नदी पार करके भारत की भूमि पर फिर से पैर रखा।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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