औरंगजेब ने अपनी बेगम दिलरास बानू का मकबरा अत्यंत साधारण पत्थरों से बनवाया था जिसे देखकर दिलरास बानू के पुत्रों को बड़ी निराशा हुई।
दक्खिन के पठार पर एक प्राचीन कस्बा बसा हुआ था जिसे सत्रहवीं सदी तक खाड़की के नाम से जाना जाता था। जब औरंगजेब दक्खिन का सूबेदार हुआ तो उसने इस कस्बे में अपनी प्रांतीय राजधानी की स्थापना की तथा इसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया।
ई.1657 में औरंगाबाद में औरंगजेब की पहली पत्नी रबिया-उद्-दौरानी का निधन हुआ जिसे मुगलिया इतिहास में दिलरास बानो के नाम से जाना जाता है। औरंगजेब ने दिलरास बानो को औरंगाबाद में ही दफना दिया तथा वहीं पर एक साधारण मकबरा बनवा दिया। दिलरास बानू का पुत्र आजमशाह इस मकबरे से संतुष्ट नहीं हुआ।
जब ई.1658 में औरंगजेब बादशाह बन गया तो आजमशाह ने अपने पिता से अनुरोध किया कि मेरी इच्छा है कि जिस प्रकार आपके पिता शाहजहाँ ने आपकी माता की स्मृति में ताजमजल का निर्माण करवाया था, उसी प्रकार आप भी मेरी माता की स्मृति में औरंगाबाद में एक ताजमहल बनवाएं।
औरंगजेब को शहजादे के प्रस्ताव से बड़ी हैरानी हुई। औरंगजेब का मानना था कि वह संसार से कुफ्र मिटाकर इस्लाम का प्रसार करने आया है, उसके पास इन फालतू कामों के लिए न तो वक्त है और न पैसा। उसका काम कुफ्र की निशानियों को तोड़ना है न कि ताजमहल जैसी फालतू चीजें बनाना किंतु शहजादा आजमशाह नहीं माना। उसने जिद करके अपने पिता से छः लाख रुपए प्राप्त किए और औरंगाबाद में एक नया ताजमहल बनाने में जुट गया।
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शहजादी रौशनआरा ने भी इस कार्य में शहजादे आजमशाह की सहायता की जो औरंगजेब के बाद आजमशाह को बादशाह देखना चाहती थी। पिता से पैसे मिल जाने के बाद शाहआजम ने अताउल्लाह से सम्पर्क किया। आगरा के ताजमहल का डिजाइन इसी अताउल्लाह के पिता अहमद लाहौरी ने तैयार किया था। अहमद लाहौरी तो अब मर चुका था किंतु उसका पुत्र अताउल्लाह जिंदा था।
शहजादा आजमशाह अताउल्लाह को अपने साथ औरंगाबाद ले गया। ताजमहल का निर्माण ईशा नामक मुख्य शिल्पी के मार्गदर्शन में हुआ था जो ईरान से आया था किंतु वह भी अब मर चुका था। इसलिए आजमशाह ने एक नए शिल्पी की तलाश की। उन दिनों मुगल सल्तनत में हंसपतराय नामक एक शिल्पी विशाल भवनों के निर्माण के लिए बहुत प्रसिद्धि पा गया था। इसलिए आजमशाह ने अपनी माँ का मकबरा बनाने के लिए हंसपतराय की सेवाएं प्राप्त कीं।
इस प्रकार अताउल्लाह ने दिलरास बानो के मकबरे का डिजाइन तैयार किया तथा हंसपतराय ने उसका निर्माण किया। ताजमहल के निर्माण में ईरान से आये शिल्पियों की एक फौज ने कई सालों तक काम किया था। जबकि आजमशाह को भारत में उपलब्ध शिल्पियों से ही संतोष करना पड़ा। आगरा के ताजमहल की पच्चीकारी का काम कन्नौज के कुशल कारीगरों को दिया गया था किंतु आजमशाह द्वारा बनाए गए मकबरे में पच्चीकारी नहीं करवाई जा सकी।
ई.1653 में जब आगरा का ताजमहल बनकर तैयार हुआ तो उस पर 3 करोड़ 20 लाख रुपए व्यय हुए थे। कहा जाता है कि शाहजहाँ ने ताजमहल में इतने रत्न लगाए थे कि मुगलों का खजाना ही रीत गया था। ताजमहल पर व्यय की गई रकम की तुलना में औरंगजेब द्वारा शहजादे आजमशाह को दिए गए छः लाख रुपए बहुत ही कम थे। फिर भी आजमशाह औरंगाबाद में एक नया ताजमहल बनाने में जुट गया।
आजमशाह ने भरपूर प्रयास किया कि उसके द्वारा बनवाया गया मकबरा ताजमहल जैसा ही दिखाई दे किंतु धन और संसाधनों के अभाव में यह मकबरा ताजमहल जैसा नहीं बन पाया। इसकी मीनारों में संतुलन स्थापित न हो पाने के कारण पूरे भवन का सामन्जस्य बिखर गया और ताजमहल की असफल नकल बनकर रह गया।
आजमशाह द्वारा औरंगाबाद में बनवाया गया ताजमहल बीबी का मकबरा तथा दक्कन का ताज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस भवन को दूर से देखने पर ही अनुमान हो जाता है कि इसमें ताजमहल की नकल करने का असफल प्रयास किया गया है।
ग़ुलाम मुस्तफा नामक तत्कालीन लेखक की पुस्तक ‘तारीखनामा’ के अनुसार बीबी के मकबरे के निर्माण पर 6,68,203 रुपये व्यय हुए । इस मक़बरे के गुम्बद पर मकराना से लाया गया संगमरमर लगाया गया है तथा शेष निर्माण पर सफेद प्लास्टर किया गया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता