Saturday, July 27, 2024
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अश्वत्थामा के आँसू

हास्य व्यंग्य नाटिका

भूमिका

महाभारत का युद्ध हुए 5300 वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो चुका है किंतु आज भी महाभारत की कथा का रोमांच भारत की जनता के सिर चढ़कर बोलता है। महाभारत के पात्रों के स्वभाव, चरित्र एवं कृत्य आज भी मानव सभ्यता में उसी प्रकार पाये जाते हैं, जिस प्रकार आज से 5300 वर्ष पहले थे।

यही कारण है कि आधुनिक काल में भी महाभारत के पात्रों को लेकर विविध प्रकार के साहित्य का सृजन होता रहा है जिसमें कविता, गीत, खण्ड काव्य, कहानी, उपन्यास एवं नाटक आदि प्रमुख हैं।

प्रस्तुत हास्य-व्यंग्य नाटिका में महाभारत के पात्रों को आधार बनाकर आज के भारत में मची विद्रूपताओं का चित्रण किया गया है। नाटिका के संवादों को लिखते समय इस बात को ध्यान रखा गया है कि चुटीले संवाद पाठक को बांधे रखें तथा महाभारत के पात्रों का मूल चरित्र एवं स्वभाव अक्षुण्ण रहे। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के संवादों में छलकता पुत्र प्रेम महाभारत की मूल कथा को आगे बढ़ाता हुआ प्रतीत होता है। उसकी गति भूतकाल तथा वर्तमान काल दोनों ओर है। इसी प्रकार शकुनि, शिशुपाल, धृतराष्ट्र आदि के संवाद इस ओर संकेत करते हैं कि बुराई कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं करती। अश्वत्थामा मानव मन की ऐसी अवस्था का प्रतीक है जो जीतने की जिद में नीचे से नीचे गिरता चला जाता है।

द्रौपदी यद्यपि इस नाटिका की पात्र नहीं है किंतु नाटक का बहुत बड़ा भाग उसकी महाभारत कालीन पृष्ठभूमि के साथ-साथ आज की निरीह जनता तथा भारतीय नारी दोनों की स्थिति का चित्रण करता हुआ प्रतीत होता है।

आशा है यह नाटिका पाठकों को पसंद आयेगी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

पात्र परिचय

संजय :   महाभारत का पात्र जिसने धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का विवरण सुनाया था। इस नाटक का सूत्रधार भी यही है।

विदुर :   धृतराष्ट्र के मंत्री।

दुर्योधन : धृतराष्ट्र एवं गांधारी का पुत्र, कुछ पात्र इसे सुयोधन कहते हैं।

दुःशासन : धृतराष्ट्र एवं गांधारी का दूसरा पुत्र, कुछ पात्र इसे सुशासन कहते हैं।

शकुनि : गांधार नरेश, गांधारी का भाई, लंगड़ा कर चलने वाला पात्र।

शिशुपाल : चेदिराज, श्रीकृष्ण की बुआ का पुत्र।

कर्ण :     भीष्म पितामह इसे सूतपुत्र कहते हैं। दुर्योधन इसे अंगराज कहता है।

अश्वत्थामा : द्रोणाचार्य का पुत्र, माथे से रक्त बहाने वाला पात्र। माना जाता है कि वह अब तक धरती पर है।

युधिष्ठिर :  ज्येष्ठ पाण्डुपुत्र।

धृतराष्ट्र :  नेत्रहीन, कुरुवंशी राजा।

गांधारी : धृतराष्ट्र की पत्नी, आँखों पर पट्टी बांध कर रहती है।

श्रीकृष्ण : माथे पर मोर मुकुट, गले में वैजयंती माला, एक हाथ में चक्र और दूसरे हाथ में बांसुरी है। कुछ पात्र इन्हें देवकीनंदन कहकर संबोधित करते हैं।

भीष्म :    कुछ पात्र इन्हें गंगापुत्र तथा शांतनुपुत्र कहते हैं।

नारद :   एक हाथ में वीणा तथा दूसरे हाथ में खड़ताल लिये हैं।

मंच पर प्रकाश होता है। महाभारत कालीन राजदरबार का दृश्य दिखायी देता है। चारों ओर खूब अच्छी सजावट है जो स्वर्ग की असीम शांति और समृद्धि की परिचायक है। मंच के मध्य में एक बड़ा सिंहासन है जिसके दोनों ओर महाभारत कालीन आकृतियों के आसन रखे हैं। अभी समस्त आसन रिक्त हैं। दरबार में प्रवेश के लिये मंच के पार्श्व में तोरणद्वार बना हुआ है। दूसरी तरफ नेपथ्य से आने के लिये रास्ता है। पार्श्व वाले तोरणद्वार से निकलकर संजय मंच पर आता है तथा दर्शकों के ठीक सामने आकर खड़ा हो जाता है।

संजय : महाभारत का युद्ध समाप्त हुए आज पाँच हजार एक सौ वर्ष बीत चुके हैं। इस बीच महाभारत के कई पात्र नर्क में अपनी अवधि बिताकर स्वर्ग आ चुके हैं। आज महाराज धृतराष्ट्र ने नववर्ष के आगमन पर स्वर्ग में विशेष दरबार का आयोजन किया है। कुछ पात्र जिन्हें सदैव के लिये नर्क भेजा गया था, वे भी इस सभा में भाग लेने के लिये आमंत्रित किये गये हैं। महाभारत का एक पात्र ऐसा भी है जो आज तक धरती पर है, जी हाँ ठीक समझे आप, अश्वत्थामा। उसे भी आज के दरबार में आने के लिये स्वर्गाधिपति धर्मराज ने विशेष अनुमति प्रदान की है। (कुछ रुककर)  निःसंदेह आप सब दर्शकों को भी आज के दिन धर्मराज की विशेष अनुमति से स्वर्ग में आयोजित होने वाले इस ऐतिहासिक दरबार को देखने का अवसर दिया गया है। (चारों ओर देखकर रहस्य उद्घाटित करने की मुद्रा में)  आप लोगों की सुविधा के लिये बता दूँ कि मैं महाभारत का ऐतिहासिक पात्र संजय हूँ। जी हाँ वही संजय जिसने धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अठारह दिन तक चली महाभारत का आँखों देखा हाल महाराज धृतराष्ट्र को सुनाया था किंतु आज इस नाटक में मैं आपके लिये सूत्रधार का तथा यहाँ आयोजित होने वाली सभा के लिये प्रहरी का कार्य करूंगा। महाराज धृतराष्ट्र का विशेष अनुचर तो मैं हूँ ही। (कुछ क्षण रुककर तोरणद्वार की ओर संकेत करता है)  लीजिये वह देखिये, मंत्रिवर विदुरजी आ रहे हैं।

संजय अपनी पगड़ी संभालता है। विदुरजी पार्श्व के तोरणद्वार से निकल कर आते हैं तथा सिंहासन के पास के कौने में खड़े हो जाते हैं जहाँ से वे समस्त सभासदों को सुगमता से सम्बोधित कर सकते हैं। संजय उनका अभिवादन करता है।

संजय (तोरणद्वार की ओर देखकर चौंकते हुए) : अरे! यह क्या? स्वर्ग से आने वाले आये नहीं, नर्क वाले पहले आ गये। (दर्शकों की ओर देखकर)  आप लोग किंचित् अपने हृदय को थाम कर बैठिये। सीधे नर्क से चले आ रहे हैं गांधार नरेश शकुनि, अंगराज कर्ण, कुमार दुर्योधन, कुमार दुःशासन और चेदिराज शिशुपाल जिन्हें आप भलीभांति पहचानते हैं।

पार्श्व के तोरणद्वार से उसी क्रम में महाभारत के पात्र मंच पर आते हैं जिस क्रम में उनके नाम बोले गये हैं। शकुनि लंगड़ा कर चलता हुआ मंच के मध्य में आकर खड़ा हो जाता है। उसने अपने हाथ में जुआ खेलने के पासे पकड़ रखे हैं जिन्हें वह हथेलियों के बीच घुमा रहा है। उसके शेष साथी कभी दरबार में पड़े रिक्त आसनों को तो कभी दर्शकों को देखते हैं।

शकुनि : देखो भांजे! ये देखो। (रिक्त आसनों की ओर संकेत करता है।)

दुर्योधन : क्या देखूं मामाश्री ?

शकुनि : ये रिक्त आसन देखो वत्स! सुना है कि वो निकम्मे पाण्डुपुत्र यहीं स्वर्ग में रहते हैं किंतु अब तक नहीं आये जबकि हम सहस्रों योजन दूर स्थित नर्क से चलकर सबसे पहले आ गये हैं।

दुःशासन : सबसे पहले नहीं मामाश्री, सबसे दूसरे कहिये। वो देखिये काका विदुर।

सब लोग चौंक कर कौने में खड़े हुए विदुर को देखते हैं।

दुर्योधन : प्रणाम करता हूँ काकाश्री।

विदुर (चौंककर) : सुखी रहो वत्स।

विदुर का आशीर्वाद सुनकर दुर्योधन और उसके साथी हँस पड़ते हैं।

विदुर (हैरान होकर) : तुम हँस रहे हो वत्स?

दुर्योधन (उद्दण्डता से) : हँसें नहीं तो क्या करें मामाश्री ? सुखी रहने के लिये हमें आपके आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं है। हम नर्क में बड़े ही सुखी हैं।

कर्ण (उपेक्षा भाव से) : आपने सोचा होगा कि हम नर्क में दुःखी होंगे और आपके समक्ष रुदन करते हुए प्रकट होंगे।

विदुर (झैंपकर) : नहीं-नहीं मैंने ऐसा तो नहीं………।

विदुर मौन रहकर सिर झुका लेते हैं।

दुर्योधन : मामाश्री मजाक कर रहे हैं काकाश्री। आप उदास न हों। वस्तुतः अब नर्क में पहले जैसी स्थितियां नहीं रहीं। अब वहाँ मानवाधिकार आयोग, महिला अधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग जैसी ह्यूमन राइट संस्थाएं काम करने लगी हैं। जिसके चलते नर्क का ह्यूमन फेस सामने आ चुका है। हमारा संकेत उसी ओर था।

संजय (असमंजस से) : ह्यूमन राइट……. ह्यूमन फेस!

दुःशासन : अरे वह देखो गुरुपुत्र अश्वत्थामा।

पार्श्व में बने तोरण द्वार से अश्वत्थामा प्रवेश करता है। उसके माथे से रक्त बह रहा है तथा चेहरे पर उदासी है। उसकी सिसकियों से दरबार गूंजने लगता है। दुर्योधन दौड़कर उसे गले लगा लेता है।

दुर्योधन :  भ्राता अश्वत्थामा! तुम रो क्यों रहे हो? तुम्हारे माथे से यह रक्त कैसे प्रवाहित हो रहा है?

अश्वत्थामा (सिसकियां भरते हुए) : केवल मैं, केवल मैं तुम्हारा गुरुपुत्र अश्वत्थामा महाभारत का पात्र होते हुए भी धरती पर अपनी सम्पूर्ण पीड़ा के साथ जीवित हूँ। क्या तुम तक मेरी सिसकियां नहीं पहुंचतीं सुयोधन?

दुःशासन : भ्राता सुयोधन तुम्हें धरती का राज्य देकर आये थे। न तो पाण्डुपुत्र और न वह छलिया कृष्ण, कोई भी तो तुम्हें तंग करने के लिये नहीं है वहाँ, फिर भी तुम इतने दुःखी क्यों हो?

अश्वत्थामा (पीड़ा से कराहकर) : यही तो…….यही तो मेरे कष्ट का कारण है सुशासन। न तो वहाँ पाण्डुपुत्र हैं और न छलिया कृष्ण। अब मैं लड़ूं तो किससे लड़ूं? कैसे अपने मन का संताप कम करूं?

संजय (तोरणद्वार की ओर देखकर) : माननीय सभासदो! माननीय धर्मराज। (थोड़ा विराम देकर मध्यम आवाज में)  आइये धर्मराज। इधर पधारिये। आपका स्वागत है। (रिक्त आसनों की ओर संकेत करता है।)

सब चौंककर पार्श्व की ओर देखते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर पार्श्व के तोरणद्वार से निकलकर मंच पर प्रवेश करते हैं तथा विदुरजी के चरणों में प्रणाम निवेदन करते हैं।

विदुर : सुखी रहो वत्स……..नहीं-नहीं……….।

युधिष्ठिर चौंककर विदुरजी की ओर देखते हैं। दुर्योधन और उसके साथी ठहाका लगाकर हँसते हैं।

शकुनि : किंचित् देखो तो भांजे।

दुर्योधन : क्या देखो देखो लगा रखी है मामाश्री? क्या देखूं?

शकुनि : उतावले न हो वत्स। (व्यंग्य से मुँह बिगाड़कर)  किंचित् अपने भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर को देखो। यह आज अकेले ही क्यों चले आ रहे हैं? क्या माता कुंती, महारानी द्रौपदी और इनके चारों श्रेष्ठ अनुज स्वर्ग में इनके साथ नहीं रहते! क्या स्वर्ग में पाण्डुपुत्रों के चूल्हे अलग जलते हैं!

शकुनि की बात पर दुर्योधन और उसके साथी ठहाका लगा कर हँस पड़ते हैं।

दुःशासन : एक बात है मामाश्री, आप कौड़ी दूर की लाते हैं।

शकुनि : अरे हम कौड़ी दूर की न लाते तो महाभारत थोड़े ही होता।

कर्ण : क्या बात कही है गांधार नरेश। वाह-वाह आनंद आ गया।

युधिष्ठिर: मैं आप सब महानुभावों को प्रणाम करता हूँ। वस्तुतः बात यह है कि मेरे चारों अनुज रहते तो स्वर्ग में मेरे साथ ही हैं किंतु मैं इस भय से उन्हें साथ नहीं लाया कि कहीं आप लोगों को फिर से अपने सामने देखकर वे क्रोधित न जायें। स्वर्ग में क्रोध करना वर्जित है।

शकुनि : ये लो, इनका फण्डा सुनो! ये स्वर्ग में रहकर भी भयभीत रहते हैं तथा इनके भाई अब भी क्रोधित होते हैं!

युधिष्ठिर: फण्डा क्या………? (बात अधूरी रह जाती है।)

दुःशासन (क्रोध से दांत पीस कर) : जब वे कायर, द्यूतक्रीड़ा में परास्त होकर भी क्रोधित नहीं हो सके तो अब क्या खाकर क्रोधित होंगे भ्राता युधिष्ठिर?

संजय : माननीय सभासदो! माननीय अध्यक्ष…….नहीं-नहीं, माननीय महाराज।

सब चौंककर संजय को देखते हैं। संजय नेपथ्य वाले द्वार से निकलकर आते हुए महाराज धृतराष्ट्र का स्वागत करता है। धृतराष्ट्र ने अपना एक हाथ महारानी गांधारी के कंधे पर रख रखा है। महारानी गांधारी ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है।

विदुर: आपका स्वागत है महाराज और महारानी आपका भी।

युधिष्ठिर आगे बढ़कर धृतराष्ट्र और गांधारी के चरणों में सिर झुकाते हैं।

युधिष्ठिर: पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आपके श्री चरणों में प्रणाम करता है महाराज।

धृतराष्ट्र (युधिष्ठिर की बात अनसुनी करके) : मेरे पुत्र, मेरे पुत्र कहाँ हैं विदुर?

विदुर: वे भी इसी कक्ष में उपस्थित हैं महाराज।

धृतराष्ट्र (व्याकुल होकर) : वत्स सुयोधन! वत्स सुशासन! कहाँ हो तुम लोग? तुम आगे बढ़कर अपने नेत्रहीन पिता के वक्ष से क्यों नहीं लग जाते?  

दुर्योधन (उपेक्षा से) : स्वर्ग में निवास करके भी आपका पुत्र मोह नहीं गया पिताश्री?

गांधारी (रुष्ट होकर) : अपने वृद्ध  पिता से संभाषण करने का यह कौनसा ढंग है पुत्र?

दुर्योधन : माताश्री! हमारे नर्क में पिता और पुत्र में कोई भेद नहीं होता।

गांधारी : क्यों? क्यों नहीं होता?

दुर्योधन : बात यह है माताश्री कि नर्क का अब बहुत एडवासंमेंट हो चुका है। आज का नर्क पहले वाला नर्क नहीं रहा।

गांधारी : क्या हो चुका है?

दुर्योधन : एडवासंमेंट माताश्री, एडवांसमेंट।

गांधारी (खीझकर) : एडवांसमेंट माने क्या?

शकुनि : उन्नति, समृद्धि , बढ़ोत्तरी, जो तुम्हारे स्वर्ग में संभव नहीं बहना।

धृतराष्ट्र : (क्रोधित होकर) : तो तुम अब भी मेरे पुत्र के पीछे लगे हुए हो शकुनि!

विदुर (हस्तक्षेप करते हुए) : विगत पाँच सहस्र एवं एक शत वर्षों में स्वर्ग में कुछ नहीं बदला जबकि नर्क में इतना बदलाव आ गया! ऐसा कैसे हुआ?

कर्ण : बात यह है मंत्रिवर कि स्वर्ग में आने वाले आप अंतिम व्यक्ति थे। विगत पाँच हजार एक सौ वर्षों में स्वर्ग में एक भी व्यक्ति धरती से स्वर्ग में नहीं आया जबकि धरती से आने वाला हर व्यक्ति नर्क में ही आया है और प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ एडवांसमेंट लाया है।

शकुनि : यही कारण है विदुरजी कि आज नर्क में जमीनों के भाव आसमान छू रहे हैं जबकि आपके स्वर्ग में कोई गज भर जमीन खरीदने को तैयार नहीं।

संजय : माननीय सभासदो, माननीय देवकीनंदन श्रीकृष्ण।

सब चौंककर पार्श्व में बने तोरणद्वार की ओर देखते हैं। देवकीनंदन श्रीकृष्ण प्रवेश करते हैं।

दुर्योधन : काका संजय को क्या हो गया? (संजय की नकल उतारता है)  माननीय सभासदो! माननीय फलाना! पहले की तरह क्यों नहीं कहते? (उच्च स्वर में)  सावधान ऽऽऽ…. होशियारऽऽऽ….। यदुकुल भूषण, वृष्णिवंशी, कंस चाणूर हंता, मथुरा नरेश, श्रीमान् देवकी नंदन श्रीकृष्ण पधार रहे हैं। क्या यह धरती पर चलने वाली संसद है?

शकुनि : एडवांसमेंट भांजे, एडवांसमेंट।

धृतराष्ट्र (अपने आसन से खड़े होकर) : तुम्हारा स्वागत है वासुदेव।

श्रीकृष्ण : (आगे आकर) : जब मुझे ज्ञात हुआ कि महाराज ने आज नववर्ष के उपलक्ष्य में विशेष सभा का आयोजन किया है तो मैं भी आप सबसे मिलने चला आया।

शिशुपाल (चीखकर) : तुम यहाँ भी आ धमके ग्वाले! तुम्हें कोई बुलाता नहीं, फिर भी तुम बेशर्म की तरह चले आते हो?

श्रीकृष्ण (हँसकर) : जहाँ मेरे चाहने वाले होते हैं, वहाँ मुझे जाना ही होता है चेदिराज। (एक आसन पर बैठ जाते हैं।)

शिशुपाल : तुम और तुम्हारे चाहने वाले! दोनों पाखण्डी हैं।

युधिष्ठिर: चुप हो जाईये चेदिराज। श्रीकृष्ण हम सबके पूज्य हैं।

शिशुपाल : तुम मुझे आंखें दिखाकर शांत नहीं कर सकते युधिष्ठिर। यह ग्वाला अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। चलाये यह अपना सुदर्शन, काट ले मेरा सिर। यह सहस्र बार मेरा सिर काटे तब भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। मैं कल भी था, आज भी हूँ और आने वाले हर कल में रहूंगा। (दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर अपने बल का प्रदर्शन करता है।)

धृतराष्ट्र : शांत हो जाईये आप सब। मैंने आप लोगों को यहाँ पर झगड़ने के लिये नहीं बुलाया है।

शकुनि : बिल्कुल ठीक है महाराज। हम बिल्कुल भी नहीं लड़ेंगे। आप बताईये कि आपने हमें यहाँ क्यों बुलाया है?

धृतराष्ट्र (क्रोधित होकर) : मैंने अपने पुत्रों को यहाँ बुलाया था, तुम्हें और सूतपुत्र कर्ण को नहीं।

दुर्योधन (तीव्र स्वर में) : आप मामा शकुनि और मेरे मित्र अंगराज कर्ण का इस प्रकार अपमान नहीं कर सकते पिताश्री।

धृतराष्ट्र (कातर स्वर में) : तुम इन दुष्टों का साथ छोड़ दो वत्स! धर्मराज तुम्हारी त्रुटियों को क्षमा करके तुम्हें स्वर्ग में बुला लेंगे।

दुर्योधन (और अधिक तीव्र स्वर में) : आपके प्रिय पाण्डुपुत्रों के साथ स्वर्ग में रहने की अपेक्षा मैं मामाश्री शकुनि और अंगराज कर्ण के साथ नर्क में रहना अधिक पसंद करता हूँ पिताश्री।

श्रीकृष्ण : आप लोग तो फिर लड़ने लगे।

सब शांत हो जाते हैं

धृतराष्ट्र : हमें हस्तिनापुर से यहाँ आये हुए पूरे पाँच सहस्र एवं एक शत वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। हम जानना चाहते हैं कि इतनी अवधि के व्यतीत हो जाने के पश्चात् हम भरतवंशियों का भारत किस स्थिति में है?

शकुनि (व्यंग्य से) : आइडिया बुरा नहीं।

धृतराष्ट्र : आइडिया क्या?

दुःशासन : पिताश्री! आज भरतवंशियों का भारत उतना बुरा नहीं है जितना आपके समय में था। यदि हम आपके शासन में धरती पर पैदा न होकर आज पैदा हुए होते तो हमें बहुत आराम होता।

गांधारी : किंतु वत्स तुम धरती पर नहीं, तुम तो घड़े में पैदा हुए थे।

दुःशासन (झल्लाकर) : घड़े से निकल कर तो हम धरती पर ही आये थे।

धृतराष्ट्र : तुम्हारे कहने का आशय क्या है वत्स?

दुःशासन : कहूं तो तब न, जबकि माताश्री कुछ कहने दें।

धृतराष्ट्र : तुम निर्भय होकर अपनी बात कहो वत्स।

दुःशासन : केवल एक साड़ी खींचने पर…….सुन रहे हैं आप पिताश्री केवल एक साड़ी खींचने पर महाभारत हो गया जिसमें अठारह अक्षौहिणी सेना को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। जबकि आज भारत वर्ष में हर दिन साड़ियां खींची जाती हैं, चलती हुई ट्रेनों में, बसों में, घरों में, स्कूलों में, मंदिरों में और अस्पतालों में, हर स्थान पर साड़ियां खींची जा रही हैं फिर भी किसी सुशासन को कोई अंधा बाप उस तरह नहीं धिक्कारता जिस तरह आपने मुझे धिक्कारा।

गांधारी : तुम्हारा आरोप मिथ्या है पुत्र! सच पूछो तो महाराज ने कभी तुम्हें धिक्कारा ही नहीं। यदि वे तुम्हें धिक्कारते तो महाभारत हुआ ही नहीं होता।

धृतराष्ट्र : तुम बताओ संजय, इस समय हम भरतवंशियों के भारत की क्या अवस्था है?

शकुनि : संजय आपको क्या बतायेगा महाराज! आप मुझसे पूछिये। मैं बताता हूँ। अब भारत वर्ष में आपकी तरह वंशानुगत राजे महाराजे नहीं होते। आज के राजे-महाराजे प्रजा के द्वारा चुने जाते हैं।

संजय : आप मिथ्या भाषण कर रहे हैं गांधार नरेश। भले ही आज भारत के राजे-महाराजे प्रजा के द्वारा चुने जाते हों किंतु वे होते तो वंशानुगत ही हैं।

शकुनि : बिल्कुल ठीक कहा तुमने। मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ। वे वंशानुगत ही होते हैं।

धृतराष्ट्र (उत्साहित होकर) : तो क्या आज भी भारत पर भरतवंशियों का शासन है? कुरुवंशियों का शासन है?

संजय : क्षमा करें महाराज! भारत वर्ष में वंशानुगत राज्य परंपरा चल रही है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ भरतवंशियों अथवा कुरुवंशियों का शासन है। राजवंश बदल चुके हैं महाराज।

धृतराष्ट्र : क्या आज के राजा भी हमारी तरह राजसभाओं का आयोजन करते हैं?

शकुनि : राजसभाएं तो होती हैं महाराज किंतु राजा लोग आपकी तरह मुकुट लगा कर नहीं आते। उन सभाओं में दांव तो चलते हैं किंतु वहाँ मेरी तरह पासे नहीं फैंके जाते।

धृतराष्ट्र : तो क्या अब राजसभाओं में द्यूत क्रीड़ा नहीं होती?

शकुनि : अब द्यूतक्रीड़ा की आवश्यकता नहीं रह गयी महाराज। सारा खेल राजसभा के बाहर ही खेल लिया जाता है।

धृतराष्ट्र : तुम्हारी पहेलियों की जटिलता अब तक विद्यमान है गांधार नरेश।

शकुनि : पहेली कैसी और जटिलता कैसी महाराज? मुझ सीधे सच्चे मनुष्य को आपने कभी समझने का प्रयास ही नहीं किया इसीलिये तो महाभारत का युद्ध हो गया महाराज।

धृतराष्ट्र (खीझकर) : महाभारत! महाभारत! महाभारत! समाप्त हो गया महाभारत।

शकुनि : नहीं महाराज! महाभारत समाप्त नहीं हुआ। वह कभी समाप्त नहीं होता, चलता रहता है।

धृतराष्ट्र : मैं आदेश देता हूँ कि तुम अपनी जिह्वा को विराम दो। कहने दो संजय को कुछ।

शकुनि हँस कर चुप हो जाता है।

संजय : गांधार नरेश सत्य कहते हैं महाराज। अब राजसभाओं में द्यूत क्रीड़ा की आवश्यकता नही रह गयी। अब द्यूत क्रीड़ा किये बिना ही महारानी द्रौपदी के वस्त्रों का हरण कर लिया जाता है।

धृतराष्ट्र (उत्तेजित होकर) : द्रौपदी मेरी पुत्रवधू! क्या वह अब भी हस्तिनापुर में है?

संजय : हाँ महाराज! किंतु अब महारानी द्रौपदी ने अपना नाम बदल लिया है।

धृतराष्ट्र (हैरान होकर) : नाम बदल लिया है! मेरी पुत्रवधू जो भारत वर्ष की महारानी है, उसने अपना नाम बदल लिया है!

संजय : हाँ महाराज, अब महारानी द्रौपदी अपने आप को जनता कहती हैं।

धृतराष्ट्र : जनता माने क्या?

संजय : जब प्रजा राजा का चयन करने लगती है तो प्रजा को जनता कहने लगते हैं महाराज।

धृतराष्ट्र : अच्छा! बहुत अच्छा। मेरी पुत्री वहाँ सुख से तो है?

संजय : क्षमा करें महाराज। द्रौपदी के भाग्य में सुख नहीं होता। आज भी हर दिन उसका चीरहरण होता है।

धृतराष्ट्र : चीर हरण होता है? तो क्या अब वहाँ मेरी तरह कोई धृतराष्ट्र नहीं है जो द्रौपदी का चीर हरण रोक सके?

श्रीकृष्ण : झूठ मत बोलिये महाराज। द्रौपदी का चीर हरण आपने नहीं रुकवाया था।

धृतराष्ट्र : मैंने प्रिय पाण्डुपुत्रों को उनका राज्य तो लौटाया था?

श्रीकृष्ण : किंतु वह राज्य आपके पुत्रों ने फिर से द्यूत क्रीड़ा करके हड़प लिया था और पाण्डवों को वनवास दे दिया था।

दुःशासन : देखा पिता श्री। इन लोगों के मन में कितना मैल भरा हुआ है। द्यूत क्रीड़ा के लिये ये ही सदैव तत्पर रहते हैं किंतु जब हम जीत जाते हैं तो उसे यह हड़प लेना कहते हैं।

संजय : माननीय सभासदो! माननीय गंगापुत्र भीष्म।

सब हड़बड़ा कर उठ खड़े होते हैं। पार्श्व में बने तोरण द्वार से पितामह भीष्म प्रवेश करते हैं।

धृतराष्ट्र : आपका स्वागत है तात् श्री ।

भीष्म : आयुष्मान हों महाराज। (आसनों की तरफ मुँह घुमाकर)  यह गंगापुत्र भीष्म अब उतना आदरणीय नहीं रहा जिसके सम्मान में आप खड़े रहें। कृपा करके आप सब आसन ग्रहण करें। मेरा सम्मान तो उसी दिन नष्ट हो गया था जब मेरे स्थान पर सूतपुत्र कर्ण को कौरवों का सेनापति बनाया गया था।

सब बैठते हैं। केवल भीष्म पितामह खड़े रहते हैं। उनकी दृष्टि श्रीकृष्ण पर जाकर ठहर जाती है।

भीष्म : मैं गंगापुत्र भीष्म आपको प्रणाम करता हूँ देवकीनंदन।

श्रीकृष्ण (खड़े होकर) : मेरा प्रणाम भी स्वीकार करें तात्।

भीष्म : आज बहुत दिनों बाद आप सबको एक साथ देखकर मेरे नेत्र शीतल हुए।

शकुनि (व्यंग्य से) : यह क्यों नहीं कहते कि पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को देखकर नेत्र शीतल हुए।

भीष्म (क्रोधित होकर) : छोटे आदमी की बात भी छोटी होती है शकुनि।

शकुनि : शांत हो जाइये गंगापुत्र। अब राजसभा में किसी के छोटेपन को लेकर कटाक्ष नहीं किया जा सकता।

भीष्म : यह मत भूलो शकुनि कि हम राजसिंहासन की मर्यादा से बंधे हुए हैं अन्यथा तुम्हारा मुँह तो अभी बंद कर देते।

शकुनि : मर्यादा! क्या खूब मर्यादा है? भूल हम नहीं कर रहे, आप कर रहे हैं। शकुनि का मुँह बंद कर देने से महाभारत को नहीं रोका जा सकता। वह होकर रहता है।

धृतराष्ट्र (तंग आकर) : तुम हर बात में अपना खूंटा गाढ़ देते हो गांधार नरेश।

शकुनि : मेरे इन खूंटों से ही आपके पुत्रों का भाग्य मजबूती से बंधा हुआ है महाराज। (व्यंग्य से)  कहो तो इन खूंटों के रस्से ढीले कर दूँ?

गांधारी : चुप रहो भ्राता। मेरी पुत्रवधू द्रौपदी का समाचार हमें अच्छी तरह जान लेने दो।

भीष्म (व्यग्र होकर) : क्या कोई पुत्री द्रौपदी का समाचार लेकर आया है?

धृतराष्ट्र : हाँ तात्। संजय कहता है कि वह अब तक धरती पर ही है तथा उसने अपना नाम बदल कर जनता रख लिया है। आजकल भारत वर्ष के राजा बिना द्यूत क्रीड़ा का आयोजन किये ही मेरी पुत्रवधू का हर दिन चीर हरण करते हैं।

भीष्म : गंगा माँ की सौगंध। मैं अभी हस्तिनापुर जाकर अपनी बच्ची को ले आता हूँ। वह भरतवंशियों के कुल की लाज है।

दुर्योधन : ताकि यहाँ प्रिय सुशासन उसकी साड़ी खींच सके।

दुर्योधन के साथी ठहाका लगा कर हँस पड़ते हैं।

भीष्म : चुप रहो उद्दण्ड। क्या कुरुक्षेत्र के मैदान में पराजय का मुख देखकर भी बुद्धि  नहीं आयी तुम्हें?

गांधारी (व्याकुल होकर) : इस अबोध पर क्रोध न करें तात्श्री।

भीष्म : महारानी गांधारी! यह उद्दण्ड, अबोध नहीं है। न ही आप अबोध हैं। अबोध है हम सबका भवितव्य।

शकुनि (व्यंग्य से) : क्या अब भी भवितव्य का कुछ अंश शेष बचा है शांतनु पुत्र?

धृतराष्ट्र : कैसे खेद की बात है, हम अपनी पुत्रवधू द्रौपदी का समाचार जानने को उत्सुक हैं और आप लोग व्यर्थ की बातें करके व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं। तुम बोलो संजय। (व्यग्र होकर)  तुम चुप क्यों हो जाते हो?

संजय : महाराज! मैं कह रहा था कि अब भारत वर्ष में द्रौपदी का चीरहरण बिना द्यूतक्रीड़ा के किया जाता है। द्रौपदी राजपुरुषों से अपनी सुरक्षा और सलामती के बारे में प्रश्न पूछना चाहती है किंतु कुछ राजपुरुष द्रौपदी से धन की मांग करते हैं। वे राजसभा में द्रौपदी के प्रश्नों को तभी पूछते हैं जब द्रौपदी राजसभा के बाहर उन राजपुरुषों को धन प्रदान करती है।

धृतराष्ट्र : यह क्या कह रहे हो संजय? राजपुरुषों को भला धन और स्वर्ण की क्या कमी?

संजय : मैं आपका भृत्य हूँ महाराज। जैसा देखता हूँ वैसा ही कहता हूँ। अभी कुछ दिवस पूर्व ही भारत वर्ष की राजसभा से एकादश राजपुरुषों को निष्कासित किया गया है।

धृतराष्ट्र : निष्कासित किया गया है किंतु क्यों?

दुःशासन (उद्दण्डता से) : क्या उन्होंनें द्रौपदी की साड़ी बहुत जोर से खींची थी?

दुर्योधन और उसके साथी हँस पड़ते हैं।

संजय : नहीं इसके लिये नहीं।

धृतराष्ट्र : फिर किसके लिये?

संजय : जब ये राजपुरुष द्रौपदी से धन स्वीकार कर रहे थे तब किसी ने स्टिंग ऑपरेशन कर दिया।

धृतराष्ट्र : स्टिंग ऑपरेशन क्या?

दुःशासन : यही तो कठिनाई है। इस स्वर्ग के लोग कितने अल्पज्ञ हैं? जबकि अब तक कितने ही स्टिंग ऑपरेशन करने वाले लोग धरती से हमारे नर्क में आ चुके हैं।

शकुनि (व्यंग्य से) : किंतु यह तो अन्याय हुआ वत्स। स्टिंग ऑपरेशन करने वालों को तो कम से कम स्वर्ग में आ ही जाना चाहिये था।

धृतराष्ट्र : तुम चुप रहो गांधार नरेश। कोई मुझे बताये कि स्टिंग ऑपरेशन क्या होता है?

दुर्योधन : मैं बताता हूँ तात्श्री। यह जो संजय आपको आँखों देखा हाल सुनाता है, ठीक उसी तरह…….।

दुर्योधन की बात अधूरी रह जाती है। देवर्षि नारद हाथ में वीणा लेकर प्रवेश करते हैं।

संजय : माननीय सभासदो! माननीय देवर्षि।

नारद : नारायण! नारायण!

दुःशासन : लो ये आ गये स्टिंग ऑपरेशन करने वाले।

धृतराष्ट्र : आपका स्वागत है देवर्षि। क्या आजकल आप स्टिंग ऑपरेशन करते हैं?

नारद : नारायण! नारायण! मैं भला क्या करूंगा! मैं ठहरा रमता जोगी। आज यहाँ तो कल वहाँ। मैंने कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं किया।

शकुनि : इनसे संभल के रहना महाराज। इनकी मीठी बातों में न आ जाना। ये स्टिंग ऑपरेशन कर चुकेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा।

धृतराष्ट्र (खीझकर) : ओह! आखिर आप लोग मुझे बताते क्यों नहीं कि स्टिंग ऑपरेशन क्या होता है?

शकुनि : ये मीडिया वाले भी न, पूछो मत इनकी। महाराज मैं बताता हूँ। जब कोई राजपुरुष द्रौपदी से उत्कोच स्वीकार करता है तो नारदजी के साथी उनका चित्र उतार लेते हैं। जब उन चित्रों को सार्वजनिक किया जाता है तो उसे स्टिंग ऑपरेशन कहते हैं।

धृतराष्ट्र : साधु नारदजी। हमें यह जानकर अच्छा लगा कि आपके कुछ साथी भी हैं और वे हमारी पुत्रवधू द्रौपदी की सहायता कर रहे हैं।

नारद : आपकी इस सहृदयता से मैं अभिभूत हूँ महाराज। अन्यथा धरती के राजपुरुष तो हमें धिक्कार की दृष्टि से ही देखते हैं। नारायण, नारायण।

धृतराष्ट्र : तुम कुछ बता रहे थे संजय।

संजय : महाराज! अभी कुछ दिवस पूर्व आपके भारत वर्ष में चलती हुई ट्रेन की जनरल बोगी में महारानी द्रौपदी के वस्त्र खींचे गये।

धृतराष्ट्र : ट्रेन क्या, और वो……..जनरल बोगी क्या?

संजय : स्वचालित रथों की दीर्घ शृंखला को ट्रेन कहते हैं महाराज। उसमें राजपुरुषों, श्रेष्ठियों और श्रीमंतों के लिये विशेष रथ जोते जाते हैं। जबकि जनता के लिये जोते जाने वाले रथों को जनरल बोगी कहते हैं।

धृतराष्ट्र (प्रसन्न होकर) : अच्छा! जो रथ हमारी पुत्री द्रौपदी के लिये जोता जाता है उसे जनरल बोगी कहते हैं।

संजय : हाँ महाराज! उसे जनरल बोगी कहते हैं।

धृतराष्ट्र : तो क्या जनरल बोगी में हमारी पुत्री अकेली होती है?

संजय : नहीं महाराज। उसमें सौ से दो सौ तक व्यक्ति होते हैं।

धृतराष्ट्र (आश्चर्य से) : तो क्या इतने लोगों के बीच पुत्री द्रौपदी का चीरहरण हुआ। किसी ने रोका नहीं?

दुःशासन (व्यंग्य से) : किसे, सुशासन को?

गांधारी (बीच में बात काटकर) : महाराज ने कभी सुशासन को नहीं रोका अन्यथा………।

शकुनि : अन्यथा महाभारत नहीं हुआ होता। (हँसता है।)

धृतराष्ट्र : मैं अपनी नहीं, देवकी नंदन की बात कर रहा हूँ, ये तो थे!

शकुनि : देवकीनंदन को तो पाण्डुपुत्रों से ही अवकाश नहीं महाराज फिर द्रौपदी का चीर हरण होने से कौन रोकता?

भीष्म : तुम देवकीनंदन को अपने व्यंग्य बाणों से दूर ही रखो शकुनि।

दुःशासन : इतना ही नहीं महाराज। राजधानी इंद्रप्रस्थ जिसे आजकल दिल्ली कहते हैं, वहाँ तो चलती हुई कारों में चीर हरण हो रहा है। आपने बिना कारण ही मुझे निकम्मे पाण्डुपुत्रों के सम्मुख अपमानित किया।

धृतराष्ट्र : कार क्या?

संजय : ये भी एक प्रकार के स्वचालित रथ होते हैं महाराज।

धृतराष्ट्र (व्यथित होकर) : हे ईश्वर! यह मैं क्या सुन रहा हूँ? राजधानी हस्तिनापुर में चलते हुए रथों में चीर हरण हो रहे हैं?

दुर्योधन : हमारी राजधानी हस्तिनापुर नहीं पिताश्री, पाण्डुपुत्रों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ कहिये।

दुःशासन : केवल चीर हरण नहीं बलात्कार हो रहे हैं महाराज, बलात्कार। जब तक बलात्कार ही न हो तब तक चीर हरण का क्या लाभ?

शकुनि : चीर हरण या बलात्कार ही नहीं। आज द्रौपदी पर होने वाले अत्याचारों की कोई गिनती ही नहीं। आज द्रौपदी का दिन दहाड़े अपहरण कर लिया जाता है। उस पर एसिड फैंका जाता है।

धृतराष्ट्र : एसिड क्या?

शकुनि : अब हम आपको क्या-क्या समझायेंगे? हमने कोई गुरुकुल खोल लिया है क्या?

धृतराष्ट्र (लगभग गिड़गिड़ाते हुए) : किंतु एसिड के बारे में तो बता दो।

नारद : एसिड माने अम्ल, तेजाब। जिससे त्वचा झुलस जाती है और द्रौपदी जीवित ही नर्क की ज्वाला में धधकने लगती है। यदि उसका भाग्य अच्छा होता है तो उसके प्राण पंखेरू उड़ जाते हैं।

गांधारी (दु:खी होकर) : अच्छा! इतना अंधेर!

धृतराष्ट्र : और…….और क्या हो रहा है मेरी पुत्रवधू के साथ?

संजय : महाराज कुछ राजपुरुष तो द्रौपदी के टुकड़े करके उसे तंदूर में झौंक देते हैं।

धृतराष्ट्र (उत्तेजित होकर) : यह क्या कह रहे हो तुम?

संजय : मैं सही कह रहा हूँ महाराज।

धृतराष्ट्र : तुम्हारी बातें सुनने में अच्छी तो नहीं हैं किंतु फिर भी तुम बोलते जाओ संजय, और क्या हो रहा है द्रौपदी के साथ?

संजय : महाराज आज धरती पर बहुत सी द्रौपदियां अपना पेट पालने के लिये नाममात्र के कपड़े पहन कर अर्धरात्रि तक मदिरालयों में मदिरा बेचने का काम करती हैं। यदि वे अर्धरात्रि के बाद मदिरा देने से मना करती हैं तो राजपुरुषों के सम्बन्धी रुष्ट होकर उन्हें पिस्तौल से गोली मार देते हैं।

गांधारी : पिस्तौल क्या?

शकुनि : यह एक प्रकार का आग्नेय अस्त्र होता है बहना।

दुःशासन : देखा आपने महाराज! आज के राजपुरुष और उनके सम्बम्न्धी क्या-क्या नहीं कर रहे द्रौपदी के साथ किंतु आपने केवल एक द्रौपदी के लिये मेरी प्रताड़ना की और महाभारत हो गया।

धृतराष्ट्र (अत्यंत कातर होकर) : इसका अर्थ यह हुआ कि आज की अपेक्षा तो हमारा शासन ही अच्छा था।

दुर्योधन : क्षमा करें पिताश्री! हम आपके शासन की प्रशंसा नहीं कर सकते। शासन तो आज का ही अच्छा है। आपने बात-बात में इन निकम्मे पाण्डुपुत्रों का पक्ष लिया किंतु आज यदि सुशासन धरती पर होता तो उसकी वैसी दुर्गति नहीं हुई होती जैसी कि आपके शासन में हुई।

गांधारी : अपनी जिह्वा को विराम दो सुयोधन। महाराज ने कभी भी तुम्हें या वत्स सुशासन को कुछ नहीं कहा। यदि कहा होता तो………..।

शकुनि (बात काटकर) : तो महाभारत नहीं हुआ होता।

दुर्योधन : माताश्री! आप रट्टू तोते की तरह एक ही संवाद बार-बार बोलकर हम सब का समय क्यों नष्ट कर रही हैं?

संजय : अभी जो वृत्तांत आपको बताया गया वह सिक्के का एक पहलू था महाराज। सिक्के का दूसरा पहलू भी है जो पहले वाले पहलू से नितांत भिन्न है।

धृतराष्ट्र : सिक्का क्या?

शकुनि : मुद्रा महाराज! मुद्रा। जिस प्रकार आपके शासन में स्वर्ण मुद्रा और रजत मुद्राओं का प्रचलन था, अब भारतवर्ष में सस्ती धातुओं से बनी मुद्राओं का प्रचलन है जिसे सिक्का कहते हैं।

धृतराष्ट्र : तो मुझे बताओ कि सिक्के का दूसरा पहलू क्या है?

संजय : सिक्के का दूसरा पहलू यह है महाराज कि अब द्रौपदी उतनी निरीह भी नहीं रही जितनी कि वह आपके काल में हुआ करती थी।

धृतराष्ट्र : किंचित् विस्तार से कहो संजय। क्या तुम भी शकुनि की तरह पहेलियां बुझाने लगे?

संजय : महाराज आज की द्रौपदी पुरुषों की भांति मर्दाने वस्त्र धारण करके राजकीय सेवाओं से लेकर श्रेष्ठियों की पण्यशालाओं में धनार्जन करने के लिये जाती है। उसके अपने बैंक एकाउंट्स हैं।

धृतराष्ट्र : बैक एकाउण्ट्स क्या?

शकुनि : ऐसी पण्यशाला जहाँ द्रौपदी अपनी मुद्राएं अलग रख सकती है।

धृतराष्ट्र : हाय! मेरी पुत्री को यह दिन भी देखने पड़े!

संजय : शोक न कीजिये महाराज। यह आज की द्रौपदी के लिये गर्व की बात है न कि कष्ट की।

धृतराष्ट्र : और, और क्या करती है वह?

संजय : उसके साथ कार्यालयों, वीथियों एवं पण्यशालाओं में कोई अभद्रता नहीं हो इसके लिये केंद्रीय राजधानी से लेकर प्रांतीय राजधानियों में महिला आयोग बन गये हैं।

धृतराष्ट्र : ये महिला आयोग क्या करते हैं संजय?

संजय : यदि कोई व्यक्ति द्रौपदी का चीरहरण करता है या उस पर तेजाब फैंकता है तो ये महिला आयोग उस व्यक्ति को दण्ड दिलवाते हैं।

गांधारी (व्याकुल होकर) : किसे पुत्र सुशासन को?

दुर्योधन (रुष्ट होकर) : भ्राता सुशासन ने द्रौपदी पर अम्ल नहीं फैंका माताश्री।

भीष्म (असमंजस से) : द्रौपदी की रक्षा के लिये इतनी अच्छी व्यवस्था की गयी है, यह तो बहुत अच्छी बात है किंतु इनके होते हुए भी हमारी द्रौपदी का चीरहरण कर लिया जाता है! उस पर तेजाब फैंका जाता है! दुःखद आश्चर्य है।

धृतराष्ट्र : सिक्के के दूसरे पहलू में और क्या है संजय?

संजय : महाराष्ट्र। आज की द्रौपदी की रक्षा के लिये राष्ट्र में इस तरह के विधान बनाये गये हैं कि उसके श्वसुर गृह में भी उस पर कोई आँखें टेढ़ी न कर सके। यदि कोई सास, श्वसुर, पति या पति के ज्येष्ठ या लघु भ्राता उस पर कोई अत्याचार करें तो द्रौपदी उस विधान के तहत अपने श्वसुर गृह के सदस्यों को कारागृह में डलवा सकती है।

भीष्म : अति उत्तम। यह व्यवस्था तो हमारे पूर्वजों को भी करनी चाहिये थी।

संजय : सिक्के के दूसरे पहलू का वर्णन पूरा सुन लीजिये तात्श्री।

भीष्म : बोलते जाओ संजय, बोलते जाओ। सिक्के का यह दूसरा पहलू बहुत अच्छा लग रहा है।

संजय : जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि आज की द्रौपदी अब उतनी निरीह नहीं रह गयी है। इसलिये आज की द्रौपदी अपनी बदली हुई परिस्थिति का भरपूर लाभ भी उठाती है।

धृतराष्ट्र : लाभ…..अर्थात्?

संजय : यदि श्वसुर गृह का कोई सदस्य द्रौपदी की बात मानने से मना कर देता है तो कुछ द्रौपदियां श्वसुर गृह के सदस्यों पर मिथ्या आरोप लगाकर उन्हें कारागृह का मार्ग दिखा देती है महाराज।

धृतराष्ट्र : किस प्रकार के मिथ्या आरोप?

संजय : महाराज! वे श्वसुर गृह के सदस्यों पर आरोप लगाती हैं कि उन्होंने दहेज की लालसा में मुझे प्रताड़ित किया तथा जीवित ही लाक्षागृह में झौंक देने का प्रयास किया।

धृतराष्ट्र : दहेज माने।

संजय : आपके शासन काल में पुत्रवधू को प्राप्त करने के लिये श्वसुर या पति द्वारा गौ दान किया जाना आवश्यक था, उसके ठीक विपरीत अब पुत्री का विवाह करने के लिये पुत्री का पिता वर पक्ष को वस्त्र, धन, स्वर्ण, आभूषण एवं अन्य सामग्री प्रदान करता है, उसे दहेज कहते हैं।

शकुनि : इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आज पुत्र सुशासन धरती पर होता तो द्रौपदी उसे कारागृह में डलवा देती?

संजय : मैंने यह नहीं कहा कि द्रौपदी की प्रताड़ना करने वाले को द्रौपदी कारागृह में डलवा देती है।

धृतराष्ट्र (आश्चर्य से) : तो फिर तुमने क्या कहा संजय?

नारद : महाराज! संजय ने यह कहा कि यदि द्रौपदी राजकीय रक्षकों के समक्ष जाकर यह कह भर दे कि मेरी प्रताड़ना की गयी है तो आरोपित व्यक्ति को कारागृह का सुख प्राप्त हो सकता है। नारायण-नारायण।

धृतराष्ट्र : तुम्हारे सिक्के के दूसरे पहलू में और भी कुछ कहने को है संजय?

संजय : हाँ महाराज। आज द्रौपदी द्वारा आरोपित सहस्रों श्वसुर, पति तथा पति के स्वजन कारागृहों में अपनी दुर्दशा पर रो रहे हैं। राष्ट्र के न्यायालयों में ऐसे अभियोगों की बाढ़ आ गयी है महाराज। वृद्ध  दम्पत्ति इस आशा में अपने पुत्रों के विवाह करते हैं कि पुत्रवधू उन्हें वृद्धावस्था में सुख प्रदान करेगी किंतु विधान के बल पर द्रौपदियां उन्हें कारागृह का सुख उपलब्ध करवा देती है।

भीष्म : पुत्री द्रौपदी! तुझसे ऐसी आशा न थी।

दुःशासन : संजय की बातों का अर्थ यह हुआ कि यदि आज हम धरती पर होते तो द्रौपदी हमें नहीं, धर्मराज युधिष्ठिर तथा उनके पाँचों भ्राताओं को कारागृह का मार्ग दिखाती।

शकुनि : और साथ में महारानी कुंती को भी।

दुःशासन : मैं तो पहले ही कहता था कि आज के भारत वर्ष में पिताश्री के शासन की अपेक्षा काफी सुख है।

शकुनि : ठीक कहते हो भांजे। इस वाचाल संजय ने हमें व्यर्थ ही भयभीत कर दिया था।

दुर्योधन : इसका अर्थ है कि संजय हमारा समय व्यर्थ कर रहा है!

दुःशासन : भ्राता श्री ठीक कह रहे हैं। यहाँ हमारा समय व्यर्थ किया जा रहा है।

शिशुपाल : यदि ऐसा है तो फिर यहाँ से चल देना ही उचित है। इन लोगों में कोई सुधार नहीं हुआ। आज भी इनके पास घुमा-फिरा कर कहने के लिये वही घिसी-पिटी बातें हैं।

कर्ण : मैंने तो पहले ही कहा था कौरवनंदन कि स्वर्ग में चलकर अपना समय नष्ट न करें।

दुर्योधन : तुमने ठीक कहा था मित्र।

शकुनि : आप सदैव ठीक ही कहते हैं अंगराज।

दुर्योधन : हाँ-हाँ, हमें यहाँ से चलना चाहिये। मुझसे अश्वत्थामा के आँसू देखे नहीं जाते।

दुर्योधन और उसके साथी उठकर तोरण द्वार से बाहर चले जाते हैं। गांधारी और धृतराष्ट्र व्याकुल होकर अपने आसनों से खड़े हो जाते हैं।

गांधारी : हमें इस तरह छोड़कर मत जाओ पुत्र।

धृतराष्ट्र : सुयोधन! अपने नेत्रहीन पिता से इस तरह मुँह मत फेरो वत्स।

अश्वत्थामा (सिर पकड़ कर) : आप अपने पुत्रों की ओर ही देखते रहेंगे महाराज! या मुझ अश्वत्थामा की भी सुधि लेंगे ?

धृतराष्ट्र (आश्चर्य से) : अपने पुत्रों की ओर देखते रहेंगे? हम तो नेत्रहीन हैं। हमने तो आज तक अपने पुत्रों का मुँह नहीं देखा। फिर भी हम पर यह आरोप!

भीष्म : आपके पुत्र इस योग्य हैं भी नहीं महाराज कि आप उनका मुख देखें।

अश्वत्थामा : मैं तो यह सोचकर इस सभा में आया था कि आप लोग मुझे धरती से मुक्त करवाने के लिये कोई प्रयास करने वाले हैं किंतु देखता हूँ कि मेरे आंसुओं से तो आपको कोई प्रयोजन ही नहीं है। आप तो अपने पुत्रों के मोह से ही ग्रस्त हैं।

धृतराष्ट्र : मैं नेत्रहीन भला अपने पुत्रों के लिये क्या कर सकता हूँ?

श्रीकृष्ण : आपकी नेत्रहीनता आज भी भारत वर्ष के लिये अभिशाप बनी हुई है महाराज। कितना अच्छा हुआ होता कि भरतवंशियों को अपने राजसिंहासन के लिये नेत्रहीन राजा न मिला होता। काश काल का कठोर आघात अब भी आपकी आँखें खोल सके!

धृतराष्ट्र : नहीं-नहीं। हमें आँखों की आवश्यकता नहीं। हमारी आँखें बंद ही रहें तो अच्छा है। जब हम उस युग में द्रौपदी की दुर्दशा को नहीं देख सके तो इस युग में चलते हुए रथों में द्रौपदी का चीर हरण होता हुआ कैसे देख सकेंगे। अम्ल से जला हुआ उसका मुख कैसे देखेंगे?

अश्वत्थामा : और यह देख सकेंगे कि किस प्रकार द्रौपदी अपने श्वसुर गृह के सदस्यों पर मिथ्या आरोप लगाकर उनके लिये कारागृह का मार्ग प्रशस्त करती है!

नारद : महाराज! न तो आप द्रौपदी पर होने वाले अत्याचार देख सकेंगे और न द्रौपदियों द्वारा किये जाने वाले अत्याचार देख सकेंगे। सत्य कहा आपने, आप नेत्रहीन ही रहें, इसी में हम सब की भलाई है।

धृतराष्ट्र (कांपकर) : देवर्षि!

भीष्म : शांत हो जायें महाराज। द्रौपदी की समस्या आपसे नहीं सुलझेगी। यदि आप कुछ कर सकते हैं तो अश्वत्थामा के लिये कुछ करने का प्रयास करें ताकि इसके आंसू रोके जा सकें।

श्रीकृष्ण : इतिहास के साथ यही विडम्बना है महाराज। हम इतिहास से चिपके हुए तो रहना चाहते हैं किंतु उससे कोई सीख नहीं लेना चाहते। यही कारण है कि इतिहास इस अश्वत्थामा की तरह पुस्तकों में दबा हुआ सिसकता रहता है और निर्दयी काल वर्तमान को और अधिक क्रूर बनाता हुआ चला जाता है।

नारद : नारायण! नारायण!

अश्वत्थामा अपने माथे से बहने वाले रक्त को रोकता हुआ सिसक पड़ता है। नेपथ्य से करुणा सूचक संगीत बजता है। धृतराष्ट्र और गांधारी अपने अपने स्थान पर सिर झुका कर खड़े रहते हैं।

यवनिका पतन

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