Friday, March 29, 2024
spot_img

74. कामरान हुमायूँ को चकमा देकर भाग गया!

जब हुमायूँ कांधार पर अधिकार करने के बाद काबुल के लिए रवाना हुआ तो मार्ग में हुमायूँ की बुआ खानजादः बेगम का निधन हो गया। इससे हुमायूँ तथा उसके भाइयों के बीच की अंतिम योजक-कड़ी भी टूट गई। अब हुमायूँ तथा उसके भाइयों के बीच समझौता करवाने वाला कोई प्रभावशाली व्यक्ति मुगलिया खानदान में जीवित नहीं बचा था।

कामरान भी एक सेना लेकर हुमायूँ की ओर बढ़ रहा था। इधर हुमायूँ तीपा घाटी में पहुंच गया और उधर कामरान गुजरगार के पास पहुंच गया। इन दोनों स्थानों के लगभग बीच में बाबर का बाग स्थित था जहाँ बाबर का मकबरा बना हुआ है। यह कैसी विडम्बना थी कि एक ओर बाबर का सबसे बड़ा और सबसे छोटा बेटा तलवार उठाए हुए था तो दूसरी ओर बाबर के दोनों मंझले बेटों ने खंजर तान रखे थे। अपने चारों बेटों के बीच में बाबर का शव धरती के नीचे लेटा हुआ इस हैरतअंगेज दृश्य का साक्षी बन रहा था।

लगभग इसी स्थान पर कामरान की सेना के बहुत से अमीर और बेग कामरान को छोड़ भागे और अपनी-अपनी सेनाएं लेकर हुमायूँ की सेवा में आ गए। इनमें से बहुतों के पास घोड़े और हथियार नहीं थे। इस पर हुमायूँ ने तुर्कमान लोगों से एक हजार घोड़े खरीदे तथा घोड़ों के व्यापारियों से कहा कि जब काबुल विजय हो जाएगी, तब इन घोड़ों का मूल्य चुकाया जाएगा। तुर्कमान लोगों ने हुमायूँ की यह बात मान ली। हुमायूँ की तरफ से इन व्यापारियों को लिखित में वचन दिया गया कि इन घोड़ों का मूल्य चुकाने की जिम्मेदारी हुमायूँ बादशाह की है।

तुर्कमान लोगों से खरीदे गए घोड़ों में से अच्छे घोड़े शाही तबेले में ले लिए गए तथा शेष घोड़े मुगल अधिकारियों में बांट दिए गए। जब ये लोग तीरी नामक स्थान पर पहुंचे तो वहाँ के मुखिया ने कुछ भेड़ें तथा घोड़े हुमायूँ को भेंट किए।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

हुमायूँ के दुर्भाग्य से इन दिनों गर्मी तेज हो गई और उसके बहुत से सैनिक हैजे से मर गए। इस कारण मिर्जा हिंदाल ने हुमायूँ को सुझाव दिया कि इस समय काबुल जाने की बजाय, कांधार लौटना उचित होगा। इस पर हुमायूँ ने हिंदाल से कहा कि यदि तू चाहे तो कांधार जा सकता है, मैं तो अब काबुल पहुंचकर ही विश्राम करूंगा। इस पर हिंदाल को बड़ी लज्जा आई और उसने बादशाह से निवेदन किया कि मुझे आपकी सेना के हरावल अर्थात् अग्रिम भाग में तैनात किया जाए।

एक रात कामरान के सबसे विश्वस्त बेगों में गिना जाने वाला बापूस कामरान को छोड़कर भाग खड़ा हुआ ओर हुमायूँ के चरण चूमकर उसका वफादार बन गया। कामरान को बापूस से ऐसी आशा नहीं थी। बापूस के दुर्भाग्य से बापूस का एक घर उसी क्षेत्र में मौजूद था जहाँ कामरान की सेना ठहरी हुई थी। कामरान ने उस घर को गिराकर अपनी भड़ास निकाली। इतना सब होने के उपरांत भी कामरान अभी इतना कमजोर नहीं हुआ था कि वह हुमायूँ का सामना न कर सके। अब भी कामरान के पास लगभग 12 हजार सैनिक थे किंतु अब कामरान का भरोसा अपने सैनिकों पर से पूरी तरह उठ गया था।

 कामरान को आभास हो गया था कि हुमायूँ का सूरज फिर से चढ़ रहा है, इस चढ़ते हुए सूरज का सीधे-सीधे मुकाबला कर पाना कठिन है। इसलिए उसने एक कपट भरी योजना बनाई। कामरान ने हुमायूँ को भुलावे में डालने के लिए अपनी सेना भंग कर दी तथा अपने विश्वस्त साथियों ख्वाजा खाविंद महमूद और ख्वाजा अब्दुल खालिक को क्षमा मांगने हुमायूँ के पास भेजा।

हुमायूँ अपने भाइयों की अपेक्षा अधिक उदार, सहनशील एवं समझदार था। इसलिए हुमायूँ ने कामरान को क्षमा कर दिया तथा दोनों ख्वाजाओं से कहा कि वे कामरान को मेरी सेवा में ले आएं।

वस्तुतः कामरान हुमायूँ से क्षमा नहीं मांगना चाहता था, उसने तो हुमायूँ को चकमा देकर गजनी भाग जाने का कार्यक्रम बनाया था। अतः जब हुमायूँ ने कामरान को क्षमा करने का वचन दिया तो हुमायूँ की सेना ढीली पड़ गई और रात के अंधेरे का लाभ उठाकर कामरान काबुल की तरफ भागा। हुमायूँ सहित कोई नहीं जान सका कि कामरान अचानक ही कहाँ गायब हो गया!

काबुल के निकट पहुंचकर कामरान स्वयं तो बाबा दश्ती के निकट एक तालाब पर रुक गया और अपने आदमियों को नगर में भेजकर वहाँ से अपनी पुत्री हबीबा बेगम, पुत्र इब्राहीम सुल्तान मिर्जा, खिज्र खाँ की भतीजी हजारा बेगम, हरम बेगम की बहिन माह बेगम, हाजी बेगम की माता मेहअफरोज बेगम और बाकी कोका आदि को बुलवा लिया।

गुलबदन बेगम ने लिखा है कि जब कामरान का परिवार बाबा गश्ती पर आया तो कामरान अपने परिवार के साथ ठट्ठा तथा बक्खर की तरफ भाग गया जबकि अबुल फजल ने लिखा है कि कामरान गजनी की तरफ चला गया। जब हुमायूँ को ज्ञात हुआ कि कामरान भाग गया तो हुमायूँ ने मिर्जा हिंदाल को कामरान के पीछे भेजा ताकि हिंदाल कामरान को पकड़कर ले आए।

हुमायूँ ने बापूस आदि कुछ बेगों को काबुल पर अधिकार करने भेजा ताकि कामरान के सैनिक काबुल के लोगों को न सताएं। हुमायूँ ने कांधार दुर्ग में प्रतीक्षा कर रही हमीदा बानो को काबुल विजय का शुभ समाचार भिजवाया तथा स्वयं अपने मंत्रियों एवं सेनापतियों सहित तीपा घाटी से चलकर काबुल चला गया।

एक शुभ मुहूर्त में हुमायूँ ने अपने पिता की पुरानी राजधानी काबुल में प्रवेश किया। जो मुगल सैनिक कल तक अपनी छातियां चौड़ी करके, शाही डंके पीटते हुए कामरान के आगे चला करते थे, आज वही सैनिक हुमायूँ के आगे-आगे चल रहे थे। उनकी छातियों की चौड़ाई, उनके डंके की आवाजें और उनके गर्व की मात्रा में कोई अंतर नहीं आया था। वह युग ऐसा ही था, निष्ठाएं पल भर में बनती-बिगड़ती और बिकती थीं।

इस प्रकार ई.1546 में जब हुमायूँ ने काबुल पर अधिकार किया तब अकबर को अपने पिता को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अबुल फजल के अनुसार इस समय अकबर की आयु तीन वर्ष दो मास आठ दिन थी। दूसरे दिन प्रातः हुमायूँ अपने पिता के तख्त पर बैठा। उस दिन दरबारे आम का आयोजन किया गया जिसमें समस्त बेग, मंत्री, अमीर तथा जागीरदार; बादशाह की सेवा में उपस्थित हुए। जन साधारण की विभिन्न कौमों के मुखिया भी दरबार में उपस्थित हुए।

इस प्रकार दर-दर की ठोकरें खाने वाला हुमायूँ एक बार फिर भाग्य के जोर मारने पर बादशाह बन गया। प्राचीन काल से ही धरती के प्रत्येक भू-भाग में राजा, सम्राट, बादशाह और सुल्तान उसे माना जाता था जिसके पास किला हो, कोष हो, सेना हो, धरती हो और प्रजा हो! आज हुमायूँ के पास किला भी था, कोष भी था, सेना भी थी, भूमि भी थी और प्रजा भी थी! जहाँ तक बात मुकुट और सिंहासन की है, वे तो राजा के आभूषण मात्र हैं। वे राजा से हैं, राजा उनसे नहीं है!

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source