बाबर के सेनापति मीरबाकी के मन में हसरत थी कि वह हिन्दुस्तान में ऐसा कुछ करे जिससे सदियों तक उसका नाम इतिहास में याद रखा जाये। उसने अपने आदमियों से सलाह मशवरा किया कि ऐसा क्या किया जाये? कुछ लोगों ने सलाह दी कि जिस तरह चंगेजखाँ और तैमूरलंग ने खून की नदियाँ बहाकर इतिहास में अपनी जगह बनाई, उसी प्रकार मीरबाकी को हिन्दुस्तान में चंगेजखाँ और तैमूरलंग से भी अधिक खून की नदियाँ बहा देनी चाहिये। मीरबाकी को यह सुझाव अच्छा तो लगा किंतु इस काम के लिये विशाल सैन्य शक्ति की आवश्यकता थी और वह सैन्य शक्ति बाबर से मिल सकती थी। यदि बाबर से सेना लेकर वह काफिरों को मारता तो उसका श्रेय बाबर के नाम ही लिखा जाता। इसलिये मीरबाकी ने इस प्रस्ताव को छोड़ दिया।
मीरबाकी के आदमियों में एक बूढ़ा और अनुभवी अमीर था। उसने मध्य ऐशिया में कई सैन्य अभियान किये थे। उसने मीरबाकी को सलाह दी कि यदि हिन्दुस्थान में सबसे बड़े कुफ्र को तोड़ा जाये तो संभवतः इतिहास में उसे सदियों तक याद रखा जायेगा। मीरबाकी को यह सलाह जंच गयी। उसने पता लगवाया कि हिन्दुस्थान में सबसे बड़ा धार्मिक स्थल कौनसा है। उसके आदमियों ने पता लगाया कि हिन्दू लोग अयोध्या के राजा रामचंद्र को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं। अयोध्या में जिस स्थान पर उसका जन्म हुआ था वहाँ बड़ा विशाल मंदिर बना हुआ है जिसमें रामचंद्र के बुत की पूजा होती है। यूं तो हिन्दुस्थान में एक से एक बड़े मंदिर हैं किंतु भगवान का जन्मस्थल होने के कारण यह हिन्दुस्थान का सबसे आला दर्जे का मंदिर माना जाता है।
मीरबाकी बाबर से आज्ञा लेकर कुफ्र मिटाने के लिये अयोध्या की ओर चला। जब भाटी नरेश महताब सिंह तथा हँसवर नरेश रणविजयसिंह को मीरबाकी के इरादों का पता चला तो वे भी मीरबाकी का मार्ग रोकने के लिये उससे पहिले अयोध्या पहुँच गये। उनका नेतृत्व हँसवर के राजगुरु देवीदान पांडे ने किया। सबसे पहले राजगुरु ने ही अपने आप को देवचरणों में अर्पित किया और वह तलवार हाथ में लेकर मीरबाकी के सैनिकों पर ऐसे टूट पड़ा जैसे सिंह भेड़ों के झुण्ड पर टूट पड़ता है। मीरबाकी इस ब्राह्मण की तलवार को देखकर थर्रा गया। मीरबाकी का साहस न हुआ कि वह तलवार हाथ में लेकर सम्मुख युद्ध के लिये मैदान में आये। उसने छिपकर देवीदान पांडे को गोली मारी। तब तक देवीदान मीरबाकी के सात सौ सैनिकों को यमलोक पहुँचा चुका था।[1]
राजगुरु का बलिदान देखकर महाराजा महताबसिंह और महाराजा रणविजयसिंह की आँखों में खून उतर आया। वे सिंह गर्जन करते हुए म्लेच्छ सेना को घास की तरह काटने लगे। अब तलवारों और बंदूकों से काम चलता न देखकर मीरबाकी ने तोपों का सहारा लिया। एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दू सैनिक अपने आराध्य देव की जन्मभूमि के लिये बलिदान हो गये।[2]
मीरबाकी ने हिन्दूसेना से निबट कर तोपों का मुँह श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की ओर कर दिया। कुछ ही दिनों में मंदिर नेस्तनाबूद हो गया। मंदिर के मलबे से मीरबाकी ने अपने सैनिकों से उसी स्थान पर विशाल गुम्बदाकार मस्जिद का निर्माण करवाया और उसका नाम रखा बाबरी मस्जिद। मीरबाकी ने अपने आप को इतिहास में अमर कर देने के उद्देश्य से उस मस्जिद के सामने बहुत से शिलालेख लगवाये जो सैंकड़ों साल तक मीरबाकी के खूनी कारनामों की कहानी कहते रहे और हिन्दू इन शिलालेखों को पढ़-पढ़ कर आठ-आठ आँसू बहाते रहे।[3]
मीरबाकी और बाबर तो कुछ सालों बाद इस दुनिया से चले गये किंतु हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विष का इतना विशाल वृक्ष लगा गये जिसकी हवा के गर्म झौंके सैंकड़ों साल से आज तक हिन्दुओं को झुलसा रहे हैं। पूरे चार सौ सालों से सैंकड़ों हिन्दू नरेश और लाखों हिन्दू वीर अपने आराध्य की जन्मभूमि को फिर से प्राप्त करने के लिये प्राणों की आहुतियाँ दे रहे हैं। इन युद्धों में मीरबाकी के बहुत से शिलालेख नष्ट हो गये किंतु इतिहास के काले पन्नों में मीरबाकी का नाम आज तक अंकित है।
[1] तुजुक बाबरी में इस संख्या का उल्लेख किया गया है।
[2] अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम ने लखनऊ गजट में यही संख्या दी है।
[3] ऐसा एक शिलालेख आज भी मौजूद है।