ब्रिटिश नौकरशाही के गर्भ से कांग्रेस का जन्म
कांग्रेस का जन्म भारतीय जनमानस के चिंतन का परिणाम नहीं था। कांग्रेस का जन्म ब्रिटिश नौकरशाही के गर्भ से हुआ था। इसलिए यह संस्थान अपने जन्म से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकी।
ए. ओ. ह्यूम और कांग्रेस की स्थापना
भारत का शासन वायसराय की काउंसिल द्वारा लगभग पूर्णतः निरंकुश रूप से चलाया जाता था। ई.1858 में ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत की सत्ता ग्रहण करने के बाद ब्रिटिश सांसदों द्वारा भारत में संवैधानिक व्यवस्था लागू करने की मांग होने लगी। इसलिए ई.1861 में ब्रिटिश संसद ने इल्बर्ट बिल के माध्यम से भारत में अनेक विधिक सुधार किए।
इसके बाद पूरे भारत में एक ऐसी संस्था की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जो देश की समस्याओं को एक साझा मंच दे सके और ब्रिटिश शासन इस संस्था से बात करके इन समस्याओं का समाधान कर सके ताकि जनता में बढ़ते हुए असंतोष को रोका जा सके।
उन्हीं दिनों भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारी सर एलन ओक्टावियन ह्यूम ने कुछ गुप्त सरकारी रिपोर्टें देखीं जिनसे उसे आभास हुआ कि भारतवासियों का बढ़ता हुआ असन्तोष किसी भी समय राष्ट्रीय विद्रोह का रूप धारण कर सकता है जिसका स्वरूप 1857 के विद्रोह से भी अधिक भयानक हो सकता है। अतः ए. ओ. ह्यूम ने सरकार के सहयोग से एक ऐसी राजनीतिक संस्था स्थापित करने की योजना बनाई जो सरकार के समक्ष भारत की राजनीतिक समस्याओं को प्रस्तुत कर सके तथा सरकार उससे विचार विमर्श करके जनता की समस्याओं को सुलझा सके। इस प्रकार जनता में पनप रहे असंतोष को ठण्डा किया जा सके।
ए. ओ. ह्यूम का जन्म 6 जून 1829 को इंग्लैण्ड में हुआ था। उसका पिता ब्रिटिश सांसद था। ह्यूम ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हेलबरी कॉलेज में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी तथा यूनिवर्सिटी कॉलेज हॉस्पीटल से चिकित्सा विज्ञान की उपाधि प्राप्त करने के बाद ई.1849 से वह भारत में काम कर रहा था।
ई.1857 की क्रांति के समय वह इटावा का कलक्टर था किंतु कलक्टर होते हुए भी उसे इटावा से भागकर 6 माह के लिये आगरा के किले में शरण लेनी पड़ी थी। उसके बाद वह विभिन्न पदों पर काम करता हुआ ई.1870 में भारत सरकार में सचिव बन गया तथा ई.1879 में सेवानिवृत्त होकर जनसेवा में जुट गया। ई.1885 में ह्यूम और उसके मित्रों ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन को एक राजनीतिक संस्था गठिन करने के विषय में सुझाव दिया।
लॉर्ड डफरिन ने इस सुझाव पर सहमति जताते हुए कहा- ‘भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो इंग्लैण्ड के विरोधी दल की भाँति यहाँ भी कार्य कर सके और सरकार को यह बता सके कि शासन में क्या त्रुटियाँ हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है!’
ह्यूम की इच्छा थी कि बम्बई के गवर्नर को इसका अध्यक्ष बनाया जाये परन्तु लॉर्ड डफरिन ने कहा- ‘गवर्नर को ऐसी संस्थाओं की अध्यक्षता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उसकी उपस्थिति में लोग अपने विचार स्वतन्त्रता पूर्वक प्रकट नहीं कर सकेंगे।’ इसके बाद ह्यूम इंग्लैण्ड गया और वहाँ उसने लॉर्ड रिपन, लॉर्ड डलहौजी तथा लॉर्ड ब्राइस आदि प्रख्यात ब्रिटिश राजनीतिज्ञों से इस संस्था के गठन के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया।
इंग्लैण्ड से भारत लौटकर ह्यूम ने भारत में पहले से ही चल रही एक संस्था नेशनल यूनियन का नाम बदल कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रखा तथा मई 1885 में भारतीय नेताओं के नाम एक परिपत्र जारी किया जिसके माध्यम से उसने दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में देश के समस्त भागों के प्रतिनिधियों की एक सभा पूना में बुलाई। उसने इस सभा के दो उद्देश्य बताये-
(1) राष्ट्र की प्रगति के कार्य में लगे लोगों का एक-दूसरे से परिचय।
(2) इस वर्ष में किये जाने वाले कार्यों की चर्चा और निर्णय।
पूना में प्लेग फैल जाने का कारण कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन पूना की बजाय बम्बई में किया गया। 28 दिसम्बर 1885 को बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज भवन में हुए इस अधिवेशन की अध्यक्षता उमेशचन्द्र बनर्जी ने की। इसमें देश के विभिन्न भागों से आये 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
इन प्रतिनिधियों में बैरिस्टर, सॉलिसिटर, वकील, व्यापारी, जमींदार, साहूकार, डॉक्टर, समाचार पत्रों के सम्पादक और मालिक, निजी कॉलेजों के प्रिंसिपल और प्रोफेसर, स्कूलों के प्रधानाध्यापक, धार्मिक गुरु और सुधारक आदि विभिन्न प्रकार के लोग थे। इनमें दादाभाई नौरोजी, फीरोजशाह मेहता, वी. राघवचार्य, एस. सुब्रह्मण्यम्, दिनेश वाचा, काशीनाथ तेलंग आदि नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता प्रमुख थे।
यह सम्मेलन सफल रहा और राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक संस्था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। अधिवेशन की समाप्ति पर ह्यूम के आग्रह पर महारानी विक्टोरिया की जय के नारे लगाये गये।
ह्यूम ने सदस्यों का आह्वान इन शब्दों में किया- ‘हम सभी तीन बार ही नहीं, तीन का तीन गुना और यदि हो सके तो नौ गुना अर्थात् 27 बार उस महान विभूति की जय बोलें जिसके जूतों के फीते खोलने योग्य भी मैं नहीं हूँ, जिसके लिये आप सब प्रिय हैं और जो आप सबको अपने बच्चों के समान समझती हैं। सब मिलकर बोलिए महामहिम महारानी विक्टोरिया की जय……..।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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