Saturday, July 27, 2024
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30. ऋषि भरद्वाज ने श्रीराम एवं सीता से हजारों साल बूढ़ी अनसूया का परिचय करवाया!

जब दशरथ नंदन भरत अयोध्यावासियों को चित्रकूट से अयोध्या ले गए तो राजकुमार रामचंद्र ने लक्ष्मण एवं सीताजी को अपने साथ लेकर चित्रकूट छोड़ दिया और गहन दण्डकारण्य में प्रवेश किया। उन्होंने अरण्य में रहकर तपस्या करने वाले ऋषियों के आश्रमों में जाकर उनका सानिध्य प्राप्त करने लगे। उनका उद्देश्य वन में रहने वाले ऋषियों एवं मुनियों को अभय प्रदान करना एवं मनुष्यभक्षी राक्षसों का संहार करना था।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम, लक्ष्मण तथा सीता चित्रकूट से चलकर अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचे। महर्षि अत्रि वैदिक ऋषि थे जिनका उल्लेख सप्तऋषि के रूप में होता है। ऋग्वेद में इनका उल्लेख बार-बार होता है। वेदों के बहुत से मंत्र अत्रि ऋषि द्वारा लिखे गए थे। अतः श्रीरामचंद्र के काल में अत्रि ऋषि की आयु हजारों वर्ष की रही होगी।

वाल्मीकि रामायण एवं गोस्वामी तुलसीदासजी कृत रामचरित मानस में ऋषि अत्रि की पत्नी अनसूया का उल्लेख अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है। अनसूया को पौराणिक काल की सोलह सतियों मे से एक माना जाता है। वे मुनि कर्दम की पुत्री थीं जिन्हें प्रजापति कर्दम भी कहा जाता है। अनसूया की माता का नाम देवहूति था। प्रजापति कर्दम एवं देवहूति की 9 कन्याएं हुईं जिनमें से एक अनसूया थीं। अनसूया की पति-भक्ति अर्थात सतीत्व का तेज इतना अधिक था कि जब देवगण आकाश में विचरण करते थे तो उन्हें अनसूया का तेज अनुभव होता था।

जिस समय श्री राम अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुंचे, उस समय सती अनसूया अत्यंत वृद्ध होने के कारण शिथिल हो चुकी थीं। उनके शरीर में झुर्रियां पड़ गई थीं तथा सिर के बाल सफेद हो गए थे। अधिक हवा चलने पर हिलते हुए कदली वृक्ष के समान उनके सारे अंग निरंतर कांप रहे थे।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

अत्रि ऋषि ने रामचंद्र से अपनी अत्यंत वृद्ध हो चुकी पत्नी अनसूया का परिचय करवाया। ऋषि ने कहा- ‘हे राम! ये मेरी पत्नी अनुसूया हैं। एक बार दस वर्षों तक वृष्टि नहीं हुई तथा सारा संसार गर्मी से जलने लगा तब अनसूया ने अपने तप के प्रभाव से यहाँ कंद-मूल उत्पन्न किए तथ मंदाकिनी की पवित्र धारा बहाई। इसके बाद इन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या करके अपने उत्तम व्रतों के प्रभाव से ऋषियों के समस्त विघ्नों का निवारण किया था। हे राम! मेरी पत्नी अनुसूया ने देवताओं के कार्य के लिए एक बार अत्यंत उतावली होकर दस रात के बराबर एक ही रात बनाई थी। ये अनसूया देवी तुम्हारे लिए माता की भांति पूजनीया हैं। ये सम्पूर्ण प्राणियों के लिए वंदनीया तपस्विनी हैं क्रोध तो इन्हें कभी छू भी नहीं सका। राजकुमारी सीता को देवी अनसूया का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।’

ऋषि के आदेश पर जब सीता ने अनसूया के निकट जाकर अपना परिचय दिया तो अनसूया बहुत प्रसन्न हुईं तथा अनसूया ने सीताजी को पतिव्रता धर्म का उपदेश दिया जिसका वर्णन महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में एवं गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचिरित मानस में किया है।

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इस उपदेश को ‘सतीधर्म’ अर्थात् सत्य पर दृढ़ रहने का धर्म भी कहा जाता है। यहाँ सती शब्द का अर्थ सत्य-निष्ठा पर दृढ़ रहने से है न कि आग में जलने से। सती धर्म को ‘पतिव्रता धर्म’ भी कहा जाता है। इस उपदेश का सार यह है कि पति एवं पत्नी एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं। अतः वे एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करें तथा एक दूसरे के मित्र बन कर रहें। देवी अनसूया ने सीताजी को अखंड सौंदर्य की एक औषधि भी प्रदान की।

इन्हीं अनसूया ने एक बार अपने तपोबल से ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को छोटे बच्चों में परिवर्तित कर दिया था। कुछ पुराणों में आई इस कथा के अनुसार एक बार ब्रह्माणी, लक्ष्मी और गौरी में विवाद छिड़ा कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? तीनों देवियां अपने-अपने सतीत्व और पवित्रता की चर्चा कर रही थीं। तभी नारदजी वहाँ आए। उन्होंने मुनि अत्रि की पत्नी अनुसूया के असाधारण पातिव्रत्य के बारे में उन्हें बताया और कहा कि उनके समान पवित्र और पतिव्रता स्त्री तीनों लोकों में कोई नहीं है। तीनों देवियों के मन में अनसूया से ईर्ष्या हुई और उन्होंने अपने-अपने पति से कहा कि वे अनसूया के पातिव्रत्य धर्म की परीक्षा लें।

इस पर ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ब्राह्मणों का वेश धरकर अत्रि-आश्रम पहुँचे। उस समय अत्रि ऋषि आश्रम में नहीं थे। अनसूया ने अतिथियों का बड़े आदर से स्वागत किया। तीनों ने अनसूयाजी से कहा कि हम आपसे तभी भिक्षा लेंगे जब आप अपने सभी वस्त्रों को उतार कर भिखा दें। कुछ ग्रंथों के अनुसार तीनों देवताओं ने अनसूयाजी से कहा कि वे उन्हें अपना दूध पिलाएं।

इस पर अनसूयाजी ने अपनी दिव्य शक्ति से जान लिया कि ये धरती के प्राणी नहीं हैं अपितु स्वयं प्रजापति ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। अनसूया ने उसी समय भगवान श्री हरि विष्णु का स्मरण करके संकल्प लिया कि यदि मैंने पति के समान कभी किसी दूसरे पुरुष को न देखा हो, यदि मैं सदा मन, वचन और कर्म से पति की आराधना में ही लगी रही हूँ तो मेरे सतीत्व के प्रभाव से ये तीनों अतिथि नवजात शिशु बन जाएं। अनसूयाजी के संकल्प से तीनों अतिथि शिशु बनकर उनकी गोद में खेलने लगे।

माता अनसूया ने इन तीनों शिशुओं को स्तनपान कराया, दूध-भात खिलाया तथा अपनी गोद में सुलाया। तीनों देवता गहरी नींद में सो गए। उसी समय भगवान शिव के वाहन नंदी बैल, भगवान श्री हरि विष्णु के वाहन गरुड़जी एवं ब्रह्माजी के वाहन राजहंस आश्रम के द्वार पर आकर एकत्रित हो गए। अत्रि ऋषि के आश्रम का यह दृश्य देखकर देवर्षि नारद, देवी लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती भी वहाँ आ गईं। नारद ने विनयपूर्वक अनसूया से कहा- ‘माते! इनके पतियों को इन्हें सौंप दीजिए।’

अनसूया ने तीनों देवियों को प्रणाम करके कहा- ‘हे माताओ! झूलों में सो रहे शिशु यदि आपके पति हैं तो इन्हें आप ले जा सकती हैं। जब तीनों देवियों ने झूले में झांककर देखा तो वहाँ एक जैसे चेहरे के तीन शिशु गहरी निद्रा में सोए हुए थे। नारद ने उन देवियों से पूछा- ‘क्या महान् पतिव्रता होने पर भी आप अपने पति को पहचान नहीं सकतीं?’

इस पर तीनों देवियों ने एक-एक शिशु को उठा लिया। इस पर तीनों देवता अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। तब ज्ञात हुआ कि देवी सरस्वती ने शिवजी को, देवी लक्ष्मी ने ब्रह्माजी को और देवी पार्वती ने विष्णुजी को उठा लिया है। इस पर तीनों देवियों ने माता अनसूया से क्षमा याचना की और उन्हें बताया कि यह सब उनकी परीक्षा लेने के लिए किया गया था।

प्रजापति ब्रह्मा, विश्व पालक विष्णु एवं विश्व के रक्षक शिव ने देवी अनसूया से कहा कि आप हमसे वरदान मांगें। त्रिदेव की बात सुनकर माता अनसूया बोलीं- ‘हे प्रभु! आप तीनों मेरी कोख से जन्म लें।’

कालान्तर में माता अनुसूया के गर्भ से भगवान दतात्रेय रूप में भगवान श्री हरि विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म हुआ। कुछ ग्रंथों के अनुसार ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा का, श्री हरि विष्णु के अंश से भगवान दत्तात्रेय का तथा भगवान शिव के अंश से महर्षि दुर्वासा का जन्म हुआ।

वाल्मीकि रामायण से लेकर विविध पुराणों एवं रामचरित मानस में देवी अनसूया का जो वर्णन आया है, उसके अनुसार अनसूया की कथा किसी महान् प्राकृतिक शक्ति का ही मानवीकरण है जो बिना वर्षा के वनस्पति उत्पन्न करती है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को शिशु रूप में बदल सकती है, जिसके गर्भ से चंद्रमा, भगवान दत्तात्रेय एवं दुर्वासा जैसी महान विभूतियां जन्म लेती हैं।

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