लगभग पचास वर्ष की आुय में जब मनुष्य अपने गृहस्थ-कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों को पूरा कर लेता था तब उसे सांसारिक मोह-माया त्यागकर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता था। आरण्यक ग्रंथों की रचना इन्हीं वानप्रस्थी तपस्वियों ने की थी, जो अरण्यों (जंगलों) में रहा करते थे।
उपनिषद् युग में वानप्रस्थ जीवन का विस्तार हुआ। प्रौढ़ आयु के लोग वन में जाकर एकान्त जीवन व्यतीत करते थे और अपने ज्ञान एवं चिंतन का विस्तार करते थे। कुछ धर्मसूत्रों के अनुसार मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद ही प्रव्रज्या ग्रहण करके वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकता था।
मनु के अनुसार जब व्यक्ति के सिर के बाल सफेद होने लगें, शरीर पर झुर्रिंयाँ पड़ने लगें और उसके पौत्र उत्पन्न हो जाएँ तब वह मनुष्य वानप्रस्थी होकर वन में चला जाए। वह अकेला ही वानप्रस्थी हो सकता था अथवा अपनी पत्नी को भी वन में ले जा सकता था। मनु ने व्यवस्था दी थी कि ग्राम-आहार (धान, यव आदि ग्राम सुलभ भोजन) तथा परिच्छद (गौ, घोड़ा, हाथी, शैया आदि गृह-सम्पत्ति) का त्याग करके वन में जाने की इच्छा न करने वाली पत्नी को पुत्रों के उत्तरदायित्व में सौंपकर अथवा वन में साथ जाने वाली पत्नी को साथ लेकर वन जाना चाहिए।
महाभारत में इसी प्रकार का मत व्यक्त किया गया है। धर्मशास्त्रकारों ने यह व्यवस्था इसलिए की थी कि व्यक्ति शनैः-शनैः त्याग और वैराग्य का जीवन अपना सके तथा मोह-माया से स्वयं को अलग कर सके।
विष्णु-पुराण में गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ जीवन नहीं अपनाने वालों को पाप-कर्मा कहा गया है। बौद्ध और जैन साहित्य से भी ज्ञात होता है कि वन जैसे एकान्त स्थल में रहकर व्यक्ति का विकास किया जा सकता था। वानप्रस्थ जीवन में व्यक्ति त्याग, तप, अंहिसा और ज्ञान का अर्जन करता था।
वानप्रस्थ आश्रम में वानप्रस्थी का जीवन
मनु के अनुसार वानप्रस्थी सर्वदा वेदाध्ययन में लगा रहे, ठंडा, गर्म, सुख-दुःखः, मान-अपमान आदि को सहन करे, सबसे मित्र-भाव रखे, मन को वश में रखे, दानशील बने, दान न ले और समस्त जीवों पर दया करें। इन नियमों का अनुसरण करते हुए व्यक्ति वानप्रस्थ का जीवन पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक व्यतीत करता था। दिन में दो बार स्नान और होमानुष्ठान करना, इन्द्रिय-निग्रह तथा भिक्षा पर जीविकोपार्जन करना वानप्रस्थी के प्रधान धर्म थे।
वानप्रस्थी के लिए पंचमहायज्ञ और अतिथि सत्कार करना भी आवश्यक था। भोज्य पदार्थ से बलि करे, भिक्षा (जल, कन्द-मूल-फल) दे और अतिथियों को सन्तुष्ट करे। मनु ने भी वानप्रस्थी के लिए व्यवस्था दी है कि वह भूमि पर शयन करे, टहले अथवा पैर के अगले भाग पर दिन में कुछ समय तक खड़ा या बैठा रहे (बीच-बीच में टहले) तथा प्रातः मध्यान्ह और सायं काल में स्नान करे।
वह अपनी तपस्या का समय बढ़ाते हुए ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि ले, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहे और शीत ऋतु में गीला कपड़ा धारण करे। इस प्रकार उसे कठोर जीवन व्यतीत करने का निर्देश दिया गया था।
गौतम धर्मसूत्र के अनुसार वानप्रस्थी को मूल-फल खाना चाहिए, शरीर को तप से पूर्ण करना चाहिए, पंचमहायज्ञ करने चाहिएं, अगम्य अतिथियों को छोड़कर अन्य अतिथियों का स्वागत करना चाहिए। उसे बाल, दाढ़ी और नख नहीं काटने चाहिए। उसे वन-सुलभ चर्म, कुश तथा काश से अपना परिधान और उत्तरीय बनाना चाहिए।
निश्चय ही वानप्रस्थी का जीवन अत्यन्त साधना, संयम और तप का जीवन था। वानप्रस्थी के लिए गाँव अथवा नगर में प्रवेश करना वर्जित था। वह सत् और असत् के भेद को जानता था। दुःख और तृष्णा से मुक्त था। आसक्ति से दूर रहकर वह आध्यात्म और ब्रह्म-ज्ञान में लीन रहता था।
महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार गृहस्थ को अपने कर्त्तव्यों से निवृत होकर आयु के तीसरे भाग में वन की ओर प्रस्थान करना चाहिए। वन में रहते हुए उसे वन में उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ खानी चाहिए, भूमि को शैया बनाना चाहिए, जटा, दाढ़ी और नख रखना चाहिए, वल्कल धारण करना चाहिए, देवता और अतिथि का सत्कार करना चाहिए, अग्निहोत्र सम्पन्न करना चाहिए तथा सनातन धर्म का पालन करना चाहिए। इन नियमों कापालन करने वाले को देवलोक की प्राप्ति होती है।
अलबरूनी ने लिखा है कि वानप्रस्थी अपनी गृहस्थी को छोड़कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है। यदि उसकी पत्नी उसके साथ वानप्रस्थ नहीं अपनाती तो उसे वह अपनी पत्नी को अपने पुत्रों के पास छोड़ देता है। वह जन-सभ्यता से बाहर रहता है और उस जीवन को पुनः अपनाता है जिसे वह सबसे पहले वाले आश्रम में जी चुका होता है।
वह छाजन की छाया के नीचे आश्रय नहीं लेता और न कोई परिधान धारण करता है। केवल कटि भाग को ढकने के लिए वृक्ष की छाल मात्र पहनता है। वह पृथ्वी पर बिना किसी बिछावन के सोता है और केवल कन्द-मूल-फल खाकर पेट भरता है। वह बाल बढ़ा लेता है और तेल नहीं मलता। हमें ऐसे पूर्व-मध्ययुगीन राजाओं के नाम भी मिलते है जो राज्य-पाट त्याग कर वानप्रस्थी हो गए थे। प्रतिहार, पाल, सेन आदि राजवंशों के कुछ अभिलेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
इस प्रकार वानप्रस्थ आश्रम मनुष्य को स्वाध्याय, साधना और तपस्या के माध्यम से अंतिम आश्रम अर्थात् सन्यास आश्रम की तैयारी के पूर्व प्रशिक्षण शिविर की तरह होता था जिसमें मनुष्य ब्रह्मचर्य और सदाचार-पूर्ण जीवन जीकर अपने मन, बुद्धि और मस्तिष्क को पवित्र एवं निर्मल बनाता था।