मौर्य युग में आर्यों की वर्ण-व्यवस्था
‘कौटिल्य’ द्वारा रचित ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ और ‘मेगस्थिनीज’ द्वारा लिखे गए उसके ‘यात्रा-विवरण’ से मौर्य-युगीन वर्ण-व्यवस्था के स्वरूप की जानकारी मिलती है।
कौटिल्य का वर्णन
विष्णु गुप्त चाणक्य को कौटिल्य भी कहा जाता है। वह मौर्य-वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का आचार्य तथा मंत्री था। उसने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में चार वर्णों का उल्लेख किया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इस ग्रंथ के अनुसार विभिन्न वर्णों के कर्म निम्नलिखित प्रकार से हैं-
ब्राह्मण: ब्राह्मण का स्वधर्म (कर्त्तव्य अथवा कार्य) अध्ययन, अध्यापन, यजन (यज्ञ करना), याजन (यज्ञ कराना), दान देना और दान ग्रहण करना बताया गया है।
क्षत्रिय: क्षत्रिय का स्वधर्म अध्ययन, यजन, दान, शस्त्राजीव (शस्त्र द्वारा आजीविका प्राप्त करना) और भूत रक्षण (प्राणियों की रक्षा करना) है।
वैश्य: वैश्य का स्वधर्म अध्ययन, यजन, दान, कृषि, पशु-पालन और वाणिज्य (व्यापार) करना है।
शूद्र: शूद्र का स्वधर्म द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की सेवा करना, वार्ता (कृषि, पशु-पालन और वाणिज्य), कारूकर्म (शिल्पी या कारीगर का कार्य) और कुशीलव कर्म (नट आदि के कार्य) हैं।
कौटिल्य ने चतुर्वर्णों के कार्य प्रायः वही बताए हैं जो स्मृतियों और धर्मशास्त्रों में बताए गए हैं किन्तु कौटिल्य ने शूद्र के स्वर्ध में कृषि, पशु-पालन और वाणिज्य को सम्मिलित किया है, यह स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रों से भिन्न है। सम्भ्वतः वैश्यों के सहायक के रूप में या स्वतंत्र रूप से शूद्र भी इस युग में कृषि, पशु-पालन और व्यापार करते थे और शिल्प को शूद्रों का कार्य मान लिया गया था।
ब्राह्मणों एवं वैश्यों को युद्ध करने का अधिकार: यद्यपि कौटिल्य ने भारत की प्राचीन परम्परा और सामाजिक मर्यादा के अनुसार ही चारों वर्णों के स्वधर्म प्रतिपादित किए हैं तथापि व्यवहार रूप में विभिन्न वर्णों के लोग केवल इन्हीं स्वधर्मों का पालन करने तक सीमित नहीं थे। यद्यपि क्षत्रियों का कार्य सैनिक सेवा करना था तथापि ब्राह्मणों, वैश्यों और शूद्रों की सेनाएं भी होती थी।
शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार: कौटिल्य ने एक स्थान पर लिखा है कि यदि किसी पुरोहित को आदेश दिया जाए कि वह अयाज्य (शूद्र आदि ऐसे व्यक्ति जिन्हें यज्ञ करने का अधिकार न हो) को यज्ञ कराये या उसे पढ़ाए, और वह पुरोहित इस आदेश का पालन नहीं करे तो उसे पदच्युत कर दिया जाए। इससे स्पष्ट है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में शूद्र यज्ञ कर सकते थे और उन्हें भी वेद आदि की शिक्षा दी जाती थी।
शूद्रों को दास बनाने पर प्रतिषेध: मौर्य कालीन समाज में दास-प्रथा प्रचलित थी किंतु शूद्रों को दास नहीं बनाया जा सकता था। कौटिल्य ने लिखा है कि यदि कोई आर्य, किसी शूद्र को दास के रूप में विक्रय के लिए ले जाए तो उस पर बारह पण का दण्ड लगाया जाए। इससे स्पष्ट है कि शूद्र होने पर भी ‘आर्य’ को ‘दास’ नहीं बनाया जा सकता था, हालांकि ‘म्लेच्छों’ की सन्तानों को दास-रूप में बेचने में कोई दोष नहीं था।
स्वधर्म पालन की व्यावहारिक स्थिति: मौर्य युग में वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप ऐसा नहीं था कि विभिन्न वर्णों के व्यक्ति केवल वहीं कार्य करें जो शास्त्रों में बताए गए हैं। फिर भी कौटिल्य ने इस बात पर बहुत अधिक बल दिया है कि समस्त वर्णों को अपने-आपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए और राज्य का दायित्व है कि वह प्रजा को अपने-अपने स्वधर्म में स्थिर रखे।
स्पष्ट है कि मौर्य काल में समाज में प्रत्येक वर्ण के लिए अपने-अपने स्वधर्म का पालन करना एक आदर्श स्थिति थी किन्तु व्यवहार रूप में विविध वर्णों के लोग अन्य वर्णों के लिए विहित कार्य भी करते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों ही वर्ण समाज के अभिन्न अंग माने जाते थे। इस काल में ‘अनार्यों’ को ‘म्लेच्छ’ कहा जाता था।
व्यवसाय के आधार पर जातियों का उदय: मौर्य युग में विशिष्ट कार्य या व्यवसाय के आधार पर जातियाँ बनने लग गई थीं। उन्हें उनके कार्य के आधार पर तन्तुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), तुत्नवाय (दर्जी), सुवर्णकार (सुनार), चर्मकार (चमार), कर्मार (लुहार), लोहकारू, कुट्टाक (बढ़ई), कुंभकार (कुम्हार) आदि कहा जाता था। कौटिल्य ने इनका समावेश शूद्र वर्ण में किया है।
वर्ण-संकर प्रजा: उपरोक्त चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने ‘वर्ण-संकर’ प्रजा का भी उल्लेख किया है। ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से उत्पन्न सन्तान को ‘अम्बठ’ कहा गया है। ब्राह्मण पिता और शूद्र माता की सन्तान को ‘निषाद’ और ‘पारशव’ की संज्ञा दी गई थी। क्षत्रिय पिता और शूद्र माता की सन्तान को ‘उग्र’ कहा जाता था। वैश्य पिता की क्षत्रिय माता से उत्पन्न सन्तान को ‘मागध’ और ब्राह्मण माता से उत्पन्न सन्तान को ‘वैदेहक’ कहते थे।
शूद्र पिता की वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान को ‘चाण्डाल’ कहा जाता था। शूद्र पिता की क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न सन्तान ‘क्षत’ कहलाती थी। इस प्रकार कौटिल्य ने अनेक वर्ण संकर लोगों का उल्लेख किया है। मौर्य युग में वर्णसंकर लोगों ने पृथक जातियों का रूप धारण कर लिया था। कौटिल्य ने यह भी व्यवस्था दी कि विभिन्न जातियों के वैवाहिक सम्बन्ध उन्हीं लोगों में हो और अपने कार्यों तथा परम्पराओं में वे अपने पूर्ववर्ती पूर्वजों का अनुसरण करें।
आर्य वर्णों से बाहर की प्रजा: ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्य युग में अनेक ऐसे लोग थे जिन्हें परम्परागत चार वर्णों के अन्तर्गत रखना संम्भव नहीं था। उनकी स्थिति शूद्रों के समकक्ष मानी जाती थी।
मेगस्थिनीज का वर्णन
मेगस्थिनीज यूनान के शासक सैल्यूकस का दूत था। वह कुछ समय के लिए मगध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र में राजदूत के रूप में रहा। उसने अपने यात्रा विवरण में भारत की जातियों का वर्णन किया है। यद्यपि उसके द्वारा लिखित पुस्तक अब प्राप्त नहीं होती है तथापि उस पुस्तक के विवरण अन्य ग्रंथों से उपलब्ध होते हैं। मेगस्थिनीज ने मौर्यकालीन भारतीय समाज में सात जातियों का उल्लेख किया है-
(1.) दार्शनिक: दार्शनिकों की संख्या यद्यपि अन्य जातियों से कम थी, तथापि प्रतिष्ठा में सर्वश्रेष्ठ थी। वे गृहस्थों द्वारा बलि प्रदान करने तथा मृतकों का श्राद्ध करने के लिए नियुक्त किए जाते थे और इन अनुष्ठानों के बदले में बहुमूल्य दान प्राप्त करते थे। वे बहुत-सी बातों की भविष्यवाणी करते थे, जिससे सर्वसाधारण को बड़ा लाभ पहुँचता था। जो दार्शनिक अपनी भविष्यवाणी में भूल करता था, उसे निन्दा के अतिरिक्त कोई दण्ड नहीं दिया जाता था। भविष्यवाणी के अशुद्ध होने पर दार्शनिक जीवनभर के लिए मौन ग्रहण कर लेता था।
(2.) किसान: किसान लोग दूसरों की तुलना में संख्या में बहुत अधिक थे। वे कृषि करते थे तथा राजा को भूमि-कर देते थे। किसान अपनी स्त्रियों तथा बच्चों के साथ गांवों में निवास करते थे। वे नगरों में जाने से बचते थे।
(3.) ग्वाले: मेगस्थिनीज ने पशुपालकों, चरवाहों एवं बहेलियों को ग्वाला माना है। वह लिखता है कि ग्वाले नगरों एवं गांवों से बाहर ‘डेरों’ में रहते थे। वे जंगली पशु-पक्षियों का शिकार करते थे तथा हानिकारक जंगली पशुओं और पक्षियों को जाल में फंसाकर उनसे देश की रक्षा करते थे। वे ऐसे जंगली पशु-पक्षियों को पकड़ते थे जो किसानों द्वारा बोयी गई फसल को खा जाते थे।
(4.) कारीगर: एक वर्ग या जाति कारीगर लोगों की थी। इनमें से कुछ लोग तो कवच बनाते थे और कुछ लोग अन्य उपकरण बनाते थे। इनके द्वारा बनाए गए उपकरण किसानों तथा अन्य व्यवसायियों द्वारा प्रयोग में लाये जाते थे।
(5.) सैनिक: मेगस्थिनीज के अनुसार समाज में सैनिकों का भी एक वर्ग था जो भलिभांति संगठित था तथा युद्ध के लिए तत्त्पर रहता था। यौद्धा सैनिकों, तथा युद्ध के हाथी,-घोड़ों आदि का पालन राजा द्वारा किया जाता था। शान्ति के समय ये लोग आमोद-प्रमोद में मग्न रहते थे या आलस्य में पड़े रहते थे। ये संख्या में दूसरे स्थान पर थे।
(6.) निरीक्षक: मेगस्थिनीज ने राजकीय निरीक्षकों एवं गुप्तचरों को एक ही मान लिया है। वह लिखता है कि निरीक्षक लोग, साम्राज्य में होने वाली प्रत्येक गतिविधि की सूचना वहाँ के राजा को तथा यदि वहाँ राजा न हो तो किसी राजकीय अधिकारी को देते थे।
(7.) अमात्य: मेगस्थिनीज ने राज्य के मन्त्रीगण, कोषाध्यक्ष और न्यायकर्त्ताओं को इस वर्ग में रखा है। सेना का नायक और प्रधान शासक भी इसी वर्ग में आते थे। ये राज्य-कार्य की देखभाल तथा शासन-संचालन का कार्य करते थे और अपने उच्च चरित्र एवं बुद्धिमत्ता के कारण सर्वाधिक प्रतिष्ठित थे। इनकी संख्या सबसे कम थी।
मेगस्थिनीज के इस विवरण से यह संकेत मिलता है कि भारतीय समाज के इन समस्त वर्गों (सातों वर्गों) ने इस समय तक जातियों का रूप धारण कर लिया था। ग्रीक लेखक ‘डायोडोरस’ ने लिखा है- ‘किसी को यह अनुमति नहीं है कि वह अपनी जाति से बाहर विवाह कर सके, या किसी ऐसे व्यवसाय अथवा शिल्प का अनुसरण कर सके जो उसका अपना न हो। कोई सिपाही, किसानी नहीं कर सकता था और कोई शिल्पी, दार्शनिक नहीं बन सकता था’
कौटिल्य एवं मेगस्थिनीज के वर्णन की तुलना
कौटिल्य एवं मेगस्थिनीज दोनों ने मौर्य कालीन समाज का वर्णन किया है। कौटिल्य चातुर्वर्ण का उल्लेख करता है किंतु मेगस्थिनीज सात वर्गों का उल्लेख करता है। मेगस्थिनीज अपने देश ग्रीस (यूनान) और पड़ौसी देश ईजिप्ट (मिस्र) की सामाजिक रचना से परिचित था, जहाँ समाज अनेक जातियों एवं वर्गों में विभक्त था।
उसी सामाजिक संरचना को ध्यान में रखकर मेगस्थिनीज ने भारत की जनता को सात वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया। निःसंदेह ये सातों प्रकार के लोग तत्कालीन भारतीय समाज में विद्यमान थे किंतु मेगस्थिनीज भारतीय वर्ण व्यवस्था को समझ नहीं पाया।
मेगस्थिनीज ने जिन्हें दार्शनिक कहा है वे वस्तुतः तत्कालीन समाज में ब्राह्मण तथा श्रमण कहलाते थे। मेगस्थिनीज ने जिन्हें किसान लिखा है, उस वर्ग में वे वैश्य एवं शूद्र थे जो खेती द्वारा जीवन-निर्वाह करते थे। मेगस्थिनीज ने जिन ग्वालों अथवा गड़रियों का उल्लेख किया है, कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में उन्हें वैश्य और शूद्र कहा गया है, जिनका व्यवसाय पशु-पालन था। कारीगरों को भारत में शूद्र वर्ण में माना जाता था तथा सैनिकों को क्षत्रिय वर्ण में रखा जाता था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मंत्रियों, गुप्तचरों एवं गूढ़-पुरुषों का विस्तृत वर्णन किया गया है जो शासन-संचालन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे। मेगस्थिनीज ने शासकों का एक पृथक् वर्ग माना है किंतु ये व्यक्ति प्रायः ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण में से होते थे। वस्तुतः मेगस्थिनीज द्वारा वर्णित भारतीय समाज का कौटिल्य के चातुर्वण्य से कोई विरोध नहीं है, अपितु केवल वर्गीकरण की भिन्नता है।
मौर्य काल में वर्ण आधारित न्याय व्यवस्था
मौर्य कालीन भारतीय समाज में चारों वर्णों की समाजिक स्थिति एक जैसी नहीं थी। न्यायालयों द्वारा अपराधियों को ‘दण्ड’ देते समय तथा उनकी ‘गवाही’ लेते समय उनके वर्ण को ध्यान में रखा जाता था। यदि उच्च वर्ण का व्यक्ति नीचे वर्ण के व्यक्ति को कुवचन कहे तो उसे कम दण्ड दिया जाता था, जबकि निचले वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण के व्यक्ति को अपशब्द कहे तो उसे अधिक दण्ड दिया जाता था।
यदि क्षत्रिय, ब्राह्मण को अपशब्द कहे तो उसे तीन पण जुर्माना देना पड़ता था किंतु यदि वही अपराध वैश्य करता तो उसे छः पण जुर्माना देना पड़ता था और शूद्र द्वारा यही अपराध किए जाने पर नौ पण जुर्माना देना पड़ता था। यदि ब्राह्मण किसी शूद्र को अपशब्द कहे तो उसे केवल दो पण जुर्माना देना पड़ता था, ब्राह्मण द्वारा वैश्य को अपशब्द कहने पर चार पण और क्षत्रिय को अपशब्द कहने पर छः पण जुर्माने की व्यवस्था थी।
कुछ अपराध ऐसे भी थे जिनके लिए उच्च वर्ण के व्यक्तियों को कठोर दण्ड दिया जाता था। यदि कोई शूद्र अपने किसी अवयस्क स्वजन का दास के रूप में विक्रय करे या रहन रखे तो उसके लिए बारह पण दण्ड का विधान था किन्तु यदि यही अपराध वैश्य द्वारा किए जाने पर चौबीच पण तथा क्षत्रिय व ब्राह्मण द्वारा किए जाने पर क्रमशः अड़तालीस और छियानवे पण दण्ड की व्यवस्था की गई थी।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे अपराधों का उल्लेख है जिनमें विविध वर्णों के व्यक्तियों के लिए एक ही अपराध के लिए भिन्न-भिन्न दण्ड की व्यवस्था की गई थी। न्यायालय में ब्राह्मण द्वारा साक्षी देने पर उसे केवल साधारण सत्य बोलने की शपथ लेनी पड़ती थी, जबकि अन्य वर्ण के व्यक्तियों के लिए अधिक कठोर शपथ लेने की व्यवस्था की गई थी।
मौर्य काल में शूद्र वर्ण की स्थिति
मौर्य काल में कुंभकार (कुम्हार), तन्तुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), तुत्नवाय (दर्जी), सुवर्णकार (सुनार), कर्मार (लुहार), लोहकारू, कुट्टाक (बढ़ई) आदि जातियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं और उनमें अपने सामाजिक नियमों तथा रीति-रिवाजों का प्रचलन था जिन्हें राज्य-संस्था भी स्वीकार करती थी। कौटिल्य ने इन जातियों को शूद्र वर्ण में माना है किन्तु मौर्य युग में शूद्रों की सामाजिक स्थिति हीन नहीं थी।
वे आर्य जाति एवं समाज के ही अंग थे, वे अस्पर्श्य नहीं थे तथा चाण्डालों, म्लेच्छों आदि से उच्च एवं भिन्न स्थिति रखते थे। मौर्य युग में विविध प्रकार के शिल्पियों के साथ-साथ कृषकों, कुशीलवों और पशुपालकों को भी शूद्र वर्ण के अन्तर्गत माना जाता था किंतु समाज में उनकी स्थिति हेय नहीं थी और वे केवल द्विज-समुदाय की सेवा में ही निरत न रहकर स्वतंत्र रूप से अपने व्यवसाय भी किया करते थे।
अन्तावसायी: मौर्य युग में कुछ लोगों की स्थिति शूद्रों से भी हीन थी। उन्हें ‘अन्तावसायी’ कहते थे। आगे चलकर जिन्हें अत्यंज, अस्पर्श्य एवं अछूत कहा गया, वे सम्भवतः इन्हीं अन्तवसायियों के वंशज थे।
चाण्डाल: मौर्य कालीन समाज में ‘चाण्डालों’ की स्थिति ‘शूद्रों’ से हीन थी तथा समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखता था। चाण्डालों के लिए व्यवस्था की गई थी कि वे नगरों से बाहर शमशान के समीप निवास करें। ‘चित्तसम्भूत जातक’ के अनुसार चाण्डाल वेश बदल कर तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त किया करते थे।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि मौर्य युग में भारतीय समाज का मुख्य आधार चातुर्वण्य था। चारों वर्णों के ‘स्वधर्म’ निश्चित थे और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने ‘स्वधर्म’ में स्थिर रहना उपयोगी एवं आवश्यक माना जात था। समाज में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च और सम्मानित थी तथा राज्य-शासन पर उनका प्रभाव था। मन्त्री, पुरोहित आदि राजकीय पदाधिकारी प्रायः ब्राह्मण वर्ण के हुआ करते थे और वे राजा को धर्म और मार्यादा में रखने का कार्य करते थे किंतु मौर्य युग में वर्ण-व्यवस्था सूत्र-ग्रन्थों में हुए वर्णन जैसी कठोर नहीं थी।