अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपनी सल्तनत को सैनिक शासन के आधार पर खड़ा किया जो उसके क्षमतावान रहने तक ही खड़ी रह सकती थी। वस्तुतः उसकी शासन व्यवस्था की सफलता इस बात पर अधिक निर्भर करती थी कि उसे संचालित करने वाले लोग कितने शुष्क, हृदय-हीन, निर्मोही एवं क्रूर हैं।
अल्लाउद्दीन खिलजी अत्यंत शुष्क स्वभाव का व्यक्ति था। इस कारण वह पारिवारिक प्रेम से सदैव वंचित रहा। यद्यपि उसके हरम में अनेक स्त्रियाँ थीं परन्तु उसकी एक भी स्त्री उसके हृदय पर अधिकार नहीं जमा सकी। वह क्रूरता तथा निर्दयता का साक्षात् स्वरूप था। पूर्ववर्ती सुल्तान जलालुद्दीन की हत्या, अपने सगे-सम्बन्धियों की हत्याएं, नव-मुसलमानों तथा उनके निर्दोष स्त्री-बच्चों की निर्मम हत्याएं सुल्तान की क्रूरता के प्रमाण हैं।
जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है- ‘अल्लाउद्दीन ने मिस्र के फैरोह से भी अधिक संख्या में निर्दोष मनुष्यों का रक्तपात किया।’
इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘अल्लाउद्दीन वास्तव में बर्बर अत्याचारी था। उसके हृदय में न्याय के लिए तनिक भी स्थान नहीं था …… उसका शासन लज्जापूर्ण था।’
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
अल्लाउद्दीन खिलजी परले दरजे का शंकालु व्यक्ति था। उसमें प्रतिशोध की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। यदि उसे किसी की विश्वसनीयता पर सन्देह हो जाता तो उसके प्राण लिए बिना उसका पीछा नहीं छोड़ता था। वह इतना कृतघ्न था कि उसने उन्हीं अमीरों का दमन किया जिनके सहयोग से उसने तख्त प्राप्त किया था। मलिक काफूर के परामर्श पर उसने अपने पुत्रों को बंदी बना लिया।
नैतिकता का प्रश्न अल्लाउद्दीन को कभी भी तंग नहीं करता था। उसने कर्ण बघेला की रानी कमलावती को अपनी बेगम बना लिया तथा कमलावती की पुत्री देवलदेवी को अपने पुत्र खिज्र खाँ की बेगम बना दिया। अल्लाउद्दीन को कबूतरबाजी, लौण्डेबाजी तथा बाज उड़ाने का बड़ा शौक था। इन कार्यों के लिए उसने उसने अपनी सेवा में कई बालकों को नियुक्त कर रखा था।
निरक्षर होने के कारण अल्लाउद्दीन खिलजी कुरान का अध्ययन नहीं कर सकता था, न वह रमजान में रोजे रखता था, न नमाज पढ़ता था और न राज्य के शासन में उलेमाओं एवं मौलवियों का हस्तक्षेप होेने देता था परन्तु उसका इस्लाम में दृढ़ विश्वास था। वह अपने सामने कभी भी किसी मनुष्य को गैर-इस्लामिक बात नहीं करने देता था। उसकी कठोर नीतियों के कारण बहुसंख्यक हिन्दुओं पर भारी कुठाराघात हुआ।
अल्लाउद्दीन कट्टर सुन्नी मुसलमान होने पर भी सूफी दरवेश निजामुद्दीन औलिया में बड़ी आस्था रखता था। राजवंश के लगभग समस्त सदस्य निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि अनपढ़ होने एवं इस्लाम में दृढ़ आस्था होने पर भी अल्लाउद्दीन एक नया धर्म चलाना चाहता था। काजी अलाउल्मुल्क के समझाने पर उसने ऐसा करने का विचार छोड़ दिया।
यद्यपि अल्लाउद्दीन हठधर्मी एवं अत्यंत महत्त्वाकांक्षी था तथापि वह अपने विश्वसनीय लोगों का परामर्श स्वीकार कर लेता था। वह किसी भी योजना को कार्यान्वित करने से पूर्व उसकी अच्छी तरह तैयारी करता था। यद्यपि अल्लाउद्दीन साम्राज्य विस्तार का इच्छुक था किंतु उसने दक्षिण भारत के राजाओें पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त उनके राज्य मुस्लिम गवर्नरों को न सौंपकर उन्हीं राजाओं को करद बनाकर सौंप दिए थे। इससे उसकी व्यावहारिक बुद्धि का परिचय मिलता है।
कुछ इतिहासकार अल्लाउद्दीन की सामरिक विजयों का श्रेय उसके सेनापतियों को देते हैं परन्तु यह निष्कर्ष उचित नहीं है। जलालुद्दीन खिलजी के शासन काल में अल्लाउद्दीन ने कई बड़ी विजयें प्राप्त कीं जिनसे वह सेना में लोकप्रिय हो गया। उसने मलिक छज्जू के विद्रोह का दमन किया और भिलसा तथा देवगिरि को जीतकर अपने सैनिक गुणों का परिचय दिया।
अल्लाउद्दीन ने तख्त पर बैठने के उपरान्त रणथंभौर, चित्तौड़, सिवाना एवं जालौर के युद्धों में स्वयं भाग लिया। उसने दक्षिण विजय का दायित्व मलिक काफूर को इसलिए सौंपा क्योंकि अल्लाउद्दीन मंगोलों के आक्रमणों एवं अमीरों की षड़यंत्रकारी प्रवृत्ति के कारण राजधानी से दूर नहीं जाना चाहता था। वह अपने लक्ष्य को सदैव सर्वोपरि रखता था और उसकी पूर्ति के लिए नैतिक-अनैतिक समस्त प्रकार के साधनों का प्रयोग करने के लिए उद्यत रहता था।
अल्लाउद्दीन में अपने अमीरों, सेनापतियों एवं राज्याधिकारियों का पथ-प्रदर्शन करने एवं उन्हें नई दिशा देने की अद्भुत प्रतिभा थी। उसके द्वारा किये गए अधिकांश सेना सम्बन्धी सुधारों तथा भूमि-सम्बन्धी सुधारों का अनुसरण आगे चलकर शेरशाह सूरी तथा अकबर आदि शासकों ने किया।
यद्यपि अल्लाउद्दीन स्वयं शिक्षित नहीं था परन्तु वह इस्लामिक विद्वानों का आदर करता था और उन्हें प्रश्रय देता था। अमीर खुसरो तथा हसन उसके समय के बहुत बड़े विद्वान थे। अल्लाउद्दीन उन्हें बहुत आदर देता था। बहुसंख्य हिन्दू विद्वानों के प्रति उसे कोई लगाव नहीं था। आलाउद्दीन को स्थापत्य कला से प्रेम था। उसने बहुत से दुर्गों का निर्माण करवाया। दिल्ली में उसने अलाई दरवाजा, सीरी दुर्ग तथा हौज खास बनवाए। उसने बहुत सी भग्न मस्जिदों का जीर्णोद्धार करवाया। ई.1311 में उसने कुतुब मस्जिद को विस्तृत करने और उसके सहन में एक नयी मीनार बनवाने का कार्य आरम्भ करवाया।
दिल्ली के सुल्तानों में अल्लाउद्दीन का नाम महत्त्वपूर्ण है। जिस समय वह तख्त पर बैठा था, उस समय दिल्ली सल्तनत की स्थिति बड़ी डावांडोल थी। मंगोलों के आक्रमण का सदैव भय लगा रहता था, आन्तरिक विद्रोह की सदैव सम्भावना बनी रहती थी, अमीर सदैव अवज्ञा करने को उद्यत रहते थे और अधिकांश जनता असन्तुष्ट थी। इस प्रकार तख्त पर बैठने के समय अल्लाउद्दीन की स्थिति संकटापन्न थी परन्तु उसने धैर्य तथा साहस से संकटों का सामना किया और ई.1296 से लेकर ई.1316 तक, पूरे 20 वर्ष सफलतापूर्वक शासन किया।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अल्लाउद्दीन की क्रूरता, शुष्कता एवं हृदयहीनता ने दिल्ली सल्तनत को उसके विस्तार के चरम पर पहुंचा दिया किंतु उसके काल में प्रजा का जो संहार हुआ, उसकी तुलना विश्व के किसी अन्य शासक से नहीं की जा सकती!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता