Saturday, July 27, 2024
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16. ईक्ष्वाकु वंशी राजा नाभि के समय नवीन सृष्टि आरम्भ हुई!

पिछली कड़ियों में हम चर्चा कर चुके हैं कि राजा ईक्ष्वाकुवंशी राजा अंशुमान के पौत्र राजा भगीरथ गंगाजी को धरती पर लाये। राजा भगीरथ के बाद उनका पुत्र श्रुत और श्रुत के बाद राजा नाभ अयोध्या का राजा हुआ।

पौराणिक अख्यानों के अनुसार राजा नाभ के समय में धरती पर बहुत सी बड़ी हलचलें हुईं। चूंकि वह काल हिमयुग के व्यतीत हो जाने के बाद आरम्भ हुए गर्मयुग का काल था इसलिए धरती पर बहुत से भौगोलिक एवं पर्यावरणीय परिवर्तन हुए । इस काल में नदियां पूरे वेग से बहने लगी थीं और आकाश में काले बादल छाए रहते थे जिनके कारण धरती पर वर्षा की मात्रा बहुत अधिक थी।

धरती पर चारों ओर बड़े-बड़े ताल-तलैया तथा बर्फीली नदियां दिखाई देती थीं। एक समय ऐसा भी आया कि राजा नाभ को अपनी प्रजा को जल प्रलय से बचाने के लिए अयोध्या छोड़कर पुनः हिमालय पर्वत पर जाना पड़ा जहां उनके पूर्वज महाराज मनु ने भी अपनी प्रजा की रक्षा के निमित्त आश्रय लिया था।

हिमलाय की तराई में स्थित भूमि गंगा-यमुना के दो आब की अपेक्षा काफी ऊंचाई पर थी इसलिए राजा नाभ ने कश्मीर से लेकर मगध तक की भूमि अपने अधिकार में कर ली और अपने राज्य रूपी शरीर की नाभि अयोध्या में बसायी। अर्थात् उन्होंने अपनी राजधानी अब भी अयोध्या में रखी।

कुछ पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा नाभि के समय में धनुष का आविष्कार हुआ। उन्होंने ही पहली बार विधिवत् हल से खेती आरम्भ करायी। उनके समय में उपकरण एवं शस्त्र हड्डियों और पत्थरों से बनते थे, परन्तु वे अपने से पहले वाले युग की अपेक्षा अधिक मजबूत और नुकीले थे। मनुष्य को धातुओं की पहचान भी राजा नाभि के समय में हुई।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

राजा नाभि की कथा से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस राजा का काल दो प्रस्तर युगीन सभ्यताओं के बीच का काल होना चाहिए। नृवंश विज्ञानियों के अनुसार भारत में प्रथम पाषाण काल का आरम्भ डेढ़ लाख साल पहले हुआ। इसे पुरापाषाण काल भी कहते हैं। इस काल के बहुत से उपकरण एवं शस्त्र काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मिलते हैं। ये उपकरण बहुत ही मोटे एवं भद्दे हैं इन्हें देखने से अनुमान होता है कि इस काल में मानव आखेट की अवस्था में था और कृषि एवं पशुपालन से परिचित नहीं था। वह नदियों के किनारों पर स्थित जंगलों में घूमता रहता था।

दूसरा पाषाण काल आज से लगभग पचास हजार साल पहले आरम्भ हुआ। इसे मध्यपाषाण काल कहा जाता है। इस युग के उपकरण नदियों के किनारे एवं शैलाश्रयों के निकट मिलते हैं। ये उपकरण अपेकक्षाकृत अधिक तीखे, छोटे और धारदार हैं। इस काल के उपकरणों में स्क्रैपर तथा पाइंट विशेष उल्लेखनीय हैं। इन उपकरणों के मिलने का अर्थ है कि इस काल का मानव मछली एवं पशुओं को छीलने एवं उनसे हड्डियां एवं कांटे अलग करने में दक्ष था। इस समय तक भी मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं हुआ था।

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तीसरा पाषाण काल उत्तर-पाषाण काल कहलाता है। इसका आरंभ आज से लगभग 10-12 हजार वर्ष पूर्व हुआ। इस काल में पहले हाथ से और फिर से चाक से बर्तन बनाए गए। इस काल में कपास की खेती भी होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था। व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था।

इस प्रकार मानव सभ्यता हिमयुगों एवं गर्मयुगों के आने-जाने के बीच के कालों में बार-बार प्रकट हुई एवं नष्ट हुई। यही कारण है कि इक्ष्वाकु वंश के कई राजाओं के काल में नवीन सभ्यता आरम्भ होने की कथाएं मिलती हैं जिनमें से राजा नाभि भी एक था।

नृवंशी वैज्ञानिकों का मानना है कि पुराणों में वर्णित भगवान परशुराम भी पाषणकालीन चरित्र है। भगवान परशुराम का उल्लेख विभिन्न पुराणों, वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में मिलता है। इन कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम की उपस्थिति रामायण काल में भी मिलती है और महाभारत काल में भी। पुराणों की कालगणना इतनी उलझी हुई है कि हम उनके आधार पर भगवान परशुराम के युग अथवा जीवन काल का निर्धारण नहीं कर सकते। यदि उन्हें रामायण काल का पात्र माना जाए तो वे आज से लभगग सात से दस हजार साल पहले हुए और यदि भगवान परशुराम को महाभारत कालीन माना जाए तो वे आज से लगभग पांच हजार साल पुराने सिद्ध होते हैं।

कोई भी व्यक्ति पांच हजार साल तक जीवित रहे, यह संभव नहीं है किंतु यदि हम पुराणों में आए विवरण को देखें तो हर युग में मनुष्य की आयु अलग-अलग बताई गई है। पुराणों के अनुसार मनुष्य की आयु सतयुग में 1 लाख वर्ष, त्रेतायुग में 10 हजार वर्ष,  द्वापर में 1 हजार वर्ष और कलियुग में 100 वर्ष होती है। यदि यह सही है तो परशुराम का रामायण काल से लेकर महाभारत काल तक होना संभव है किंतु धरती पर आज तक कोई भी नर कंकाल या उसका छोटा सा अवशेष ऐसा नहीं मिला है जिसके जीवनकाल का निर्धारिण कार्बन डेटिंग के आधार पर कुछ सौ वर्ष या कुछ हजार वर्ष किया जा सके।

पुराणों में जिन सप्त चिंरजीवियों की अवधारणा प्रस्तुत की गई है, उनमें भी भगवान परशुराम का नाम सम्मिलित है। इस दृष्टि से भी भगवान परशुराम की उपस्थिति रामायण काल से लेकर महाभारत काल तक होनी संभव है किंतु वैज्ञानिक आधार पर इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता। फिर भी हम अनुमान लगा सकते हैं कि जब धरती पर बार-बार हिमयुगों एवं गर्मयुगों  के आने-जाने के कारण मानव सभ्यता नष्ट हो जाती थी, या समूची धरती ही समुद्र में डूब जाती थी और हजारों साल बाद पुनः प्रकट होती थी, तब ऐसी स्थिति में हजारों साल पुराने नरकंकाल भी नष्ट हो जाते होंगे। इसलिए हम उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते किंतु इसका जवाब वैज्ञानिकों के पास यह है कि धरती से लाखों वर्ष पुराने वानर-कंकाल, डायनासोर-कंकाल और नरकंकाल प्राप्त हुए हैं। इनमें से किसी का भी जीवन काल हजारों वर्ष का नहीं ठहरता है।

भारतीय पुराणों में आए आख्यानों एवं वैज्ञानिक शोधों के बीच कालगणना का यह अंतर तब तक विद्यमान रहेगा जब तक कि भारतीय पुराण अपने समर्थन में कोई भौतिक साक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते हैं। तब तक हिन्दू समाज इस आस्था पर दृढ़ रहेगा कि भगवान परशुराम इक्ष्वाकु वंशी राजाओं की कई पीढ़ियों के राजााओं के काल में धरती पर विद्यमान थे, महाभारत काल में भी थे और चिरंजीवी होने के कारण वे आज भी धरती पर विद्यमान हैं किंतु वैज्ञानिक इस बात को कहते रहेंगे कि धरती पर आज तक किसी भी मनुष्य की आयु हजारों वर्ष की नहीं हुई है।

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