घायल अल्लाउद्दीन खिलजी अपने घावों का उपचार करने के बाद रणथंभौर पहुंचा। उसने रणथंभौर के शासक हम्मीरदेव चौहान को संदेश भिजवाया कि वह नव-मुस्लिमों अर्थात् मंगोलों के सरदार मुहम्मदशाह को मेरे पास भेज दे। इतिहास की कुछ पुस्तकों में मुहम्मदशाह को महमांशाह भी कहा गया है। अल्लाउद्दीन खिलजी ने हम्मीर से कहलवाया कि या तो मुहम्मदशाह को लौटाए या चार लाख अशर्फियां, हाथी, घोड़े और अपनी पुत्री सुल्तान को भेंट करे अन्यथा उसका सर्वनाश कर दिया जायेगा।
हम्मीरदेव ने उत्तर भिजवाया कि मुहम्मदशाह मेरी शरण में है। इसलिए मैं उसे नहीं लौटा सकता किंतु मैं सुल्तान को तलवार के उतने ही झटके देने के लिये उद्यत हूँ, जितनी मोहरें, हाथी और घोड़े मुझसे मांगे गए हैं।
हम्मीर की सेना ने दुर्ग के भीतर से मंजनीक एवं ढेंकुली की सहायता से पत्थर के गोले बरसाये तथा अग्निबाण चलाये। दुर्ग के भीतर स्थित तालाबों से अचानक तेज जलधारा छोड़ी गई जिससे खिलजी की सेना की भारी क्षति हुई।
अमीर खुसरो ने ‘तारीखे अलाई’ में लिखा है कि सुल्तान के आदेश से खाइयों में रेत के बोरों के ढेर लगा दिये गए और उन पर किले के भीतर तक मार करने के लिये ‘पाशेब’ अर्थात् विशेष प्रकार के चबूतरे बनवाये गए। किले के भीतर ज्वलनशील पदार्थ फैंकने के लिए ‘मगरबी’ और पत्थर फैंकने के लिए ‘अर्रादा’ नामक यंत्र लगाए गए। दीवारों को सुरंगों के जरिये तोड़ा जाने लगा।
‘तारीखे फरिश्ता’ में लिखा है कि जालोर से भाग कर आये मंगोल सरदार मुहम्मदशाह तथा मीर कामरू आदि को सुल्तान अल्लाउद्दीन ने रणथम्भौर के राणा हम्मीरदेव से वापस मांगा तो राणा हम्मीर ने उन्हें लौटाने से मना कर दिया।
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‘हम्मीर महाकाव्य’ के लेखक नयनचंद्र सूरि ने लिखा है कि राजपूतों ने किले की मोर्चोबंदी की और हम्मीर के सेनापतियों- वीरम, रतिपाल, जयदेव, भीमसिंह, धर्मसिंह तथा मंगोल मुहम्मदशाह ने हिंदुवाटी की घाटी में अल्लाउद्दीन की सेना से युद्ध किया। इस कारण अल्लाउद्दीन एक साल तक रणथंभौर दुर्ग के सामने पड़ा रहा किंतु दुर्ग में नहीं घुस सका।
‘हम्मीरायण’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि रणथंभौर की जनता को हम्मीर की वीरता पर इतना विश्वास था कि जब खिलजी ने रणथंभौर पर घेरा डाला तो बनिये हाट में बैठकर हँसते रहे। जिस समय अल्लाउद्दीन खिलजी रणथम्भौर का घेरा डाले हुए था, उन्हीं दिनों अल्लाउद्दीन खिलजी के भांजों अमीर उमर तथा मंगू खाँ ने बदायूँ तथा अवध में विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। अल्लाउद्दीन के आदेश से ये विद्रोह शीघ्र ही दबा दिए गए और अमीर उमर तथा मंगू खाँ को बंदी बनाकर उनकी आँखें निकलवा ली गईं।
जब अल्लाउद्दीन खिलजी पूरे एक साल के प्रयास के बाद भी रणथंभौर के दुर्ग में नहीं घुस सका तो अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापतियों एवं गुप्तचरों से कहा कि वे राजा हम्मीरदेव चौहान की कमजोरियों का पता लगाएं। गुप्तचरों ने सुल्तान को बताया कि राजा हम्मीरदेव का मंत्री रतिपाल अपने स्वामी से नाराज है। इस पर अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने गुप्तचरों से कहा कि वे रतिपाल को धन एवं राज्य का लालच देकर अपनी ओर मिला लें।
रतिपाल खिलजी के गुप्तचरों के हाथों बिक गया। रतिपाल ने रणमल्ल को भी अपनी ओर कर लिया। रतिपाल ने कुछ प्राचीरों और बुर्जों से मोर्चाबंदी हटा ली जहाँ से तुर्क सैनिक रस्सियों और सीढ़ियों से दुर्ग में घुस गये। उन्होंने दुर्ग के दरवाजे भीतर से खोल दिए। जैसे ही हम्मीर के सैनिकों को इस छल की जानकारी मिली, उन्होंने आनन-फानन में मोर्चा संभाला। दुर्ग के भीतर हाहाकार मच गया। राजपूतों ने सर्वोच्च बलिदान की तैयारी की। दुर्ग में स्थित समस्त महिलाओं ने जौहर की चिता सजाई और धधकती हुई आग में कूद पड़ीं।
‘तारीख़-ए-अलाई’ एवं ‘हम्मीर महाकाव्य’ में हम्मीरदेव के परिवार द्वारा जौहर किए जाने का वर्णन है। ‘हम्मीर रासो’ के अनुसार हम्मीर की रानी रंगदे के नेतृत्व में राजपूत महिलाओं ने अग्नि में कूदकर जौहर किया जबकि राजकुमारी देवल देवी ने दुर्ग परिसर में स्थित पद्मला तालाब में कूदकर जल-जौहर किया था। दुर्ग में रहने वाले बूढ़े, बीमार और युद्ध कर सकने योग्य बच्चे भी तलवारें लेकर लड़ने को तैयार हो गए। देखते ही देखते दुर्ग की दीवारों, महलों एवं छतों पर घमासान होने लगा।
यह युद्ध नहीं था, प्राणोत्सर्ग था। शत्रु के समक्ष घुटने नहीं टेकने का प्रण था। इन लोगों के लिए हाथ में तलवार लेकर मरना गर्व का कार्य था और शत्रु के हाथों पड़कर अपमानित होना अत्यंत लज्जास्पद था। इसलिए वे शत्रु के समक्ष तलवारें लेकर खड़े हो गए तथा शरीर में प्राणों के रहते लड़ते रहे। यह लड़ाई अधिक समय तक नहीं चल सकी।
जिन मंगोलों ने जालोर से आकर रणथंभौर दुर्ग में शरण ली थी, वे भी संकट की इस घड़ी में चौहानों की तरफ से लड़ने लगे। इस युद्ध में राजा हम्मीरदेव भी वीरगति को प्राप्त हुआ। हम्मीर महाकाव्य, खजायंनुलफुतूह, तबकात-ए-अकबरी तथा तारीखे फरिश्ता में लिखा है कि जब सुल्तान ने रणथंभौर का किला फतह कर लिया और राणा हम्मीर मारा गया, तब सुल्तान की दृष्टि धरती पर पडे़ मुहम्मदशाह पर पड़ी। सुल्तान ने उससे पूछा कि यदि तेरे घावों का उपचार करके तुझे ठीक कर दिया जाये तो हमारे साथ तेरा व्यवहार कैसा रहेगा?
इस पर मंगोल सरदार मुहम्मदशाह ने जवाब दिया कि मैं तुरन्त दो काम करूंगा, एक तो यह कि स्वर्गीय राणा हम्मीरदेव के पुत्र को रणथंभौर की राजगद्दी पर बैठाउंगा और दूसरा यह कि मैं तुझे कत्ल करूंगा। इस उत्तर से रुष्ट होकर सुल्तान ने उसे हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया। सुल्तान ने मुहम्मदशाह की प्रशंसा की और उसे दुर्ग परिसर में दफन करवा दिया।
इसके बाद अल्लाउद्दीन ने हम्मीर के धोखेबाज मंत्रियों रतिपाल तथा रणमल को बुलवाया और उन्हें यह कहकर हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया कि जो अपने स्वामी हम्मीरदेव के नहीं हुए वे मेरे क्या होंगे! अल्लाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग में एक मस्जिद भी बनवाई।
इस प्रकार 10 जुलाई 1301 को रणथंभौर दुर्ग पर अल्लाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया। उसने अपने भाई उलूग खाँ को रणथम्भौर दुर्ग का अधिपति बनाया तथा स्वयं दिल्ली लौट गया। थोड़े ही दिनों बाद उलूग खाँ बीमार पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार रणथंभौर ने अल्लाउद्दीन खिलजी के दो विश्वस्त सेनापतियों नुसरत खाँ और उलूग खाँ की बलि ले ली।
राणा हम्मीर देव चौहान तो अपनी भूमि एवं प्रण की रक्षा के लिए शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ वीरगति को प्राप्त हो गया किंतु उसके किस्से भारत के इतिहास में छा गए। अनेक ग्रंथों में हम्मीर की वीरता का भरपूर गुणगान किया गया है। हम्मीरायण, हम्मीर रासो, हम्मीर हठ आदि ग्रंथ उसकी प्रशंसा से भरे पड़े हैं। हम्मीर के सम्बन्ध में यह दोहा कहा जाता है-
सिंह सुवन सुपुरुष वचन, कदली फले एक बार।
तिरिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।
अर्थात्- सिंहनी एक बार शावक को जन्म देती है, सत्पुरुष एक बार जो कह देते हैं, उससे टलते नहीं। केले में एक बार फल आता है। स्त्री की मांग में एक बार सिंदूर भरा जाता है। इसी तरह हम्मीरदेव ने एक बार जो तय कर लिया, वह टल नहीं सकता।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता