जहाँगीर के पाँच बेटे थे- खुसरो, परवेज, खुर्रम, जहाँदार और शहरयार। खुसरो पहले ही बादशाह द्वारा आँखें फुड़वाकर मरवाया जा चुका था। अब परवेज ही सबसे बड़ा था और वही बादशाह को सबसे प्रिय था लेकिन नूरजहाँ के भाई आसफ अली की बेटी का विवाह खुर्रम के साथ हो जाने से नूरजहाँ परवेज के पक्ष में न थी जिससे परवेज का प्रभाव घट गया था।
खुर्रम अत्यंत महत्वाकांक्षी, सत्ता लोलुप और दुराग्रही व्यक्ति था। नूरजहाँ का सहारा मिल जाने से अब तक उसी को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के सर्वाधिक अवसर मिले थे। यही कारण था कि अब तक सर्वाधिक लड़ाईयाँ खुर्रम ने ही लड़ी थीं और सर्वाधिक सफलतायें भी उसी ने अर्जित की थीं।
जब नूरजहाँ ने अपने पेट से उत्पन्न अपने पूर्व पति शेरअफगन की बेटी का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे बेटे शहरयार से कर दिया तो नूरजहाँ की रुचि खुर्रम में न रही। वह चाहती थी कि खुर्रम के स्थान पर शहरयार को सफलतायें प्राप्त हों और वही बादशाह के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित हो लेकिन शहरयार नितांत निकम्मा और अयोग्य आदमी था। जब वह उद्यम ही नहीं करता था तो सफलतायें कहाँ से मिलतीं!
जब खुर्रम बादशाह से बहुत सा मान सम्मान और सेना पाकर दक्षिण को गया और खानखाना को दक्खिनियों के चंगुल से छुड़ाने के बाद एक के बाद एक करके सफलताओं के झण्डे गाढ़ने लगा तो नूरजहाँ को अच्छा नहीं लगा। उसने खुर्रम का प्रभाव घटाने के लिये दिल्ली, आगरा और पंजाब सूबों की सर्वश्रेष्ठ जागीरें शहरयार को प्रदान कर दीं। खुर्रम को बहुत ही घटिया और अनुपजाऊ जागीरें दी गयीं किंतु दक्खिन में होने से उसे इस परिवर्तन का ज्ञान न हो सका।
जब ईरान का शाह अब्बास सफवी कांधार पर चढ़कर आया तो जहाँगीर ने खुर्रम को आदेश भिजवाया कि वह खानखाना को लेकर शाह ईरान का रास्ता रोके तथा कांधार की रक्षा करे।
जब खुर्रम खानखाना को साथ लेकर दक्षिण से पश्चिमी सूबों में आया तो उसे ज्ञात हुआ कि दिल्ली, आगरा और पंजाब सूबों की सर्वश्रेष्ठ जागीरें शहरयार को दे दी गयी हैं तो खुर्रम मांडी में ही ठहर गया और बादशाह को संदेश भिजवाया कि वह वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद कांधार जायेगा।
नूरजहाँ यही चाहती थी कि खुर्रम कोई गलती करे। उसने तत्काल मुगल सेनापतियों को संदेश भिजवाया कि वे खुर्रम को वहीं छोड़कर बादशाह की सेवा में कश्मीर चले आयें तथा बादशाह की ओर से खुर्रम को लिखवाया कि अब खुर्रम यहाँ न आये। मालवे, दक्खन और खानदेश के सूबे उसे इनायत किये जाते हैं, वहीं कहीं जाकर रहे।
खुर्रम बादशाह के पत्र पाकर और भी भड़क गया। उसने अपने सेनापति सुंदर ब्राह्मण को आदेश दिया कि आगरा पर धावा करे। खानखाना को खुर्रम के साथ देखकर विक्रमाजीत सुंदर ब्राह्मण अपनी सेना लेकर आगरा पर चढ़ दौड़ा। उसने आगरे के कई नामी अमीरों के घर लूट लिये और बहुत सा धन लाकर खुर्रम को अर्पित किया। बादशाह यह समाचार पाते ही आगरा की ओर रवाना हुआ।
खानखाना और उसका पुत्र दाराबखाँ भी खुर्रम के साथ थे। उन्हें भी बादशाह की सेवा में हाजिर होने के आदेश दिये गये किंतु नियति खानखाना के सामने आकर खड़ी हो गयी। एक ओर बादशाह जहाँगीर था जिसके हजार अहसान खानखाना पर थे तो दूसरी ओर शहजादा खुर्रम जो खानखाना के मरहूम बेटे शाहनवाजखाँ की बेटी का पति था। खानखाना दुविधा में फंस गया। वह कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में न रहा।
बेटी जाना के विधवा हो जाने के बाद पौत्री ही अब उसके स्नेह का केंद्र थी किंतु जहाँगीर उस यतीम पौत्री के सुख को भी छीन लेना चाहता था। सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़कर खानखाना ने खुर्रम के साथ ही रहना ठीक समझा।
इसी बीच नूरजहाँ के इशारे पर शहरयार ने जहाँगीर से निवेदन किया कि जब खुर्रम कांधार के मोर्चे पर जाने को तैयार नहीं है तो मुझे भेजा जाये। जहाँगीर ने शहरयार को कांधार जाने की अनुमति दे दी। जब कुछ दिनों बाद जहाँगीर को सूचना मिली कि शहरयार हार गया और शाह ईरान ने कांधार पर अधिकार कर लिया तो बादशाह बुरी तरह तिलमिला गया। वह किसी न किसी पर अपना क्रोध उतारने का अवसर ढूंढने लगा। शीघ्र ही उसे यह अवसर प्राप्त हो गया।
जब जहाँगीर ने देखा कि अन्य सेनापति तो खुर्रम को छोड़कर जहाँगीर की सेवा में उपस्थित हो गये हैं किंतु खानखाना तथा उसके बेटे-पोते खुर्रम के ही साथ हैं तो वह खानखाना पर बड़ा कुपित हुआ। उसने खानखाना को लिखा कि तेरा तो पूरा शरीर ही नमक हरामी से बना हुआ है। सत्तर वर्ष की उम्र में तूने बादशाह से विद्रोह करके अपना मुँह काला किया तो दूसरों को क्या दोष दूँ? तेरे बाप ने भी अपनी अंतिम अवस्था में मेरे बाप से विद्रोह किया था। तू भी अपने बाप का अनुगामी होकर हमेशा के लिये कलंकित हुआ। भेड़िये का बच्चा आदमियों में बड़ा होकर भी अंत में भेड़िया ही बनता है।’
खानखाना समझ गया कि भाग्य रथ का पहिया उल्टा घूम चुका है। उस आयु में बादशाही कोप को झेल पाना खानखाना के बूते के बाहर की बात थी।