बाबर ने पूरी जिंदगी खपाकर हिन्दुस्तान में अपनी सल्तनत स्थापित की थी। हुमायूँ उस सल्तनत को विस्तार दे रहा था किंतु बाबर के बेटे बड़े निकम्मे निकले, वे अपने ही भाई को मारकर अपने बाप के द्वारा बनाई गई सल्तनत को नष्ट करने पर तुल गए!
26 जून 1539 का तड़का होते ही चौसा का युद्ध आरम्भ हुआ और आरम्भ होने के साथ ही समाप्त हो गया। मुगल शिविर में मची भगदड़ में मुगलों की बहुत सी औरतें गायब हो गईं।
गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘मुगल सेना परास्त हुई। बहुत से सम्बन्धी और मनुष्य पकड़े गए। बादशाह के हाथ में भी घाव लगा। चौसा के युद्ध के उपरांत मची गड़बड़ में कितनों का कुछ भी पता नहीं लगा। उनमें सुल्तान हुसैन मिर्जा की पुत्री आयशा सुल्तान बेगम, बेगा जान कोका, अकीकः बेगम तथा चांदबीबी शाही हरम की सम्माननीय महिलाएं भी सम्मिलित थीं जिनका कुछ भी पता नहीं चला। बाबर के महल की मुख्य दासी का नाम बचका था जिसे खलीफा भी कहा जाता था। वह भी इस यात्रा में हुमायूँ के हरम के साथ थी। बचका भी इस अफरा-तफरी में लापता हो गई। उसका क्या हुआ, कुछ पता नहीं चल सका।’
गुलबदन बेगम लिखती है- ‘बादशाह हुमायूँ ने अपने हरम की लापता औरतों की खूब तलाश करवाई किंतु उन्हें ढूंढा नहीं जा सका। इसलिए बादशाह चुनार में तीन दिन ठहर कर आरेल आए। जब नदी के किनारे पहुंचे तो यह देखकर चकित हुए कि नाव के बिना किस प्रकार पार उतरें। इसी समय राजा वीरभान बघेला सेना लेकर आ पहुंचा। उसने हुमायूँ का पीछा कर रहे मीर फरीद गोर पर हमला करके उसे भगा दिया। राजा वीरभान बघेला ने हुमायूँ को नदी पार करवा दी।’
हुमायूँ के सैनिक चार-पांच दिनों से बिना भोजन और बिना मदिरा के थे। राजा वीरभान ने उनके लिए खाने की वस्तुएं, शराब, मांस और आवश्यक वस्तुओं का बाजार लगवा दिया जिससे हुमायूँ की सेना के कुछ दिन आराम से बीत गए और घोड़े भी ताजी हो गए। जो सिपाही पैदल हो गए थे उन्होंने नया घोड़ा खरीद लिया।
राजा वीरभान की सहायता से बादशाह हुमायूँ कड़ा पहुंच गया। यहाँ से हुमायूँ की सल्तनत आरम्भ हो गई थी। इसलिए हुमायूँ को शाही सुविधाएं एवं संसाधन फिर से प्राप्त हो गए। गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘इस युद्ध के बाद हुमायूँ बीमार पड़ गया और पूरे चालीस दिन तक बीमार रहा।’
नियामतुल्ला नामक एक लेखक ने लिखा है- ‘कुछ दिनों बाद शेर खाँ ने हुमायूँ की मुख्य बेगम अर्थात् बेगा बेगम को हुसैन खाँ नीरक की देख-रेख में रोहतास दुर्ग में भेज दिया तथा अन्य मुगल स्त्रियों के लिए सवारियों का प्रबंध करके उन्हें आगरा भिजवा दिया। इस विजय के बाद शेर खाँ ने हजरत अली की उपाधि धारण की।’
जब हुमायूँ कड़ा से आगरा जा रहा था, तब मार्ग में ही हुमायूँ को सूचना मिली कि मिर्जा हिंदाल दिल्ली आ गया है और अपनी माता द्वारा मना किए जाने के उपरांत भी, उसने शाही-चिह्न धारण करके स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया है।
गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘खुसरू बेग, जाहिद बेग तथा सैयद अमीर कन्नौज में एकत्रित हो गए। ये लोग बादशाह हुमायूँ से बगावत करके मिर्जा हिंदाल की तरफ हो गए थे। मुहम्मद सुल्तान मिर्जा भी कन्नौज आ गया था जो पहले बगावत करके गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की तरफ हो गया था। जब मिर्जा हिंदाल को समाचार मिला कि हुमायूँ आगरा आ रहा है तो हिंदाल दिल्ली चला गया। उसी समय मीर फुक्रअली, यादगार नासिर मिर्जा को दिल्ली ले आया और यादगार नासिर मिर्जा ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मिर्जा हिंदाल तथा मिर्जा यादगार नासिर में मेल नहीं था। इसलिए मिर्जा हिंदाल ने दिल्ली घेर ली।’
जब मिर्जा कामरान को यह समाचार मिले तो वह भी अपने 12 हजार सैनिक लेकर दिल्ली आ गया ताकि कामरान दिल्ली पर अधिकार कर सके। मीर फुक्रअली तथा यादगार नासिर मिर्जा ने दिल्ली के फाटक बंद कर लिए। इस पर कामरान ने मीर फुक्रअली के समक्ष संधि का प्रस्ताव भिजवाया। मीर फुक्रअली, बाबर के बेटे मिर्जा कामरान से अपनी सुरक्षा की प्रतिज्ञा करवाकर दिल्ली से बाहर आया तथा उसने कामरान से भेंट की। मीर फुक्रअली ने कामरान से कहा कि मिर्जा यादगार नासिर अपने स्वार्थ में डूबा हुआ है। इसलिए वह आपसे भेंट नहीं करना चाहता। मीर फुक्रअली ने कामरान को सलाह दी कि वह दिल्ली में अपना समय खराब न करे अपितु मिर्जा हिंदाल को बंदी बना ले और हुमायूँ के आगरा पहुंचने से पहले ही आगरा पहुंचकर आगरा का बादशाह बन जाए। मिर्जा कामरान को मीर फुक्रअली की सलाह पसंद आई। उसने मीर फुक्रअली को ही दिल्ली सौंप दी तथा स्वयं मिर्जा हिंदाल को अपने साथ लेकर आगरा आ गया। आगरा आकर कामरान ने बाबर के मकबरे के दर्शन किए। उस समय तक बाबर का शव काबुल नहीं ले जाया जा सका था और आगरा में ही एक मजार में दफ्न था।
कामरान ने आगरा में अपनी माता-बहिनों से भेंट की तथा गुलअफशां बाग में डेरा डाल दिया। पाठकों की सुविधा के लिए बता देना समीचीन होगा कि हुमायूँ का तीसरा भाई मिर्जा अस्करी इस समय हुमायूँ के साथ था और वह भी चौसा के युद्ध में जीवित बचकर हुमायूँ के साथ ही आगरा आ रहा था। उसके मन में भी बादशाह बनने की चाहत थी किंतु वह जानता था कि इस समय परिस्थितियाँ बगावत करने के लिए अनुकूल नहीं हैं।
कुछ दिन बाद नूरबेग आगरा आया और उसने बाबर के बेटे कामरान तथा हिंदाल को बताया कि बादशाह हुमायूँ आगरा पहुंचने वाले हैं। यह सुनकर बाबर के बेटे कामरान तथा मिर्जा हिंदाल दोनों ही हक्के-बक्के रह गए। उन्हें लगता था कि हुमायूँ चौसा से आगरा तक के मार्ग को निरापद रूप से पार नहीं कर सकेगा और शेर खाँ मार्ग में ही हुमायूँ का काम तमाम कर देगा किंतु कामरान तथा हिंदाल की आशा के विपरीत हुमायूँ न केवल जीवित था अपितु सकुशल आगरा पहुंचने वाला था।
यह सुनकर मिर्जा हिंदाल भयभीत होकर अपने राज्य अर्थात् मेवात को लौट गया। जब हुमायूँ आगरा पहुंचा तो उसी रात परिवार के सदस्यों के साथ मिर्जा कामरान ने भी हुमायूँ से भेंट की तथा कई दिनों तक हुमायूँ की हाजरी में रहकर उसकी सेवा करता रहा।
जब गुलबदन बेगम ने हुमायूँ से भेंट की तो हुमायूँ गुलबदन बेगम को पहचान नहीं सका। इस पर हुमायूँ को बताया गया कि यह तुम्हारी बहिन गुलबदन है।
हुमायूँ ने कहा- ‘मैं हर समय तुम्हें याद करता था और अफसोस करता था कि तुम्हें बंगाल अभियान में अपने साथ नहीं ले गया किंतु जब चौसा की दुर्घटना हुई तो मुझे इस बात पर बड़ा संतोष हुआ कि तुम मेरे साथ नहीं थीं अन्यथा तुम्हारे साथ भी जाने क्या होता?‘ आज मुझे अकीकः के लिए दुःख होता है कि क्यों मैं उसे अपने साथ ले गया। कौन जाने उस पर क्या बीत रही होगी? जब मैं जब बंगाल की यात्रा पर गया था तो तुम टोपी लगाया करती थीं किंतु अब तुम्हारा विवाह हो गया है और तुम टोपी की जगह घूंघट लगाती हो, इसलिए मैं तुम्हें नहीं पहचान सका।’
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता