Friday, October 4, 2024
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तेरी गठरी में लागा चोर!

जीवन एक अनंत यात्रा है जो जन्म-जन्मांतर तक चलती है। हम इस यात्रा के अनंत यात्री हैं। जैसा कि प्रत्येक यात्रा में होता है, यात्री के पास कुछ आवश्यक सामान होता है। जीवनयात्रा में भी कुछ अलग प्रकार का आवश्यक सामान होता है। इस सामान को हमने चार गठरियों में बंध रखा है।

पहली गठरी में हमने धर्म को सहेज रखा है। यह गठरी जन्म-जन्मांतर तक हमारे साथ चलती है। प्रत्येक जन्म में यह ईशभक्ति एवं सद्कर्मों की मात्रा के अनुसार हलकी-भारी होती रहती है।

दूसरी गठरी में हमने अर्थ को बांध रखा है। यह गठरी प्रत्येक जन्म में नए सिरे से बांधनी पड़ती है और अंत में यहीं पर छूट जाती है। अस्थाई होने पर भी यह गठरी बड़ी चमत्कारी होती है। यदि इस गठरी का ढंग से उपयोग किया जाए तो शेष तीनों गठरियों का काम भी यही कर देती है।

तीसरी गठरी है काम (अर्थात् इच्छा) की। इस धरती पर सबसे बदनाम गठरी यही है किंतु हमारी जीवनयात्रा इस गठरी के बिना पूरी नहीं हो सकती। यह गठरी सबसे भारी होती है।

चौथी गठरी में हमने मोक्ष बांधा हुआ है। यह गठरी पूरी तरह खाली है। यह गठरी उसी दिन भरती है जब हम तीनों गठरियों में बंधे सामान को ढंग से खर्च कर देते हैं! सब लोग इसी गठरी की सुरक्षा करने की चिंता में लगे रहते हैं किंतु यदि पहली तीन गठरियों को ढंग से संभाल लिया जाए तो इस गठरी को संभालने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

जिस प्रकार यात्रियों का सामान चुराने के लिए चोर उनके पीछे लगे रहते हैं, उसी प्रकार जीवनयात्रा की इन चारों गठरियों को चुराने के लिए भी कुछ चोर हमारे पीछे लगे हुए हैं। हालांकि ये चारों गठरियां प्रत्येक व्यक्ति की निजी होती हैं, वे दूसरों के काम की नहीं होतीं। फिर भी कुछ लोग इन गठरियों को चुराकर नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। हमें यत्नपूर्वक इन गठरियों की रक्षा करनी चाहिए। इस आलेख में हम धर्म रूपी गठरी की चर्चा करेंगे।

धर्म के बारे में मेरी समझ हिन्दू धर्मशास्त्रों के माध्यम से है। इसलिए मैं अपनी बात हिन्दू धर्मग्रंथों के उद्धरणों से ही स्पष्ट कर सकता हूँ। यद्यपि धर्म की व्याख्या सैंकड़ों ग्रंथों में सैंकड़ों प्रकार से की गई है तथापि वर्तमान समय में रामायण और गीता, दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिन्हें हम आसानी से पढ़ और समझ सकते हैं। इन दोनों ग्रंथों में भी इस बात की ओर संकेत किया गया है कि धर्म रूपी गठरी को चुराकर नष्ट करने के लिए हर युग में षड़यंत्र चलते रहते हैं।

श्रीमद्भगवद् गीता कहती है- यदा-यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत….।

अर्थात्- हे अर्जुन जब-जब धर्म की हानि होती है……।

रामचरित मानस कहती है-

हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहि नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बिबाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ ।।

अर्थात्- जिस प्रकार घास के उग आने से मार्ग छिप जाता है, उसी प्रकार पाखण्डी मत के प्रचार से अच्छे ग्रंथ लुप्त हो जाते हैं।

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समाज को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने वाले साधु, धर्म रूपी गठरी की रक्षा करना चाहते हैं किंतु समाज को सन्मार्ग से विचलित करके कुमार्ग पर ले जाने वाले लोग, समाज की धर्म रूपी गठरी को चुराकर नष्ट करना चाहते हैं और उस गठरी में धर्म की जगह अधर्म बांध देना चाहते हैं। इसी को धर्म और अधर्म का युद्ध कहते हैं, इसी को पाप और पुण्य का युद्ध कहते हैं तथा इसी को देव और दानव का संघर्ष भी कहते हैं।

कुछ लोग काली माता को सिगरेट पीते हुए दिखाना चाहते हैं। कुछ लोग देवी दुर्गा के महिषासुर मर्दिनी अवतार के सम्बन्ध अशोभनीय बातें कहते हैं। कुछ लोग माता पार्वती के बारे में इतनी हीन बात करते हैं कि उन्हें लिखा भी नहीं जा सकता। कुछ लोग शिवलिंग के बारे में अनर्गल प्रलाप करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सांप, बंदर, गाय और कुत्तों की पूजा करने वाले हिन्दुओं पर जब मुसीबत आती है तो क्या ये सांप, बंदर, गाय और कुत्ते हिन्दुओं को बचाने के लिए आते हैं! ऐसे और भी सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनके माध्यम से हिन्दुओं की धर्म रूपी गठरी पर प्रहार किए जाते हैं।

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो मुझे जिस भाव से भजता है, मैं भी उसको उसी भाव से भजता हूँ। अर्थात् जो मुझे जिस रूप में प्राप्त करना चाहता है, कर सकता है। जिसे शेरों वाली माता चाहिए, उसे शेरों वाली माता मिलेगी, जिसे सिगरेट वाली माता चाहिए, उसे सिगरेट वाली मिलेगी।

हिन्दू धर्म में तेतीस करोड़ देवी देवताओं की अवधारणा है, जिसे भगवान का जो रूप अच्छा लगे, वह उसकी पूजा कर ले। श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि किसी भी भगवान के निमित्त की गई पूजा, अंत में मेरे ही पास चली आती है।

अध्यात्मिक चिंतन की स्वतंत्रता उपलब्ध होने के कारण तथा धार्मिक कठोरताओं की बाध्यताएं नहीं होने के कारण, हिन्दू जाति हजारों सालों से धर्म के मामले में उदार, अहिंसक और सहिष्णु बनी हुई है। हिन्दू धर्म में प्रतिदिन किए जाने वाले धार्मिक कार्य भी निश्चित नहीं हैं। कोई वेद पढ़ता है, कोई पुराण पढ़ता है, कोई गीता पढ़ता है, कोई रामायण पढ़ता है, कोई सूर्य को जल चढ़ाता है, कोई शिव को जल चढ़ता है, कोई पीपल को जल चढ़ाता है, कोई गंगाजी नहाता है, कोई हवन करता है, कोई मूर्तिपूजा करता है, कोई दान देता है, कोई तीर्थसेवन करता है, कोई मंत्रजाप करता है, कोई माला फेरता है और कोई व्यक्ति इनमें से कुछ भी नहीं करके हिन्दू धर्म में बना रहता है तथा मोक्ष का अधिकारी होता है।

सबके अपने-अपने राम हैं, कोई स्त्री उन्हें कौशल्या बनकर खीर और हलुए का भोग चढ़ाती है तो कोई शबरी बनकर फल और फूल खिलाती है। कोई भक्त, हनुमानजी बनकर रामजी की सेवा करता है, तो कोई भक्त, विभीषणजी की तरह पाप का कुनबा छोड़कर रामजी के चरणों में आ बैठता है। कोई जटायु और कोठारी बंधुओं की तरह रामकाज के लिए लड़ते हुए देह छोड़ता है तो कोई दशरथजी की तरह रामजी के वियोग में प्राण त्यागता है। अपना-अपना देव और अपनी-अपनी आस्था। हजारों सालों से हिन्दू धर्म ऐसा ही है। करुणा और श्रद्धा से लदा हुआ! क्षमा और दया से भरा हुआ! उदार, अहिंसक और सहिष्णु!

इसी उदारता, अहिंसकता और सहिष्णुता का लाभ उठकार हिन्दू धर्म की गठरी में नित नए छेद करने के षड़ंत्र किए जाते हैं। अहिंसक, सहिष्णु और उदार होने के कारण हिन्दू इन छेदों को देख नहीं पाते जिसके कारण ये छेद इतने बड़े हो जाते हैं कि धर्म की वास्तविक हानि हो जाती है।

भारत में समय-समय पर किसी पाखण्डी साधु या फकीर को देवता और भगवान की तरह पूजने के लिए षड़यंत्र चलाए जाते हैं। हिन्दू चुप रहता है और षड़यंत्र को मूर्खता कहकर टाल देता है। परिणाम यह होता है कि कुछ ही सालों में हिन्दू मंदिरों में उस पाखण्डी साधु या फकीर की मूर्तियाँ भगवान बनकर पहुंच जाती हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए व्रत और उद्यापन किए जाने लगते हैं और कथाओं के पाठ होने लगते हैं। उस पाखण्डी साधु या फकीर की मूर्तियों के सामने हलुए के भोग लगाए जाने लगते हैं और भोले-भाले हिन्दू जिस तरह हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, इन पाखण्डी साधुओं और फकीरों के स्तुतिगायन करने वाली चालीसाएं भी पढ़ने लगते हैं।

रामचरित मानस का पाठ करने वाले एक हिन्दू बाबा तो आजकल भगवान के मंदिर छोड़कर फकीरों के स्थानों पर चादरें चढ़ाते हुए देखे जा रहे हैं। एक और भी कथावाचिका हैं वे भी भगवान के भजन गाते-गाते जाने किसके भजन गाने लगती हैं। ये सब भी गठरी में छेद करने के बड़े षड़यंत्र हैं।

ऐसे सैंकड़ों षड़यंत्र, कुचक्र और घात-प्रतिघात विगत सैंकड़ों सालों से किए जा रहे हैं जिनके माध्मम से हिन्दू जाति की धर्म रूपी गठरी में बड़े-बड़े छेद किए जा चुके हैं।

आजादी के बाद इन षड़यंत्रों में काफी तेजी आई है। इस तेजी के दो बड़े कारण हैं। पहला कारण है हिन्दुओं की उदरमना प्रवृत्ति तथा दूसरा कारण है संविधान में लोकतंत्र व्यवस्था के तहत प्रत्येक व्यक्ति को मिले हुए अधिकार। बहुत बड़ी संख्या में षड़यंत्री लोग इन दोनों स्थितियों एवं सुविधाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं।

अधिकतर भोले-भाले लोग नौकरी पाने, विवाह हो जाने, अपना अटका हुआ काम पूरा हो जाने, संतान प्राप्त करने, अपने घर में धन-सम्पत्ति आने, परीक्षा में उत्तीर्ण होने की लालसा में इन पाखण्डी साधुओं एवं फकीरों के फेर में पड़ते हैं। जबकि इनमें से अधिकतर काम तो प्रारब्ध एवं पुरुषार्थ के अधीन होते हैं। किसी फकीर, औलिया, बाबा, ढोंगी साधु अथवा पाखण्डी की मूर्ति के आगे हलुआ चढ़ाने से, उसके नाम के व्रत करने से और चमत्कारों की किताबें बांटने से कुछ नहीं होता।

कुछ लोग कह सकते हैं कि हमारे जो काम हनुमानजी और दुर्गाजी की पूजा से नहीं हुए, वे फलाने फकीर या बाबा की मूर्ति या समाधि को हलुआ-माला चढ़ाने से हो गए। उन्हें मैं कहना चाहता हूँ कि संसार में ऐसा कोई आदमी नहीं है, जिसकी आधी से अधिक इच्छाएं प्रारब्ध और पुरुषार्थ से पूरी न होती हों! आप किसी देवता की पूजा न करें, तो भी आपकी इच्छाएं पूरी होंगी। श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैं सबका योगक्षेम वहन करता हूँ। रामचरित मानस में रामजी को ‘कारण रहित दयाल’ कहा गया है।

यदि हम भगवान में विश्वास करते हैं, चाहे हमारा भगवान कोई भी क्यों न हो, तो इतना तो मानते ही होंगे कि भगवान दीनदयाल हैं! ऐसी स्थिति में हम भगवान को याद करें, न करें, भगवान हमारे हैं और वे हमारा काम बिना किसी हलुआ-पूरी के भी करेंगे। यदि हम भगवान को हलुआ-पूरी चढ़ाते हैं तो यह हमारे मन के संतोष के लिए है, अपने हृदय को भगवान की सेवा करने के भाव से भरने के लिए है। भगवान को क्या अंतर पड़ता है। यदि कोई निर्धन भगवान को हलुआ-पूरी अर्पित नहीं कर पाता तो भी भगवान तो दीनदयाल ही हैं!

ईश्वर द्वारा योगक्षेम वहन करने वाली बात को एक पुरानी कहावत में बहुत ही अच्छी तरह से समझाया गया है- ‘जिसने चोंच दी है, वह चुग्गा भी देगा!’ अर्थात्! हमें चोंच देने वाले में भरोसा रखना है, किसी भी हालत में निराश नहीं होना है।

पुरुषार्थ से भी चुग्गा मिल जाता है और प्रारब्ध (भाग्य) से भी। पहले किया गया पुरुषार्थ आज का प्रारब्ध है। इस कारण पुरुषार्थ करना हमारे हाथ में है किंतु प्रारब्ध को सुधारना हमारे हाथ में नहीं है। जब पुरुषार्थ और प्रारब्ध दोनों निष्फल हो जाएं तो चोंच देने वाले की ओर देखा जाता है अर्थात् भगवान से प्रार्थना की जाती है। यह भी एक प्रकार का पुरुषार्थ है। भगवान से प्रार्थना करिए, इससे आत्मिक बल मिलेगा। चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ेगा और हमारे समस्त शुभकार्य स्वतः सम्पन्न हो जाएंगे।

जिस प्रकार हमारे माता-पिता ही हमारे माता-पिता हैं, उसी प्रकार हमारा धर्म ही हमारा धर्म है। जिस प्रकार माता के कुरुप होने पर माता नहीं बदली जाती, पिता के निर्धन होने पर पिता नहीं बदला जाता, उसी प्रकार यदि आपको लगता है कि आपके 33 करोड़ देवी-देवता कमजोर हैं, तो क्या आप दूसरों के देवी-देवता को पूजने लगेंगे! हालांकि यह केवल एक उदाहरण है, न तो हमारी माता कुरूप है, न पिता निर्धन है और न देवता कमजोर हैं।

श्रीमद्भगवद् गीता में इस स्थिति के लिए कहा गया है-

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परध र्मो भयावहः

अर्थात्- अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से, गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय प्रदान करने वाला है।

कुल मिलाकर कहने का आशय केवल इतना है कि कोई किसी की गठरी को देखकर मत ललचाओ। न अपनी गठरी में छेद होने दो न किसी की गठरी में छेद करने का प्रयास करो। सबको अपनी-अपनी जीवन यात्रा अपनी-अपनी गठरी के साथ ही करनी है। इसी में सबका कल्याण है। अन्यथा- नींद में माल गंवा बैठेगा, अपना आप लुटा बैठेगा। फिर पीछे कुछ नहीं बनेगा, लाख मचाए शोर। तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफिर जाग जरा।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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